शनिवार, 20 जुलाई 2013

Rough Notes , 21 July 2013

Roughly , 21 July 2013

* वन्दे ही नहीं / गलत प्रार्थना है / जयहिंद भी !

*  " प्रगतिशील " / चला है साहित्य में / हाइकु में भी !

* होता ही क्या है / हासिल क्या होता है / प्रार्थनाओं से !

* वही जिंदगी  / जी करके दिखाओ  / गरीबों वाली ।

* जियो तो जानें / गरीबी की जिंदगी / तुमको मानें ।

* चुप हो जाओ / बड़ा मज़ा आता है / इस स्थिति में ।

* देखेंगे तो हम अख़बारों में छपे अभिनेत्री कैटरीना कैफ की ही फोटुयें । चाहे वह सूफी संत सलीम चिश्ती की मज़ार पर जियारत करती हुयी हों, चाहे इनकी उनकी फिल्मो में अर्द्धनग्न नाचती हुयी ।

* क्या योगा (योग ) द्वारा विदेशों में जमा काला धन स्वदेश नहीं लाया जा सकता ?

* प्यार व्यार कुछ नहीं होता , सब मन के खुराफात हैं । या तो कहिये , बलात्कार भी प्यार है !

* आम आम / दशहरी आम एक साधारण आम किस्म का आम हो गया है । चौसा खाकर देखिये , क्या अलग किस्म का स्वाद है !

* हिन्दू होना भी राजनीति है , और राजनीति तो करनी पड़ती है न भाई साहेब !

* कितना अच्छा लगता है जब हिन्दू साधु संत विचारक कहते - बताते हैं - ईश्वर अल्ला गॉड सब एक हैं । मन व्योम हो जाता है । {भला हो मौलवियों पादरियों का जो ऐसा कहने की गलती कभी नहीं करते, और कहते भी हैं तो राजनीति के तहत }
इतना ही होता तो कोई विवाद न होता लेकिन अवसर पर वही यह भी कहते हैं कि भारत हिन्दू राष्ट्र है, यहाँ सेक्युलर नहीं हिन्दू राज्य होना चाहिए {यहाँ तक कि NM = PM }, तब शोक होता है, क्रोध उपजता है । क्यों भाई अब अल्लाह के शासन में क्या परेशानी होने लगी ? ? 

* मेरे निकष पर आप सेक्युलर नहीं हैं , आपकी तराजू पर मैं सांप्रदायिक हूँ ।

* निस्संदेह राजनीति लोकप्रियता का राजा जनक-दरबार है । लेकिन क्या बहुत ज़रूरी है सीता का हरण या वरण करने के लिए सारी नैतिकता के धनुष तोड़ डालना ?

* रहता ही है थोडा टेन्सन तो ,
   चाहे कोई कारण हो, मत हो ।

Roughly yours' , ugranath



गुरुवार, 18 जुलाई 2013

नागरिक लेखन 14 - 18 जुलाई , 2013

* इसमें कोई संदेह नहीं कि तुलसीदास जी की भक्तिप्रियता और प्रोत्साहन से भारत में वैज्ञानिक सोच का नितांत अभाव पैदा हुआ जिससे देश का बड़ा नुकसान हुआ |

* vs यादव जी, निश्चय ही आपका साहस सराहनीय है जो आपने अपने वोट डालने की बात सपष्ट की | ज़ाहिर है आप साहसी तो हैं | मेरे विचार से आपको ही नहीं पूरे भारत को बस तीन छलांग लगाने हैं | तो लगा दीजिये | एक कूद में जातिवाद के बंधन से निकलिए, दूसरे में धर्म की जकडनों  से बाहर आइये | और फिर तीसरी छलांग में ईश्वर के घनचक्कर से निकल आइये | शुभकामनाओं सहित |

---------------------------------------------------------------------------------------

Byomkesh Mishra उग्रदेव, कल आपके एक कथन पे मन कुछ देर टिका रहा, "अज्ञान पर अनास्था ही नास्तिकता है" (आपकी पुस्तक "सुनो भारत" से उद्धृत) । फिर लगा मेरी "आस्तिकता" के स्वरुप की अविरत खोज, जो कि "ज्ञान पर अडिग आस्था" के इर्द -गिर्द ही सदा रही, की भी परिभाषा, या कहें प्रमेय का उपप्रमेय भी तो यही होगा, यही तो है । कदाचित आपकी "नास्तिकता" कहीं मेरी "आस्तिकता" की सहोदर ज्येष्ठा तो नहीं ? या एक ही है ?
ugranath  हाँ एक ही है , बिल्कुल एक सी | छोटो बड़ी, ऊँची नीची का मूल्यांकन करना होगा, तो कहूँगा "आप की आस्तिकता "  "मेरी नास्तिकता " की ज्येष्ठा है | वह यूँ कि पहले छोटी सी उगी "अज्ञान पर अनास्था ", फिर आया थोडा सा ज्ञान, और फिर जमी  "ज्ञान पर डगमग आस्था", और तब आपकी  "ज्ञान पर अडिग आस्था" | तब तो ऊँच नीच का भाव भी तिरोहित हो जाता है | अतः , आपकी  "ज्ञान पर अडिग आस्था" ही मेरी  "अज्ञान पर अडिग, अविचलित, Un abashed आस्था" है, और मेरी "अज्ञान पर दृढ़ आस्था" ही आपकी "ज्ञान पर अडिग आस्था" है |  और संक्षेप करें तो आपकी आस्तिकता मेरी नास्तिकता तथा मेरी नास्तिकता  आपकी आस्तिकता है | मैं आस्तिक हूँ और आप हैं नास्तिक | इस प्रकार सही नास्तिकता और सच्ची आस्तिकता में कोई भेद नहीं रह जाता | वस्तुस्थिति भी यही है | कोफ़्त होती है जब नव - नास्तिक और सतही आस्तिक नासमझी में दोनों में भेद करके विवाद खड़ा करते हैं | अलबत्ता प्राथमिकता तय करने की बात है | अंध आस्तिकों के प्राथमिक पाठशाला के लिए मैं प्रारंभिक पाठ के रूप में ' नास्तिकता ' ही Curriculum में रखता हूँ | आप शायद कहना चाहें कि बस उनकी आस्तिकता को दुरुस्त कर दे | नहीं, अनुभव विपरीत हैं | वे हमें निगल जायेंगे जैसे कबीर रैदास को तुलसी | इसलिए मैं आध्यात्मिकता की कोई बात ही नहीं करता | वह नितांत निजी संप्राप्ति / Attainment है | सच्ची आध्यात्मिकता का मार्ग नास्तिकता   से होकर गुज़रता है | निश्चय ही वह आप की आस्तिकता से निचले पायदान पर है | धन्यवाद कि आपने मेरी बात पर मन टिकाया !
* सदैव स्वागत होगा | मैं स्वयं एक सतत उथल पुथल में रहता हूँ | नास्तिकता बड़ी जिम्मेदारियां देता है , कर्तव्य भाव जगाता है मनुष्यता के प्रति | चैन से बैठने नहीं देता | आप बोलेंगे तो सुख मिलेगा | आपने उग्रदेव नाम तो दिया लेकिन मैं देवता नहीं हूँ o.

-------------------------------------------------------------------------------------------

* देखिये Sandeep Verma जी फिर से पढ़िये और देखिये शम्भुनाथ जी क्या कह रहे है ? और वर्षों से मैं क्या चिल्ला रहा हूँ ? है कोई अन्तर दोनों बातों में ? बस यह है की उनका लक्ष्य मायावती को कुर्सी दिलाना है , और मेरा उद्देश्य कोई और राष्ट्रीय हित है , जिसे आप अभी नहीं मानते | कोई बात नहीं अभी शंभू जी के प्रस्ताव से इत्तेफाक कीजिये | उसके बाद तो हमारा काम भी पूरा हो जायगा |
Shambhunath Shukla
मुस्लिमों, ब्राह्मणों तथा अन्य सेकुलर लोगों के हित में यही है कि वे मायावती का समर्थन करें। अकेले मायावती ही नरेंद्र मोदी के हिंदू राष्ट्रवादी होने के दंभ को चूर-चूर कर सकती हैं। पूरे देश में अगर दलितों के साथ मुस्लिम और ब्राह्मण जुड़ गया तो फिर कोई ताकत मोदी को दिल्ली की गद्दी के आसपास भी नहीं फटकने देगी।
Sandeep Verma ब्राम्हण +दलित+मुस्लिम ...यह था कांग्रेस का चालीस वर्षो तक राज का गुप्त कारण .समीकरण तो वही है बस ड्राइवर बदला है .और ड्राइवर बदलने का तो हक भी बनता है और दस्तूर भी है . आज समय दलित नेत्रत्व में ब्राम्हण और मुस्लिमो को दिल्ली पर राज करने के सपने का है .

* ugra nath  यह बात मैं वर्षों से कह रहा हूँ सवर्णों से कि अब भारत पर शासन का श्रेय और नम्बर दलितों [ Read Mayavati here ] है | अतः केवल दलित उम्मीदवारों को ही वोट दें | अलबत्ता मेरी दृष्टि यह भी अतिरिक्त थी कि उनका शासन इस्लामी आतंकवाद का भी सफाया करेगा | [Ref - shambhu nath shukla ]
* Sandeep Verma Ugra Nath इस कमेन्ट की आत्मा तो आपके सानिंध्य से आयी है . इसलिए कोई धन्यवाद नहीं . और अब कहा कहा आपका नाम लेते फिरू , इसलिए कापीराईट पर भी कोई दावा मंजूर नहीं होगा .
* Sorry संदीप जी, मैं नहीं समझता था की हर बात की तरह इस बात को भी आप उलटे ढ़ंग से लेंगे | मैं अपनी बात वापस लेता हूँ | मुझे नहीं चाहिए कोई क्रेडिट कोई धन्यवाद | कोपीराईट का दावा तो मैंने अपनी पर्सनल Personal writings का भी अपने पास नहीं रखा है, यहाँ तक कि कविताओं का भी | तो फिर सार्वजानिक विचारों का क्या रखूँगा |
Sandeep Verma अरे ,आप तो गलत समझ गये . यह तो अपना धन्यवाद कहने का तरीका था . मै उल्टा नहीं ले रहा , मै उल्टा बोल रहा हूँ . मस्ती में . और अगर अपना कमेन्ट आपने डिलीट नहीं किया ...फेसबुक शब्दों को वापस लेने का अधिकार जो देता है ....तो मै भी अपना कमेन्ट वापस ले लूँगा .

Ugranath हाँ , इन्कार नहीं करूँगा , ख़ुशी अवश्य होती है , और हुई | जब किसी बड़े, पढ़े लिखे, स्थापित समझदार व्यक्ति की राय मेरी अभिव्यक्ति से टैली कर जाती है |
--------------------------------------------------------------------------

Shriniwas Rai Shankar मनुष्य की अल्पज्ञता ...उसका भय और चिर सुख की खोज ही ईश्वर के जन्म का वायस बनी है.
Anshuman Pathak श्रीनिवास भाई ! जो जन्म ले वो ईश्वर क्यूँकर हो सकता है ?"आपका "ईश्वर जन्म ले सकता है, हमारा नहीं
Shriniwas Rai Shankar जो ईश्वर को मानते हैं..उनके लिए ही है..जो मानते ही नहीं...उनके लिए क्या प्रयोजन .

वन्दिता जी का प्रश्न तो भावात्मक था इसलिए आसानी से ह्रदय को उघाड़ गया | अब निवास जी [ जिनका निकनेम जहाँ तक मुझे स्मरण हो रहा है ' अद्वैत ' है ] सरीखे शिक्षक एक विद्यार्थी से प्रश्न करेंगे, तो उसका उत्तर वह क्या दे सकता है सिवा सहमति जताने के | तथापि सम्पूर्ण आदर के साथ [ मैं इनका कुछ कारणों से बड़ा आदर करता हूँ ] कहना चाहता हूँ कि अब चेला भी कुछ कुछ शक्कर डालने लगा है | :)  
तो, " मनुष्य की अल्पज्ञता ...उसका भय और चिर सुख की खोज ही ईश्वर के जन्म का वायस बनी है." से मैं सहमत हूँ, बल्कि इसमें जोड़ना चाहता हूँ कि मनुष्य की अल्पज्ञता अभी समाप्त नहीं हुई है, इसलिए ईश्वर अभी है | और यह अल्पज्ञता कभी नहीं होगी, इसलिए ईश्वर की आवश्यकता इसे सदैव रहेगी | [इस लाईन पर सम्प्रति मै काम कर रहा हूँ] लेकिन अंतर यह होगा, नहीं है तो होना चाहिए कि मनुष्य के ज्ञान में अभिवृद्धि के साथ ही साथ मनुष्य के ईश्वर को भी तब्दील होकर  Rationalise होते जाना चाहिए | अथवा कथित ईश्वर तो वही हो, मनुष्य की उसके प्रति भावना और धारणा बदलनी चाहिए | ऐसा नहीं हुआ, नहीं हो रहा है [शायद इसकी नियति यही है ], इसलिए ईश्वर हमारा सहायक होने के बजाय पूरे संसार की समस्या बन रहा है, और हम बुद्धिवादी नास्तिक होने हेतु विवश रहे हैं | जब कि मात्र आस्तिकता तो कोई समस्या नहीं है, सारी बुराई आस्तिक होने में ही नहीं है | यदि उसका इस्तेमाल वैज्ञानिक तरीके से व्यक्ति और व्यष्टि के हितार्थ हो |
आगे, {यद्यपि यह आपका सवाल नहीं है, तथापि नए मित्रों के लिए } दृढ़तापूर्वक कह दूँ [भले कुछ मुझे इस वास्ते अमित्र भी कर दें] कि ईश्वर का अस्तित्व, जैसा उसे धर्म क्षेत्र में जाना माना जाता है, संभव ही नहीं है \ सिद्ध ही नहीं हो सकता वह | तर्क विवेक की ज़रा सी फूंक से धराशायी हो जाता है वह | होता तो क्या मैं न मानता ? मेरी क्या मजाल, क्या हिम्मत जो उसे अस्वीकार करता ? जब कि उसी ने मुझे कथित रूप से बनाया है ? हम उसे नकार सकते हैं, यही पर्याप्त प्रमाण है उसके अनस्तित्व का |
    दूसरे एक सड़क छाप, लंठई वाली वार्ता | अल्लाह का नाम सुना है आपने, और गॉड का ? अच्छा तो जानते हैं आप उन्हें ? लेकिन उन्हें मानते नहीं, उनकी पूजा इबादत नहीं करते | क्योंकि आप हिन्दू हैं और आप को यह सिखाया नहीं गया | वे ईसाई - मुसलमान हैं, इसलिए वे उन्हें मानते हैं, उनकी आराधना करते हैं | वे किसी अन्य, यानी आपके ईश्वर की प्रार्थना नहीं करते | तो यह सब क्या मजाक है ? ईश्वर न हुआ अंधों का हाथी हो गया | तो भाई, न तो हम अंधे हैं, न हमारा कोई हाथी है | स्पष्टतः ईश्वर - अल्लाह - गॉड अपूर्ण मानवीय अवधारणाएं हैं | जबकि इन सबके बारे में अलग अलग कहा जाता है की वह सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माता और संचालक है | दुनिया बनाने वाला वह कोई भी है, उसे खोजने बताने का काम विज्ञान का काम है - इसे उस पर छोड़ा जाय | यथा उसने बताया god particle | तो भी हम उसकी पूजा अर्चना तो नहीं करने लगे ? सचल कल्पनाओं का स्वागत है लेकिन कोई अपने निर्माता को कैसे जान सकता है ? मुझे तो यह भी नहीं पता कि जिस कुर्सी पर मैं बैठा हूँ उसे किसने बनाया ? और जानने की ज़रुरत क्या है ? क्या कर लेंगे हम जानकर ? अब यह तो नहीं हो सकता कि हिन्दू को ईश्वर बनाये, मुसलमान को अल्लाह और ईसाई को गॉड ! भाई इतनी तो अवमानना न कीजिये परमपिता की ! :) इससे कहीं नैतिक है नास्तिक बन जाना |
          एक पूरक संबोधन अंशुमान जी से | जन्म देने का आशय कोई ज़रूरी नहीं अंडज - पिंडज जैसा | विचार के रूप में भी / बल्कि इसी रूप में ही ईश्वर ने जन्म लिया | क्या इस बात पर एक हास्य संभालेंगे ?
" जो जन्म न ले वह हो ही कैसे सकता है ? उसका ईश्वर अनीश्वर होना तो बाद की बात है | " जो जन्म ही नहीं लेता, जिसने जन्म लिया ही नहीं, उसका अस्तित्व ही कैसे हुआ ? जी हाँ, नहीं हुआ | कतई नहीं है उसका अस्तित्व | सोचकर देखिये - सब खामख्याली है | न यह है न वह है - नेति ही नेति है | समुचित जलवायु, संसाधन से जीव पैदा होते/ बनते हैं जैसे डिब्बे में बंद अचार में फंगस, गेहूं में घुन (विज्ञानं का विषय) | ईश्वर के विषय में (विज्ञानं की उपकरणों के बिना) चिंतन समय की बर्बादी के सिवा कुछ नहीं | भावी पीढ़ी को यह बता दिया जाय तो उनका बहुत समय बचेगा | और व्यक्तियों में "उसे" जानने / जान लेने का अहंकार भी पैदा न होगा |
          अंतिम पैरा अद्वैत जी के " जो मानते ही नहीं...उनके लिए क्या प्रयोजन " को समर्पित | यही तो रोना - विडंबना है shankar जी, कि हम ईश्वर को मानते नहीं फिर भी ईश्वर से हमारा प्रयोजन बनता है | इसलिए हम उससे वाबस्ता होते हैं | कारण कि मनुष्य उसे मानते हैं, हमारे आस पास इर्द गिर्द के लोग हमारे दोस्त - साथी - संगती, परिजन - रिश्तेदार उस अयथार्थ काल्पनिक ईश्वर के पीछे जान दिए पड़े है [ कोई कोई तो अपनी जीभ - आँख - कान -नाक भी काटने को तैयार हैं] | उनसे भला कैसे हमारा मतलब न होगा ? कोई व्यक्ति समाज में टापू नहीं हो हो सकता, निर्विकार, सबसे सर्वथा निरपेक्ष | और सिद्धांत की बात - हमारे चिंतन और कर्म में जब ईश्वर नहीं है तो उसके केंद्र में मनुष्य तो है ? उसका सुख दुःख, पीड़ा हास्य, ज्ञान अज्ञान ! सब तो हमारा है | इसीलिए हमारी चिंता अधिक है उनकी अपेक्षा जो किसी ईश्वर के चरणों में निश्चिन्त पड़े हैं | धन्यवाद !        

                 

         
Anshuman Pathak सर कुछ प्रश्न :- १. पसंदीदा कवि २.पसंदीदा काव्य/गद्य विधा ३. पसंदीदा स्वरचित रचना ४. पसंदीदा लेखक ५. पसंदीदा पुस्तक
Vandita जी, बहुत पुरानी दिलीप kumar / मोतीलाल वाली | आपने नहीं देखी होगी | गजब का किरदार character था मोतीलाल का ! दुर्लभ है वह कला और वे लोग | इसीलिए मुझे लगता है तकनीक और साधनों के आधुनिक होने के साथ लोक कला , संगीत , नृत्य आदि टें बोल गए | इसलिए वर्षों हो जाते है हाल में सिनेमा देखे | और घर पर जो TV है उससे लेपटोप जोड़ रखा है | पसंद भी नहीं आते कानफोडू संगीत और असंगत कहानियां | हो सकता है बुढ़भस के चलते मीन मेख निकलने की प्रवृत्ति इसका कारण हो | तब बचपना था - रोता था सिनेमा के दृश्यों पर | बात चली तो बताऊँ कि असफल प्रेम की कथाएं प्रिय लगती थीं | मधुमती, मेला, आर पार, महल फिर अनुराधा, अनुपमा (अद्वितीय बलराज-लीला नायडू), गाइड, हम दोनों, हकीकत, मैं तुलसी - - - , तेरे मेरे सपने ( इसके एक गीत के आधार पर मैंने अपनी बेटी 1971 का नाम भी रजनीगंधा रखा ) | उनके गाने अभी भी गता हूँ | स्वर मेरा अच्छा है | कोई मित्र कहते हैं कविता लिखना छोड़ संगीत सीखे होते तो कुछ पैसे भी जेब में होते | :)
अब तो केवल उच्च कलात्मक या भाववादी e.g. ऐश्वर्या का रेनकोट सरीखी फ़िल्में ही मुझे रोक पाती हैं | अभी की एक लोकप्रिय फिल्म [शायद इश्किया ?] बीच में छोड़ आया | या फिर टोटल मनोरंजन वाली, जासूसी, भूत प्रेतिनी वाली हो |  - -  अधिक बोल गया , क्षमा करेंगी !          

* शुक्रिया सादिक भाई , मैं बहुत दिमागी उथल पुथल में रहता हूँ | इनके विरुद्ध कुछ कह दो तो ये आस्तीनें चढ़ा लेते हैं , इस्लाम के कुछ खिलाफ हो जाए तो वह नाराज़ होने लगते हैं | जबकि अपनी तरफ से मैं पूरी इंसानी मोहब्बत के साथ अपने दिल - दिमाग की सच्ची बातें लिखता हूँ | क्या मैं झूठ बोलना सीखूं ? कोशिश कर तो रहा हूँ |

* वैसे भी love कुछ होता नहीं , हार्मोन्स के क्षणिक उन्माद हैं विज्ञानं के अनुसार | मै आजकल इसके छद्म का भंडाफोड़ करने , इसे हतित्साहित करने में लगा हूँ , जिसके पीछे पीढ़ी पागल है |

सारे खुराफात एक साथ :-
1 - इनके भी दिन बहुरें =
जैसे दलितों के दर्द भुगतने का नाटक करके समृद्ध दलित और पिछड़ों के दिन बहुरे , भगवन करे ऐसे ही कभी बसपा की सेवा करके ब्राह्मणों के दिन भी बहुरें |
2 - मंहगाई, असुरक्षा, अव्यवस्था के मद्दे नज़र तमाम लोग यह कहते तो सुने जाते हैं कि इससे अच्छा तो अंग्रेजों का शासन था | लेकिन इतनी परेशानियों में भी कोई यह नहीं कहता कि इससे भला तो मुगलों / नवाबों का शासन था !
3 - राम ने शम्बूक की हत्या भले की हो | लेकिन आज भी दलित वर्ग में " रामू " या राम से लगने वाले नाम बहुतायत में हैं | हाँ लेकिन नामकरण में हरामी ब्राह्मणों की साज़िश भी तो हो सकती है ? बेचारे दलित / पिछड़े क्या करें ?
4 - इस्लामी देश अंतरराष्ट्रीय स्तर पर Blasphemy Law इस्लाम की इज्ज़त , मान - सम्मान बचने के लिए पारित करवाने में जी - जान से जुटे हैं | आश्चर्य नहीं कि इस्लाम ही विश्व में सबसे बदनाम मज़हब हो गया है !
5 - कहावत है टब के गंदे जल के साथ बच्चे को नहीं फेंका जाता | देख रहे हैं इस्लाम टस से मस नहीं हो रहा है | इसी प्रकार secularism भी भारत में राजनीतिक दलों द्वारा तमाम misappropriations के बावजूद फेंक कर बहा देने वाली नीति नहीं है |  

6 - जब मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा के लिए जानें लेते हो, तब तो बड़ा मज़ा आता है | पर जब इन्ही के चलते [विपरीत धार्मिकों द्वारा ] तुम्हारी / तुम्हारे परिजनों की जानें ली जातीं तब बुरा लगने लगता है ! तब तो मानवाधिकार चिल्लाने लगते हो / मानवता की पुकार करने लगते हो ! यह दोगली बात क्यों ? मारते हो तो मरने के लिए तैयार रहो |

7 - मानववाद यह नहीं कहता कि आदमी ईश्वर हो गया | वह यह चाहता है कि ईश्वर आदमी हो जाए |

8 - सारी कर्मनिष्ठा - कर्तव्य परायणता तो सांप्रदायिक जन छेंके हुए हैं | और हम कहते हैं कि वे सेक्युलर नहीं हो रहे हैं ! हिन्दू कार्मिक अरब मुल्क जाकर खूब पैसे अपने घर भेज रहा है , इसमें उसे कोई एतराज़ नहीं है | मुस्लिम बच्चे मोटर सायकिल / कर मरम्मत जैसे तकनीकी कामों में माहिर हैं और रोज़ी कम रहे हैं , व्यवसाय में भी सफल हैं | कम्युनिस्ट सम्प्रदाय तो नहीं , पर उनके बच्चे भी भविष्य सुधारने अमरीका जा रहे हैं , कोई दिक्कत नहीं है | बस सिद्धांतवादी सेक्युलर बड़ी आरामतलबी के साथ संगठन - संस्था में या प्रोफेसरी में व्यस्त फतवे जारी कर रहे हैं, सबको सेक्युलर बनाने के |

9 - बड़ा टेन्सन है भाइयो ! सब और से लतियाये जा रहे हैं , जिसको देखो वही ! जिनके मुंह में चार दांत भी नहीं हैं वह भी बहस पर बहस किये जा रहा है | सोचता हूँ इश्वर कदापि स्वीकार तो नहीं है तो भी आस्तिकता का नाटक तो किया जा सकता है | " जिंदगी एक नाटक ही तो है " | कम से कम इज्ज़त तो बचे | पाखंडी साधु संत बनकर बड़ों को तो चरणों में गिरा न पाऊँ समोसा खिला कर बेहोश भले न कर पाऊँ, पर उनके संकारिक बच्चे तो पैर छूकर आदर देंगे | और हाँ , इस पर सिद्धात का मुलम्मा भी चढ़ा सकता हूँ , नैतिकता की चासनी में डुबोकर | धर्म व्यक्तिगत मामला है यार , मेरी नास्तिकता मेरे ह्रदय में है - जैनेन्द्र की प्रेमिका की तरह | हा हा हा , बात बन गयी | :) लेकिन यह साली आस्था , कमीनी नास्तिकता मुंह से निकल ही जाती है |

10 - चलो माना कि वेद सत्य हैं | लेकिन क्या यह सत्य नहीं कि उन्ही में लिखा है - नेति नेति , नहीं यह नहीं - यह भी नहीं ?
Aarti Barnwal एक चीज़ जोड़ना है.... नेति नेति का एक अर्थ 'इतना ही नहीं आगे भी' यह भी कहा जाता है

11 - [ शेर ]
खुदा कहते कहते जो नींद आ गयी ,
बहिश्तों [ या फरिश्तों ?] के दिल में उम्मीद आ गयी |  [गुड है न ?]

12 - मै एक बात समझ नहीं पा रहा कि दलितों [ और पिछड़ों ] को जब सदियों की ब्राह्मनिक त्रास की भरपाई में आरक्षण और संवैधानिक सुविधा प्राप्त हो गयी, उनका वे उपभोग भी कर रहे हैं , तो अब उनकी परेशानी क्या है ? जो अनवरत मनुवाद - ब्राह्मणवाद के अवगुणानुवाद गए जा रहे हैं ? अब तो उन्हें संयत - संभ्रांत व्यवहार करना चाहिए, प्रसन्न होना चाहिय ? मुस्कराइए की अब विजेता हैं आप ! उन्हें तो अब घोषणा करना चाहिए - अरे लोगो डरो मत, हम आ गए हैं सम्पूर्ण समतावादी हैं, विभाजक - विभेदकारी ब्राह्मण नहीं | हमारे शासन में सब लोग निश्चिन्त रहो | हम अल्पसंख्यक मुस्लिमों को पूरा आदर सत्कार और जन्म से दुष्ट ब्राह्मणजनों को भी उनके जान माल की पूरी सुरक्षा देंगे |    

13 - ब्राह्मणवाद धीमा आन्दोलन था , जैसे मीठा ज़हर | धीरे धीरे , बिना बताये , चुपके से इसने जनमानस में घर बनाया और उन्होंने उसे पुरे समाज पर लागू कर दिया | पर अब तो ब्राह्मण [ ब्राह्मणवाद तो क्या ? :) ] का ज़माना है | तो विरोधी क्या कर रहे हैं ? वे पूरे गाजे बाजे के साथ शोर मचाते उछल कूद रहे है | देखो आततायी ब्राम्हणों मैं तुम्हे मारने मिटाने आ रहा हूँ ! खाक कर पाएंगे | युद्ध के लिए भी बुद्धि चाहिये | और अब तो यादव वर्ग भी उनके पीछे खड़ा ललकारने के लिए उपलब्ध है ! भगवान् ही मालिक है |

14 - [कविता ]
हाँ बच्चो , मूर्ख तो हैं तुम्हारी दादियाँ
उन्हें अंग्रेजी डिमोक्रेसी के मूल्य पता नहीं -
व्यक्तिगत स्वतंत्रता उसने जानी ही नहीं
प्राईवेसी का आदर वह क्या जाने ?
तुम आधे कपडे पहनकर बाहर निकलती हो
तो वह टोक देती है ,
भाई घुटनों के बल गिर जाता है
वह दौड़ कर धूल झाडती है
तेल मालिश करती, काजल लगा देती
और माथे पर दिठौना ,
उसके गले से नहीं उतरता कि अंग्रेजी  डॉक्टर ने
यह सब करने से मना क्यों किया है ?
चलो अच्छा हुआ, अब वह गाँव भेज दी गयी
लेकिन क्या हुआ ? कल से जब से फोन आया
छुटकी को बुखार आ गया है , वह तड़प रही है |
मुझे हर घंटे बोलती है फोन करो, पूछो हाल !
बूढ़ा तो मैं भी हूँ, लेकिन थोड़ी दुनिया जानता हूँ
समझाता हूँ आज़ादी की बात - किसी की
व्यक्तिगत स्वतंत्रता में दखल नहीं देना चाहिए ,
लेकिन वह मानती ही नहीं
मूर्ख जो है न ! तुमारी दादी |
#  #  #    


* यह आपने अच्छा मुद्दा उठाया | क्या वोटर को उम्मीदवार का जाति धर्म देखकर समर्थन या वोट देना चाहिए ? इस पर संदीप verma ज्यादा कुछ बोल सकते हैं ,  उनको  बुलाएँ | हम मानव वादियों की  स्थिति स्पष्ट है | हम जाति धर्म और उसके मूल "ईश्वर "में  ही विश्वास नहीं करते | हम इसे सर्वथा दृढ़ता   पूर्वक गलत मानते हैं | हम नीति नैतिकता और विचार के आधार पर वोट देते | [ वस यादव ]

* ईश्वर से नाराज़गी नहीं है | वह तो है ही नहीं | बस ईश्वर के नाम पर मनुष्य जो अमानुषिक करता है, उसके कारण असल क्षोभ तो मनुष्य से ही है | अब चूँकि मनुष्य यह सब वाया ईश्वर के करता है. इसलिए ईश्वर निशाने पर आ जाता है | जैसे एक मूल आपत्ति - ईश्वर ने अपने को ईश्वर - अल्लाह के रूप में क्यों विभाजित किया, और उनके अनुयाय के आधार पर [e.g.] दो कौमे परस्पर दुश्मन के कगार तक , क्यों बनाने का कारण बना ?
तथापि मैं ईश्वर को मानने के पक्ष में भी हूँ, यदि उसे पूरी समझ के साथ मना जाय कि वह हमारी कलाकृति है, वास्तविक अस्तित्व नहीं |
ईश्वर का कोई ठेकेदार नहीं | हमारी - आपकी अज्ञानता ही उन्हें ताक़त देती है | मानववाद, निरीश्वरवाद मनुष्य को अपनी गिरेबान झांकना सिखाता है , न कि ब्राहमण , पादरी , मौलाना की बात मानना और फिर उनको दोष देना  ![
अब आप बोलिए QA

*  मायावती के सर्वजन आन्दोलन से फेसबुक के दलित आन्दोलन को भो सबक लेनी चाहिए | और ब्राह्मणों को गालियाँ न देकर उनसे मित्रता रखनी चाहिए | ऐसा वे करेंगे भी, लेकिन देखियेगा , पिछड़ा वर्ग जो आरक्षण पाकर नए और भद्र-सशक्त दलित / दलित पक्षधर बने हैं वे इसमें बाधा बनेंगे | दलित -ब्राह्मण संयोग द्वारा बसपा के सशक्तीकरण को सपा का पिछड़ा वर्ग अपनी शक्ति भर नहीं होना देगा , न स्वीकार करेगा |

* ज्यादातर धारणा यही है कि दलित आन्दोलन घृणा ग्रस्त है, जो कोई इलाज नहीं है | देखिये माया जी ने पैंतरा बदला | फिर यह तो सच है की  मैं दलित नहीं हूँ | तो संस्कार तो सवर्ण होंगे ही | मुझसे इसकी अपेक्षा ही क्यों की जाये , जब मैं विश्वसनीय नहीं हो सकता ? #
ठीक है फिर o.k. आप अपना काम कीजिये, जिसमे आप का हित हो | सवर्ण, या अन्य कोई भी इतर, भी , स्वाभाविक है , अपने हित का काम करेगा | सब आदमी हैं , कोई देवता नहीं है |
main nastik [क्योंकि तमाम भेदभाव ईश्वर की मान्यता के कारण है, जिसे आप ब्राह्मण पर थोप देते हैं मानो वह कोई महाशक्ति हो, मनुष्य नहीं  ] समता का पक्षधर हूँ | अब यह तो मैं ही जनता हूँ कि मैं इसमें कितना ईमानदार हूँ | इसका सबुत आप मांगते हैं | मैं नहीं देता | तो यही मानकर चलिए कि हम आपके विरोधी ब्राह्मणवादी हैं | इससे आपको भी सुकून मिलेगा और हमें भी लगेगा कि हमें  दलित प्रेम का दिखावा करने की ज़रुरत नै है | आपने संवाद किया , इसके लिए धन्यवाद !      [ to PC ]

* हाँ बिल्कुल ! बल्कि Radical Islam के विरुद्ध एक Radical [ उग्र, लेकिन मैं नहीं ] सुगबुगाहट यह उठ रही है कि पाक बनने  के बाद भारतीय मुसलमानों को सत्य इस्लामी न्याय और नैतिकता के आधार पर अपना Right to vote सरेंडर कर देना चाहिए, जो Indian democracy & secularism ने उन्हें प्रदान किया हुआ है | क्योंकि ऐसे अधिकार, सुविधा - सम्मान इस्लामी देश इस्लामेतर धर्मावलम्बियों को नहीं मुहैया करते |
# [ श्री निवास shankar राव ]  बवाल करा देंगे आप सर ...भारत कोई धार्मिक राज्य तो बना नहीं..जैसा की पकिस्तान बनाने वालों को भ्रम था..वे दोयम दर्जे की नागरिकता की आशंका कर रहे थे..जबकी भारत के संविधान बे न सिर्फ मुसलमानों को सभी सामान अधिकार दिए अपितु..संरक्षण के विशेषाधिकार भी दिए..बावजूद इसके राजनैतिक दुश्चक्र के कारण उनकी उन्नति नहीं होने दी गयी..तो आज वे इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते की उनके पाकिस्तानी भाइयों ने जो आग लगायी थी..स्की तो कोई कीमत इन्होने चुकाई ही नहीं..बल्कि..जो पाकिस्तान गए उनको कितनी कीमत चुकानी पडी है..यह मुहाजिर अल्ताफ हुसैन की पीड़ा से समझा जा सकताहै.भारतीय मुसलमानों को अल्ताफ के बयान के निहितार्थ और अपने सौभाग्य को समझने की जरुरत है..दुनिया के किसी भी मुल्क से जयादा वे भारत में हैं..आखिर वे खुद को कटघरे में कब तक खड़ा करते रहेंगे...?
# तो आप ऐसे विषय उठाते क्यों हैं ? और मुझे पढ़ाते ? जैसे अल्ताफ जी ने अपनी भावना व्यक्त दी, वैसे ही मैंने ईमानदारी से एक सुगबुगाहट बता दी | शांति स्थापित करने के मुझे आप unfriend  कर सकते है | पर मेरा नुक्सान यह होगा कि मैं आपके पोस्ट नहीं देख पाउँगा जो कि मुझे प्रिय लगते हैं |
# Shriniwas Rai Shankar हा..हा..हा..सर बवाल से मुझे भय नहीं..मैंने रोचकता बढ़ाने के लिए..इस शब्द का प्रयोग किया है..आप फ्रेंड हैं..और रहेंगे..शांति तो आती जाती रहती है. मुझे स्वयं आपकी पोस्ट से लगाव रहता है.
# तो मैं ही कौन सा डरता हूँ ? जब लोगों ने विभाजन की मांग की थी तो क्या वे डरे थे, ज़रा भी हमारा लिहाज़ किया था ? हाँ हिंसा से ज़रूर, स्वाभाविक भय खाता हूँ , जैसे हम " तब ? डायरेक्ट एक्शन " से डर गए थे | वरना नहीं |

* " भाषा "
हम हिंसा की भाषा में पटु नहीं हैं | लेकिन आपकी तो भाषा ही यही है |  तो क्या करें ? आपसे बोलें बतियाएं नहीं ? जैसे हम अंग्रेजों से गलत सलत बोलकर संवाद करते हैं !


* कहते हैं कि दलितों ने स्वतंत्रता की खूब लड़ाईयां लड़ीं और देश में आज़ादी लायी | सादर साभार स्वीकार है | लेकिन अब संदेह पनपता है कि दलितवाद की लडाई देश की आज़ादी को ले जायेगी !

* मैं अपने अनौपचारिक मित्रों को फोन पर " प्रणाम वाले कुम " कहता रहा हूँ | खबर है इस नाम की फिल्म आने वाली है | निर्माता - संजय mishra , अभिनेत्री - शिल्पा शुक्ला |
[Ref - हिंदुस्तान 14 /7 /2013  / Movie मैजिक - p 2 ]

* आज बहुत दिन बात संपादक के नाम एक पोस्ट कार्ड लिखा :-
"" उथल पुथल ""   by - उग्रनाथ ( नागरिक लखनऊ )
सम्पादक महोदय , दैनिक हिंदुस्तान , विभूति खंड , गोमतीनगर, लखनऊ -10
महोदय ,
यह जो आप अपने अखबार में ' रमजान ' का पाठ पढ़ाते हैं, उसके बारे में मेरी ' निरर्थक वार्ता ' यह है की , उस पर मुझे, थोडा बहुत नहीं, सख्त ऐतराज़ है |
मेरा ख्याल है कि समुदायों को अपने त्यौहार अपने तरीकों से स्वयं अपनी मान्यतानुसार स्वतंत्रतापूर्वक     मनाने दिया जाना चाह चाहिए | अखबारों को इसमें [ बाधक न बनें तो न बनें पर ] साधक भी बनने की भूमिका में नहीं आना चाहिए |

# Sandeep Verma तो अब होली दीवाली भी अखबार में पढ़ानी बंद करनी पड़ेगी . तब ठीक है .

# [ To संदीप ] यदपि कुछ reservations हमारे हैं, पर वे आपकी फाइल से बाहर हो जायेंगे, क्योंकि आप कुछ ख़ास मुवक्किलों के वकील हैं | तिस पर भी जो आप हमसे कहलाना चाहते हैं, वह भी हम शताब्दियों :) से कहते आ रहे हैं | होली दीवाली की कुछ ' घटनाओं ' के समाचार पिछले पृष्ठों पर देना पर्याप्त होगा, उन्हें मनाने के तरीकों में दखल देने की ज़रुरत नहीं है | जब अखबार नहीं थे तब की तरह समुदायों को उन्हें मनाने दें | इसके अतिरिक्त [ आप जान लेंगे तो हिन्दुओं की खिलाफत में आसानी होगी ] हम राशिफल, गण्डा - तावीज, सिद्ध यंत्र/बाबाओं के विज्ञापन, परलौकिक लेख आदि प्रकाशित करने के विरुद्ध रहे हैं | हमने यह तो आरोप लगाया ही नहीं कि मुस्लिम समाज  [हाँ सहरी - इफ्तार के समय की जानकारी अख़बार के लिए जायज़ है] उनसे यह अपेक्षा रखता है | अख़बार अपने, और आप अपने हित में मेरी बात को सांप्रदायिक रंग दे रहे हैं , अलबत्ता

# हाँ आप लोग इस मुद्दे को भी उठायें तो उठायें , लेकिन मुस्लिम समाज ती यह मांग नहीं कर रहा है कि अरब की तरह हिंदुस्तान में भी जुम्मा के दिन सरकारी साप्ताहिक अवकाश घोषित किया जाय ? कोशिश जारी रखें, हिन्दुओं का क्या , उसके लिए तो जैसे रविवार वैसे शुकरवार | दोनों ही अपने, दोनों ही विदेशी !

Q -सवर्ण दूसरो का मैला उठाने के काम का प्रति माह कितनी तनख्वाह लेना पसंद करेंगे ?

Ans * Shashank Bharadwaj = aap kitni tankhwah loge

Ugra Nath = आप तय कीजिये मजदूरी माई बाप, जो कुछ भी दीजिये ! उठा तो रहा है देश आपका मैला | और वह उसे उठाकर कहीं फेंक भी नहीं पा रहा है - ढो रहा है सहर्ष | लेकिन आप "दूसरे " कहाँ,आप तो अपने हैं | यह तो दूसरों का भी मैला सदियों से उठाने में अभ्यस्त है | कीजिये और दूसरों से करवाइए मैला | कुछ शुद्ध होगा भी तो नहीं आप के पास

* ढोंग का नाम राजनीति !
हम इसलिए आस्तिकता का ढोंग करना चाहते हैं क्योंकि हम 20 + की आबादी के रूबरू नास्तिकता की चर्चा तक नहीं कर सकते | " सिर गिनने वाली " लोकतंत्र में यह संख्या काफी होती है , और महत्वपूर्ण भी | लेकिन हमारी विपदा तब भी कम होगी क्या ? मूर्ति लगा लें तो शिर्क हो जाय ? मूर्ति न लगायें तो देशभक्त न रह जाएँ ? आखिर हम क्या करें ? यही सब देख - सुन - समझ कर तो हम नास्तिक हुए थे !

* It is in the betterment of your future , not to get involved in love like affairs .

* लड़कियों से अपनी लटें और जुल्फें तो संभलती नहीं , आफिस क्या सम्भालेंगीं ? बिना सहारा जयमाल के स्टेज तक नहीं जा पातीं | इसका कारण यह हो सकता है कि उस अवसर पर वे जीन्स में नहीं होती ! तो प्रश्न है , क्यों नहीं होतीं ?

* यह अपना प्यारा दोस्त भी खूब है | सौ रूपये किलो टमाटर का भाव तो बताता है लेकिन सौ रूपये में पांच किलो आम की चर्चा नहीं करता | सरकार विरोधी दल का है क्या ?

* जो जाल में फंसता है, मूर्ख बनता है , उसका भी कुछ दोष बनता है !

* नित्य बनता हूँ , नित्य बिगड़ता हूँ ; अपने शरीर की कोशिकाओं की भांति |
-----------------------
* नींद न आयी
वाकयी दिन रात
जाने क्या बात !

* तुम्हारी बात
अकाट्य मानकर
मानता गया |

* सेक्युलरिज्म
मज़ाक का विषय
यूँ था तो नहीं !
[ कैसे हो गया ?]

* कहाँ से आये
इतने आततायी
देश में भाई ?

* रोज़ बढ़ना
एक कदम आगे
आगे ही आगे |

 * प्रकृति वार्ता
चाहता है हाइकु
मैं तो न करूँ !

* हमने कहा
छोटा सा घर मेरा
कहाँ रहोगे ?
उसने कहा अच्छा
तो घर में अदृश्य |

सोमवार, 15 जुलाई 2013

नागरिक लेखन 11 से 13 जुलाई 2013


* यदि जातीय सम्मेलन होंगें , तो उनमें " अंतर
जातीय " सम्बन्ध की बातें कैसे होगी ?

* कुछ और क्षेत्र हैं जिनमे दलित ब्राह्मनानुपात का कुछ पता नहीं है - संगीत , नृत्य , कला (विभिन्न ), विभिन्न खेल कूद , फिल्म जगत ! और अपराध जगत को भी एक क्षेत्र मान लिया जाय तो ?
[ नीलाक्षी जी की पोस्ट से साभार प्रेरित !]

* मुझे खेद है Vandita जी, कि मेरा काम आपको करना पड़ा | तो अंतिम कड़ी में मैं भी कुछ काम कर दूँ -                             हस्तलिखित गोंजो {सम्मिश्र } फाईल किताबें -                                                                  1 - से - 33 अदद .  A -4 आकार में .          
                                            
 पुस्तकाकार [हस्तलिखित अथवा टंकित किन्तु मशीन मुद्रित ]                                
 34 - जो चाहो उजियार (कविता )                                                                                                     35 - बिना नेकर का आदमी (सम्मिश्र )                                                                                              36 - धारा प्रवाह (सम्मिश्र )                                                                                                            37 - रैन्डम रबल  (सम्मिश्र )                                                                                                         38 - आगे और हैं कविताएँ  (कविता पाठ )                                                                                         39 - मानुषेर मुंशी  (सम्मिश्र )                                                                                                         40 - बुद्धिविहीना  (सम्मिश्र )                                                                                                           41 - सुनो भारत  ( कथन / उवाच - विचार )                                                                                       42 - तेरह पन्ने  ( अशुभ अंक - आलेख संकलन )                                                                                43 - खुल जा सिमसिम  [सतत डायरी - blog लिखित ]                                                                       44 - आमी नदी   (कविता संग्रह  )                                                                                                     [ प्रतियाँ अनुपलब्ध  ]
-------------------------------------------------

नहीं Sandeep जी , मैं मैदान में नहीं उतरूँगा | कारण, एक तो मैंने अपने लिए " गौतम युद्ध " :)  का मैदान लड़ाई के लिए चुन लिया है, और उसमें मैं व्यस्त हूँ | दूसरे आप लोग जिस शाब्दिक विवाद में संलग्न हैं, उस पर निर्णय भारतीय जनमानस में बखूबी सुरक्षित है | वह इसे अच्छी तरह समझता है,समझ रहा है, समझ गया  है | वह भी अब अनुभवी हो गया  है |  जिसे वह समय आने पर प्रकट करेगा  - जिसका छोटा सा अंश श्रीनिवास जी की पंक्ति में परिलक्षित हुआ | लेकिन दिक्कत यह है कि फिर उसे आप "पण्डित जी की बखेड़ा" कहकर खिल्ली में टाल देंगे | आखिर कुछ तो है ही !

Sandeep जी , मैं कुछ ठगा सा महसूस कर रहा हूँ और depressed | मुझे पता है कि shankar जी की पंक्ति आपके सर्वथा मनोनुकूल है, क्योंकि उन्होंने हिन्दू हुडदंगियों की ही आलोचना की है जो आपका प्रिय विषय है | [ मैं होता तो इस मुद्दे पर अभी इस तरह के सेक्युलर शासन में नहीं उठाता, क्योंकि यह हुडदंगई का युग ही है, पर निवास जी स्थायी प्रबुद्द व्यक्ति हैं] , लेकिन आपने अपने चड्ढी ( पहनते तो आप भी होंगे ?) के चिरविरोध की जिद में उसे धता बता दिया | अरे, जो व्यक्ति - संस्था जिसे भी ' तुष्टीकरण' कह - समझ कर उसका विरोध कर रहा है , उसके लिए वही ' तुष्टीकरण' है | फिर जब संघ ने इस शब्द को उछाला है, तो वह इसी नाम से तो इसका विरोध करेगा ? आप उसे किसी अन्य शब्द से समझ लीजिये | पर विरोध को देखिये तो !    

चलिए ऐसा करते हैं कि उनकी लफंगई की अनदेखी करना, और उसे देखते हुए भी किन्ही राजनीतिक लालचवश उनका पिष्टपेषण और उनके समक्ष घुटने 'टेकना' को हम सप्रति तुष्टीकरण कह लें | तो क्या वह सच नहीं है ? भलमनई श्री जी विकास की बात करते हैं | मैं कहता हूँ मनमोहन जी द्वारा राष्ट्र के संसाधनों पर पहला हक देश के गरीबों - दलितों के अलावा किसी और को देना, तसलीमा को भगाना, रुश्दी को डराना, मुस्लिम महिला गायिकाओं को धमकाना, दो नापाक शब्द 'वन्दे माँ ' का सदन में बहिष्कार, आये दिन दकियानूसी फतवे, और लखनऊ जैसे शहर में बुद्ध का मूर्ति भंजन. वह भी म्यांमार के विरोध में | कार्टून कहाँ बना, या विश्व में कहीं कुछ हो जले भारतवर्ष ? इत्यादि | और फिर भी - - - - ! आखिर यह क्या है ? इसे किसी भी नाम से कहो, लेकिन पुष्टीकरण तो करो | तो, किसके विकास, किसके लिए वैकासिक आरक्षण मांग  रहे होगे भाई श्री निवास shankaर राय जी ?            
और हाँ, अब मैं मैदान में उपलब्ध नहीं हूँ |
* सांप्रदायिक नहीं बनोगे तो सम्प्रदाय कैसे बचेगा ?

Navneet Tiwari
 Rajneetik adange jitne kam honge desh vikas bhi utni hi teji se karega.."


* जातिवाद चल भी रहा है और कोई किसी से छोटा बनने को तैयार भी नहीं है | तो, यह कैसा जातिवाद है ?

* चलने दीजिये नक्सलवाद को | राज्य धीरे धीरे इतना निस्तेज और प्राणशून्य हो जायेंगे कि कोई सड़क चलता राहगीर भी उधर से गुज़र रहे विधायक और मंत्री को थप्पड़ रसीद कर देगा !

* चाहे जितना गरियाओ नेताओं को लेकिन इनके बिना तुम्हारी भी किताब, पत्रिका, अख़बार का विमोचन पूरा नहीं होता |

* ईश्वर को यदि अपनी पसंद के कैसे भी कपडे, या चीथड़े भी, पहना कर बिजूके की तरह भी खड़ा कर दो तो वह इनकार नहीं करेगा | वह मनुष्यों की तरह चेतन नहीं जो " वासांसि जीर्णानि " की तरह पुराने कपडे फेंक कर नया धारण करे | इसीलिये कहते हैं वह मरता नहीं | लेकिन वह नए से नए धर्म के कपडे के नीचे पुराने से पुराना जीर्ण शीर्ण, मटमैला,गन्धाता धर्म का कपडा भी पहने रहता है | ऊपर जैसा कोई पहनाये, पहनता भी जाता है | वह मना नहीं करता | वह मनुष्य की मान्यता के अधीन है |  
* हमें हिन्दू मुसलमान से क्या मतलब ? हमें तो नास्तिकता फैलानी है , जहाँ तक पहुंचे |

* अभी कर्म से नीचों, दलितों का राज चल रहा है , तो यदि अब जन्म से दलितों का राज हो जाय, तो हर्ज़ क्या है ?

* प्रश्न है -
क्या वोट देना, राजनीति में सीधे भाग लेना किसी नागरिक के मौलिक अधिकार की श्रेणी में रखना ज़रूरी है ?
[ क्या ऐसी मर्ज़ी सरकार की भी हो सकती है , कि चाहे तो वोट ले, न चाहे तो न ले ? (S.Shekhar)]
- यदि अरब में, अमेरिका में, पाकिस्तान में  वहां के हिन्दू नागरिकों को वोट का अधिकार न मिले, तो क्या   इसे शासन का अत्याचार माना जाना ज़रूरी है ?  
इसी उत्तर पर पहुँचाना था | बाह्य सामुदायिक नागरिकों को भारत में वोट का अधिकार न देना विचार का मुद्दा था | क्या यह व्यावहारिक होगा ? कैसे ? [ navneet तिवारी ]
----------------------------------------------
Soni Shekhawat
☞ यदि कभी आप आइसलैण्ड जाएं तो वहां कभी भी रेस्त्रां में बैरे
को टिप न दें।
ऐसा करना वहां अपमान
समझा जाता है।
----------------------
ऐसा सुझाव मैं भी दलित आन्दोलन को देता हूँ | उन्हें भी यजमान [ बखरी ] से होली दीवाली की  त्योहारी नहीं लेनी चाहिए |

* 11/07/2013
गौतम युद्ध   [ पार्टी , संस्था या कर्म ] - War For Enlightenment
( सत्य, समता, स्वतन्त्रता, और न्याय के लिए शांतिपूर्ण संघर्ष )

आज एक और शब्द ईजाद में आया -
" आत्मना " (The Individualist) , अपने मन के मौजी लोग |

अब आप बोलिए
* नवनीत जी , कुछ अप्रत्याशित भी हो तो सकता ही है | जो कुछ अतीत में हुआ क्या किसी ने सोचा था ? क्या पाक का बनना सुचिंतित था ? मैं इस पर लोगों की राय  जानना चाहता था कि रोज़ी रोटी मकान तो ठीक ,वोट देने का अधिकार क्यों मौलिक और आवश्यक हो ? मेरा निजी खुराफाती विचार है कि नैतिक दृष्टि से तमाम स्थितियों के मद्देनज़र मुसलमानों को भारत की राजनीती में सीधे भाग नहीं लेना चाहिए, स्वयं, स्वेच्छा से, जब कि भारत तो उन्हें इसका अधिकार तो देगा ही | यह उनकी नैतिकता पर मुनहसर है | पाकिस्तान बन जाने के बाद | बस ख्याल ही है , लेकिन मैं किसी अमानवीय व्यवहार के तो पक्ष में नहीं हूँगा किसी के भी, चाहे वह भारत का हो या विदेश का | मैं तो अपनी ओर से उन्हें देश का मुआज्ज़िज़ मेहमान की तरह आदरणीय मानता हूँ |

* एक उम्दा ख्याल आया है ,
आज उनका ख्याल आया है |

* दोस्त सब तो आ गए हैं महफ़िल में ,
मैं दुखी हूँ, मेरा दुश्मन अभी नहीं आया |

* आप तो हर किसी से बढ़कर हैं,  
आप कम होते तो हम उधर जाते !

* जो कुछ सेक्युलर आन्दोलन चल रहे हैं उसका हश्र [परिणाम, नतीजा ] आप जानते हैं ? और उसे निष्क्रिय निष्फल करने की कोई जुगत योजना आपके पास है ? नहीं है , तो फिर भुगतिएगा ! मेरे पास जो है उसे कई बार बता चुका हूँ | अब नहीं बताऊंगा | भले मित्र लोग बिफर पड़ते हैं |

* मेरे भी मन में एक सवाल है , ऋचा जी | अभी तक सारे हिन्दू नास्तिक क्यों नहीं हुए ?

* आखिर जातिवाद से परेशानी क्या है, जो तमाम लोग इसके पीछे डंडा लेकर पड़े हैं ? और यह है कि कानी कुतिया की तरह पों पों करके फिर चुपके से आकर चारपाई के नीचे बैठ जाती है | अरे , डोमिनो वाले पिज़्ज़ा बनाएँ, बागी बलिया वाले लिट्टी चोखा, KFC वाले मुर्गे के व्यंजन और टुंडे कबाबी लजीज कबाब बनायें, चिकवा भाई कलिया - मुर्गा काटें | आनंद सिनेमा के बगल लस्सी बिके तो जयहिंद पर बाईक बने | चौक में चिकन, दयाल -प्रकाश वाले कुल्फी तो नाजा में कम्प्यूटर बिके, मरम्मत हो | etc etc | सब लोग सभी काम करेंगे तो काम भी ठीक नहीं होगी और इनकी रोजी भी जायगी |

* जाति विरोध पूरी तरह जातिवाद से ग्रस्त और अनुप्राणित है | और हो भी क्यों न ? जाति का उल्लेख किये बिना जातिवाद के खिलाफ लड़ा भी तो नहीं जा सकता ? :)        

* मैं सउदिया से सहमत हूँ | हमें उनसे सीख लेनी चाहिए और इसकी एक राष्ट्रीय नैतिक - सांस्कृतिक अवधारणा विकसित करनी चाहिए | ऐसा विचार मैं कई बार प्रचारित कर रहा हूँ | हर देश की एक मौलिक संस्कृति होनी चाहिए, होती ही है | इसे आदरपूर्वक मान लिया जाना चाहिए | न अरब में हिंदुइज्म सिखइज्म चले, न अमेरिका ब्रिटेन में इस्लामइज्म, हिंदुइज्म सिखइज्म चले | तो फिर हिंदुस्तान में भी ईसाइयत - दार उल इस्लाम नहीं चले | इसीलिये मैं घोर नास्तिक सेक्युलर होकर भी भारत में हिन्दू राज्य की वकालत करता हूँ, क्योंकि तमाम देश इस्लामिक होने से बाज़ नहीं आये और सेक्युलर पश्चिमी देशों में भी ईसाईयत को एक ख़ास आदर प्राप्त है | अमेरिका के सिक्के पर In God we trust है , तो ब्रिटेन में  ईसाई रानी ही प्रमुख होगी | लेकिन इस बात पर मेरे अभिन्न मित्र मुझसे नाराज़ हो जाते हैं |    #
    उचित तो असहमत होना ही है | मैं  भी सायास स्वयं से असहमत ही होना चाहता हूँ | लेकिन क्या ऐसे उन्ही की चलती रहेगी ? क्या हम कटु -अप्रिय यथार्थ से ता-सदी और सदियाँ मुंह फेरे रह सकते हैं ? और मात और मार ही खाते रहेंगे ? उग्र तो वे हैं , मेरी तो काउन्टर उग्रता है | मैं तो राष्ट्रवाद को भी नहीं मानता, लेकिन मानता हूँ आदर्शों का हवाई जहाज हर आसमान में नहीं उड़ता | [To byom टिप्पणी के लिए आभार सहित, ]    
       Byomkesh Mishra = आदरणीय उग्रनाथ जी, गुरुवर आपने विषय बदल डाला (आप चतुर हैं), या कहूँ विषय को वैचारिक (सैद्धांतिक) उच्चता की ओर ले जाना चाहा, किन्तु इस प्रक्रिया में आपके वास्तविक "अभिप्राय" का क्षणिक दर्शन भी हुआ । आपने जानबूझकर "यथार्थ" शब्द का प्रयोग किया है "सत्य" शब्द का नहीं, क्योंकि "यथार्थ" सापेक्षिक व्याख्या के अधीन है, और "सत्य" की तरह ब्रह्म नहीं । तो यथार्थ आपका । कटु, अप्रिय इत्यादि भी निर्णयात्मक निष्कर्ष है । सो निर्णय भी आपका । सबकुछ आपका, फिर भी आप कहते हैं कि आप सहमति चाहते हैं ? बिना सहमति का प्रयास किये ही गुरुवर ? सच्चा प्रयास ? व्यक्तिगत रूप से मैं हर उस सिद्धांत या संकल्पना से असहमत रहूँगा जो तोड़ती है, जोड़ती नहीं । चाहे वह संस्कृति हो, संस्कार हो या राष्ट्रवाद ।
      [Me] = अवगत हुआ | ध्यान रखूँगा, रखता भी हूँ | सूक्ष्मता से देखें तो जनमत ही तो मना रहा हूँ, सहमति असहमति का सर्वेक्षण - शिक्षण ! :) कौन सा मेरे कहने से कुछ फलित होने जा रहा है ? कह ही तो रहा हूँ ? शायद इस विद्यमान वर्मान (अ)सांस्कृतिक काष्ठ छड़ी को तोड़कर , फिर उनके टुकड़े लपेट-जोड़ कर ही एक सुदृढ़ संस्कृति का विकास संभव हो ? कुछ कहा नहीं जा सकता, लेकिन अभी इससे असंतोष तो है | पुनः धन्यवाद | आपके परामर्श को मैं बहुत महत्वपूर्ण मानता हूँ | मैं जानता हूँ आप बहुत समझदार और विद्वान जन हैं |  

* आपकी टिप्पणियां बहुत विद्वतापूर्ण होती हैं | लेकिन खेद के साथ कहना पड रहा है कि आप विद्वान नही,
विदुषी हैं | :)

* लोग कहते हैं - आमूल चूल परिवर्तन होना चाहिए | यहाँ मैं देखता हूँ तिलचट्टा एक बार उलट जाता है तो अपने आप खड़ा नहीं हो पाता | कोई दूसरा पलट दे भले | वह दूसरा कौन हो सकता है भला ?

* कल फिर एक पत्रिका की शुरुवात हुई | और मैं गया भी, न जाने की इच्छा के बावजूद | साथी कमलेश श्रीवास्तव ने फोन कर्केबुलाया था | "ग्राम्य सन्देश " नाम है | पत्रिका चिकनी चुपड़ी है | ऊबड़ खाबड़, खुरदुरी गाँव की दशा के विपरीत | सुना है किसी ने इसे बंद न होने देने का आश्वासन दिया है | फिर तो चलेगी |
* मैं दुखी हूँ यह देखकर कि लड़कियों का आजकल भी सर्वाधिक प्रयोग ,उपयोग हो रहा है किन्ही भी कार्यक्रमों  में सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत करने में |
* बुलाये कोई तो चले जाओ ,
यूँ तुम्हे कौन बुलाता ही है |

* भवानी शंकर मिश्र जी के  " जिस  तरह मैं बोलता हूँ, उस तरह तू लिख " का पालन / समर्थक मैं नहीं हूँ | बोलता तो मैं क्या क्या हूँ | उसी तरह तुम लिख डोज तो गड़बड़ हो जायगा |

* Individualism का हिंदी व्यक्तिवाद तो नहीं हो सकता | " निजवाद "हो सकता है ,जन कीनिजता से युक्त , न कि स्व अहंकार से |

* नकार - वकार [ Negative Vigative ]
- Cut Off Party [कटुता पार्टी ]
- दुश्मन दल { Enemy Party }
- एकान्तिक दल / अल्पिका / अदृश्य  पार्टी
- गुरुता  [समता की तरह ]/ गुरु गंभीर /   ----- गुरुजन  पार्टी
- निजी पार्टी [ Individualist Party ]
- उदास पार्टी [ U.P.] सही बात है | हमें कोई उम्मीद तो दिखती नहीं |
इसलिए हम राजनीति में दखल तो रखने है, पर राजनीति में  सीधे भाग नहीं लेते | यह तो जे पी की  ' दल 'विहीन राजनीति ' जैसी बात हो गयी !
-  

----------------------------------------------------------------------------------------------------------------

* कबाड़ीवाला अपने कबाड़ कक्ष के सामान समेट उसमें अधिकाधिक जगह बना रहा था |
पूछने पर उसने बताया | थोक में laptop का कबाड़ मिलने वाला है | :)

* मुसलमान बहुत अच्छे हैं | इसमें शक की क्या बात ! लेकिन यह समझ में नहीं आता कि वे अपनी अच्छाई के सबूत के तौर पर ऐसी जगह ( cutting) खतना क्यों करा लेते हैं जिसे उन्हें छिपा कर ही रखना होता है ? हिन्दू सम्प्रदायों की तरह नाक कान जिह्वा कटाते तो और बात होती !  

मैं हिन्दुओं को भी इसकी सलाह देने देने वाला हूँ | क्योंकि जिया भाई भी बता ह रहे हैं कि यह विज्ञानसम्मत भी है | संभवतः ऐसी ही विज्ञानं सहमति पर भारत के कुछ सन्यासी समुदाय नाक कान भी कटाते, छ्द्वाते रहे हैं , जिससे उनकी सफाई में सुविधा हो | दक्षिण अफ्रीका में औरतों के क्लिट भी सकारण ही कटे जाते हैं | स्वागत है [ Ref जिया खान ]

अभी कान पर जनेऊ चढ़ाने, खडाऊं पहनने, त्रिनेत्र स्थल पर टीका लगाने, कपडे उतारकर पीढ़ा पर बैठकर खाना खाने आदि की वैज्ञानिकता का मेरे पास कोई लिंक नहीं है | उनसे डायरेक्ट पूछिये, बाकायदा बताएँगे |                                                     तो मतलब यह निकला कि कुदरत के निर्माण में कुछ खोट है, लिसे अब मनुष्य अपनी "वैज्ञानिक ? " खोज द्वारा दुरुस्त कर रहा है | मैं इससे सहमत हूँ क्योंकि उसने कान के पास मोबाईल रखने की थैली नहीं बनायीं | लेकिन यह क्या खुदा की शान में गुस्ताखी नहीं हो जायगी यदि उसकी बनायीं चीज़ में कुछ अ -वैज्ञानिकता बताई जाय ? लेकिन यह हमारी नहीं [हम ईश्वर को मानते ही नहीं ] उनकी समस्या है जो ईश्वर के अलावा किसी को 'वन्दे ' नहीं कह सकते , किसी विज्ञानं की नहीं | जो मनुष्य के बनाये कानून / संविधान से बंधे नहीं हैं |       [ Ref - जिया खान ]

* इतने पारदर्शी [ऐसे कपडे हमने देखे] कपड़ों में तो मुझे महिलाओं का नकाब धारण करना भी मंजूर है | प्रगतिशील महिलाओं को भी कोई एतराज़ न होगा | क्योंकि इससे नारी दासता नहीं झलकती |

* भाई , इस फेसबुक से कहो - LIKE के साथ UNLIKE / DISLIKE तो रखे ही , साथ में एक और option भी रखे | केवल READ [ पढ़ा / पढ़ लिया] का | अभी बहुत परेशानी होती है , सही राय देने में |

* बड़ी मुश्किल से तो
खंडहर हुयीं हैं इमारतें
जर्जर हुई थीं किताबें ,
तिस पर भी
इनके संरक्षण के लिए
पुरातत्व विभाग /
अभिलेखागार बनाये हमने !
क्या यह कम सबूत है
हमारी भलमनसाहत का ?
#  #

* सब राजनीति है भाई
कोई मंदिर मस्जिद नहीं जाता
पूजा पाठ नमाज़ क्या घर पर न हो जाता
सब संख्या का खेल
यानी , राजनीति | जहाँ सिर गिने जाते हैं
दिखाना है - हम इतने हैं
संख्या में भारी हैं
मजबूत ,ताक़तवर हैं
हमारी बात मानो
मानोगे कैसे नहीं ?
मानो, नहीं तो जाते हैं हम मंदिर बनाने
, मस्जिद , नमाज़ पढ़ने , अजान देने !
#  #

आज एक अच्छी कविता [ हाइकु ] हो गई, सुनना चाहता हूँ -
* कौन आया है ?
चुप भी कर यार !
कोई नहीं है |
------------------------
अब इसके साथ कुछ पुछल्ले - दुमछल्ले भी हैं, उन्हें कहाँ ले जाऊं ?
* लाखपति की
क्या कीमत, कहिये
करोडपति |
* फिर भी अभी
बहुत करना है
कुछ तमाम |
* उन्होंने कहा -
सर्वर डाउन है
बाद में आना
* नहाना खाना
फेसबुक लिखना
यही काम है | —


1 - जो देशभक्ति
     के नारे लगायेगा
     पछतायेगा |

2 - अलोकप्रिय
     यह एक शब्द है
     जो देशभक्ति |
     किन्तु आदरणीय
     नागरिक चेतना |

* सादे वेश में
जैसे होता जासूस
वैसे मैं साधू |

* जब भी कभी
मेरी ज़रुरत हो
बुलाना मुझे |

* जीना तो ठीक
लेकिन समता हो
तब न बात !

* मेरा आग्रह
जनमत जानिए
फेसबुक से !

* धर्म बने थे
अब बिगड़ गए
एक बनेंगे |

मंगलवार, 9 जुलाई 2013

नागरिक लेखन 8 से 10 जुलाई 2013

* मित्रो, क्या यह उल्लेखनीय बात है ? हो तो बताऊँ, नहीं तो रहने दूँ , कि कल तक मैंने अपने blog पर 999 पोस्ट पूरे किये, 1000 में एक कम | फिर कल तो एक डालना ही है | आप सब को धन्यवाद |
 पता है - nagriknavneet.blogspot.com  

* 1 - VOTER Party ? वोटर पार्टी ( मतदाता दल )

2 - लोक धर्म
[ Secular Party]

3 - अन्तिम पार्टी
[ The Last Party ]
in rhyme with the story - The Last Leaf , by - O ' Henry

* दो बातें ( विचार )
1 - बच्चों को अश्लील तस्वीरें
नहीं देखनी चाहिए, नहीं
दिखायी जानी चाहिए बच्चों को
भजन कीर्तन के सी डी ,
उन्हें मंदिर मस्जिद
नहीं ले जाया जाना चाहिए |
#
2 - [ आदमी का भला ईश्वर की बातें न मानने में है ] :--
मनुष्य के आदि पूर्वजों , आदम और हौव्वा ने उसकी बात न मानकर " वर्जित " फल खाया, जिसका परिणाम हुआ कि मनुष्य का वंश बढ़ा | उसी क नतीजा है आज हम हैं हमारे आसपास की सृष्टि है , यह दुनिया है, सभ्यता है, संस्कृति है | काल्पनेय है यदि पहले मनुष्य ने ईश्वर की बात ली होती और उसका वर्जित फल न खाया होता, तो हम क्या होते ? क्या हम होते ?
इसलिए मनुष्य का भला तो ईश्वर की बातें न मानने में है, और अपनी प्रवृत्ति, दिल और दिमाग की बात मानने में है |      
       * अभी याद् आया कि रामानुजाचार्य जी ने भी पने गुरु की अंतिम  गोपनीय शिक्षा नहीं मानी थी |उनके बताये सार्वजनिक रूप से  [कथित स्वर्ग जाने के लिए ] निषिद्ध  मन्त्र - " ॐ नमो नारायणाय " को सार्वजनिक कर दिया था जिससे सब जन स्वर्ग जा सकें भले उन्हें [ रामानुज को ] इस अवमानना के लिए नर्क जाना पड़े | यह थी आचार्य की लोक कल्याण की भावना |और इस विचार ने उन्हें अपने गुरु का आदेश न मानने के लिए प्रेरित किया | यही तो सन्देश बुद्ध का , Rationalism ( बुद्धिवाद ) का भी है कि बिना उचित - अनुचित देखे गुरु की भी बात मत मानो |

* तनिक तमाशा तो देखिये | पहले चर्च राज्य पर दबाव डालकर अपनी अनुचित बातें मनवाते थे | यूरोप (के राज्य एवं दार्शनिकों) ने चर्च के दबाव को अस्वीकार कर दिया और परिणामस्वरूप secularism का उदय और विकास हुआ | अब दो - तीन सौ वर्षों बाद भारत राज्य (के प्रतिनिधि एवं पार्टियाँ) खुद धर्मों के पास अपनी पीठ पर दबाव डलवाने 'धर्म' के पास जाते हैं | और धर्म राज्य पर दबाव डालते हैं | और मज़े की बात यह कि हिंदुस्तान अपने इस कुकृत्य को भी " SECULARISM " कहता है |
---------------------------------------
“धर्म जीवन का आधार है” ?
रूद्र प्रताप दुबे

कल किसी के फेसबुक स्टेटस पर “धर्म जीवन का आधार है” देख के रुक गया। थोड़ी देर सोचा की कुछ लिखूं या ना। फिर विचार किया कि ये बड़ा व्यक्तिगत मत होता है सबका इसलिए किसी के व्यक्तिगत मत में मेरा हस्तक्षेप करना उचित नहीं होगा। लेकिन वो विचार थोड़ा अतार्किक और असंगत लगा तो उस पर लिखने का जरूर सोचा।

‘धर्म जीवन का आधार है’ वाक्य मुझे कभी संगत नहीं लगता क्यूंकि जहाँ तक मेरा विचार है रोटी, कपड़ा और मकान ही किसी जीवन का मूल आधार हो सकते हैं। क्यूंकि इन्ही तीनों चीजों से ही व्यक्ति की सामाजिक एवं आर्थिक प्रगति का पैमाना तय होता है और शायद इन्ही तीनों में से किसी के अभाव में ही उसकी मृत्यु भी हो सकती है। लेकिन ये स्थिति धर्म के साथ नहीं उत्पन्न हो सकती है क्यूंकि मैंने अनेक अधार्मिक लोगों को बड़ी शांति के साथ अपनी पूरी जिन्दगी गुजारते हुए देखा है। अतः अपने इस पहले तर्क के साथ ही मैं धर्म को जीवन का मुख्य आधार मानने से इनकार करता हूँ।

जहाँ तक मुझे जानकारी है वैज्ञानिकों ने मंगल ग्रह पर भी जीवन के कुछ अंशों को खोज निकाला है तो क्या वहां भी पहले से ही धर्म मौजूद है? क्यूंकि ‘धर्म जीवन का आधार है’ वाक्य को अगर ध्यान में रखें तो जीवन तो वहीँ मुमकिन है जहाँ धर्म है। तो क्या कोई धार्मिक व्यक्ति मंगल पर भी अपनी धर्म की दुकान पहले ही खोल के बैठ चुका है?

एक बात और, धर्म कभी ना तो आपको जीवन देता है और ना ही वो मृत्यु प्रदान कर सकता है। धर्म आपको महानता भी नहीं देता, ये काम तो कर्म के पास है। धर्म आपको तब तक रोजगार भी नहीं देता जब तक आप स्वयं धार्मिक ठेकेदार बन कर धर्म को बेचने ही ना निकल पड़ें। धर्म आपको ना तो मकान देता है, ना कपड़ा और ना रोटी। धर्म देता है तो केवल अलगाव चाहे वो पूजा पद्धति में हो, चाहे इन्सानों के खान-पान में हो, चाहे इंसानों की धार्मिक पुस्तकों में हो या चाहे इंसानों के पूजा गृहों में। राजनीति शास्त्र के महान सिद्धांत को जन्म देने वाले चिन्तक पोप ग्लेसिअस नें यूँ ही नहीं बोल दिया था कि धर्म और राजनीति को अलग-अलग काम करना चाहिए।

विश्वास मानिये आज की राजनीति की सबसे बड़ी समस्या यही है की वो धर्म आधारित हो चुकी है और सबसे ज्यादा अखरने वाली बात भी यही है की ये धर्म आधारित राजनीति एक धर्मनिरपेक्ष मुल्क में लगातार होती जा रही है। पहले तो ये राजनीति केवल धर्मों में बंटी लेकिन अब ये जातियों तक में विभाजित हो चुकी है। क्या हमें नहीं लगता राजनीति अर्थात राज्य को संचालित करने वाली नीति में धर्म जैसी किसी भी चीज़ का प्रयोग वर्जित होना चाहिए? ऐसा इसलिए बोल रहा हूँ क्यूंकि धार्मिक होना या ना होना किसी व्यक्ति का विशेष अधिकार है और राजनीति एक सार्वजनिक कसरत। अब जब सब अपने-अपने विशेष अधिकार का प्रयोग सार्वजनिक और लोगों के लिए बन रही नीति में करने लगेंगे तो अव्यवस्था तो फैलेगी ही। आज किसी भी सोशल साइट्स के आधे से अधिक अपडेट्स आपको किसी न किसी तरह से धर्म से ही जुड़े मिलेंगे। या तो उनमें कोई धार्मिक फोटो को लाइक या शेयर कर रहा होगा या कोई धर्म को अनावश्यक चीज़ मान रहा होगा। खुद सोचिये, कितने लोग चाँद पर मानव के पहुँच जाने, परखनली शिशु के पैदा होने, रोबोट के निर्माण, टीबी और पोलियों को नियंत्रित करने वाली दवाओं या ‘गॉड पार्टिकल’ की खोज को लेकर निरंतर अपडेट्स करते हैं? शायद उँगलियों पर गिनने लायक, लेकिन धर्म पर चर्चा, विवाद और विमर्श लगातार होते रहते हैं। इसलिए इन बहुतायत अपडेट्स और विमर्श से एक बात तो स्पष्ट हो ही जाती है कि आदमी आज भी अपने द्वारा बनायीं चीज़ों में धर्म को ही सर्वश्रेष्ठ मानता है। क्यूंकि जाहिर सी बात है कि डायनासौर के समय में तो धर्म नहीं ही होगा पृथ्वी पर। निश्चित तौर पर जीवन की उत्पत्ति और फिर मनुष्य के क्रमिक विकास के दौरान ही ये शब्द परवान चढ़ा और फिर तमाम लोगों नें इसे अपने अनुसार ढालना शुरू किया। जब आदमियों ने संगठित होना शुरू किया तो उसी के अनुसार से उन्होंने एक जैसे लोगों को जाति, समूहों, नस्लों और धर्मों में बाँटना भी शुरू कर दिया। वास्तव में वह ये समझ ही नहीं पाए की वो खान-पान या आदतों में अलग दिखने वाले लोगों के साथ एक साथ कैसे रहे । इसलिए उसने धर्म जैसी ताकतवर सत्ता को जन्म दिया और फिर इसे इतना ज्यादा शक्तिशाली बना दिया की जीवन के हर अंगों में इसका प्रवेश करा दिया। जन्म, नाम, जीवन के ढंग, विवाह और यहाँ तक मृत्य के बाद के कर्म काण्ड तक।

आखिर में बस यही कहना चाहूँगा की धर्म हर शख्स के लिए बेहद व्यक्तिगत विषय होता है लेकिन सार्वजनिक नीतियों या सार्वजनिक बातों के मंचों पर अगर इस पर चर्चा होने लगती है तो ये बेहद शर्मिंदगी का विषय भी होता है और मेरा व्यक्तिगत मत भी यही है कि धार्मिक विलासिता मानवीय मूल्यों का ह्रास करती है। चाहे वो भारत से बाहर हज के माध्यम से हो या भारत मे चारधाम यात्रा के अनुसार हो। ये सरप्लस को बढ़ावा देता है और अन्य नागरिको से आर्थिक असामनता को दर्शाता है। मनुष्य जब हवाई जहाज से या दूसरे मनुष्यों की पीठ पर कंडियो मे बैठकर या खच्चरो पर सवार होकर जाता है और एक रूम मे ठहरने के हजारो रूपये वहन करता है तो साफ़ नज़र आता है की ये धर्म का नहीं पूंजी का खेल है और पूंजी मे एक पक्ष दूसरे पक्ष से कई गुना मज़बूत है। अब कहने को बहुत कुछ था मेरे पास उस अपडेट पर कमेन्ट के लिए लेकिन फिर से मैंने सोचा कि धर्म बेहद व्यक्तिगत मसला होता है इसलिए ना ही बोलूं तो बेहतर है।

रूद्र प्रताप दुबे

[ नागरिक उवाच ]
* अपने को समतावादी कहने वाले लोग जब ब्राह्मणों से इतनी घृणा पाले हुए हैं, फिर ब्राह्मण तो घोषित विषमतावादी थे   | अब किसे झूठा कहें, किसे सच्चा कहेंगे - सोचना है !

* हम बोधगया पर धमाकों से अत्यंत रुष्ट हैं | और मामूली नहीं, बहुत कड़े शब्दों में निंदा करते हैं | सुना है बिहार सरकार को खतरे की सूचना थी | राजीव गाँधी - विकेंद्रीकरण योजना के समर्थक कहें कि यह ज़िम्मेदारी स्थानीय निकाय की थी | खूब पावर और पैसा जा रहा है उनके पास | इसीलिए मेरी राय में हिन्दुस्तान एक बिखरा हुआ मुल्क है , इसके लिए सख्त - सशक्त केन्द्रीय शासन ही चाहिए |
कुछ पता नहीं किसने अंजाम दिया इसे ? कहीं से मुस्लिम आतंकी संगठनों का नाम आया न आया , उसके पहले मुस्लिम फेसबुकियों के IM, मुजाहिदीन आदि संगठनों को बचने के बयान आने लगे- इन पर झूठे आरोप लगते हैं | उनका रिहाई मंच तो बना ही हुआ है, बाख ले जायेंगे | लेकिन पुरानी घटना तो सच है जब म्यांमार विरोधी प्रदर्शन में लखनऊ में आतंक फैलाया गया था और बुद्ध की मूर्ति तोड़ी गयी थी, तो वह निस्संदेह मुसलमानों [ कुछ सिरफिरे जवानों ?] की ही कारगुजारी थी | क्या कोई गिरफ़्तारी हुई ? मुलायम सरकार तो इनकी है |क्या मुस्लिम संगठनों ने इस मांग को लेकर कोई धरना प्रदर्शन किया, कि उन तत्वों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही हो ? कल की ही घटना पर इनका कोई निंदा - बयान आया ? अलबत्ता "इशरत जहाँ के हत्यारों को सजा दो " को लेकर GPO पर प्रदर्शन ज़रुर हुआ ? " अल्ला बचाए इन जवानों से "         :)
(देहाती दल)
Demonstration and hooliganism against Myanmar, against Taslima was not done by Brahimins . Now,the whole Hindustan is under attack . " Defend it with all your might ". Buddhism v/s barahiminism episode has lost its fervor, Days lost and last, matter of history, which some people carry on singing . Their views are biased . They fail to understand, [ and they will repent for it in future for having been fighting with their home natives ] , that these are attacks on the whole Indian nation which we belong to .[ To, Prabhat Chandra ]

* ब्राह्मण भी सवर्ण होता है | सवर्ण अवर्ण (जिसका लाभ कुछ को प्राप्तेय है ) ब्राह्मणवाद का ही खेल है | सचमुच तो वह हमारी गलियों का पात्र है जिसके नाते हम सवर्ण बने और कुछ [? समता भी तो ] खोने के अतिरिक्त अवर्णों द्वारा धिक्कार भी ग्रहण करने को विवश  हैं | आरक्षित वर्ग को तो ब्राह्मणों का शुक्रगुज़ार होना चाहिए जिनके कारण उन्हें कुछ हासिलात हो रहे हैं | हिंदी में बड़ा अच्छा शब्द है , याद नहीं आ रहा है | उर्दू में ' अहसान फरामोश ' कहते हैं |  :)

[कविता नहीं ]
*मैं कविता नहीं लिख पाता
बस सोचता भर हूँ -
क्या दस- पचास हज़ार लोग सचमुच में गए ?
क्या वे लोग भी मेरी तरह ही आदमी थे
जिन्दा, सांस लेते लोग ?
सोचता हूँ मैं उनकी तरह
मर रहा हॉता तो क्या दशा होती मेरी ?
कैसा अफनाए, छटपटाए होंगे      
हाथ पैर मारे होंगे बचने के लिए
सांस फूली होगी, आँखें बाहर निकल आई होंगी
असफल प्रयास में, बच नहीं पाए
लाश होकर बह गए ?
क्या वे बच्चे, औरतें, बूढ़े, हमारे
घर के बच्चों, औरतों बूढ़े माँ - बाप  
की तरह ही रहे होंगे
जिनसे मैं इतना प्यार करता हूँ ?
मैं अपने परिवार के लोगों को
निर्निमेष देखता हूँ
उनके इस तरह बिछड़ने की कल्पना से सिहर जाता हूँ |
डरा, सहमा हुआ बैठा हूँ मैं
मुझसे कविता नहीं हो पाती |      
#  #

 * तुम पास बैठे, तो
हम भी करीब हो लिए समझो
तुम दूर होते , तो
हम कैसे तुम्हारे पास बैठते !
#
* एक जनसाधारण टिप्पणी :-
ठीक है यदि इशरत जहाँ का इनकाउंटर हुआ तो गलत हुआ | लेकिन उस पर आतंवादी होना का संदेह है, और आतंकवाद से मुल्क सख्त खफा है | इसलिए हम उसके पक्ष में नहीं हो सकते | हमे अपने देश के जनमत का भी ख्याल रखना है | राजनेति यही कहती है |
( देहाती दल )

* Jonathon Lee Howell
I've always found it sad that most religious people out there need religion to be good. That most of them probably wouldn't be good without it. I also find it ironic that a good number of devout Christians I've met have had some criminal background of some sort. They felt the only way they could turn their life around was through a book of fairy tales. The thing is that you shouldn't need religion to be good. The only person that can pull yourself away from a bad path is you.

* मनुष्य की स्वयं की इच्छा के विपरीत कोई भी धर्म उसे नैतिक नहीं बना सकता | बना सकता तो इतने धर्मों और उनके शक्तिमान भगवानों के रहते आज दुनिया में अनैतिकता जैसी कोई वस्तु शेष न होती | अतः ईश्वर तो है नहीं और धर्म पाखंड भर हैं | अब तो मनुष्य से कहा जाना चाहिए कि नैतिकता  , लोक्नैतिकता [स्वतंत्रता - समता और बंधुत्व ] की ज़िम्मेदारी वह अपने ऊपर ले | अन्यथा तो भविष्य अंधकारमय है |

* धर्मों से छुटकारा तो लेना ही पड़ेगा | उसकी आलोचना या अवमानना किये बगैर उसे विदा करना होगा | पुरानी चीज़ है, अब प्रभावी नहीं रह गई है | किन्ही वक्तों में हमने ही बनाई थी इन्हें | ईश्वर भी हमारी खोज है | अब विज्ञानं ने उन्हें रिप्लेस कर दिया है |और सचमुच प्रतिस्थापित ही करनी है | निर्वात ( vacuum ) तो नहीं हो सकता न ! पुरानी अच्छी चीज़ें रहने भी देनी हैं |इस प्रकार अब वैज्ञानिक चिंतन से नए ईश्वर ( नैतिक मूल्य ) और उनके पालन की नयी " धार्मिकता " की शुरुआत करनी पड़ेगी | शुरू कर ही दिया जाय , जल्दी से जल्दी |

* नहीं काटेंगे
मोहल्ले के कुत्ते हैं
भोंकने से क्या !

* जनमत का
अनुमान कीजिये
शांत बैठिये |

* भूल जाते हैं
गुरुओं के सन्देश
समय पर
याद ही नहीं आते
ज़रूरत के वक़्त |

* कवि जीता है
काल्पनिक स्थितियां
तो लिखता है |

* सब वही था
जहाँ तक भी देखा
एक सा ही था |

* कितना हुआ
मेरे देश का हित
तेरे कृत्य से ?

* कहाँ जाओगे ?
कुछ बताओगे भी
भले आदमी ?

* भीड़ भाड़ में
मन नहीं लगता
बकवास में |

* नहीं बनना
छुई मुई , बेटियो !
कुम्हलाओगी !

* कुछ कहना
नियति है अपनी
कुछ छिपाना |

* जियो तो जियो
गरीब की तरह
धन बचाओ !

* जो था, वह तो
था ही, जो है वह भी
दोषपूर्ण है |

* वह है नहीं
एक हो या अनेक
काल्पनिक है |

* होता रहता
ध्यान में व्यवधान
मन अशांत |

* चला जाता हूँ
तड़ाक से शून्य में
मौका मिलते |

* कहाँ जायगा
मुझे देखने वाला
पास ही होगा |    

* काम इतना
कठिन ही नहीं था
कि न करता !

* नारा लगाना ,
कब ताली बजाना
आता है हमें |

* नहीं निभेगी
सारी ईमानदारी
एक जन से |

* शरीफ बनो
और शरीफ दिखो
दोनों ज़रूरी |

* बस थोडा सा
प्रयास और पाओ
लक्ष्य हासिल !

* गनीमत कि
तुम संगती हुए
वरना मैं तो - - 

शनिवार, 6 जुलाई 2013

Nagrik Books 4 to 7 July 2013

* ऐसी आज़ादी भी न माँगिये जिसकी कीमत ज्यादा देनी पड़ जाय !

*हाँ, यह तो है कि " देसी भाषा विलायती ड्रेस " क्यों चुना इन लोगों ने ? फिर पश्चिनी सभ्यता का विरोध क्यों करते हैं ? लेकिन इस बात की खबर नही है कि मंत्री ने कोई बलप्रयोग किया | हमें सदैव न्याय पर रहना चाहिए अपने दुश्मन और विरोधियों के साथ भी | नौकर, या ऐसे लोग भी खूब ब्लैकमेल करते हैं |

* प्यारे दोस्तों !
इशरत जहाँ भी केवल नाम से , पैदा होने के हक से ही मुसलमां थी |

* विकेंद्रीकरण की नीति के परिपालन में ग्राम प्रधान क्यों नहीं अपने अपने गाँवों में नक्सल समस्या से निपटते ? कश्मीर में भी यदि प्रधानों को ऐसी ही सुविधा, अधिकार और बजट मिल रहे हों तो वे भी अपनी समस्या सुलझाएं | राज्य / केंद्र की सरकार क्यों उनकी स्वतंत्रता में दखल दे ?

* मैं स्वयं भी सेक्युलर हूँ | इसलिय अपने सेक्युलर साथियों से इंगित करना चाहता हूँ कि हर बात जवाब देने से नहीं सुलझती |आपको तमाम टिप्पणियां पढ़ सुन कर यह अनुमान लगाना चाहिए कि जनता की राय आपके विपरीत है | और जान धारणा का लोकतंत्र में बड़ा महत्व होता है | हम लोक धर्मी लोगों को लोकमत का आदर करना चाहिए | और तदनुसार अपनी नीतियों, सोच के तरीकों , साम्प्रदायिकता से लड़ने की रणनीतियों  में सुधार , परिवर्तन करना चाहिए |

* भारत में कोई राष्ट्रपति प्रणाली तो है नहीं | नमो को PM बनाना भी चाहें तो भाजपा को वोट देना पड़ेगा  |फिर क्या भरोसा की वह उन्ही को बनाये ? जैसे अखिलेश यादव अंत तक चुनावी भाषण में नेता जी को ही CM बनने  की बात करते रहे, पर बाद में वही बना दिए |
या फिर पार्टियाँ लिखित वायदा EC को सौंप दें |
ऐसे में ज़रूरी है कि राष्ट्रपति प्रणाली लाने के प्रयास किये जायँ |

* विचार भी पदार्थ होते हैं  कर्म भी वज़नदार | :-
विचार भी पदार्थ होते हैं | उनमें भी वज़न होता है | वे भारी होते हैं |इसलिए मैं विचारों का भार नहीं ढोता | ज्यादा नहीं सोचता | जब जहाँ पैदा हो गया, हो गया | जो खिलाया गया खा लिया | जिससे विवाह हुआ, हो गया,बच्चे होने थे , हो गए | उन्हें जोहोना था हो गए | जब तक  मन हुआ भजन गया, मन हुआ तो नास्तिक हो गया | सब अपने आप होता गया मेरी कविताओं की भांति | मैं ज्यादा विचार नहीं करता |
एक और बात है | आज सोचता हूँ पिछली बातें | यदि वे बहुत उठापटक वाले होते तो आज उनकी याद भी संभालना मुश्किल होता | अच्छा हुआ मैं ज्यादा परिवर्तन - आन्दोलन करने, प्रसिद्धि पाने के  चक्कर में नहीं पड़ता | वरना उनका बोझ आज बहुत भारी होता | असहनीय | विचारों की तरह कर्म भी पदार्थ होते हैं |
मैंने विचार एवं कर्म का कोई बोझ नहीं बढ़ाया |जो होता गया वह होता गया वह होता गया | मैंने कुछ नहीं किया |      

* Pushpendra जी , ईश्वर को धन्यवाद दो कि कोई तुमसे घृणा करने वाला तो है | मैं तो प्रार्थना करता हूँ कि वह मुझें इनसे प्रेम करने की शक्ति दे | मैं नीलाक्षी जी से परम स्नेह रखता हूँ | इनकी बातें धैर्य पूर्वक सुनो,गुनो,धुनों और यदि अपने व्यवहार में कुछ कमी हो तो सुधारो | आखिर सवर्ण जाति में जन्म लेने की सजा तो भुगतनी ही है ?|

* आजकल औरतें बड़ा घड़ा - फड़ा लेकर बिजली पानी के दफ्तरों पर प्रदर्शन कर रही हैं, अफसरों के घेराव कर रही हैं | अपने इष्ट देव भगवान, देवी -देवताओं का घेराव क्यों नहीं करतीं ? मंदिरों पर प्रदर्शन क्यों नहीं करतीं ?

* ऐसे विषय पर चटखारे लेकर चर्चा करना अपने देश की दकियानूसी प्रवृत्ति है | शर्म अपने पर करो |गिरे हैं तो हम लोग दूसरों के निजी जीवन और sexual orientations पर फतवे देकर | अब कहाँ चली गयी प्रगतिशीलता ?

* मेरी कल्पना में मैदान के तमाम बुद्धिजीवी, बड़े बड़े अधिकारी, राजनीति के कार्यकर्त्ता, किताबी प्रोफेसर "समरथ " नक्सलवादियों से भय केकारण उनका समर्थन करते हैं, कहानी कविता लेख लिखते हैं, कि पता नहीं कब भेड़िया आ जाये |या फिर उन लाल किताबों का नमक का हक चुकाने के लिए जो उन्होंने  विश्व विद्यालयों में पढ़ रखी हैं ? अंतीं रूप से कुछ कहा नही जा सकता |  [नीलाक्षी ]

* यदि " विकास " इतना ही महत्वपूर्ण मुद्दा है है भारतीय राजनीति का , तो क्यों न भारत का शासन "केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग " को सौंप दिया जाय ?

* नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित 'साक्षरता संवाद 'का जून अंक मिला |उसकी एक कविता ध्यातव्य है :-
एक वृक्ष भी बचा रहे
( अनोखी लाल कोठारी )

* अंतिम समय जब कोई नहीं
जायेगा साथ
एक वृक्ष जायेगा
अपनी गौरैयों - गिलहरियों
से बिछुड़कर
साथ जायेगा एक वृक्ष
अग्नि में प्रवेश करेगा वही मुझसे पहले
कितनी लकड़ी लगेगी ?
श्मशान की टाल वाला पूछेगा
गरीब से गरीब भी सात मन तो लेता ही है
लिखता हूँ , अंतिम इच्छाओं में
कि बिजली के दाह घर में हो मेरा संस्कार
ताकि मेरे बाद एक बेटे और एक बेटी के साथ
एक वृक्ष भी बचा रहे संसार में |
- - - - - -
कविता तो अच्छी है | विशेषतः पर्यावरण दिवस 5 जून के सन्दर्भ में | और अनोखी जी ने इसे छपवा कर शुभ कार्य ही किया है , लेकिन
यह कविता नरेश सक्सेना जी [लखनऊ ] की है |

[कविता ]
* तपता तो है तवा
जलता, आँच सहता

और सिंकती है 'रोटी '
उस पर किसी और की |

* कभी ऐसा हुआ
खुदा पैसा हुआ ,
तो फिर पूछना मत
प्रलय कैसे हुआ ?

* इस गतिशील युग में कोई भी चीज़ थिर नहीं रह सकती | यदि हिन्दू धर्म को उठाया नहीं गया , सचमुच कर्ताव्योंमुख नहींकिया गया, अर्थात यह ऊपर नहीं चढ़ी तो फिर नीचे गिरेगी | और दुर्भाग्य से यही हो रहा है |इसे नास्तिकता और वास्तविक नैतिक आध्यात्मिकता के बुर्ज़ पर ले जाना ही होगा |

* THE पार्टी
[Thinker, Humanist, Atheist's ] Party

* और यही बात राजनीति के लिए भी सच है | यद्यपि यह विचार लोकतंत्र के कुछ विपरीत (?) जाती है, इसीलिए मैं इसे कहने में संकोच कर रहा था | लेकिन राज चलाना, राजकाज में हिस्सा लेना, सब के वश की बात नहीं होती   | यह विशिष्टता, विशेष योग्यता मांगती है | इसके लिए बड़ा दिल, बड़ा दिमाग , सोचने का विस्तृत दायरा, राष्ट्र और जनता के प्रति अप्रतिम लगाव, लोक कल्याण के प्रति समर्पण, निःस्वार्थ सेवा की भावना, आत्मविश्वास और दृढ़ता, निर्णय लेने की अद्वित्तीय क्षमता और सार्वजानिक जीवन के अन्य गुण व्यक्ति में होने चाहिए | राजनय में पटु और प्रवीण जन ही कुशल राजनेता बनते है | और राजनेता ही क्यों, इन गुणों से युक्त व्यक्ति ही देश का श्रेष्ठ नागरिक भी होता है |  

* हिन्दू एक जन हन्ता को अपना शासक नहीं बना सकता |
[ अपनी रियाया का नहीं ! To Dhirendra Pandey ]
Who I was talking about ? and you who about ? I meant NM . Remember please, We are yet a Hindu nation [mind the word Hindu, not Christian, not Muslim] . And I know nothing of Hindu beyond morality,justice and humanity . I don't think any "Hindu" will confirm BJP as a Hindu party . It is non - hindu . It is a shame on " Great Hinduism" .
पृथ्वी जी, अवश्य बोला जाना चाहिए, और आपने बोला तो काफी कुछ ! हम आपसे सहमत हैं | उसी कड़ी में है यह बात , वरना कोई कहता 'गुजरात ' पर कोई नहीं बोला |
धीर जी, तो हो गई न मुझसे हन्तई ?  :)  |
पृथ्वी जी, आप तो वहीँ आ गए जहाँ मैं हूँ  :)  | मुस्लिम वोटों के चक्कर में बीजेपी भी खूब है (NM जिसके अगुवा बने ) | इसीलिए मैंने उसे अ -हिन्दू कहा [नीति में भी, राजनीति में भी ] | हिन्दू की कोई पार्टी नहीं बनी , जिसे केवल भारतीय नागरिकों के वोटों की दरकार हो, साम्प्रदायिकता की नहीं | हम उसी का माहौल बना रहे हैं |  अभी आप क्रोध और जोश में हैं | भोजन करके, शांत [मौन] ध्यान करके so जाईये | कल मिल लेंगे किसी अन्य विषय के साथ |    

Nilesh Deshbhratar  posted to द जजमेंट
किसी गरीब कि मदद करने के लिए, जो हाथ बढाऔ तब उसके चेहरे को मत देखना,क्योँकि, मजबुर इन्सान कि आँख मेँ उठी शरम आपके दिल मेँ "अभिमान" पैदा कर देगी...!

Nilesh Deshbhratar

मैँ नहीँ जानता कि इस दुनिया को किसने बनाया...
पर अगर कोई सर्वशक्तिमान है... जिसकी मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीँ हिलता.... इस दुनिया मेँ घटने वाली हरेक छोटी से छोटी घटना भी उसकी मर्जी की मोहताज है...
दुनिया मेँ फैली
असमानता, अन्याय, शोषण, अत्याचार और हरेक चंद मिनटोँ के बाद होने वाला बलात्कार... अगर यही सबकुछ उसकी मर्जी है
तो यकीनन दुनिया बनाने वाला वो..
जो भी हो... पर कम से कम भगवान तो नहीँ हो सकता....।

* मैं ज्यादा तो नहीं कहता, लेकिन बहुजन [ मैं सोचता हूँ इन्हें इसी नाम से पुकारूँ | दलित कहना अपने को भी बुरा लगता है | ये स्वयं ऐसा कहें तो कहें ] यदि कुछ भी न पढ़ें, केवल अंग्रेजी में पारंगत हो जाएँ, तो वर्तमान बहुराष्ट्रीय में कहाँ से कहाँ पहुँच जायं |

* सार्वजनिक स्थलों पर प्रायः देखने में आता है कि वृद्ध पुरुषों के बाल तो झक सफ़ेद हैं, लेकिन उनकी वृद्ध पत्नियों के केश सम्पूर्ण श्याम रंगे हुए !
------------------------------
[कविता ]

* देखो, मैंने नहीं लिखी
कोई कविता, तुम्हारे जाने के बाद
नहीं लिखा कोई विरह का गीत
तुमने मना किया था न
सो हमने माना |
लेकिन तुम्हारे जाने के पहले की
प्रेम कविताओं को तो बिना नागा
पढ़ता हूँ , गाता हूँ  
पुराने पन्नों को पलटता हूँ ;
इसके लिए तो तुमने
बरजा नहीं था न ?
रोका महीं  था
मना नहीं किया था
जाते समय !
तो इजाज़त है न
तुम्हारी  याद ह्रदय में
अक्षुण्ण रखने की ?
निश्चिन्त रहो,
सुरक्षित है |
#  #

 [कविता ]

*उस औरत में /
जिसके लिए पुरुष /
अपनी जान छिड़कता है /
उसकी माँ - बहन भी
शामिल है /
और वह पुरुष /
जिसके लिए औरत /
तड़पती, छ्टपटाती  है /
उसका बाप और /
भाई भी हो सकता है | # #

----------------
* छंद छछंद
नहीं कर पाया मैं
कविताओं में |

* सफलता से
हिम्मत बढ़ती है
सफलता की |

* दिल की बात
होती है, वंचितों से
प्रेम की बात !

* बादल भी तो
कहाँ बरसे, रोये
वे धार धार |

* बादल नहीं
बरसें तो बरसें
हमारी आँखें |
----------
* कुत्ता काट ले
या आप दिखाई दें
एक ही बात !
[कुत्ते ने काटा
या तुम्हे देख लिया
मैं पगलाया]

*निश्चय जानो
आदमी कमीना है
निज मूल में |

* मीठी लगती
बिहारी भोजपुरी
उनकी वाणी |

गुरुवार, 4 जुलाई 2013

नागरिक लेखन 1 से 3 June 2013

* The TOP 10 of FACEBOOK UNCLE-1.Akhilesh Mourya,2.Dinesh Saxena,3.Shekhar Lakhchauraa,4.Sher Samant,5.Pitamber Prasad Dhyani,6.Ramgopal Singh,7.Bhagwan Singh,8.Ugra Nath,9.Kottapalli S Rao & 10.Devki Nandan Joshi.
[ Himanshu Prasad ]


* यह तो आपने वह बात लिख दी जिसे लिखने को मैं सोचता रह गया | सचमुच उधर तो नायक वैसे ही 15 -20 खल कर्मियों से जूझ रहा है , उधर नायिका अकेली एक पेंड़ की शाख से लटकी चिल्लाती है - विजय ! बचाओ , मुझे बचाओ | ऐसे दृश्यों द्वारा स्त्री को कमज़ोर दिखने की कोशिश होती है | और इससे समाज में पुरुषों के श्रेष्ठ और ताक़तवर होने का झूठ फैलता है | साधुवाद ऐसे जन सरोकार से जुड़े मुद्दे उठाने के लिए | इसके लिए प्रिय संपादक का सार्वजनिक मंच जमकर इस्तेमाल कीजिये | [ ज्योत्सना बौद्ध ]

* मैं मूरख तो एक मौलिक बात ही नहीं समझ पाया कि इन्काउन्टर करने वाली एजेंसी यदि सरकारी थी , तो उसी सरकार में वह दोषी सिद्ध कैसे होने पाई ? कैसे उसने इतने सुराग छोड़ दिए ? जब इस सरकार पर पक्षपात के इतने आरोप लग रहे हैं , तो वह अपने कुकृत्य को बचा क्यों नहीं पाई ?  [ सन्दर्भ - इशरत जहाँ ]

* प्राप्ति स्वीकार - सधन्यवाद
अंक - 6 दिसम्बर 2012
पत्रिका - " तत्सम " (अव्यावसायिक )
विभिन्न अभिव्यक्तियों की साझी पत्रिका
संस्थापक संपादक : डॉ आमोद
संरक्षक - सुधी पाठकगण
मुख्य सम्पादक - अवधनरेश तिवारी
संपादक - डॉ. सत्य प्रकाश सिंह , लागत मूल्य - १०० रु.
संपर्क : ' अनुकंपा ' , बी - ४९ , दिव्यनगर , पोस्ट - खोराबार ,
गोरखपुर २७३ ०१० उत्तर प्रदेश (भारत )
फोन नं : ०५५१ - २२७२३४० , ९४१५१८४००५
e-mail :  spsb49@rediffmail.com  /  gkp.spsingh@gmail.com
[संपादक जी को पोस्ट कार्ड लिखा - उग्रनाथ नागरिक , " प्रियसंपादक " मासिक ]        

* उन्हें अपनी गलती का एहसास हो गया |
मेरा पे - स्लिप देखकर
अब वह प्यार - व्यार की बातें नहीं करते |

Shraddhanshu Shekhar

It seems to me that the real problem is the mind itself, and not the problem which the mind has created and tries to solve. If the mind is petty, small, narrow, limited, however great and complex the problem may be, the mind approaches that problem in terms of its own pettiness. If I have a little mind and I think of God, the God of my thinking will be a little God, though I may clothe him with grandeur, beauty,wisdom, and all the rest of it. It is the same with the problem of existence, the problem of bread, the problem of love, the problem of sex, the problem of relationship, the problem of death. These are all enormous problems, and we approach them with a small mind; we try to resolve them with a mind that is very limited. Though it has extraordinary capacities and is capable of invention, of subtle, cunning thought, the mind is still petty. It may be able to quote Marx, or the Gita, or some other religious book, but it is still a small mind, and a small mind confronted with a complex problem can only translate that problem in terms of itself, and therefore the problem, the misery increases. So the question is:

Can the mind that is small, petty, be transformed into something which is not bound by its own limitations?"

(Jiddu Krishnamurti - The Core of the Teachings)
----
संयोग ही है कि आज ही मैं इस दिशा में सोच रहा था, पर लिखने से रुक गया क्योंकि वह विचार मुझे मानव विरोधी लगा | लेकिन श्रद्धा के पोस्ट में जिद्दु कृष्णमूर्ति ने सब कुछ साफ़ कर दिया | मैं अनुभव कर रहा था कि सोचना, विचार करना [सबके वश की बात नहीं होती /dt] हर किसी की प्रवृत्ति में नहीं होता | ऐसा नहीं कि उनकी सोचने की नीयत नहीं होती, लेकिन नहीं सोच पाते या सीमित दायरे में ही रह जाते हैं | इसलिए हमें ऐसे लोगो पर भरोसा करना पड जाता है जो चिंतन क्रिया में लीन,विचार  कर्म में स्वभावतः संलिप्त होते हैं [ वैसे ऐसा सोचना मुझे अच्छा नहीं लग रहा है] | विदित हो कि मनुष्य अभी यूँ भी अधिक से अधिक अपने मस्तिष्क का केवल 6% ही इस्तेमाल करता है |      

* अभी, जब मैं Humanist Outlook का कालम लिखने के लिए मानववाद पर सोच रहा था, और इसकी सफलता की दृष्टि से इसकी राजनैतिक विकल्पता पर विचार कर रहा था, तो मुझे एक नैतिक शब्द हाथ लगा | - लोकधर्म | इसे Civic, "नागरिक धर्म "  भी कह सकते हैं | इस नाम का धर्म तो नहीं, पर संस्था हम लोग लखनऊ में चला चुके हैं और वह सफल भी रहा | लेकिन लोकधर्म को Secular Religion कहना ज्यादा उचित होगा | बावजूद इसके कि सेक्युलर को बहुत गलत राजनीतिक अर्थ दे दिया गया है | लेकिन मैं मानता हूँ कि विकृत राजनीति अभी इतनी शक्तिशाली नहीं हुई है, शायद कभी होती भी नहीं, कि वह लोक संस्कृति को अपने अधीन कर ले | सो , लोक तो लोक ही रहेगा, अपनी मर्ज़ी का अलमस्त, सबको अपने में समेटे |
सेकुलर हमेशा लोकतंत्र के साथ रहा है | दार्शनिक जगत में इन्हें एक दूजे से सदा अविच्छिन्न मना जाता है | लोकतंत्र है तो धर्मनिरपेक्षता है,  | धर्मनिरपेक्षता है तो लोकतंत्र है, अन्योन्याश्रित | ऐसा सिद्धांततः माना जाता है | और लोकतंत्र की स्थापित परिभाषाएं तो कई है, प्रचलित जैसे वही for, of & by वाली मशहूर | लेकिन उसके मूल्यों पर कोई विवाद नहीं है | वे हैं स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व | अंग्रेजी में - Liberty , Equality & Fraternity | बस मुझे अपने मानव धर्म का राजनीतिक सूत्र मिल गया | क्या ये मूल्य किसी व्यक्ति, देश के सभी नागरिकों के धारण करने के लिए नहीं हैं ? तो जो धारण किया, वही हमारा धर्म हुआ, हो गया | लोकधर्म हमारा धर्म है और यही है हमारी राजनीति का आधार भी | कोई शक ?        

*  घोषणा -
आज से हम ईश्वर, अल्ला, गॉड, खुदा, भगवान आदि को हम एक ही सत्ता मानेंगे, एक दूसरे का पर्यायवाची | एक अज्ञात, अज्ञेय [साहित्यिक] शक्ति के प्रतीक स्वरुप, जिसने कथित रूप से सृष्टि को बनाया और जिसके बारे में यह कहा और माना जाता है कि वही दुनिया को चलाता है | अब इसे जिसको बुरा मानना हो वह माना करे | इन नामों में से किसी भी की आलोचना सबकी निंदा समझी जाय और किसी की भी प्रशंसा सबकी प्रार्थना | कहने को तो सभी कह देते हैं - ईश्वर अल्ला तेरो नाम, लेकिन जब व्यवहार की बात आती है तब सब अलग हो जाते हैं | ईश्वर भगवान् हिन्दुओं के हो जाते हैं और अल्लाह मुसलमानों का ही खुदा होता है | और ये बाकायदा अपने अपने आराध्यों के लिए लड़ते भी हैं | तो हमने पहले सबको एक जगह कर दिया क्योंकि हमें सबका विरोध करना हैं | कहाँ तक हम इनसे एक एक करके लड़ेंगे ? और यह तो हमने कह ही दिया कि हम इन्हें नहीं मानते, केवल व्यवहार के लिए इनका नाम लेते हैं, क्योंकि हमारे कई साथी मनुष्य इन पर [अंध] विश्वास करते हैं, और हम उन साथियों के बीच सपरिवारं समाज में संग - साथ रहते हैं, और हमें इन्ही के बीच काम करना है | वरना हमारा ईश्वर अल्ला से क्या वास्ता ?      

* मुझे इसके अन्वेषक - आविष्कारक होने का दावा करने का कोई शौक नहीं है | सोचने विचारने का शौक है , तो वस्तुओं के गुणों पर सोचते हुए मुझे थोडा आगे एक और घर, कुटिया, झोपडी दिखाई देती है, जो इस प्रकार है :--
पहले पदार्थों को तीन आयामों में पहचाना जाता था | लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई | फिर विज्ञानं की खोज ने इसमें ' समय ' का एक और आयाम जोड़ दिया | इस तरह चार आयाम मनुष्य को ज्ञात हुए |
लेकिन इसमें मुझे कुछ कमी, किंचित अभाव नज़र आ रहा है | वस्तु का एक आयाम और है, और वह यह है कि वह कितनी शाश्वत है, कितनी टिकाऊ, कितने समय तक चलने और काम देने वाली अर्थात उपयोगी होगी ? उसकी प्रभावोत्पादकता कितनी है, आंतरिक जीवन्तता की शक्ति ?        
एक शब्द प्रेम भी है, एक शब्द गाली भी | भले दोनों की लम्बाई चौडाई ऊंचाई बराबर हो, या गाली ज्यादा देर तक दी जाय, लेकिन प्रेम का वज़न तो अधिक ही है क्योंकि उसका पांचवां आयाम बड़ा है, व्यापक और सार्थक प्रभावकारी है | एक अखबार, ढेर सारे पन्ने वाली पढ़कर फेंक दी जाती है, एक रामचरितमानस अथवा कुरानमजीद का गुटका सदियों तक मनुष्य अपने माथे से लगाता है | ऐसे ही अन्य उदाहरण ढूंढे जा सकते हैं | सोचना तो यह है कि क्या बात, क्या फर्क है इनमे, जो एक को विशिष्ट तो दूसरे को तात्कालिक महत्व का वस्तु बना देती है ? मेरे ख्याल से वस्तुओं में यह जो अन्तर है उसके कारक को " पांचवाँ आयाम " की संज्ञा दी जानी चाहिए |  
- प्रगल्भता , प्रगाढ़ता , शिद्दत आयाम [ Dimension ] ? ? ?

* Shashank Bharadwaj
नास्तिकता से कोई प्रॉब्लम नहीं....वो भगवान को नहीं मानते....न माने ..हमें कोई परेशानी नहीं पर वो भगवान को मानने वालों को कोसते रहते हैं...ये परेशानी की बात है..अरे आप आपने भगवान को माननेवाले वाले सिधान्त मे मस्त रहे हम अपने भगवान को मानने के सिधांत मे.......

इसमें दिक्कत क्या है ........

Ranjay Tripathi, बी.कामेश्वर राव and 2 others like this.

Naveen Raman दिक्कत यह है कि आप भगवान को अपनी जागीर समझने भ्रम पाल बैठे है.इतना भी चल जाता,पर बात यहां पर भी नहीं रूकती.यह निरंतर हिंसा की तरफ कदम बढाने लग जाती है.आस्तिकता और ढिंढोरा पीटने में फर्क होता है.

Shashank Bharadwaj bhagwan ko manane walo aur hinsa ka koi sambndh nahi balki sabse jyada hinsa to bhagwan ko na manne wale communisto ne ki hai naveen raman jee

Ugra Nath = दिक्कत है न शशांक भाई ! तभी तो आपने यह पोस्ट डाला ! अच्छा किया, क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपने आस पास के मानव समाज और सार्वजानिक जीवन से सर्वथा निरपेक्ष और कटा  हुआ नहीं रह सकता | मै आप की बात प्रिय संपादक से उठाकर नास्तिक धर्म - - तक ले आया | निश्चय ही आपको हक है नास्तिकों को समझाने का, बंधुत्व के नाते | उसी प्रकार नास्तिकों या नागरिकों का भी हक है आपको सार्वजानिक शिष्टाचार निभाने की बात याद दिलाने का = जब रात रात भर लाऊड स्पीकर बजते हैं, गली सड़क घेरे जाते हैं, जाम लगाये जाते हैं etc  etc | बात चुपचाप पूजा पाठ करने की होती तो क्या दिक्कत थी ?और भी बातें है, फिर कभी | पर अभी सौ की एक बात कोई किसी व्यक्ति / पड़ोस /समाज/देश से निरपेक्ष नहीं हो सकता | आप ने इस समस्या में हिस्सा लिया, आप साधुवाद के पात्र हैं |
दिक्कत न होती तो किसी मज़हब से दुसरे मज़हब वालों को परेशानी क्यों होती ? लेकिन होती तो है ! बस उसी प्रकार समझिये |

* अख़बारों में लेख के साथ लेखक का फोटो तो ठीक [ सबसे अच्छा तो मुझे चेहरे का स्केच लगता है ] | लेकिन लेख के साथ सम्पादक - लेखक का आदमक़द चित्र , हाथ बांधे पैर पर पैर टिकाये ? कितना तो हास्यास्पद लगता है ? समझ में नहीं आता लेखक बड़ा है या आलेख ?

* मुझे तो भाई ,पश्चिमी सभ्यता में कोई बुराई नज़र नहीं आती | कम से कम समय की पाबन्दी, कर्मनिष्ठा, कर्तव्यपालन, वैज्ञानिक नजरिया, देश की चिंता, प्रगतिशीलता की सीख तो हमें उनसे लेनी ही चाहिए !

* सार्वजनिक
( पक्ष & पार्टी )
Membership not essential - everyone deemed member ?
?   ?

[पार्टी ]
राजनीतिक इच्छा शक्ति = Political Will Power
No /
राष्ट्रीय  इच्छा   शक्ति  =  National Will Power
= = NWP ? no
=RIS = रिस , ज्यादा ठीक है , क्योंकि
रिस का अर्थ " गुस्सा " भी होता है | और वह तो है |
-----------------------------------
* Secularism का मतलब = सभ्यता का धर्म |
धर्म का पालन - सभ्यता के साथ ,
संस्कृति सापेक्ष !

* काम आता है
थोडा भी अनुभव
बहुत ज्यादा |

* इतनी बातें
किससे करते हैं
ये युवजन ?

* सबके घर
अब पक्के हो गए
मेरा छप्पर !

* साथ निभाता
दोस्ती भी दुश्मनी भी
सब दोस्तों से |

* आँखें रोती हैं
तुम नहीं होते तो
दिल रोता है |

* बोलें तो बोलें
पर किसी और को
बोलने भी दें !

* बड़े जो होंगे
किसी से, तो किसी से
छोटे भी होंगे |

* ढाई आखर
पढ़ना, चलो ठीक
और भी ठीक
कुछ भी न पढ़ना
कोई अक्षर नहीं |

* क्या कर लेगा
अब पास आकर
मेरा निर्दयी ?
आकर तो देखे ज़रा
आये तो मैं भी देखूं |

* देखते नहीं
लिखने में कितना
थक जाता हूँ ?

* अब जाता हूँ
मैं विश्राम करूँगा
कुछ समय |

* देश भला है
किसके अजेंडे में
कोई बताये ?

* मानो न मानो
पूरा भारतवर्ष
लूट का अड्डा !

* इतना झूठ !
कितना झूठ झेलूं ?
अब असह्य |

* बात न करें
चीत न करें, तो क्या
कबड्डी खेलें ?

* फेसबुक तो
बड़ी अच्छी चीज़ है
पढ़ें तो जानें !

* अब अगर
कोई आपसे पूछे
तो क्या पूछेगा ,
जब आपने सब
स्वयं ही बता दिया ?


शिक्षा के सम्बन्ध में मेरी किंचित वान्छ्नाएं :-
* कोई होमवर्क न दिया जाय | घर पर बच्चा कुछ खेले कूदे , घर - समाज के कामों में हाथ बँटाये , और जिंदगी की शिक्षा ग्रहण करे | स्कूल का काम स्कूल में |
* सुलेख और द्रुत गति से पढ़ने का अभ्यास कराया जाय | स्पष्ट , सुंदर अक्षरों में सही वर्तनी सहित, तिस पर भी तेज़ लिखना और भाषा का सव्याकरण ज्ञान शिक्षा का महत्वपूर्ण अंग है |
* कोई स्कूल ड्रेस नहीं | बच्चा जो घर पर पहन सकता है वही स्कूल में पहने सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक भिन्नता के साथ | समानता का ढोंग न किया जाय, विषमता को झूठे खर पतवार से ढकने छिपाने की ज़रुरत नहीं | उन्हें हकीक़त / जीवन के यथार्थ से परिचित होने दिया जाय | फिर इस समानता के नाटक का आखिर तो भार निर्धन, कमज़ोर दम्पतियों पर ही तो पड़ता है नए नए स्कूल के लिए नए ड्रेस बनवाने में ? या हो तो सभी स्कूलों का एक ही ड्रेस हो, बैज पृथक हो | अच्छा तो है वही लिबास जिसे पहनकर बालक अपने ननिहाल , बुआ - मौसी के घर भी जा सके |
* और वह वहां जाकर वहां का स्कूल भी अटेंड कर सके | उसका ID अंतर्देशीय हो |
* शिक्षा को घंटों [ Periods ] और विषयों में न बांटा जाय - सतत continuous / inter connected समग्रता का attitude अपनाया जाय |
[ बात लम्बी है , अब थक गया , थोडा विश्राम :)]          

Notes :--
* जो स्वयं अराजक है , उसकी सत्ता अराजकता को नहीं रोक पायेगी |

* ऊँट पहले अपना मुंह ही ज़रा सा छिपाने की जगह आपसे मांगेगा |

* अगर आप बैठकर शालीनता से सभ्यतापूर्वक आपस में बात नहीं कर सकते , तो आज़ादी क्या बचायेंगे ?    लोकतंत्र कसे टिकेगा ?
Prabhat Chandra = apne virodhiyo ke sath aisa kaise ho sakta hai.dadda


Ugra Nath = यही तो पेंच है | विरोधियों के साथ भी हो सकता है , होना चाहिए | या वार्ता संभव न हो तो मौन या मुस्कान |
.=उदाहरणार्थ, हमारी आपसे बातचीत होती है कि नहीं ? क्या समझते हैं , हमारी आपसे सहमति है ? क्या जनाब रूसो की श्रीमान वाल्तेयर से सहमति थी ? तब भी उनके बीच का एक ऐतिहासिक संवाद अत्यंत प्रचलित है :- I do not agree with what you say , but I can lay down my life for your right to say . लोग समझते नहीं मित्र ! क्या किया जाये ? हम लोग लोकतान्त्रिक शिष्टाचार - व्यवहार में अनुशीलित नहीं है | यह अनायास ही नहीं है कि ब्रिटेन का शासन अलिखित संविधान, केवल परंपरा के बल बूते पर चल रहा है | वहां का  P M बहुमत खोने पर अपनी अटेची लेकर 10 डाउनिंग स्ट्रीट {प्रधान मंत्री का स्थाई आवास } से टैक्सी से अपने घर चला जाता है | यहाँ की तरह नहीं की वह खानदानी निवास बन जाये | बहुत सीखना है हमें, पर ग|ली देने से हमें छुट्टी मिले तब न ?    

Rough Work : --
* आज आये हो ज़मीं तक !
कहाँ थे जी तुम अभी तक ?

* पानी भी नही बरसा, और वह भी नहीं आये ,
क्या कहना मुझे उनसे, सब भूल गया - हाय |

* [संस्था ] :-- एतराज़ (उर्दू में) = आपत्ति = OBJECTION

* [पार्टी] :-- देहाती दल , Rural Party (for Indian climate)
                 / या फिर = NEW Party  अब इसमें समस्या यह है कि इसे
                    "नयी" लिखा जाय या "नई" ?

* मयंक पाठक जी ने अभी अभी सूचना (Message) दी है := "आप पागल हो "
   - (मुझ) पागल व्यक्ति को उन्होंने 'आप ' का संबोधन दिया | आभारी हूँ |
      जी , इलाज चल रहा है | आज ही दो बजे अस्पताल जाना है | याद् दिलाने के लिए शुक्रिया  |
मयंक पाठक जी के मुझे भेजे सन्देश पर बलरामपुर के दार्शनिक कवि का एक शेर याद आया | ग़ज़ल के दो तीन शेर याद हैं - लिख देता हूँ :-
अगर मानव नहीं बदला नयी दुनिया पुरानी है ,
कहीं शैली बदलने से नयी होती कहानी है ?

जहाँ स्वाधीनता के दो पुजारी युद्ध करते हों,
वहां समझो अभी बाकी गुलामी की निशानी है | [सन्दर्भ - गाँधी + सुभाष ]

प्रगति के हेतु कोई एक पागलपन ज़रूरी है ,
तुम्हारे मार्ग में बाधक तुम्हारी सावधानी है |  

* मैं लिखता नहीं , मैं अपने आप को उदघाटित करता हूँ | Expose / disclose / Unfold !

* हमको तो रोक दिया रह के खतरे बताकर ,
   और खुद चल दिए कहकर कि अभी आता हूँ |

* रुष्ट समाज / उग्र (Radical) समाज ?

* वेद  पुराण, गीता रामायण की बात मैं नहीं करता | मुझे तो गर्व होता है कि हमारे प्राचीन / सनातन / हिन्दू वांग्मय में ऋषि श्री वात्स्यायन लिखित "काम सूत्र " जैसा धार्मिक ग्रन्थ मजूद है | हिम्मत हो तो खंडन करे कोई मेरी बात का !

* सचमुच जैसा कि कुछ भाई लोग कहते हैं , यदि एक बार यह मान लिया जाय , दिल में बैठा लिया जाय कि भारत में मुस्लिम शासन है [ क्या पहले था नहीं ] , तो हमारी तमाम मानसिक परेशानियाँ दूर , रफूचक्कर , उड़नछू हो जायं | आज़म - मुलायम का शासन भला लगने लगे और अच्छी लगने लगे मना मोहन की उद्घोषणा - देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है |

* फूहड़ , वाहियात, नाकारा  जैसे शब्दों के पर्यायवाची और उनका अंग्रेजी बताइए , तब न तैयार करूँ मैं उनकी प्रोफाइल ? प्रस्तुत करूँ उनकी CV ?

सोमवार, 1 जुलाई 2013

नागरिक लेखन 29 - 30 जून , 2013

हमने कल राजकीय अभिलेखागार में अमीर खुसरो लिखित कुछ कव्वालियाँ सुनी | पम्फलेट की पहली कव्वाली किंचित उद्धृत करता हूँ :--
" मोरा जोबना नवेलरा भयो है गुलाल .
चूड़ियाँ फोडूं पलंग पर डारूं
इस चोली को दूँ आग लगाय
सूनी सेज डरावन लागे
विरह अग्नि मोहे डस डस जाय ,
मोरा जोबना नवेलरा भयो है गुलाल . "
  - अब बताइए यह बाँदा 12 वीं सदी का है , और अभी तक जस का तस है | न इसे धर्म छु पाए, न राजनीति | न साम्प्रदायिकता कुछ बिगड़ पाई | बाल बांका नहीं हुआ इस सूफी / प्रेमी का | कह सकते है सच्चा प्रेम कभी नष्ट नहीं होता | और कामोत्तेजना से अविच्छिन्न भी नहीं होता | सोचता हूँ तब वे अपनी sexuality को किस तरह खुल कर बयां करते  थे और उसे Spirituality में भी तब्दील , रूपांतरित कर लेते  थे ? अपनी मीरा का भी यही हाल था, रसखान का भी | धन्य थे वे |
और एक हम हैं जो ओशो के "संभो से समाधि  की ऑर " पर मुंह बिदका देते हैं | जबकि दरअसल दोनों एक हैं | लेकिन वह तो उनके लिए है जो उसकी अनुभूति कर सकते हैं | विवाद से तो इसका ज्ञान होने से रहा ?
  आयोजन में मेरा प्रिय भजन -भी हुआ - खुसरो का ही " छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाय के  "      मैं कभी मजाक में प्रगतिशील कवियों से [ क्योंकि वे कुछ ज्यादा ही कवि बनते है, और आन्दोलन चलते हैं ] पूछता हूँ - क्या तुम ऐसी एक पंक्ति लिख सकते हो जैसा खुसरो ने आठ -नौ सौ वर्ष पहले लिख दिया | यह समय कुछ कम नहीं होता | विज्ञानं कहाँ e कहाँ पहुँच गया , लेकिन साहित्य? लेकिन संस्कृति ? लेकिन ? ? ?

* अहंकार और आत्मविश्वास में कितना तो झीना सा अंतर है !

* फेसबुक के दिशानिर्देशों के अनुसरण में, एततद्वारा मैं यह घोषणा करता  हूँ कि मेरे सभी उद्धरणों, साहित्यिक सामग्री, जहां किसी और का नाम वर्णित/इंगित न हो, कॉमिक्स, पैंटिंग्स, तस्वीरें व वीडियो आदि पर किसी तरह का प्रतिलिप्याधिकार लागू नहीं है. कथ्य सामग्री के किसी भी अंश या पूरे भाग के किसी भी तरह से उपयोग करने के किसी भी अवसर पर मेरी पूर्व लिखित अनुमति लेना बिलकुल आवश्यक नहीं है. फेसबुक के सभी मित्र सौजन्य के तहत इन सबका, वैयक्तिक विवरणों, तस्वीरों और कविताओं को छोडकर, निस्संकोच प्रयोग कर सकते हैं.
नहीं नहीं , मैं अपनी कविताओं पर भी अपना कापीराइट त्याग रहा हूँ | उन्हें भी कोई अपने नाम से भी प्रकाशित / प्रचारित कर सकता है | वे मेरी नहीं , सम्पूर्ण अस्तित्व की संपत्ति/निधि हैं |

* विनम्रता कहाँ से आती है ?
अहंकार कहाँ को जाता है ?
वही है अध्यात्म मेरा |

* मैं " Paid Views " नाम से एक विचार गोष्ठी चलाना चाहता हूँ | आप लोगों की क्या राय है ? क्या यह चलेगी ?
विचार वक्ता सदस्यों की ज़मानत धनराशि जमा रहे | जितने मिनट जो बोले, हिसाब से पैसा कटे | पेमेंट का भय नहीं रहता तो भाई लोग हांके जाते है | इस विधि से लोग चुप रहना या  संक्षेप में अपनी बात कहना सीखेंगे | गोष्ठी अनुशासित रहेगी | एक स्टॉप वाच की ज़रुरत पड़ेगी, और एक तेज़ तर्रार एन्कर की |

* HE WAS SUPPOSED TO BE GOD . HE CEASED TO BE .

* " Political is Spiritual "
[in rhyme with Personal is Political ]

* सारी सहिष्णुतायें, दान, अनुदान चालबाजी भी होती हैं | लो, मंदिर के लिए ज़मीनें | तुम अपने अन्धविश्वास में मस्त रहो, हम अपने विश्वास का शासन चलाते हैं |

* मैं सोचता हूँ कि समाज सेवा के बड़े से बड़े और छोटे से छोटे कार्यों को एक समान प्रशासित करने का आप से आग्रह करूँ | अन्यथा होता क्या है कि छोटे स्वयंसेवी प्रोत्साहन पाने से रह जाते हैं | टाटा बिरला , अन्ना-टेरेसा का काम तो सबकी नज़र में आ जाता है , और उस बच्चे का जिसने एक भूखे प्यासे को अपने टिफिन का खाना खिलाया,अपने बोतल का पानी पिलाया ? उस लड़की का जिसने एक बूढ़े की लाठी पकड़कर सड़क पार कराया ? या उस ट्रेफिक सिपाही का जिसने पूरी मुस्तैदी से दिन भर ड्यूटी की और कई दुर्घटनाएँ बचाईं ? क्या इनका मूल्य किसी मायने में किसी भी महान समाजसेवी के कामों से कम महत्वपूर्ण है ?
दादी के लिए चिमटा लाने वाला प्रेमचंद के "ईदगाह" का बालक हामिद और देश पर कुर्बान होने वाला वीर जवान अब्दुल हमीद , दोनों बराबर | क्या अद्भुत समानता है ?


* मृतकों की संख्या कम करके बताने में सरकार को क्या मज़ा आता है ?

* हाथी की सवारी -
मैंने पिछले दिनों सुभाषिनी अली सहगल की एक पुस्तिका "पहचान की राजनीति " खरीद कर क्या पढ़ ली कि मार्क्सवाद के प्रति रही सही थोड़ी सी मोहब्बत भी चली गई | अत्यंत जिद्दी है यह वाद | बस सवारी तो हाथी की करेंगे , और उसका सूंड, खम्भे जैसे पाँव, सूप जैसे कान नहीं देखेंगे | उसे वे अधूरा चिंतन मानते हैं | जो हो रहा है दलित आन्दोलन, महिला सशक्तिकरण और वह सफल भी हो रहा है, उसे ये नहीं मानेंगे | बस वर्ग - वर्ग चिल्लाये ज रहे हैं | नीलाक्षी सिंह सही कहती हैं इनके बारे में | जब तक मैं गंभीर शास्त्रीय किताबें पढ़ता था तब तक इसे सुलझाने के चक्कर में इसके प्रेम में उलझा रहता था | अब ज्यादा समय नहीं है |

* तुम कहते हो ज़माना बदले तो आऊँ ,
और तुम हो कि खुद बदलते नहीं !

[कविता ?]     - -" बारिश "  
* अरे,
बारिश हो रही है
मैंने छज्जे पर ,
तुम्हारे लिए
अपनी आँखें
बिछा ररखी थीं
देखो ,
कहीं भीग तो नहीं गयी ?
#  #

[कविता ?]    - - " वह कुर्सी "
* वह फोल्डिंग कुर्सी
जिस पर तुम बैठा करते थे
आज भी सुबह सुबह
सज धज कर, तैयार होकर
ठीक उसी जगह लग जाती है
जहाँ तुम बैठते थे |
कोई और, उस पर पड़ा धूल देखकर
बैठता नहीं , और तुम हो कि आते नहीं |
फिर शाम, देर शाम, थक हारकर
तुम्हारा इंतज़ार समाप्त कर
सिकुडकर कमरे में आ जाती  है    
रात बिताने, सुबह होने तक |
#  #

Some notes :--
* मुझे हिन्दू मुसलमान से क्या मतलब ? मेरा काम तो नास्तिकता फैलाना है, जहाँ तक पहुंचे |

*  यदि आपको भजन कीर्तन के शोर पर कोई ऐतराज़ नहीं है , तो आप अजान के शोर पर भी आपत्ति नहीं कर सकते |

* क्या सांप्रदायिक होना बुरी बात है ? फिर विश्वसनीय धार्मिक कैसे होंगे ? अपना धर्म कैसे फैलायेंगे ?

* 'ही' नहीं, 'भी' सिद्धांत -
बुद्धिवादी  [Rationalist] यह नहीं कहता कि मेरे 'ही'पास बुद्धि है | अलबत्ता वह कहता है - मेरे 'भी' पास बुद्धि है |

* मानव ( मनुष्य ) वाद में ईश्वर का क्या काम ?

* यदि ईश्वर है तो गॉड, अल्लाह भी होगा ! क्या यह सच है ? ज़रा टेढ़ा करके सोचियेगा |

Some notes :--
* मुझे हिन्दू मुसलमान से क्या मतलब ? मेरा काम तो नास्तिकता फैलाना है, जहाँ तक पहुंचे |
*  यदि आपको भजन कीर्तन के शोर पर कोई ऐतराज़ नहीं है , तो आप अजान के शोर पर भी आपत्ति नहीं कर सकते |
* क्या सांप्रदायिक होना बुरी बात है ? फिर विश्वसनीय धार्मिक कैसे होंगे ? अपना धर्म कैसे फैलायेंगे ?

* इतना तो आदमी
नहीं गिरा है
जितनी सस्ती हुई है
आदमी की जिंदगी !
------------------------------

* अरे ठीक है
जहाँ तक हो पाया
तुमने किया |

* जाने न दूँगा
कोई भी अवसर
मुलाक़ात का |

* फिसल पड़े
नदी, नाला, कुएँ में
तो हर गंगे |

* सूझता नहीं
मज़ाक़  के आलावा
उन्हें कुछ भी |

* कौन करता
इंतज़ार , प्रतीक्षा
वह भी मेरा ?

* बादल नहीं
बरसें तो बरसें
हमारी आँखें |