सोमवार, 28 सितंबर 2020

मेरानिर्णय

राजनीति के इस मोड़ पर सेक्युलरवाद:
- - - - - - - - - - -  उग्रनाथ
मेरी अपनी, भारतीय धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र की समझ यह बनी है कि secularism की सारी किताबी परिभाषाएँ नहीं चलेगी । इसकी परिभाषा यह होनी चाहिए कि धर्म राज्य व्यवस्था के अधीन हो । दोनो में दूरी, separation का concept असफल है । State यदि हस्तक्षेप, assert न करेगा तो धर्म ruling स्थिति में आ जायेगा । इसे contain करना राज्य का काम होना चाहिए । और राज्य को Bradlaugh ian Secular, Complete scientific, Godless Thisworldly होना चाहिए । परलोक, That world को मानने वाले किसी समूह को राजनीति से बाहर रखना चाहिए । फिर व्यक्तिगत आस्था की स्वतंत्रता की संरक्षा का प्रश्न तो बेकार है उठाना । निजी सोच भावना, दिल दिमाग में कोई क्या रखता है, उससे यूँ भी किसी को परेशानी, या मतलब कहाँ होता है? यह उलझाने वाली बातें है । यही राज्य चाहता है । उलझे रहो जिससे उनका धर्म न जाने पाए । यही धर्म चाहता है कि उलझे रहो जिससे इनकी राजनीति चले ।
इस शताब्दी तक यह तार्किक निष्कर्ष आ चुका है कि धर्म और राजनीति दोनो का मकसद एक है, दोनो एक हैं । तो राज्य तो किसी एक की ही चलेगी? इस लोक की, या परलोक की । दोनो हाथ में लड्डू वाली होलियोक की शुभेच्छा न चल पायी भले गाँधी जैसों ने बड़ी कोशिशें कीं । असफल होना ही था क्योंकि विचार यह वैज्ञानिक नहीं कि लोकतंत्र में पराई दुनिया का हस्तक्षेप हो ।
केवल राजनीति का राज्य होना चाहिए । धर्म जिसे आवश्यक लगे वह राजनीति को अपना धर्म बनाये ।
क्या मानववाद, लोकतंत्र, संविधान, वैज्ञानिक चिंतन आस्था का विषय नहीं हो सकते हमारे ? धर्म बनने के लिए किस गुण की कमी है Secularism, इहलोकवाद में ?
धर्म को केवल जड़ से नहीं , इनका नामोनिशां मिटना चाहिए संसार से । 
आखिर हम डार्विन, स्टीफेन हाकिंग की दुनिया में जी रहे हैं ? किसी आसमानी, ब्रह्मलोक में तो नहीं ? (Sorry, so I said ! 😢)
,,उग्र

शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

स्वधर्म

स्वधर्मे निधनं श्रेयः, परधर्मो भयावहः - - 
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तमाम माथापच्ची के बाद यह निष्कर्ष निकला कि इस बात पर माथापच्ची व्यर्थ है कि हमें कैसे इस दुनिया से विदा किया जाय, अर्थात हमारा अन्तिम संस्कार किस विधि से हो ? हिन्दू रीति से या इस्लामी तरीके से ?
पेंच यह फँस रहा था कि हम ठहरे बुद्धिवादी नास्तिक लोग । स्वर्ग नर्क, पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करते । अब यदि हिन्दू रीति से क्रियाकर्म हुआ और हमारे सत्कर्मों के फलस्वरूप ईश्वर ने ब्राह्मण घर में पैदा कर दिया तब तो हमारी ऐसी दुर्गति होगी कि ज़िंदगी नरक हो जायेगी । और यदि इस्लामी तरीके से दफ़्न किये गए थे भी वही दिक्कत । जन्नत जहन्नुम हो जायगी । 72 हूरें कौन झेलेगा ? 
इस पेंच में अम्बेडकर भी टपक पड़े थे । घोषणा कर दी - हिन्दू पैदा तो हुआ लेकिन हिन्दू मरूँगा नहीं । अब बताइये, अपना तो बौद्ध धर्म में हो लिए, हमको हिन्दू मुसलमान छोड़ गए । हो तो हम भी जायँ बौद्ध, और वह तो हैं ही । लेकिन क्या वहाँ कम पाखण्ड है/होगा ? कहीं निजात नहीं । क्या किया जाए ।
तब आता है एक सनातन उद्धारकर्ता श्लोक । स्वधर्मे निधनं श्रेयः - - - और स्वधर्म का मतलब जिस धर्म में पैदा हुए । फिर क्या था? हमने अम्बेडकर को उलट खड़ा किया, जैसे मार्क्स ने हीगल को किया था । फार्मूला निकला - जिस धर्म में पैदा हुए उसी धर्म में मरेंगे । भाई वाह कि पैदा हुए हिन्दू धर्म में उसने हमें गू मूत में लपेटा, और अब जब साफ सुथरे हुए तो मरने कहीं और चले जायँ? नहीं हमें पैदा करने की गलती वही झेले जिसने हमें पैदा किया । पैदा किया तो अंतिम संस्कार भी करो । दूसरा धर्म कोई तुम्हारा नौकर, सेवक, सहायक है क्या, जो तुम्हारी गन्दगी ले जाये ?
इस प्रकार सिद्धांत निकला - जहाँ से शुरू वहीं पर अंत । जहाँ पैदा हुए, वहीं मरेंगे । और इसके बीच जीवन भर धर्म की जड़ में मट्ठा डालकर इसकी सेवा करो । 😢
,,उग्रनाथ के 74 वर्ष पूरे होने पर आप मित्रों को शुभकामनाएँ ।💐