सोमवार, 12 नवंबर 2012

शर्म - व्यवहार

मुझे लगता है शर्म एक समाज सापेक्ष व्यवहार है | यदि आप अकेले में हैं या अपने समाज में जहाँ की वह सहज परंपरा है , तो शर्म की कोई ज़रुरत नहीं है | पर अन्यथा, यदि आपको कोई अस्वाभाविक नज़र से घूर रहा है तो शर्म आना कोई शर्म की बात नहीं [ हाँ , यह पाश्चाताप के अर्थों में भी तो प्रयुक्त होता है ] ,  बल्कि स्वाभाविक है | भूल चुक क्षमा , यह केवल स्त्री के ही लिए पुरुषों पर भी लागू होता है | किसी अपरिचित या मेहमान के आने पर हम नेकर बनियाइन पहने कहाँ निकलते हैं , जब कि वहाँ तो नग्नता भी नहीं है ? इसे मूढ़ व्यक्ति का बयान समझें , क्योंकि यह विद्वानों का विषय है |


नरेंद्र मोदी को शर्म नहीं आई , यह शर्म की बात है या नहीं ?

समझ में नहीं आता स्त्री अपने शरीर के प्रति क्यों इतनी उत्सुक है , चाहे वह ब्यूटी पार्लर में हो या बाज़ार में ? पुरुष तो इतना सतर्क नहीं रहता , और शायद इसीलिये वह ' पुरुष ' है | तो स्त्री दिखाए न वह सब जो वह दिखाना चाहती है , कौन देखता है उन्हें ? " और भी 'बात ' है औरत में उसकी देह सिवा "| और हम उसे adore करते एडोरते हैं |

जहाँ शर्म नहीं आनी चाहिए वहाँ तो शर्म न आये औरत को ! हमारी ' शर्मिष्ठा ' , हयादार औरतें तो भरी बाज़ार में छाती खोलकर बच्चे को दे देती हैं | खुली देह वाली स्त्रियाँ स्तनपान नहीं करातीं | किसके लिए बचाती , बनाती हैं वे फिगर अपनी ? यह तो शर्म की बात है | तथापि कुछ भी करने का अधिकार औरत का अपना है |

शरीर पर शर्म तब भी नहीं करना चाहिए यदि उसमे कोई डिफेक्ट , अन्धता -अपंगता - विकलांगता या कुरूपता भी हो | भले उसका रंग काला या गोरा हो , सफ़ेद दाग हों | नैन नक्श अच्छे न हों , उसमे स्त्री पुरुष या जनखे की योनि लगी हो | और जो भी होगा उसका शरीर , जैसा भी होगा वह हर हाल में दिखेगा तो है ही | दिखाएँ या न दिखाएँ |

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