गुरुवार, 15 अगस्त 2019

बीरबल का न्याय

मुझे तो बस चोर की दाढ़ी में तिनका याद आता है । यह एक कहावत बन चुका है । इस युक्ति से बीरबल ने एक चोर की शिनाख्त की थी । तब वह जज भी थे ,वकील भी थे । पीड़ित को उनके पास जाकर केवल यह बताना था कि उसका सामान चोरी गया । आगे की ज़िम्मेदारी बीरबल जी की थी । और उन्होंने उसे निभाया, जिसे दुनिया जानती है ।
न्याय व्यवस्था ऐसी ही होनी चाहिए । अपराध हुआ, न्याय विभाग सूचित हुआ । फिर उसका काम है अपराधी को पकड़ना , उसे सज़ा देना । उसके अधीन पुलिस, CID, खोजी तंत्र और सज़ा का अधिकार, और सबसे बड़ी बात अपराध नियंत्रण और न्याय की पूरी जिम्मेदारी होनी चाहिए । सरकार से अलग ।
अभी तो क्या है ? सब कुछ पका पकाया, सुबूत, गवाह, अपराधी की खोज, सब पैक करके माननीय न्यायमूर्ति जी के कक्ष में प्रस्तुत करो, तब उन्हें जब फुर्सत मिली तो अभियोजन पक्ष को भी तिखाड़ डाँट डपट कर कोई निर्णय लिख देंगे । नहीं ! पुलिस, जेल, न्याय प्रशासन इनके अधीन होना चाहिए । इन्हें जासूसी करने के लिए, गवाहों के घर जाकर गुप्त तथ्य लेने के लिए बाहर भी निकलना चाहिए, केस के पूरा होने/ करने की ज़िम्मेदारी न्यायाधिकारी की होनी चाहिए ।
(उग्रनाथ नागरिक)

रविवार, 11 अगस्त 2019

जन्मभूमि विद्यालय

जन्मभूमि कन्या विद्यालय
कहते हैं जन्मभूमि है, चलिए मान लिया । तो मस्जिद न बने, चलिए मान लिया । लेकिन तब मंदिर भी न बने, यह भारत के विकास की माँग है । सारी ज़मीन आपकी है तो क्या सब पर मंदिर ही बनेगा ? जी नहीं ! उस जमीन पर विद्यालय बनाइये । कन्या विद्यालय की माँग मान लीजिये । और राम की सच्ची आराधना में लगाइए ।
विद्यालय का नाम अवश्य "जन्मभूमि कन्या विद्यालय" होना चाहिए । (राम शब्द अंतर्निहित, अव्यक्त और सर्वज्ञात है) हो । कन्याओं के लिए वह सुरक्षित, मुक्त, उपयुक्त स्थान है । रामशिलायें कटी बनी रखी हैं । और वही पैसे इसके निर्माण में इस्तेमाल होंगे जो मंदिर के लिये देशवासियों ने प्रदान किये हैं ।👍
अस्तित्व सबको सद्बुद्धि दे !
(मन दुर्वासा )

शनिवार, 10 अगस्त 2019

विरुद्ध

मैंने प्रेम खूब किया, तो प्रेम और प्रेमपात्र नारी जाति का विरोधी हो गया । मैंने पूजा बहुत की, तो पूजा पाठ, ईश्वर के विरुद्ध ही गया । 😢

इस्लाम का प्रसार

आख़िर इस्लाम में ऐसा आकर्षक है ही क्या जो कोई सिर्फ बुलाने से इसे स्वीकार कर लेगा ? एक कबीलाई ईश्वर, किताब, संदेशक के प्रति पूर्ण अन्धविशवास के साथ समर्पण ? जब मूल ही सत्यानाशी है तो आगे क्या बहस ? अब इतना तो मूर्ख समझें नहीं इस्लाम वाले इस्लाम से बची दुनिया को !☺️ और अब एक तुर्रा यह निकला है कि बस हम सुन्नी ही मुसलमान हैं । बाकी शिया,  ताबिश, अशफ़ाक़, आतंकी तो (इसमें यौन पता नहीं कहाँ से घुसा दिया गया फ्रायड की कृपा से) यौन कुंठित हैं । तो हो गया न इस्लाम पाक और साफ ? किसकी आलोचना करेंगे ?
लेकिन तब भी कुछ बातें इनकी अस्पष्ट और अनुत्तरित हैं । कितने ही बड़े विज्ञान शिक्षित हों (कलाम साहब भी शंकराचार्य के चरण में बैठे), तमाम मूर्धन्य विज्ञान वेत्ताओं (Armed chaired हॉकिन्स समेत) की बात मानने को यह कदापि तैयार नहीं, इनके दिमाग में ही नहीं घुसता childhood conditioning की वजह से, कि कोई ईश्वर कहीं नहीं है । केवल nature है जिसका exploration विज्ञान के जिम्मे है, ख्याली खिलंदड़ जन इसके लिए भरीसेमंद नहीं ।
दूसरा यह कि अपनी अज्ञानता और अंधविश्वासों को बचाने, रक्षा करने में इतने जी जान से जुट क्यों जाते हैं ? हम तो जिस किसी भी धर्म सम्प्रदाय के हैं, उसकी तो खटिया खड़ी कर देते हैं, खूब आलोचना करते हैं और विद्रोह भी ! इनके यहाँ क्यों नहीं होता, न किसी को करने दिया जाता है ? यहाँ तो धार्मिक तरक्की का परिणाम यह होता है कि कोई वहाबी खित्ता बन जाता है, कोई जैशे मोहम्मद, और तमाम आतंकी संगठन इस्लाम के नाम पर इस्लाम के नक्शेकदम पर, दावे के साथ । नतीजा , जो अच्छे भले नैतिक रूप से मुस्लिम बचते हैं उनकी शामत आ जाती है, और वह दुबक जाते हैं । वह भी मारे डर के कहने लगते हैं जी जी हाँ, इस्लाम बड़ा ही प्रेमी, भाईचारा वाला जीव है, तलवार का बली नहीं 😢! ऐसे ही नहीं इतनी बड़ी एरिया पर इतने सदी से राजगद्दी नशीन है ? क्या भला तलवारी ताक़त पर यह सम्भव है ? सही है, तस्लीमा ,रुश्दी तो इसलिए भागे भागे फिरते हैं कि कोई उन्हें गले लगाकर चुम्मा न ले ले ☺️! अन्यथा उन्हें कोई डर नहीं ।
औऱ यह इनकी समझ तो तब है जब कि देख रहे हैं कि पूरी दुनिया इन्हें हिकारत की नज़र देखती है। अपनी लोकतांत्रिक मानववादी सेकुलर चरित्र के कारण इन्हें सब, हर ज़मीन आसमान वाले बर्दाश्त कर रहे हैं तो इसलिए की वे सभ्य हैं और तलवार में यकीन नहीं रखते । लेकिन सच यह है कि इनकी कोई इज़्ज़त नहीं करता, न कोई इसे महान समझता है ( किसी गांधी की पैदाइश यहाँ नामुमकिन है)। Unacceptance, अग्राह्यता इसलिए भी है क्योंकि यह दार्शनिक और वैज्ञानिक विचार धारा नहीं है । यहाँ असहमति की गुंजाइश नहीं है, जो कि लोकतन्त्र की पहली शर्त है । इनका विश्वास लोकतन्त्र या आधुनिक समाजवादी साम्यवादी व्यवस्था पर नहीं है, निज़ामे मुस्तफ़ा पर है ।
अलबत्ता, तिस पर भी, इनका दावा गलत नहीं कि इस्लाम पूरी दुनिया पर राज करेगा । कारण उन्हें तो पता है ही, दुनिया को भी पता है कि यह धर्म (नीति कर्तव्य) का tentative ख़ाका नहीं, एक मजबूत , सुदृढ़-सशक्त फ़ौज़वादी मजहब है , अपने में सम्पूर्ण राजनीति अपनी समस्त कलाओं में (अंतर्निहित,अकथनीय) प्रवीण,संलग्न और हर तरह से जुटे हैं । बुला लाएंगे (आओ फलाने भाई इन नीच आधुनिक मानव वादियों से मिलो) ! तो भला कैसे जीत पाएँगे इनसे और जीतना ही ही क्यों ? इनके साधारण सदस्य से भी बात करना असम्भव है, धर्मगुरू तो भूल जाइए । संवाद अव्यवहारिक है, अनावश्यक भी । यह किसी की बात न सुन ही नहीं सकते तो मानेंगे कैसे ? सिवा एक permanent, अपरिवर्तनीय directive, दिशा निर्देश के । इनकी भी मजबूरी है, उससे इतर और परे जाना तो दूर, सोचना भी गुनाह है, जिसकी कड़ी सज़ा मुकर्रर है ।😢और मान लेने पर पुरस्कार की लालच तो आप जानते हैं वह बहत्तर वाली ! 😊
अभी अभी, बिल्कुल यहीं एक idea उभरा है । यह क्षमा के योग्य हैं (भले ईसाइयत की तरह "प्रार्थी" नहीं) । तनिक इनकी निष्ठा गौर से देखिये , यह भला किसी को क्या डराएंगे, धमकाएँगे या मारेंगे ? ये तो खुद डरे हुए हैं व्यक्तिगत रूप से । इनके विश्वासों ने खुद इन्हें इतना दबा, डरा, और मार रखा है कि इनकी तार्किक चेतना बिल्कुल समाप्त हो चुकी है, कुछ हैभ तो उसी दायरे में । मुसल्लम ईमान ने इनकी जगह बहुत थोड़ी ही छोड़ी है तो यह क्या करें ? जो बताया गया वह कर रहे हैं । फेसबुक पर भी गुर्रा तो रहे हैं । अभी और यहाँ गरजेंगे । लेकिन इनके बादल में आधुनिक और भावी मानव समाज पर बरसने, उसे शीतल करने के लिए कोई "पानी" नहीं है ।😢

वोटर पार्टी

यह डिमॉक्रेसी, यह चुनाव बड़े लोगों का खेल है । साधारण आदमी चुनाव लड़ ही नहीं सकता तो किस बात की डिमॉक्रेसी ? बन्द होना चाहिए,यह नाटक, यह तमाशा । हम वोटर पार्टी बनाने जा रहे हैं । हम इन्हें चुनाव नहीं लड़ने देंगे । इनका बहिष्कार करेंगे । आगे देखा जायेगा ।

रविवार, 4 अगस्त 2019

धिक्कार पुरस्कार

मैग्सेसे अवार्ड तो ठीक । लेकिन इसका महत्व तब तक चटक नहीं होता जब तक इसके विपरीत कोई धिक्कार पुरस्कार या "मारो ठांय ठांय" पुरस्कार नहीं कायम होता । जो अनैतिक नीति योग के तलुए चाट रहे हैं, उन्हें मिलना चाहिए यह असम्मान ।
आज एक अखबार का सम्पादकीय विपक्ष को दायित्वबोध करा रहा था । इसी बहाने सत्ता की चापलूसी ! उसको तो ज़िम्मेदारी बताने की हिम्मत नहीं है । होगा कोई - - रामजादा !
एक तो यह फैशन चल गया है कि

"क़द तो है पिद्दी भर और फोटो आदमक़द"!

संपादकीय बनाने का यह कौन सा तरीका है ? अच्छा हो कुछ दिन बाद सम्पादकीय के विकल्प में केवल तस्वीरें छापी जायँ । कभी मोदी कभी शाह सावरकर, गुरु गोलवलकर के साथ संपादक की सेल्फी, फोटोशॉप या कोलाज ! अच्छा रहेगा । हिंदी हिन्दू हिंदुस्तान ज़िन्दाबाद (अरे नहीं, अमर रहे !) ☺️😊😢👍👌💐