सोमवार, 22 जून 2020

मार्क्सवाद सिद्धांत है, विचारधारा नहीं, रोज़ बदलने वाली

Suresh Srivastava
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भागो की मौत का जिम्मेदार कौन?
   जनसत्ता, 17 जून 2015 में, 'हक़ के लिए' आलेख में भागो के ज़रिए निवेदिता ने रेखांकित किया है कि भागो जैसी हज़ारों दलित  महिलाएँ लोगों के हक़ के लिए लड़ते हुए जान दे देती हैं पर दलित महिला होने के नाते उनकी मौत ख़बर नहीं बनती है। वे भूल जाती हैं कि दूसरों के हक की लड़ाई लड़ने वाले/वालियां अपने आप को खाँचों में नहीं बाँटते/बाँटती हैं, जिनकी रुचि केवल ख़बरों में होती है, वे ही लड़ाकुओं को स्त्री या पुरुष, दलित या सवर्ण, अगड़ा या पिछड़ा, हिंदीभाषी या अहिन्दीभाषी, हिंदू या मुसलमान जैसे खाँचों में बाँट कर, वंचितों की हक़ की लड़ाई के लिए आवश्यक एकजुटता को कमज़ोर करते हैं। और अगर कुछएक, चाहे वह भगत सिंह हो या निर्भया हो, का बलिदान ख़बर बन भी जाता है तो भी वह उद्देश्य, जिसके लिए बलिदान दिया गया, क्या कहीं भी पूरा होता नजर आता है। इतिहास कहता है कि इसका उत्तर तो 'नहीं' के अलावा कुछ और नहीं हो सकता है। नब्बे साल पहले के भगतसिंह हों या आज के दौर के नक्सलवादी या माओवादी हों, उन बेशक़ीमती जवानियों की असफल शहादत और असमय मौत का ज़िम्मेदार कौन है? क्या राजसत्ता के कारकुन जल्लाद या सिपाही, या सामंतों की रनबीर सेना के हथियारबंद दस्ते? या फिर अस्तित्व के लिए संघर्षरत शोषित वर्ग के स्वघोषित पैरोकार बुद्धिजीवी, जो शोषितों को शोषकों विरुद्ध उकसाने का काम बख़ूबी अंजाम देते हैं, पर जो स्वयं न तो शोषण की क्लिष्ट प्रक्रिया को समझते हैं और न ही उसमें सार्थक हस्तक्षेप कर सकने की क्षमता विकसित कर सकने का रास्ता जानते हैं।
   बुद्धिजीवियों का एक वर्ग है जो समाजवाद की दुहाई तो देता है पर मार्क्सवाद को सिद्धांत के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। यह वर्ग अभिव्यक्ति की व्यक्तिगत आज़ादी को अनुल्लंघनीय नियम के रूप में स्वीकार करता है और अस्मिता की राजनीति को क्रांतिकारी संघर्ष मानता है, इसलिए उसके पास न कोई सिद्धांत हो सकता है और न ही वह संगठित संघर्ष के महत्व को समझ सकता है। पर जो मार्क्सवादी होने का दम भरते हैं और कम्युनिस्ट पार्टी के नाम पर एकजुटता का दावा करते हैं, वे भी मार्क्सवाद को एक सिद्धांत के रूप में न देखकर एक विचारधारा के रूप में देखते हैं जिसको निरंतर विकसित किये जाने की आवश्यकता है, और विचारधारा को विकसित करने के नाम पर, वैज्ञानिक समाजवाद को नकार कर, काल्पनिक समाजवाद को अपनी-अपनी कल्पना के अनुसार परिभाषित कर, फ़िलवक्त के लिए प्रासंगिक विकसित समाजवाद के रूप में पेश करते रहते हैं। 
   इस प्रचलित धारणा, कि कम्युनिस्ट पार्टी ग़रीबों की पार्टी होती है, का अनुकरण कर भागो भी कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गयी, बिना यह जाने-समझे कि बिना क्रांतिकारी सिद्धांत के कोई भी क्रांतिकारी पार्टी नहीं हो सकती है। लेनिन ने आगाह किया था कि ' जो कोई भी संसदवाद तथा बुर्जुआ प्रजातंत्र के अनिवार्य आंतरिक अंतर्विरोधों, जिनके चलते मतभेदों के समाधान पहले के मुक़ाबले कहीं अधिक व्यापक हिंसा के कारण और अधिक उग्र होते हैं, को नहीं समझता है, वह व्यापक मजदूरवर्ग को ऐसे फ़ैसलों में विजयी अभियान के लिए तैयार करने के मक़सद से संसदवाद के आधार पर कभी भी उसूल सम्मत प्रचार तथा आंदोलन नहीं चला सकता है।' और पिछले नब्बे साल के इतिहास में हर निर्णायक अवसर पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा लिए गये ग़लत फ़ैसले और व्यापक मजदूरवर्ग को विजयी अभियान के लिए तैयार करने में उनकी असफलता, इस बात की तसदीक़ करते हैं कि भारतीय कम्युनिस्टों के बीच उस सिद्धांत की समझ नदारद है, जिस सिद्धांत के बारे में मार्क्स ने कहा था कि 'सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने पर भौतिक शक्ति में परिवर्तित हो जाता है और जनता के मन में घर वह तब करता है जब वह पूर्वाग्रहों को बेनक़ाब करता है।' 
   मौजूदा विखंडित कम्युनिस्ट पार्टियों के रूप में संशोधनवाद अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है और उनके अवसान में निहित है भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का प्रस्थान बिंदु। 

सुरेश श्रीवास्तव 
22 जून 2015
marx-darshan.blogspot.in

पाखण्ड पार्टी

पाखण्ड पार्टी?
(भारतवर्ष का सनातन अधिकार)
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इसमें कोई शक़ नहीं कि "हम भारत के लोगों" को भारतीय दार्शनिक दिशा नहीं दे सके । कि धर्म का क्या रहना क्या फेंका जाना है?और godless spirituality भी कोई चीज है । धर्म सम्प्रदाय विहीन जीवन भी सम्भव है?  लेकिन यह पाखण्डी धर्मगुरुओं के वश की बात न थी, न है । इसका प्रणयन मार्क्सवाद के अनुसार ही सम्भव है । लेकिन मार्क्सवादी तो पहला काम यह करते हैं कि देश से बाहर चले जाते हैं । और यह भी नहीं कि क्यूबा से चेग्वेरा बनकर आते, पता नहीं कहाँ की बहस में फँस समय नष्ट करते हैं ।
अन्यथा बिल्कुल समीचीन था, यह उनकी तार्किक बौद्धिक क्षमता में थी कि वह Historical Materialism ऐतिहासिक भौतिकवाद की तरह Historical Spiritualism, ऐतिहासिक अध्यात्मवाद / प्रतिपादित करते । 
ज़मीनी स्थिति यह है कि नास्तिक भी कर्तव्य च्युत हैं, वामपंथ तो नास्तिकता के प्रथम step को भी ज़रूरी नहीं मानता, तो क्या खाक़ कुछ सोचेगा ? इनपर शोध करने के बजाय धर्म और अध्यात्म से ऐसा मुँह चिढ़ाते हैं मानो यह मनुष्य के विषय ही न हों, जब कि सबके सब धर्म योग में खूब संलिप्त, मुब्तिला हैं । (पाखण्ड करते भारती?)
अब तो बड़ी मुश्किल स्थिति है । मैं अपने को isolated और अकेला पाता हूँ। कोई नया चिंतन आ ही नहीं रहा। कोई सुनता ही नहीं, और मैं यह मान ही नहीं सकता कि मैं सम्पूर्णतः गलत हूँ। तो उस पर विचार तो होना चाहिए। मैं कहता हूँ धर्म को वैज्ञानिक बनाओ तो भाई कहते हैं धर्म अलग है, विज्ञान अपनी सीमा में रहे । तो यदि कहूँ राजनीति को वैज्ञानिक बनाओ तो भी कौन सुनेगा? इसी वाहियात राजनीति में सबको मज़ा जो आ रहा है। यह तो तब जब वैज्ञानिक समाजवाद जैसी विचारधारा उपलब्ध है और राजनीति को विश्वविद्यालयों में राजनीति विज्ञान के रूप में ही पढ़ाया जाता है ( उसमें विज्ञान कहाँ है?)!
तो ठीक है भाई, व्यक्ति अलग, समाज अलग, राज अलग, धर्म अलग, अध्यात्म अलग, सोच अलग कर्म अलग ही जिया जाय ! यही तो "पाखण्ड पार्टी" है !☺️ Join it friends !💐(छुद्रनाथ)

मंगलवार, 16 जून 2020

विज्ञान धर्म की स्थापना

Rakesh Mishra Kumar To Ugranath
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वैज्ञानिकता को बिलकुल धर्म कह सकते हैं ।भारत में तो ज़रूर कह सकते हैं ।इसे संप्रदाय ,पंथ ,
मसलक नहीं कह सकते क्योंकि कि वैज्ञानिकता ,धर्मों की तरह बाँटी नहीं जा सकती ।
भारत में धर्म के पहले ही अनेक अर्थ हैं ।मनु के मुताबिक़ अहिंसा ,सत्य ,अस्तेय ,शौच ,इन्द्रिय निग्रह धर्म के 10 लक्षण हैं ।महाभारत के अनुसार जो भी धारण करने योग्य है ,वह धर्म है ।धर्म शब्द का अर्थ स्वभाव भी होता है ।वैज्ञानिकता तो मनुष्य का स्वभाव है ,इसलिए धर्म है ।अंग्रेज़ी में ईश्वर और उसकी प्रेषित किताब की लिखत को religion कहा गया 
मगर इसका एक शब्द कोशीय अर्थ किसी धारणा ,नियम सिद्धान्त के लिए दृढ़ विश्वास भी है ।अगर कहें कि humanism is my religion या कि patriotism is my religion तो मैं नहीं समझता कि इसमें कोई व्याकरणिक गलती है ।
बुद्ध का धम्म किसी देवी -देवता में विश्वास और इबादत से कोई ताल्लुक़ नहीं रखता अपितु मानवीय आचार का बयान है ।
इसलिए मैं आपका समर्थन करता हूँ ।वैज्ञानिकता ही हमारा धर्म है जिसे हम प्रचारात्मक धर्मों के मुक़ाबले ज़्यादा जोश ओ जुनून के साथ फैलाएँगे भी ।

गुरुवार, 11 जून 2020

Religiosity

मैं एक बड़ा काम करना चाहता हूँ । बड़ा काम कहने के लिए कह रहा हूँ, विनम्रतावश, वरना कवि के लिए किसी चाँद तारे की दूरी कुछ ख़ास नहीं होती ।
बात यह थी कि मैं Spirituality और Religiosity को धर्म के हाथ से छीनकर Science के हाथ में देना चाहता हूँ । क्योंकि यह सब काम धर्म के वश का नहीं है । विज्ञान ही है जो इनका सही उपयोग कर सकता है । करता ही है, करता ही रहा है । सच्चे आध्यात्मिक और धार्मिक तो वैज्ञनिक ही हैं, जो सृष्टि, सृजन की चरणों में बैठकर उसे भलीभाँति समझना चाहते हैं । सृजनकर्ता की सच्ची पूजा आराधना तो विज्ञान करता है । धर्म अनावश्यक इसमें टाँग अड़ाकर छिछली कल्पनाओं के बल पर बड़ा भारी spiritual और religious होने का खिताब अपने माथे पर धरने की धृष्टता करता रहा । अब उसकी यह हिमाक़त चलने न पाएगी । वह यह मान ले कि आदमी को मूर्ख बनाने का उनका धंधा है धर्म, और धंधे तक ही सीमित रहें । ज्ञान विज्ञान पर उनका दावा निरर्थक और अनावश्यक है, वह माना न जायगा । व्यक्ति चाहे तो कोई धार्मिक आस्था व्यक्तिगत सीमा तक रखे, इसका अधिकार secularism और democracy की राजनीतिक व्यवस्था उसे देती है । लेकिन उसके आगे वह न बढ़े । बढ़ेगा तो लताड़ा, अपमानित और सम्भवतः किसी समय राज्य द्वारा दंडित भी किया जा सकता है । धार्मिक भावना को ठेस लगना तो साधारण बात है, जिसे हम संज्ञान में ही नहीं लेते ।
यह भी नहीं चलेगा कि इन दोनों महान मानुषिक क्षेत्रों का दोनो ही इस्तेमाल करें, दोनो अपना कब्ज़ा रखें । इससे भ्रम होगा कि कोई ज्ञान वैज्ञानिक है या धर्मिक । इसलिए मैं इन विषयों पर विज्ञान के एकाधिकार देना चाहता हूँ ।
अर्थात कोई वैज्ञानिक ही आध्यात्मिक और धार्मिक चेतना युक्त हो सकता है, कोई पोप पुजारी नहीं । धार्मिकों को तो निकृष्टजन समझा जाए, जैसा कि वह हैं । और एक उदाहरण के लिए मार्क्स को मैं महान धार्मिक आध्यात्मिक व्यक्ति की संज्ञा देना चाहता हूँ ।
तो यह काम मैंने किया religious, spiritual. (☺️हास्य का इमोजी लगा दूँ जिससे कोई बुरा न माने😊)
और आपको क्या काम करना है? वह यह कि जब कोई बाबा टाइप आदमी जोकर जैसे कपड़े पहने (ऐसे बहुत मिलेंगे आपको) दावा करे कि वह बड़ा धार्मिक और आध्यात्मिक शक्ति वाला है, तो ज़रा उस पर ठठाकर हँस दें, उसकी जोरदार खिल्ली उड़ा दें । ध्यान दीजियेगा, कोई वैज्ञानिक अपने बारे में ऐसा कुछ नहीं कहेगा । वह तो प्रकृति का विनम्र सेवक है । आपको बिना उसके बताए उसको आदर प्रदान करना है । 
#हैशा (उग्रनाथ नागरिक)
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PS- टैग करना/ किया जाना मुझे अच्छा नहीं लगता । तो ध्यानाकर्षण हेतु कुछ मित्र चिंतकों को mention भर कर रहा हूँ । Gauhar Raza, Vir Narain, Surendra Ajnat,  Hirday Nath, Narendra Tomar, Rakesh Mishra Kumar, Vijay Kumar, Abhishek Wasnik, Dilpawan Tirkey, Azad Rao, Nitin Gaur, Chandan Singh एवं साथी।
जो मित्र इस group में न होंगे वह comment न कर सकेंगे, इस के समाधान हेतु इसे अपने Timeline पर भी share कर रहा हूँ जहाँ वह कमेंट कर सकेंगे । सादर स्वागत है।💐