मंगलवार, 11 मार्च 2014

[ नागरिक पत्रिका ] = एक मार्च 2014 से 11 मार्च २०१४


" नापाक "
नास्तिक पार्टी कार्यकर्ता
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नास्तिक कम्युनल पार्टी
" नाकपा "
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लेकिन मेरे ख्याल से पहला वाला ठीक है | क्योंकि नापाक का स्वतंत्र भी एक अर्थ है |
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विरोधी दल [ V D ]
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 कहना !
" ( माँ ) बाप न मिले तो पुत्र अदालत में दावेदारी ठोंकता है | जिनके हैं वे उन्हें बाहर निकाल देते हैं | "
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कहाँ तो हिन्दुस्तान इस मामले में बदनाम था की माता पिता एक पुत्र के लिए तरसते थे | ( पुत्री के लिए न सही ) | प्राप्त न होने पर मंदिर - देवालय जाकर मनौतियाँ मांगता था | 
अब देश का नाम इस काम में ऊंचा हुआ है कि पुत्र पिता के लिए अदालत जाता है |
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बस ऐसे ही बोलते बतियाते जिंदगी कट जाती है | इन्ही के बीच जिंदगी अपना कोई रास्ता निकाल लेती है | पुरानी राह मिल जाती है | नई बन जाती है | 
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यह तो कहिये कि तमाम पुरुष महिलाओं की बड़ी इज्ज़त करते हैं  | ( उतना औरतें पुरुषों का सम्मान नहीं करतीं ) | सीमा से आगे जाकर गलत ढंग से भी पुरुष स्त्रियों का पक्ष लेते हैं , वर्ना पता चल जाता इन्हें कि समानता क्या होती है | भुगत जातीं स्वतंत्रता | भुगत ही रही हैं !
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पहले डाक्टर भगवान होते थे | अब भी माने तो जाते ही हैं | लेकिन अब डाक्टर के लिए ' मरीज़ ' भगवान होने चाहिए |
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कोई मानता ही नहीं | मैं कब से कह रहा हूँ भारत पाकिस्तान के बीच कोई मैच मत कराओ | बहुत हो चुका खेल | और वह भी मित्रता का भ्रम फैला कर ! जब कि हर बार हम देखते हैं यह द्वेष और तनाव ही पैदा करता है | नाराज़ न हों , चलिए मान लेता हूँ सब हिंदुस्तान की गलती है तो भी | क्या ज़रूरत है खेलने और भिड़ने की | ये दोनों मुल्क दुसरे देशों के बीच खेल देखें और मज़ा लें , तभी तक ठीक है | सत्यतः भी दोष भारतीयों का है | पाकिस्तान के जीतने और हारने पर जो खुश होते या मातम मानते हैं , वे भारतीय ही तो हैं ?
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लिखता नहीं 
गोंजता रहता हूँ 
अलबत्ता मैं |

राजनीति का 
चमकता सितारा 
धूमकेतु है |

खलनायक 
इतने तो नहीं हैं 
राजनीति में !

करता तो है 
कमाल कामदेव 

क्या रामदेव !
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औरतें क्यों नहीं कर सकतीं कोई भी काम ? लेकिन यह बात हर औरत पर लागू नहीं होती | हर पुरुष ही कौन सा हर काम कर लेता है ?
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 नादान हैं बच्चे | निश्चय ही उनका कृत्य निंदनीय /अक्षम्य है , फिर भी क्षमा उचित है | बुरा तो होगा कहना , जिंदाबाद के नारों से भी लोगों ने खूब लूटा - खाया है देश को , छलनी किया है माता के सीने को | हमारे सामने महत्वपूर्ण है देश , देशभक्ति के नारे और सहारा परिवार की प्रदर्शनी नहीं | नारे लगाकर वे देशद्रोही सामने प्रकट हो गये , तो उन्ही के साथी जिन्होंने ऐसे नारे नहीं लगाये क्या समझते हैं वे देशभक्त हो गये ? होंगे , हो सकते हैं लेकिन ज़रूरी नहीं | जो दिखाई पडा सिर्फ वही न देखें , अनदेखे पर गौर करना ज्यादा जरूरी है |उन्हें क्षमा करने से देश बड़ा होगा , मुल्क मजबूत होगा , उन्हें फांसी दे दें तो भी कुछ हासिल न होगा |
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सत्य की संख्या बहुत अधिक है ,
झूठ की तादात भी कम नहीं है ; 
अब जिसको जो सत्य पसंद हो ,
जिसको जितना झूठ चाहिए  
वह ले सकता है 
तो ख़ुशी से ले ले | 
इस पर किसी को कोई 
आपत्ति नहीं होनी चाहिए ;
आपका अपना सच - झूठ 
उनका अपना और 
मेरा भी नितांत अपना | 
न मैं , न वह , न आप 
कोई अंतिम निर्णायक नहीं है 
सच और झूठ का
या क्या सच क्या झूठ !
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विनोबा या दादा कहते थे कि " राजनीति बाँटती है " | इसमें वह जोड़ते थे - " और संस्कृति जोडती है "  ( लेकिन इस पर फिर कभी ) |लेकिन राजनीति बांटती है , इसका तो अनुभव हो रहा है | राजनीतिक हलचलों के बीच , या बिलकुल स्पष्ट कहें की " आप पार्टी " के उदय के साथ मेरे विपक्षी तेवर के नाते मेरे अच्छे भले मित्र जो आप के समर्थन में हैं , वे मुझसे कटे कटे दिखने लगे हैं | इसका श्रेय किस्क दिया जाय यदि राजनीती को नहीं ? जबकि यह भी सच है कि न हम न हमारे मित्र सीधे पार्टी बंदी की सक्रीय राजनीती में हों | तिस पर यह हाल है | अलबत्ता निजी प्रौढ़ता , शिष्टाचार और भद्रतावश कोई अप्रिय स्थिति नहीं आती , न कोई ख़ास खटास | लेकिन राजनीति बांटती तो है |
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कभी कभी उच्चतर / उच्चतम चीज़ों को भी संरक्षण - आरक्षण की आवश्यकता होती है | जैसे शास्त्रीय संगीत , गायन - वादन - नृत्य को ; संस्कृत - पाली भाषाओँ को | कबड्डी - गुल्ली डंडा जैसे देसी खेलों को , लोक गीत , कहावतों , कलाओं को - -- -
अब इसका तो विरोध नहीं होना चाहिए | दलित , पिछड़े वर्गों की ओर से भी !
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साहित्य में मुझे प्रिय हैं दो विधाएँ । आत्मकथा और जीवन चरित्र । लेकिन अब इनके प्रति कुछ अरुचि पैदा करना चाहता हूँ । कारण यह है कि ये महान लोगों के होते हैं । इन्हें पढ़कर इनका अनुकरण करने का भाव मन में उठता है । वह संभव है या नहीं प्रश्न यह नहीं है । मैं कहना चाहता हूँ कि छुद्रता के इस समय में क्या ऐसा सोचना भी किसी दृष्टि से उचित है । इसलिए पसंद होते हुए भी इनसे विरत होना चाहता हूँ ।

 मेरे ख्याल से आदमी को एक साधारण जीवन जीकर चदरिया जस की तस रखकर मर जाना चाहिए | इसी में उसकी महानता है |
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सोमवार, 3 मार्च 2014

[ नागरिक पत्रिका ] = एक जनवरी 2014 से - एक मार्च तक

* अरे कुहरे !
तू मत घबरा रे ,
अभी बस सूर्य
निकलने ही वाला है
और तुझे
छँट ही जाना होगा |
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* जब कि कोहरा
पाँच फिट आगे
को भी दिखने न दे ,
दिख रहे तुम दूर
कोसों दूर से !
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* शोक में हास्य
कठिन है निर्वाह
क्रोध में शान्ति !


* हालाँकि हम टोना टटका में विश्वास नहीं करते , बल्कि इनका विरोध ही करते हैं | लेकिन जो लोग इसे मानते हैं वे मान सकते हैं कि केजरीवाल की सफलता के पीछे एक टोटके का प्रभाव है / हो सकता है | आप भी गौर करें इनका नाम " लाल - बाल - पाल " से कितना मेल खाता है ? केजरीवाल ! अब भला इतने और ऐसे महान लोगों का सह - काफिया होने का कुछ लाभ यदि इन्हें मिले तो आश्चर्य क्या ?


मैं असंत हूँ " Non - Saints "
* ओशो की एक साधना पद्धति, ध्यान विधि है - ' मैं कौन हूँ ? ' | मैं यह तो नहीं जान पाया कि 'मैं कौन हूँ ? ' | लेकिन इस जानकारी पर अटका / पहुंचा तो हूँ कि मैं क्या / कौन नहीं हूँ | मैं संत नहीं हूँ | मैं डॉ कोवूर के ' Begone Godmen ' {दूर हटो , देवपुरुष !}का समर्थक हूँ | मैं देवपुरुष नहीं , देवतापन का विरोधी हूँ | मैं संत नहीं हूँ | मैं असंत हूँ और ऐसे ही " Non - Saints " ग्रुप में हूँ |

निःशुल्क निवास = मुफ्तावास
* आवश्यकता है एक वृद्ध Retd Engineer , साहित्यकार हेतु विश्वसनीय , सेवाभावी महिला की :)

* चलिए , विश्वास की ही बात हम भी करते हैं | तो विश्वास कीजिये ईश्वर जैसा कुछ नहीं हैं | अब तर्क तो मत कीजिये | अपनी बात पर कायम रहिये |

* तर्कातीत तो होना ही पड़ेगा | इसीलिए मैं तर्क की बात करता हूँ , उसका पक्ष लेता हूँ | तर्क करेंगे तभी तो तर्कातीत हो पायेंगे ! भाव विह्वलता इसका विकल्प नहीं है |