सोमवार, 31 दिसंबर 2012

दलित मनुज

* प्रश्न है - दलित जनों को क्या मनुष्य , मनुज कहलाने पर भी ऐतराज़ है ? असंभव तो नहीं , क्योंकि  इनके साथ ' मनु '  जो लगा है |

सुबह का अखबार

[ग़ज़ल ]
* सुबह का अखबार तो मैं हूँ ,
अब इतना गुनहगार तो मैं हूँ |

कुछ बुरी ख़बरें ले आया हूँ ,
अपशकुन इश्तहार तो मैं हूँ |

और कुछ चिट्ठियाँ लिख रखी हैं ,
डाकिये की गुहार तो मैं हूँ |

छपी हैं नग्नतम कुछ तस्वीरें ,
आपके मन की बात तो मैं हूँ |

खरीदो , बेच लो अब जो कुछ भी
अब तो एक व्यापार तो मैं हूँ |
# # #

गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

मनुष्यों से घृणा


* [ नयी बात ]
आज सुबह दो विचार मन में आते हैं | उन्हें सु और कु में विभाजित करना निरर्थक है | विचार सिर्फ  विचार होते हैं | दुनिया का आधा नाश इन्ही सुविचारों से हुआ है | इसलिए इसे कुविचार ही माना जाय तो बड़ी कृपा होगी |
     एक तो यह कि प्रकृति अब मनुष्य को मिटाना, बरबाद करना चाहती है | हो सकता है बदला लेना चाहती हो | या, कारण जो भी हो, मंशा कुछ भी हो | मैं उसकी विवेचना में नहीं जाऊँगा | उसे मैं जानता भी नहीं |
    दूसरा यह कि अब मनुष्यों से घृणा किया जाना चाहिए | ऐसा ही दुष्ट और नालायक है यह | घृणा का ही पात्र है यह | बहुत हो गयी प्रेम की बातें, बहुत धोखे खाये पीढ़ियों ने | सारे धर्म - मज़हब प्यार मोहब्बत के नाम पर ही उगे और कहर ढाए | प्रेम ने बहुत छला | परस्पर घृणा के संतुलन से ही जीवन सही होगा | तो, मैं तो शुरू करता हूँ सर्वप्रथम अपने आप से, अपने प्रियजनों - परिवार से घृणा करने से | फिर आता है क्रम उसका जिसे सुंदर कहा जाता है और आधी दुनिया उस आधी दुनिया पर मरी जाती है | मैं औरतों से घृणा करता हूँ | फिर तो ईश्वर, देवी -देवताओं से नफरत करनी ही पड़ेगी |   #
[20/2/13]

प्यार का चक्कर
* जब से मैंने माना कि प्यार जैसी कोई चीज़ नहीं होती , तब से मनस्क्लेश का एक नया चक्कर शुरू हो गया | कि हाय ! तब तो मुझे भी कोई प्यार नहीं करेगा , अब क्या करूँ , मेरी जीवन नैया कैसे पार होगी ?   क्या यह ऐसे ही नीरस और शुष्क रह जायगी ?
लेकिन आगे का ध्यान किया तो पाया कि प्यार का जो जल तुम्हे दिखाई दे रहा है , वह तो विज्ञानं के टोटल रिफ्लेक्सन का खेल है | वहाँ पानी नहीं है | इसी फेनामेना को मृग तृष्णा कहा जाता है | तब मन को समझाया - रे मन , जब प्यार जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं तो तुझे कोई प्यार क्यों करेगा ? कर ही कैसे सकता है ? तो सच्चाई तो यही है , इसे सहर्ष स्वीकार करो | ऐसे में तो यदि कोई तुमसे कहे कि " मैं तुमसे प्यार करती हूँ " तो उसे केवल तन की भूख समझो | उसे मन से मत जोड़ो वर्ना भ्रम और मृग मरीचिका में पड़ोगे तथा दुःख और संताप झेलोगे | अच्छा ही तो है और सही भी जो मुझसे कोई प्यार नहीं करता | इसकी आशा ही मत करो क्योंकि वस्तुतः ऐसी कोई चीज़ नहीं होती | निश्चिन्त - निष्काम चैन की नींद लो ,और अपना जीवन सार्थक सार्वजानिक कार्यों में लगाओ | शरीर की आवश्यकता को, शरीर की आवश्यकता की                                                                ecrrrfffffffsssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssपूरी करो | प्यार के चक्कर में मन और आत्मा का सत्यानाश मत करो | इससे एक लाभ यह भी है की तुमसे कोई यह नहीं कहेगा की तुम उसे प्यार करो | न तुम किसी को प्यार करो , न कोई तुमसे प्यार करे तो जीवन में न लाभ हो न घाटा , न इनकी बिलावजह चिंता , न कोई फ़िल्मी उपन्यास कथा का निर्माण , जिनसे प्रोत्साहित होकर तमाम युवा ज़िंदगियाँ बरबादी की और कदम बढ़ाती हैं | आमीन |  20/2/13

* " CULTURE  IS POLITICS OF SOCIAL LIFE  "
इस विचार को सोचते जायंगे तो इसे क्रमशः सत्य ही पाएंगे | यह तो हम एक दूसरे से शिष्ट सभी - प्रेम व्यवहार करते, सलाम दुआ, खान पान करते, तीज त्यौहार मानते / शरीक होते हैं, सब ज़िन्दगी की राजनीति है | राजनीति का मतलब जिसमे बनावट और झूठ ज्यादा हो और सच्चाई की मात्रा कम | इस प्रकार हम अपने सुख और शक्ति को बढ़ाते हैं | अन्यथा हम अकेले , अलग थलग न पड़ जायं ? इसीलिए जो सीधे सादे लोग सामाजिक कम होते हैं वे कमज़ोर पड़ जाते हैं | और जो समाज Social Life को सक्षम राजनीतिक रूप से जीता है वह अधिक शक्तिशाली हो जाता है | यहाँ तक की वह राज / शासन करने की स्थिति में आ जाते हैं | 21/2/13

अध्यक्षीय भाषण के बाद


* ईश्वर एक कविता है | स्वयं गढ़ों और गाओ |

* तुच्छ बातों से ईश्वर बनाया भी नहीं जा सकता , न कविता | ये सब श्रेष्ठ / उन्नत कलाएं हैं |

[ अध्यक्षीय भाषण के बाद , अर्थात वह टिपण्णी जो घटना - विवाद के बाद थोडा रुक कर की गयी हो ]
* यदि विचारकों का कोई department होता और मैं उसका अध्यक्ष, तो सच मानिये , सारे विचारकों/ विचार कर्मचारियों की और से ज़िम्मेदारी लेते हुए अब उस पद से इस्तीफ़ा देने का मेरा मन है | क्या फायदा हमारे होने से जब हमारे सारे विचार धडाधड ध्वस्त / धराशायी हो रहे हैं, झूठे साबित हो रहे हैं | श्वेत पत्र १९६० के दशक से जारी करता हूँ , जब मैं इस विभाग में कूदा | तब सिनेमा की खिलाफत पर विचारक कहते थे कि मनोरंजन के साधनों के अभाव में लोगों से बच्चे अधिक पैदा हो जा रहे हैं | लेकिन सिनेमा ने जनसँख्या नियंत्रण में तो कोई भूमिका नहीं निभाई | फिर आया कि पर्दा प्रथा मर्दों को औरतों की और अनावश्यक आकर्षित करता है | हमने पर्दा हटा दिया | फिर छींटाकशी क्यों होती है ? हमने स्त्री पुरुष संबंधों को खुला और आसान बनाने का विचार दिया | मुक्त यौन की वकालत कर यौनशुचिता के प्रति दकियानूसी अवधारणा का विरोध किया | पार्कों में युवाओं के मिलन को उचित कहा और उन पर सांस्कृतिक / पुलिसिया कार्यवाही का विरोध किया | वैलेंटाईन डे मनाया | जहाँ तक संभव हुआ स्त्री पुरुष संबंधों को सहज - सरल करने का प्रयास किया | इसके अतिरिक्त हम धारा ३७७ के भी पक्ष में रहे | हमने वेश्यावृत्ति को कानूनी बनाने का भी विचार दिया | वह संभव नहीं हुआ पर उसकी उपलब्धता तो है ही | फिर बलात्कार क्यों हो रहे हैं ? इसकी ज़रुरत क्यों है और गुंजाइश कहाँ है ? एक गलती मानी जा सकती है हमारी जिस पर अपराधियों के मनोबल बढ़ाने का दोष मढ़ा जा सकता है - वह है - हमने मृत्युदंड की अवश्य खिलाफत की और उसे अनावश्यक बताया | लेकिन वह तो बलात्कार हो जाने के बाद की सजा है | मेरा तो अपने विभाग के ऊपर आरोप यह है कि हम विचारकों के होते हुए बलात्कार की मानसिकता समाज में पनपने क्यों पायी ? बलात्कार होते क्यों हैं ? हम इसे रोकने का रास्ता क्यों नहीं बना पाए ? इसलिए मेरा त्यागपत्र |
मेरी सिफारिश है संदीप , नीलाक्षी , पूजा शुक्ला, रूपा राय, चंचल भू , उज्ज्वल जी एवं अपने तमाम अनुज - अग्रज मित्रों से कि वे इसे स्वीकार कर मुझे जलील करें , जूते मारें , मुझ पर थूकें | मैं आज बहुत शर्मिंदा हूँ |    

मनुस्मृति जलाकर एक प्रयास और करता हूँ , लेकिन अब तो अपने ऊपर यह भी विश्वास नहीं रहा कि इससे भी बलात्कार ख़त्म होगा |
क्या अब यही कहने का समय आ गया है कि - लडकियों अन्दर जाओ ?

बुधवार, 26 दिसंबर 2012

मेरी क्रिसमस


[व्यक्तिगत ]
* मुझे दूसरों के गलतियों की सजा भुगतने में बड़ा आनंद आता है | भुगता ही जीवन भर भाई , बेटा - बेटी अधिकारी - मातहत की गलतियों की सजा | अब समझ में आया आज मुझे ईसा मसीह क्यों ज्यादा याद आये ! आज मेरी क्रिसमस के दिन अपने परिवार द्वारा किये गए वाहन दुर्घटना की सजा मुझे भुगतनी पड़ी | लेकिन मैं मनुष्य हूँ न ? ईश्वर की औलाद नहीं | इसलिए दुखी हूँ थोडा |

परम आस्तिक


* परम आस्तिक = नास्तिक |

* सदुपयोग
धन - धान्य का करूँ
ईश्वर का भी |

* Just now I thought that Ishwar is an asset of human race . Is not it ? Human civilization  has devoted a lot of time to invent , reinvent and revive it [ should I write 'HIM' ?] . We, rationalists-atheists should not let it be spoiled and go all in vain . I don't find any wisdom to kill him . Many did try . We should take lesson from what happened and what we gained . Just now , I am in an utilitarian mood . And above all , we can not go too much far away from our beloved common human beings , ordinary people , who finds solace in his presence . So , let him remain as much he is useful to be . Don't throw the baby along with the bath water . This much I can say today at the instant .

लड़ लो


[ कहानी ]
                       " लड़ लो "
* - माँ का दूध पिया है तो आओ लड़ लो |
= माँ का दूध ? वह तो मैंने पिया नहीं |
- क्यों ? क्या माँ नहीं थी ?
= नहीं , वह तो थी | अब भी है , पर मैंने उसका दूध पिया नहीं |
- माँ थी ! तब कैसे नहीं पिया ?
= उसने कभी अपना दूध मुझे पिलाया नहीं |
- फिर कैसे पले , बढ़े /
= माँ बताती है , उसने मुझे डिब्बे का दूध पिलाया |
- तो चलो यही चैलेन्ज रहा कि पिया हो असली डिब्बे का दूध तो आओ लड़ लो |
= अब यह भी मैं नहीं कह सकता कि डिब्बे का दूध असली था या नकली ?
- तो फिर तुमसे क्या लड़ना | चलो भागो यहाँ से |
# # #

तुम्हारा सत्य


[बड़ी पुरानी कविता ]

* तुम्हारा सत्य
काला है ,
हमारा झूठ -
सफ़ेद है |
# #


[ कविता ]
* मुसीबत हमेशा
मेरे पीछे चलते हैं ,
पीछे लगे रहते हैं ,
मेरा पीछा नहीं छोड़ते |
अर्थात, मैं
उनके आगे चलने वाला,
उनका सर्वमान्य
नेता हो गया हूँ |
# # #  



* जिनसे उम्मीद थी कुछ देंगे, वह लूट गए ,
जिन पर संदेह था कि लूटेंगे , दे कर गए |

मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

औरतों से डरो


* मैं वामपंथी केवल इस तरीके से माना जा सकता हूँ कि मेरी पत्नी का स्थान बायीं और है , और मैं पत्नी के पक्ष में हूँ |

* बहरहाल यह तो तय हुआ मालूम होता है कि भारत देश में बलात्कारियों की संख्या बस वही आठ- दस ही है जिन्होंने दिल्ली में काण्ड किया | और इतने सारे आन्दोलनकारियों में कोई वैसी पुरुष मानसिकता का हो  इसका सवाल ही नहीं उठता | तो स्थिति संतोषजनक ही मानी जायगी | सवा अरब की जनसँख्या में एक दर्जन अपराधी कोई मायने नहीं रखते |

* औरतों से डरो -
आजकल हमारी औरतों को यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, यानी अपनी पूजा कराने से सख्त ऐतराज़ है | उन्हें भाई -बाप -पति से अपनी रक्षा कराना भी नामंजूर है | ऐसी दशा में पुरुषों के लिए हमारा क्या सन्देश हो सकता है ? यही तो, कि यदि अपनी सलामती और खैर चाहते हो तो औरतों से डरो |

* कोई न देगा
बच्चू , साथ तुम्हारा
देखते रहो |

* आँख गड्ढे में
धँसती जा रही हैं
बुड्ढा घूरता |

* जात बताता
आप का व्यवहार
नाम थोड़े ना ?

* हमारा सार ही कुछ बकवास है | and so, members with fake ID are no problem with us .

* स्वर्ग - नर्क मानिए या नहीं , पर स्वर्गवासी होने से कहाँ बच पायेंगे, और बैकुंठधाम जाने से ?

सोमवार, 24 दिसंबर 2012

अकेला पेड़


[ कविता ]        
                  अकेला पेड़
* मैं एक पेड़ तो हूँ
पर इतना बड़ा नहीं
कि कोई मुझे छू न सके ,
न ही मैं कोई बरगद
जिसके नीचे
कोई पेड़ न उगे ,
फिर भी न जाने क्यों
मेरे आस पास के सारे पेड़
मुझसे अलग हो गए , या
मुझे अलग कर गए !
कुछ अपना क़द
छोटा करते करते
बौने हो गए |
कुछ तिनके बन गए
यहाँ तक कि भूल गए
तिनके का महत्त्व |
और जो बड़े बनते थे
मुझसे दूर छिटक कहीं
इकट्ठे खड़े हो गए |
मैं अकेला पड़ गया
जब कि मैं
अकेला नहीं रहना चाहता था |
चलो , ठीक हूँ अकेला ही भला
भूले भटके , थके, हारे- मांदे
राहगीरों को छाया- सुकून देता |
पेड़ों के घने जंगलों में तो
लोग जाने से डरते हैं |
# #

[ कविता ]
                    भेदभाव
* उन्होंने काला रंग देखकर
उनसे भेदभाव किया ,
अब ये गोरा रंग देखकर
भेदभाव करेंगे |
पहले उन्होंने जात देखकर
भेदभाव किया
अब ये जात देखकर
भेदभाव करेंगे |
रहेगा तो भेदभाव
चाहे वह मूलभाव हो
या हो बदले का भाव |
नहीं मिटना
भेदभाव का भाव |
# #

निर्विवाद

* मूल प्रश्न - मैं मूरख तो यही नहीं समझ पाता कि प्रपत्रों में अपना ही नाम क्यों लिखना पड़ता है ? क्या वह सच होता है ? प्रज्ञा , संदीप , कामेश्वर , धीरेन्द्र , शिवानन्द क्या वाकयी ऐसे हैं ? क्या मैं उग्र हूँ जो मैं लिखता हूँ ? यह नाम तो बाप ने दिया | इसलिए अपनी ज़िम्मेदारी से बचने के लिए उनका भी नाम घसीट लेता हूँ | [ फिर जब बाप ने पति के हवाले कर दिया , तो उन्हें भी सेफ्टी पिन से टांक लेती हूँ ]

* दलितों को , ईमानदारी से , एकता की दृष्टि से , कम से कम यह तो करना ही चाहिए कि वे अपने परिवार का इलाज दलित डाक्टर [ ब्राह्मण डाक्टर से तो कतई नहीं ] और अपने बच्चों का दाखिला केवल दलित प्रबंधित स्कूल / कालेज में कराएँ , ट्यूशन केवल दलित शिक्षक से |

* चिंता की कोई गल नी है | देश , न तब आंबेडकर जी के अजेंडे पर था , न अब वह आंबेडकर वादियों की सूची में है | केवल अपना स्वार्थ सिद्ध होना चाहिए | देश पर इस्लाम की जकड कैसी कसती जा रही है , इससे किसी को क्या मतलब ? " दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल " , यह बात गांधी से ज्यादा आंबेडकर जी और कम्युनिस्टों पर खरी उतरती है | ले ली उन्होंने आज़ादी और भरपूर उसका फायदा , बिना आज़ादी की लडाई लड़े - केवल रार और तकरार के बल पर |


खिलवाड़ खिलवाड़


" दबंग " के खिलाफ आन्दोलन क्यों नहीं ? जड़ों में खाद पानी डालते रहने से क्या पत्तियाँ सूख पायेंगी ?

God is not responsible for any evil of the world . He can not be made accountable for anything happening in the world . Because , as a matter of fact , he is non- existent . He is nowhere in this world .

[ डायरी ]
-धीरे धीरे संस्कार मन में बैठ जाते हैं और वे अपने हो जाते हैं | हमें प्रिय लगने लगते हैं | फिर हम ब्राह्मण हो जाते हैं , हिन्दू हो जाते हैं | तब राम - कृष्ण - सीता - गीता - रामायण हमारे हो जाते हैं | हम उनके विरोध या अपमान , चाहे वह कितना ही उचित हो , सह नहीं पाते | इसी इसी प्रकार रहते रहते हम किसी देश के हो जाते हैं, उसके लिए लड़ने लगते हैं |

खिलवाड़ खिलवाड़ | इसे यूँ लें जैसे कूड़ा - कबाड़ |
THOUGHT  PLAYERS  : खेलत में को काको गुसैयाँ | इसे खिलंदड़ी स्वभाव में स्वीकार करें और माहौल को अनावश्यक रूप से बिगाड़ें नहीं | यद्यपि हम गंभीर विचारों से लैस हैं तथापि विचारों का बोझ लेकर नहीं चलते | बस आये विचार , गए विचार | उन्हें जहां जितना रहना होगा रहेंगे अन्यथा गुम हो जायेंगे | कोई चिंता फिकिर की बात नहीं है |  

* आप चाहे कितने भी बुद्धिमान हों , विद्वान् या दार्शनिक | आपको कोई प्रणाम करेगा तो उसका उत्तर आपको देना ही पड़ेगा | आप अपनी दुनिया में खोये नहीं रह सकते | इसका हक भी नहीं है आपको

* मेरी एक ख़राब आदत है , जो मेरी परेशानी का कारण है और , संभवतः , मेरी सफलता का राज़ भी | वह यह कि मैं जो ठान लेता हूँ उस करके ही रहता हूँ | मतलब यह नहीं कि मैं हिमालय उठा लेता हूँ , बल्कि यह कि यदि मैंने सोच लिया कि यह चारपाई आज मैं बुन डालूँगा , तो उसे मैं बुन ही डालता हूँ |  

रविवार, 23 दिसंबर 2012

Some Slogans =


Some Slogans =
* धर्म ही है धर्म हमारा - ऐसा क्यों न कहें ?  इसमें हिन्दू - मुसलमान - सिख - ईसाई जोड़ने की क्या ज़रुरत है ?
* धर्म के स्थान पर लोग  भारतीय , भारतीयता आदि लिखते हैं | उनकी भावना सराहनीय है  | पर यह तो राष्ट्रीयता का नाम हैं | धर्म का तो सर्वभौमिक Universal  नाम 'धार्मिक/ Religious' ही उपयुक्त है | जब तक हमसे हमारा धर्म पूछा जाता है |
     
* भगवान ने तो हमें जानवर के रूप में बनाया और पृथ्वी पर भेज दिया | आदमी बनना तो अब हमारा काम है , हमारे जिम्मे !

* मेरे  विचार  से  HUMANISM  का हिंदी में सही अनुवाद = " मानव पंथ " और HUMANIST का मानव पंथी होगा , मनुष्य आधारित नैतिकता को जीने वाला संप्रदाय |

* अब दो धर्म बनते हैं मनुष्य के | जैसा वी एम तारकुंडे ने महात्मा गाँधी पर लिखते हुए उसका शीर्षक दिया था = SECULAR AND RELIGIOUS MORALITY  | उसी तरह दो धर्म मनुष्यों द्वारा धारण किये जायेंगे | सारे किताबी , ईश्वरवादी , परलोकवादी  धार्मिक नैतिकतावादी होंगे , और नास्तिक इहलोक वादी , बुद्धिवादी , विज्ञानवादी , लोग सेक्युलर होंगे |

IHU - 2 , जय जगदीश हरे

   Published in " HUMANIST OUTLOOK " , a journal of Indian Humanist Union - Vol - 13  No. - 5 , Autumn 2012  as -
Hindi column  By - Ugranath Nagrik                                 
                                                                                 जय जगदीश हरे 
                                                                                  --------------------
  *   मित्र आये तो कुछ गुस्से में थे मुझसे बोले - हम तो यही समझते थे कि तुम नास्तिकता के अति पर हो जो हमें कुछ गलत लगता था | par तुम तो फिर भी अपने व्यवहार में सामाजिक नैतिकता का ध्यान रखते हो जो हमें प्रिय है लेकिन इधर तो लोग हैं जो आस्तिकता का इतना अति किये हुए हैं कि वे अनैतिक हुए जा रहे हैं |
- - क्या हुआ हो क्या गया ?
-  " मुझे आश्चर्य होता है गोमती पुल के हनुमान मंदिर पर देखता हूँ भीड़ बढ़ती जा रही है बड़े - बड़े अधिकारी सेठसामंत ,साहूकार  कारों से आते हैं मंदिर जाते हैं तमाम उच्च शिक्षित विज्ञान शिक्षित लोग भी निश्चित ही होते हैं इनमें आधुनिक पीढ़ी की युवा - युवतियाँ भी और तमाम राहगीर सड़क से गुज़रते शीश झुकाना नहीं भूलते गाड़ियों वाले यह भी नहीं सोचते कि सड़क पर जाम लग रहा है ऐसी पढ़ाई शिक्षा आधुनिकता और विकास से क्या फायदा देखता हूँ संपन्न घरों में अखंड रामायण का चौबीस घंटे पाठों की भरमार हो गई है भगवती जागरण देखते  हैं आपगणपति बप्पा का हुजूम और काँवरियों का कारवाँ यह सब क्या है क्या प्रगति की निशानी ? " 
- - ईश्वर पर आस्था है आस्तिकता है |
-  " लेकिन नैतिकता नहीं यही वे लोग हैं जो देश और समाज को बर्बाद करने में लगे हैं येन केन प्रकारेण पैसा कमाने भ्रष्टाचार - घोटाले करने में संलग्न हैं और इसमें इन्हें तनिक भी संकोच करने की प्रेरणा इनके प्रभु से नहीं मिलती तो ऐसी आस्तिकता - धार्मिकता से क्या लाभ इससे तो तुम्हारी नास्तिकता भली जो ईश्वर को पूजते नहीं पर ईश्वर की सच्ची पूजा इंसानियत के प्रति समझदारी - ज़िम्मेदारी तो पैदा करती है ! "

             सचमुच बड़ी चिंताजनक स्थिति है और विचारणीय विषय लोगों में इतनी कथित आस्तिकता क्यों बढ़ रही है जब कि उनकी आर्थिक -शैक्षिक- सामाजिक दशा में बहुत सुधार आया है  और भौतिक तरक्की हुई है धर्म और ईश्वर के प्रति भक्तिभाव समर्पण गरीबों की ज़िन्दगी का सहारा, तो समझ में आता हैपर यहाँ तो यह सब धन -संपत्ति का खेल धनिकों का व्यापार दिखाई पड़ रहा है अनाप - शनाप अनुचित ढंग से अर्जित धन का अमर्यादित प्रदर्शन और इसके ज़रिये समाज में प्रतिष्ठित कहलाने की झूठी ललक बढ़ती जा रही है जो इंसान और इंसानियत को अंततः गर्त में ही गिराएगी |
             सरकारी कर्मचारीअधिकारियों के बारे में तो यह लगता है कि इसका कारण उनकी नौकरी की अनिश्चितता है उन्हें यह भय लगा रहता है कि उनका यह पद रुतबा कहीं छिन न जाय ! और फिर इस चाह में कि इस दिशा में उनकी और प्रगति हो अब उनकी इस अस्थिर संशयग्रस्त मानसिकता का कारण एक तो उनमें आत्मविश्वास का अभाव होता है ऐसे लोग कमज़ोर और डरपोक होते हैं जीवन के मार्ग पर कठिन संघर्ष का साहस इनमे नहीं होता तनिक भी विषम या प्रतिकूल स्थिति में इनका मनोबल टूटने लगता है |

दूसरे इनमें लड़खड़ाहट  इसलिए होती है क्योंकि  वे जिस पद पर होते हैं उसके वे योग्य नहीं होते यदि योग्य होते हैं तो क्षमतापूर्वक  कार्य करने की प्रेरणा नहीं होती यदि क्षमता है तो कर्त्तव्यपरायणता  को  व्यवहार में उतारने का  कोई संस्कार नहीं होता और यदि वह भी है तो ऐसा करने वाले को उचित श्रेय -सम्मान - ईनाम  ( पारितोषिक ) नहीं मिलता वह देखता है कि लोग गुण नहीं धन दौलत की इज्ज़त करते हैं फिर कोई क्यों मेहनत और ईमानदारी की ओर प्रेरित हो और  सर उठा कर कहे - मैं अपना काम निष्ठां पूर्वक करता हूँ और मैं संतुष्ट हूँ मुझे किसी का भय नहीं कोई क्यों न करे "हराम " की कमाई जब इसके लिए एक ऊपरवाला संरक्षण देने के लिए सहज उपलब्ध है ? ]
       तब इसलिए वह  मूर्तियों मंदिरों पूजा -पाठ की ओर अग्रसर होता है इसीलिये हैं गली - कूचों सड़कों पर निरंतर अविराम बढ़ती जा रही देवी - देवताओं की कुटिया और महलों की संख्या इनके भक्तों की औकात के अनुसार ! और आदमी उनकी परिक्रमा में व्यस्त है  उसे यह सोचने की फुर्सत नहीं कोई चिंता नहीं कि वह तनिक  विचार , समीक्षा तो करे वह जीवन में वास्तव में क्या कर रहा है धर्म के नाम पर कितनी अनैतिकता धारण करता जा रहा है करे भी क्यों है न भगवान यह सब सोचने - करने के लिए ! यह उसकी ज़िम्मेदारी है हम तो वही कर रहे हैं जो सब कर रहें हैं सब तो फल फूल रहे हैं फिर हम ही क्यों माथा खपायें अपना सुख चैन गवाएँ जो हमें इस जन्म में प्राप्त हो रहा है क्या हर्ज़ है कुछ फल -फूल- लड्डू लेकर मंदिर हो आने में सब दोष समाप्त ! तो चलो तीर्थ यात्रा कर लें गंगा नहा लें सारे पाप मिट जाएँ ! समाज के नुकसान के क्या एक हम ही ज़िम्मेदार हैं और एक हमारे नैतिक - ईमानदार होने से अंतर ही क्या पड़ेगा जो दबे - कुचले गरीब और वंचित हैं वे अपने पिछले जन्म का फल भुगत रहें हैं , तो हम क्या करें हमको देखो जो कुछ कर रहे हैं वह ईश्वर को समर्पित भी तो कर दे रहे हैं ! तेरा तुझको अर्पित क्या लागे मेरा ॐ जय जगदीश हरे हे प्रभु, मेरी सुख -सुविधा पत्नी -बच्चे दुकान -नौकरी बँगला -गाड़ी सबकी रक्षा करना मेरे मालिक ! वह सर्व शक्तिमान मालिक भगवान तो क्या हुआ इनका नौकर- चौकीदार तो अवश्य हो गया वह भी कुछ फूल - बताशों के दैनिक वेतन पर ! या फिर अवैतनिक बोतल के जिन्न की तरह !
                       एक होड़ सी लगी है धनवान होने की तो साथ ही साथ धार्मिक होने की भी | फैशन की तरह हो गया है धार्मिक होना दिखने का नाटक करना माथे पर बड़ा सा टीका ज़रूरी है और उसका दिन भर वहाँ उपस्थित - विद्यमान रहना पता तो चले हमने सुबह नहाया धोया - पूजा पाठ किया था या मंदिर गए थे ! कार्यस्थल पर इष्ट देवी - देवता का चित्र अलमारी या मेज़ पर शीशे के नीचे होना अनिवार्य हैजिन्हें प्रणाम कर दिन की कार्यवाही का शुभारम्भ करें लेकिन बस उतना जिसमें कुछ ॐ शुभ लाभ प्राप्त होने की सम्भावना हो |
        शाम  को जल्दी जाना है सर ! फलाँ जगह से आये अमुक महाराज जी का प्रवचन है एक हज़ार  देकर स्थान बुक कराया है भला किस अधिकारी की मजाल जो ऐसे शुभकार्य के लिए मना कर दे और शामत मोल ले फिर उसे स्वयं भी तो कहीं जाना है मंदिर के अतिरिक्त उसे अपने बॉस  की और फिर बॉस को मंत्रालय की भी तो सेवा करनी होती है ! डबल ट्रिपिल काम का बोझ है तो फिर वह अपना निर्धारित कार्य एकनिष्ठ हो कैसे करे जब कि उसका सरवाईवल  इन्ही 'अतिरिक्त' कार्यों पर निर्भर है ?
              आध्यात्मिक जीवन के ये छद्म स्वरुप कैसे कँटीली झाड़ियों की तरह उग आये भारत के आँगन में ? कारण समझ में आता है कि ऐसा इसलिए है क्योंकि इसमें सब कुछ स्थूल है और सूक्ष्म कुछ भी नहीं स्थूल कार्य करके उसे दिखाना आसान होता है जबकि सूक्ष्म कहीं दिखता नहीं और उसका प्रभाव भी सूक्ष्म होता है प्रदर्शन के युग में इसलिए उसका कोई मूल्य नहीं | उसे बिरले पारखी ही समझ सकते हैं इसलिए बनावटी आचरण ने असली मनुष्य को रिप्लेस प्रतिस्थापित  कर दिया है वरना क्या बुद्ध- कबीर के जीवन - प्रवचन - आचरण में आस्था नहीं थी नास्तिकता आस्तिकता का विवाद यहाँ है ही नहीं वी. एम. तारकुंडे ने " लौकिक और धार्मिक नैतिकता " [Secular and Religious morality ] नामक लेख में गांधी की धार्मिक नैतिकता को किसी भी प्रकार कमतर नहीं आँका इसलिए सवाल मानव मूल्यों पर आस्था का है और उस मापदंड पर क्या इन्हें धार्मिक कहा जा सकता है या कहा जाना चाहिए जैसा कहलाने का इन्हें बड़ा शौक है 
            आश्चर्य होता है सोचकर  कि बौद्ध धर्म जिसकी वजह से ही विश्व में भारत को जाना जाता है संसार में इसकी प्रतिष्ठा है और चीन जापान कोरिया आदि देशों से बौद्ध श्रद्धालु यात्री भारत तीर्थाटन पर आते हैं उसे अपने ही देश ने किस तरह भुला दिया !
लेकिन विलाप करने छाती पीटने से क्या होगा मंदिर के लिए हर बँगले में एक भूभाग , घर का एक कमरा कमरे में एक कोना लकड़ी या पत्थर के बने ढाँचे में भगवान के बैठने के लिए स्थान सुरक्षित है या नहीं तो दीवालों पर ईश्वर के चित्र टाँगने के लिए आदमी ने जगह दिया हुआ है जगह यदि किसी चीज़ के लिए नहीं है तो वह है विवेक बुद्धि वैज्ञानिक सोच तार्किक चिंतन मानुषिक संवेदना और सार्वजानिक नैतिकता इन्हें कोई आश्रय कोई सहारा जनजीवन से प्राप्त नहीं है न धर्मों में न हृदय में न बुद्धि में धर्म में पाखंडों की भरमार , हृदय स्वार्थों का भंडारगृह और बुद्धि बस चालाकी का वृहद् कारखाना होकर रह गया है |
          तो भाइयो सुनो ! साहब अभी पूजा कर रहे हैं दरबान जब यह सूचना दे तो यह निश्चित समझ लीजिये कि साहब किसी भी दशा में इस लोक में रहने वाले किसी भी प्राणी से नहीं मिल सकते चाहें उसकी जान ही क्यों न चली जाय |

सुना नहीं आपने एक सेकुलर राज्य जिसका नाम भारतवर्ष हिंदुस्तान दैट इज इण्डिया है के एक प्रधान मंत्री तब तक पूजा करते रहे जब तक बाबरी मस्जिद ध्वंस का कारनामा  चलता रहा और पूजा पर से तभी उठे जब उन्हें सुनिश्चित सूचना मिल गयी कि श्रीमान ,यह धार्मिक शुभकार्य सफलता पूर्वक संपन्न हो गया है | 
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शनिवार, 22 दिसंबर 2012

अनुवांशिकी


[ अनुवांशिकी ]
* मैं सोचता हूँ , यदि कोई वैज्ञानिक सचमुच पूरी निष्पक्षता से , निरपेक्ष ढंग से खोज करके यह पाए कि अनुवांशिकी का प्रभाव व्यक्ति के गुण और व्यवहार पर होता है , तो क्या जातिवादी लेखक - विचारक उसे हिन्दुस्तान में जीने देंगे ? लेकिन मैं यह अनुभव करता हूँ कि व्यक्ति अपने कमरों / घर को किस रंग से पुतवाता है , या बाथरूम के टाइल्स की क्या डिज़ाइन और कलर चुनता है , यह तय करने में उसकी अनुवांशिकी का पर्याप्त हाथ होता है |

[ सवर्ण कथा ]
१ - - पापा फेस बुक पर एक किताब की बड़ी चर्चा होती है | मनुस्मृति नाम है उसका | आप ब्राह्मण हैं तो आप के पास वह ज़रूर होनी चाहिए | मुझे भी पढ़ने को दीजिये न !
= नहीं बेटा, मेरे पास तो गीता रामायण भर है | महाभारत भी घर में नहीं रखता | हाँ पड़ोस के अंकल जी से माँग लो | उनके पास ज़रूर होगी | वे आरक्षण समर्थक हैं | आजकल वही लोग मनुस्मृति ज्यादा पढ़ते हैं |

* पचास वर्षों तक प्रेम में आकंठ मुब्तिला रहने  के बाद अब मुझे अनुभव हो रहा है कि प्रेम सचमुच एक रोग ही है | इसमें आनंद बहुत आता है , मीठा मीठा दर्द होता है और महसूस होता है कि हम हवा में उड़ रहे हैं | लेकिन है यह  एक  बीमारी ही |

* दर्शन का काम है तो 'जानना' | लेकिन जानकर वह क्या करेगा ? क्या करता वह जानकारियाँ इकठ्ठा करके ? इसलिए उसका काम हो गया है - आदमी का जीवन कैसे सुखी हो , इसके बारे में सोचना और उसका मार्ग बताना | मनुष्य कैसे प्रसन्न रहे , यह ज़िम्मेदारी है अब दर्शन शास्त्र की | मेरी परिभाषा के अनुसार मानव मात्र को खुश और प्रसन्न देखना ही " दर्शन " है |

* आप चाहें , न चाहें सर्वदलीय , सर्व धर्मी  , सर्व देशीय , सर्व समावेशी सरकार | लेकिन सड़क समाज तो ऐसा होता जा रहा है | अस्पताल डफरिन भी है , झलकारी बाई , श्यामा प्रसाद मुखर्जी , और राम मनोहर लोहिया के भी हैं | इसी प्रकार सड़कें , गलियाँ और पार्क - मोहल्ले भी हैं | कुछ नाम ज़रूर आने शेष हैं पर वे घरों - जलसों में तो प्रतिष्ठा पा ही गए हैं , देर सवेर बाहर भी आ ही जायेंगे | आश्चर्य नहीं कि घरों से निकल कर कब मार्क्स , लेनिन , माओ , हिटलर , नाथू राम गोडसे भी सार्वजनिक स्थलों पर स्थापित हो जायँ !

शायद धूप


* बलात्कारों के विषय में मेरी अक्ल कुछ काम नहीं कर रही है |

* बलात्कारी को फाँसी , और हत्यारे को प्रधान मंत्री की गद्दी ?

* अप्रामाणिक विचार =
मेरा ख्याल या विचार था कि लडकियाँ पुरुष मित्र बनाने से सुरक्षित होती हैं , उसी प्रकार जैसे पति करने से | दोनों ही बातें गलत साबित हुयीं | पति और पुरुष मित्र के समक्ष भी बलात्कार हो जाते हैं |

* सोचता हूँ , शिव सेना या माओ सेना का आतंक क्या दिल्ली में नहीं होना चाहिए ?

* नैतिकता जिद से आती है | पुरुषों को यह गाँठ बाँधना होगा कि उन्हें औरतों का आदर करना है , माँ समझकर - बहन समझकर या देवी समझकर | या यही समझकर कि वे हमारी रक्षिता हैं | इसमें कोई बुराई नहीं है , भले असमानता का कुछ अंश है | मानना पड़ेगा कि व्यवहारों में विसंगति के कारणों में एक छोटा सा हिस्सा बराबरी और समतावाद का भी है | बराबर हो तो भुगतो | लो करो बराबरी | इसमें तो ताक़तवरों की चाँदी होती है | औरत यदि थोड़ी कमज़ोर दिख जायगी तो उसका कुछ नुक्सान नहीं हो जायगा | लेकिन नहीं , वे न बाप की मानेंगी , न बूढ़ों की सुनेगी | तो जवान भी उनकी नहीं सुनने वाले |

* तथापि , दिन दूर नहीं जब लडकियाँ बलात्कार से बचने में सक्षम और समर्थ हो जायेंगी |

* नवाब लोग पान खाते थे तो उनके बगल में पीक दान भी रहता था | अब के नवाब तो पूरी सड़क को पीकदान बनाये हुए हैं |

* शायद धूप
कुछ निकल आये
कविता लिखूँ |
[ 'शायद धूप' नाम से मेरी कविता / हाइकू की कोई किताब हो सकती है ]

* थोडा ओंकार
ज्यादा सा अहंकार
मेरी ज़िन्दगी |

* लाभकारी है
निरुद्देश्य घूमना भी
यह जानिए |

* शांत चित्त हो
बैठो हमारे पास
उपासन में |

* शून्य में जाओ
जब भी मौक़ा मिले
ध्यान प्रणाली |

* अच्छा होता है
शून्य में विचरण
शांति समग्र |

* मिलेगा उसे
जो उसका देय है
निश्चित मानो |

* समतावादी
अपने बराबर
किसी को नहीं |

* पड़ता ही है
चाहना को रोकना
कुछ न कुछ |

* चाहें न चाहें
कोई लड़कियों को
मारता नहीं |

* यही तो हुआ
कि तुम बूढ़ी हुई
मैं बूढ़ा हुआ !

* बहुत आये
तुम्हारे जैसे बली
बहुत गए |

* कहा तो मैंने
मुझे प्यार चाहिए
सुनो तब न !

* कोई इंतज़ार
बढ़ा देता है उम्र
अनेक बार |

* नो प्राबलम
बहुत बड़ा मन्त्र
जीवनाधार |

* एक उम्मीद
हज़ार नेमत है
जीवन दायी |

* अन्याय होता
अन्याय लगता भी
कुछ ज्यादा है |

* लिखता जाऊँ
ख़त्म ही नहीं होतीं
बातें , क्या करूँ ?

* Do you know God ? If you know God , send him a friend request .:-)

* देखिये , अन्याय होता तो है | लेकिन इसके साथ यह भी है कि कौन किस बात को और कहाँ  तक किसी बात को अन्याय समझता है, इससे भी फर्क पड़ता है | वह उदाहरण लिख दूँ, जिससे यह विचार आया | मान लीजिये आप के किसी अवैध कब्ज़े को पालिका कर्मियों ने उजाड़ दिया , या ट्रैफिक वाले ने आपका चालान कर दिया | ज़ाहिर है , आप ने उन्हें देख -पहचान लिया | आप इज्ज़तदार -रसूखदार हैं | आपने इसे अपनी बेईज्ज़ती समझी और अवसर पाकर उन्हें पीट दिया बिना यह सोचे कि वे तो अपना  कर्तव्य निभा रहे थे | [ यही आजकल अधिकाँश हो ही रहा है ] | इसलिए मेरी स्थापना यह है कि इस तरह का अपमान हो या सचमुच का , अन्याय हो या अन्याय होता लगे , किसी भी दशा में बल अथवा शस्त्र का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए |

* [ उवाच ]
# आत्मसंयम का नाम है संस्कृति - संस्कार | बलात संयम को कहते हैं राजनीति- सरकार |
# हास्य आदमी के अहंकार को मिटाने में मदद करता है | वह किसी के मजाक का बुरा जो नहीं मानता  !
# यदि मैं जानता और मानता हूँ कि ' भय बिनु होय न प्रीत ' , तो मुझे इस्लाम की कथित कड़ाई का समर्थन करना चाहिए |
# आप ने किसी से उसकी जात पूछ ली , तो यकीन मानिए आपने तो अपनी जात बता दी |
# मुझे कुछ शब्दों से आपत्ति है , जिसे मैं शब्दों के द्वारा व्यक्त करता हूँ |  OR =
मेरे कुछ शब्दों का , शब्दों के लिए , शब्दों के द्वारा विरोध है | [अस्पष्ट?]
# कनेक्टिकट विद्यालय में हुए संहार की घटना को सन्दर्भ में लें | अब समय आ गया है कि अस्त्रों का सम्पूर्ण समापन करें और " किसी का भी किसी भी दशा में वध नहीं का मन्त्र अपनाएँ " |

* [ अमानव वाद ]
# मत बंद कीजिये /
अपने जानवर का दरबा /
वरना जानवर अन्दर /
बंद हो जायगा /
तुम्हे ज्यादा जानवर बना देगा | $

# [ अमानव वादी ]
आप होंगे मनुष्य /
यह नाम तो आपने दिया /
मुझको गलत , जैसे /
किसी का नाम आपने /
ईश्वर दे दिया /
वरना मै तो जानवर हैं /
यह नाम मैं अपने लिए /
स्वीकार करता /
धारण करता हूँ /
अपने पशु बंधुओं के साथ /
भाईचारे में | $

# मनुष्य बनने , या कहें , महज़ कहलाने के चक्कर में हम कई असहज -अस्वाभाविक -अप्राकृतिक और  गैर ज़रूरी किंवा , आप की भाषा में अमानवीय हरकतें कर जाते हैं कि हम जानवरों को शर्म आती है | क्योंकि वे साधारण जैविक आचरण के विरुद्ध होती हैं |

* बीड़ी पिया था उसने
उसने मुझे चूमा
सर अभी तक
चकरा रहा है |
$
* ऐसा करेंगे
वह मिलें तो हम
वैसा करेंगे
सोचता रह गया
क्या क्या करेंगे ?
$
[ BADMESH ]
* उर्दू और हिंदी में वही फर्क है जो मुशायरे / कवि सम्मलेन के दौरान नीरज और बशीर बद्र में है |
[सुना है जहाँ नीरज जाते हैं वहां बशीर बद्र नहीं जाते, और जहाँ बशीर बद्र होते हैं वहां नीरज नहीं होते]

* वेश्या वृत्ति कानूनी होनी चाहिए या नहीं , यह उसी तरह का प्रश्न है जैसे F D I आनी चाहिए या नहीं ?

[बदमाश चिंतन]
* यदि किसी को सपने बहुत आते हैं , तो उसे स्वप्न दोष का रोगी नहीं माना जा सकता |
* मुझे बूढ़ों का व्यक्तित्व बहुत जमता है | इरफ़ान हबीब , हबीब तनवीर , रजनी कोठारी को मैंने देखा और सराहा है | अब मुझे बूढ़ा होना अच्छा लगने लगा है |
* मुझसे कोई व्यापार करा ले , और मेरा दिवाला निकलने से बच जाए तो मैं अपनी जाति और पूरी जाति प्रथा के खिलाफ हो जाऊँगा |

[ शेरो शायरी ]
* जेहि विधि मिले खूब विज्ञापन ,
समझो पत्रकारिता आपन |

* खुद के घर तो बहुत हैं , उनमें वह रहता नहीं है ,
कभी वह घर पर हो, तो सोचता हूँ मिल आऊँ |

* हर आदमी चालाक बहुत है , अपनी अपनी पारी में ,
हर मनई बुरबक है भारी , अपनी अपनी पारी में |
मुँह बाये हर लोग यहाँ पर अमृत घट पी जाने को ,
हर मनाई गू खोद रहा है अपनी अपनी पारी में ||

* न हिंदी से मेरा नाता , न उर्दू से मेरा मतलब ,
जसमे बातें मेरी आ जायँ, वही भाषा मकतब |

* एक शायर का यह मिसरा बहुत प्रभाव शाली है =
" तुम्हारे क़दमों को रोक पाए , किसी में इतनी मजाल क्या है "

बुधवार, 19 दिसंबर 2012

हरिजन का अर्थ

हरिजन का अर्थ तो चलो, गड़बड़ है -' ईश्वर के लोग ', और ईश्वर इनके लिए, इनके फायदे के लिए,इनके पक्ष में नहीं है | लेकिन दलित के मायने भला क्या होते हैं ? क्या यह कोई बहुत अच्छा शुभनाम है जिस पर नाज़ किये फिरे हैं ?  

ईश्वर होता तो

ईश्वर होता तो क्या हम उसे न मानते ? क्यों न मानते ? कैसे न मानते ? क्या मजाल थी हमारी ? वह नहीं है तो इसमें हमारा क्या दोष ? बनाया तो भरसक उसे हमने  वह नहीं बना तो हम क्या करें ? और आदमी ने जितना उसे बनाया उतना तो उसे मानते ही हैं !

गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

प्यार से ' तू '


मैं सोचता हूँ = मैं सोचने का ' कर्म ' करता हूँ | तब वह वस्तुतः सोचना / विचारना नहीं होता | सोच तो बिना ' सोचकर्म ' किये ही आता है | सही है आप का कहना | यह उक्ति दरअसल , संभवतः , उन्हें सोचने के लिए प्रेरणा निमित्त है , जो सोचते नहीं , जबकि वे मुझसे ज्यादा सही और सटीक सोच सकते हैं | क्या नहीं ?

* नागरिक उवाच को ओपन करने की सोच रहा हूँ | कुछ खिलवाड़ करने के लिए , अपने नाम को मिटाने ,तिरोहित करने के लिए | अभी यह सिर्फ मेरे लिखने के निमित्त है |

* तो रहने दीजिये न Rp भाई यह व्यवस्था ! भारत के इतिहास में कुछ तो बचा रहे ! :-)

* मित्र Zia खान सानेट कवितायेँ पोस्ट कर रहे हैं | बहुत अच्छी और पठनीय | उन्हें मैं वास्तविक कविता की श्रेणी में रखता हूँ | जो दिल को छू जाएँ | मेरा भी मन ऐसा लिखने का होता है | कभी कभी बात बन भी जाती है |

* आनंद देती
आनंद की कल्पना
भी सुखदायी |

* खूब सजतीं
भव्य रंगशालाएँ
शादियाँ होतीं |

* आज़ादी , कौन
बचाना चाहता है
आप हों तो हों !

* फर्क तो होंगे
लड़ते भी रहेंगे
संग रहेंगे |

* सच कहूँ तो
समय विषाक्त है
हम विषैले |

* अपने बच्चों की ख़ुशी के लिए खेल खेल में हम पहले घोडा , हाथी , बिल्ली , गदहा बने | अब बच्चे बड़े हो गए | अब उनकी नज़र में हम उल्लू बने खड़े हैं |

* प्रिय सम्पादक व्यक्तिगत पत्रकारिता के आयाम प्रदर्शित करने का मंच है |

* कविता एक शिल्प है | इसमें अपने भाव सुगठित रूप से ढालने की श्रम साधना और प्रोफेसनल योग्यता की ज़रुरत होती है , जो मैं न करता हूँ न करने की कोशिश करता हूँ | इसलिए मैं अपने को कवि नहीं मानता, न ऐसा कहे जाने की अपेक्षा करता हूँ |

* प्यार से ' तू ' ]  कल तेरह दिसम्बर को वि.वि के मालवीय सभागार में द्वारिका प्रसाद जी " उफ़ुक़ " की 150 वीं जयन्ती मनाई गयी | संगोष्ठी में राज्यपाल महोदय आये , और पश्चात शेरी नशिश्त [ काव्य गोष्ठी ] हुआ  | उफ़ुक़ जी की पोती कोमल भटनागर ने इसे आयोजित किया था | उनके श्रम और अपने दादा जी के प्रति उनका स्मरण भाव की सराहना की जानी चाहिए | उफ़ुक़ क्षितिज को कहते हैं | सत्तर के दशक में ही मैं उनकी एक रचना पर मुग्ध हो गया था , और मैं उसे जब तब हर जगह उद्धृत करता रहता हूँ |
वह मुझे प्यार से ' तू ' कहता है ,
मैं खिताब  लेकर क्या करूँगा ?
मैं ' हुज़ूर ' लेकर क्या करूँगा ,
मैं ' जनाब ' लेकर क्या करूँगा ?

* जिन्ना का भारत = मैं पूरी सत्यता से कहना चाहता हूँ कि हम जिन्ना के भारत हैं | धर्म के लिहाज़ से नहीं बल्कि सेक्युलर राजनीति की दृष्टि से | याद कीजिये पाकिस्तानी संसद में अपने प्रथम संभाषण में उन्होंने क्या कहा था ? कि इस मुल्क में सबको अपने धर्म पालन की पूरी आज़ादी होगी , अल्पसंख्यकों के साथ कोई भेदभाव नहीं होगा इत्यादि | इस सन्देश को ही तो भारत ने अपनाया ? तो हम जिन्ना के भारत हुए या नहीं ? इससे हमें क्या मतलब जो पाकिस्तान ने इसे भुला दिया ? अर्थात भारत सिर्फ गाँधी - नेहरु - आंबेडकर का ही नहीं , जिन्ना का भी उतना ही अनुयायी है |

* राजनीतिक विचारक इस्लामी कट्टरवाद के विरोध से तो सहमत होते हैं पर साथ ही मुसलमानों को भारत के संसाधनों पर पहला हक भी देना चाहते हैं | जब कि दूसरी और उन्ही का दलित विंग [ और वे भी ] केवल ब्राह्मणवाद से घृणा करने को नहीं कहता , न अपने अन्दर पनप रहे ब्राह्मणवाद से ही परहेज़ करता है बल्कि सम्पूर्ण ब्राह्मण समुदाय, प्रत्येक ब्राह्मण को कटघरे में रखकर उनके खिलाफ विषवमन करता है लतियाता - गरियाता रहता है | ' मासूम ' मुसलामानों के पक्ष में खड़े सेकुलर- प्रगतिशील आंदोलनकारी ' मासूम ' ब्राह्मणों के पक्ष में कुछ बोलने से कतराते हैं | ऐसी दो - अन्खियाही , यह वैचारिक गैर ईमानदारी राजनीतिक समाज में क्यों व्याप्त है ?

* [ अस्पष्ट ]
जो चीज़ गुम हो गई है , लोक आस्था कहती है , उसे थोड़ी देर के लिए भूल जाओ | फिर ढूँढो | मिल जायगी |

* [ डोर इतना न खींचो ]
यह बात दलित अति- आन्दोलन के पार्थ सारथियों - नील मंडल से संबोधित है | इस पर बशीर बद्र का एक अति प्रचलित शेर भी है - " दुश्मनी जमकर करो लेकिन यह गुंजाइश रहे / कि जब कभी हम दोस्त बन जाएँ तो शर्मिंदा न हों | " इसलिए डोर उतनी ही खींचो जिससे वह टूटने न पाए , थोड़ी थोड़ी जुडी रहे | क्योंकि हमारे नाम तो राम लक्ष्मण सीता सावित्री जैसे ही होने हैं | ऐसा न करो कि फिर मुँह दिखाने के काबिल न रहो | सत्ता के दंभ में [ हाँ आरक्षण भी सत्ता कि एक सशक्त शाखा है ] इतना न खो जाओ कि पागल हो जाओ | और सबसे बड़ी बात , हमारा और कहीं ठिकाना भी नहीं है, हिन्दू के अलावा , हिन्दुस्तान के अतिरिक्त | यूँ हिन्दू तो हम तमाम सवर्ण भी नहीं हैं , आप की ही तरह और आप के साथ ही एक मनुष्य की भाँति हैं |  लेकिन क्या करें ? नाम के लिए तो हिन्दू होना ही है | विवशता ही समझ लें | लोग जो कहते हैं यह संस्कृति है , तो सारी संस्कृति तो दलितों के पास रक्षति रक्षितः है | ग्राम्य शिल्प , लोक गायन - नर्तन ब्राह्मणों के पास कहाँ ? फिर हिन्दू होने से क्यों डरते हो ? छीन लो ब्राह्मणों से ज्ञान - विज्ञान - तत्व ज्ञान - वेद पुराण | बन जाओ ब्राह्मण | कौन रोकता है अब ? दिनकर की बात आप के लिए भी तो है - सिंहासन खाली करो कि जनता [ दलिता ] आती है |

*  " दुश्मनी जमकर करो लेकिन यह गुंजाइश रहे /
कि जब कभी हम दोस्त बन जाएँ तो शर्मिंदा न हों | "
[ बशीर बद्र ]

तिल का ताड़



* घर तो बहुतेरे हैं , पर उनमें वह रहता नहीं है ;
कभी वह घर में हो , तो सोचता हूँ मिल आऊँ |
[ ईश्वर ]

* तिल का ताड़ बना दे कोई ,
इतना प्यार जता दे कोई |

* मैं सोचता हूँ किन्तु गलत सोचता हूँ मैं ;
तुम ठीक सोचते हो मगर सोचते नहीं |

* आपने मुझसे मेरा नाम पता पूछा है ?
अभी मैं डायरी से देख कर बताता हूँ ।

* शादी भले न करें , पर शादी जैसा कुछ तो ज़रूर करना चाहिए आदमियों और औरतों को |
[ यह शादी करने वाले तय करेंगें | हर बात में मेरी तानाशाही नहीं चलेगी | बस कुछ करना चाहिए , मैंने ख्याल दे दिया , यह क्या कम है ? मैं बता दूंगा तो वे बिना मुझे भी बताये भाग लेंगे और मेरी दावत मारी जायगी | ]

* यह भला लाबीइंग होती क्या है | वही तो नहीं जो साहित्यकार लोग पद या पुरस्कार पाने के लिए पहुँच वाले लोगों से समर्थन जुटाने के लिए करते हैं ?

* जनम से नहीं अकल से भी दलित बनो तो मानें ! आसान काम करके पर्वतारोहण का पुरस्कार जीतना चाहते हो ?


[ बाल गीत ] - बन सकता है ]
* अगड़म बगड़म सारी चीज़ें ,
कुछ उपयोगी न्यारी चीज़ें ;
लेकर आये बन्दर मामा
बच्चों की सब प्यारी चीज़ें |
- - - -
# #

बुधवार, 12 दिसंबर 2012

रौशनी को देखकर


[ कवितानुमा ]

* रौशनी को देखकर
मैं सरपट भागा
मैं आगे आगे
रौशनी पीछे पीछे |
रौशनी रास्ता दिखाती रही
मैं चलता रहा |
और पीछे रौशनी ?
उसके पीछे कोई
रौशनी तो थी नहीं
वह औंधे मुँह
गिरी धडाम |
# #

मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

मेरे ख्यालों में


[Badmesh]
* अब चाहे नैतिकता रहे चाहे जाय , चाहे बुराइयों का पहाड़ ही टूट पड़े , अब औरतें पुनः परदे में नहीं डाली जा सकतीं |

* औरतें कुतिया होती हैं या नहीं , पुरुष तो सारे कुत्ते ही होते हैं |

* जब तक आप बुर्क़ा नहीं लगायेंगे , दुनिया की असलियत नहीं जान पायेंगे |

* जहां तक आपका सवाल है ,
मेरे ख्यालों में एक ख़याल है |


* उधर देश बदमाशों से परेशान रहा इधर पूरे जाड़े भर मैं अपनी पत्नी से त्रस्त रहा | इसे बलात्कार तो कह नहीं सकता क्योंकि मैं सिद्ध नहीं कर पाऊँगा | उन्होंने खूब बनाया अपनी पसंद का मटर का निमोना और बथुए का सगपहिता दाल | ये दोनों पकवान मुझे पसंद नहीं | यह तो कहिये कभी कभी साग और गोभी , कभी आलू मटर टमाटर की रसेदार सब्जी भी बन जाती थी जिसे खाकर मैं यह लिखने के लिए जिंदा हूँ | कृपया मेरी एफ आई आर दर्ज कर ली जाय | 

सोचते तो हैं


* एक दिल है
तुम्हे देखकर ही
धड़कता है |

* भरा जाता है
मनों में , बैठता है
नक्सलवाद |

* क्या कभी रहा
लोक में लोकतंत्र
जो अब होगा ?

* बात , उनके
कान में डालकर
मैं चला आया |


* नागरिक जी
सोच नहीं पाते हैं
सोचते तो हैं !

* स्वीकार नहीं
आपकी सारी बातें
शिरोधार्य हैं |


* सदुपयोग
धन - धान्य का करूँ
ईश्वर का भी |

आस्थाएँ बनायें


* आस्थाएँ बनायें /
नयी आस्थाएं बनायें
क्यों पुरानी आस्थाओं के
ढोल पीटें, लकीर ढोयें ?
# #




 [ हमारी मनुष्यता ]

*  हमारी मनुष्यता में यदि कोई खोट या कमी हो तो हमें बताएँ | हम सुधार लेंगे , पाश्चाताप कर लेंगे , शर्मिंदा हो लेंगे , माफी माँग लेंगे | आप बताएं तो !

" नया मनुष्य "


दुखद दृष्टव्य है कि नास्तिकता का नाम लेते ही नाक भौहें चढ़ने लगती हैं , और उसके आध्यात्मिक निहितार्थ को पकड़ना किनारे हो जाता है | किसका दोष दें , काई की इतनी परतें चढ़ी हैं कि हमारे पाँव उसमे उलझ ही जाते हैं | समझ नहीं पाते अस्तित्व का मंतव्य जो कि ज्ञान की जन ग्राह्यता और जन- जन में आध्यात्मिक श्रेष्ठता है | इस उद्देश्य से हम मिशन का नाम बदल रहे हैं | इससे भी यदि बात न बनी तो फिर फिर बदलेंगे , पर नज़र रखेंगे चिड़िए की आँख पर- मनुष्य की आत्मिक उत्कृष्टता |

भूमिका = " नया मनुष्य " , स्थित प्रज्ञावान श्रेष्ठतर / ( न हि मानुषात श्रेष्ठतरम हि किंचित )
[ Individually Spirited / Highly Spiritual / Spiritual Humanist ] |
नया मनुष्य बनाने की बात अनेक जागृत महापुरुषों ने की | कृष्णमूर्ति , ओशो ने नए मनुष्य के उभार की प्रत्याशा की | और पहले, प्रकारांतर से बुद्ध ने , सार्त्र ने सुकरात ने की - अनगिनत शिक्षकों ने | लेकिन क्या कुछ हुआ ? और क्या कुछ भी नहीं होगा ? क्या नया मनुष्य नहीं बनेगा या नहीं बन सकता ? गुरुजन कहने ,पुकारने , रास्ता बताने के अतिरिक्त और क्या कर सकते थे ? उन्होंने किया | लेकिन बनना तो मनुष्य को है ! यही तो नए मनुष्य की विशेषता है कि वह स्वयमेव होता है, उसे जो होना है वह स्वयं होगा, अन्यथा नहीं होगा ( जो हो रहा है ) | वह किसी के अधीन नहीं हो सकता (लेकिन स्वाधीन तो हो सकता है ) | यही कारण है कि बनाते तो रह गए सारे धर्म अपने -अपने अच्छे इंसान और सभी अपने मुँह की खा गए | अलबत्ता फिर भी वे किनारे नहीं हुए | उन्होंने मनुष्य के लिए रास्ता नहीं छोड़ा | यही विडम्बना है जिसे हम तोड़ना चाहते हैं |
तो प्रश्न मौलिक है , क्या हम कुछ नहीं बनेंगे , नवीन ? कैसे बनेंगे ? या महामानवों की संकल्पना सारी मिथ्या में / निरर्थक चली जायगी ?  

ईश्वर अदालत में


* ईश्वर कभी अदालत में
पेश नहीं होता
कभी मैदान में
सामने नहीं आता ,
वह अपना वकील
भेज देता है ,
मनुष्यों को ही पेशकार
बनाया हुआ है उसने
जो कि दरअसल
उसके मुद्दई होने थे |
और यह वकील
ईश्वर को बचाता रहता है
तारिख पर तारीख
लेता चला जाता है |
ईश्वर सजायाफ्ता
हो ही नहीं सकता क्योंकि
उसका साइयाँ है मनुष्य ,
खुद उसका वकील / जज |
# #

दुआओं के लिए


* कहीं कुछ गोटी फिट हो जाय , किसी से प्रेम के आदान - प्रदान की स्थिति बन जाय , तो जीने का आनंद बढ़ जाता है |

* दवाओं का असर होते न देखा ,
दुआओं के लिए दर - बदर भटका |

* हमको उम्मीद नहीं है कोई ,
फिर भी तो काम किये जाते हैं |


* कौन सी आफत पडी , मत जाइए ,
आज का दिन शुभ नहीं , कल जाइये |

* भूल गया मैं सारा दुखड़ा ,
देख लिया जब उनका मुखड़ा |

* आपका , मित्र ! घर है कहाँ ?
घर में पेशाब घर है कहाँ ?


* [ ग़ज़ल पूरी करो ]
सड़कें वही हैं ,
गाड़ियाँ बढ़ी हैं |

Kunal Gauraw ना पूछो किस क़दर
दुश्वारियाँ बढ़ी हैं ।

Gulshan Chawla - -:-
मुसीबत सहे जाओ,
सारी उम्र पड़ी है ! .....


बैठी है उनमे ,
कैसी नकचढ़ी है ![ugranath]


कितने कुचले गए ,
कहाँ किसको पड़ी है ![ugranath]

रविवार, 9 दिसंबर 2012

सुनीता सुनील का तलाक़


[ story]         I LOVE YOU
सुनीता सुनील का तलाक़ संपन्न हो चुका था | सुनील ने हस्ताक्षरित सरे कागजात सुनीता को सौंप दिए , और वह उन्हें संभाल कर घर ले आई | फुर्सत से उन्हें एक एक करके ध्यान से चेक करना चाहा, कहीं कोई दस्तावेज़ छूट तो नहीं गया या कम तो नहीं रह गया | सब दुरुस्त थे | अब अंतिम पृष्ठ की बारी थी | पूरे फुलस्केप कागज़ पर लिखा था - Nevertheless , I love you , Sunita - Sunil

एक तरफ़ा राह है


* एक तरफ़ा राह है मत जाइये ,
घूम कर उस रोड से घर आइये |
[ घूम फिर कर लौटकर घर आइये ]

* सब लोग परेशान हैं इस ख्याति के लिए ,
कैसे बजा दें तालियाँ दो चार आदमी !

* बहुत आसान है तलवार लेखनी के भाँजना ,
कभी देखा है किसी कवि का सिर कलम होते ?
OR =
* बहुत आसान है शमशीर-ए-कलम भाँजते रहना ,
कभी देखा किसी शायर का सिर कलम होते ?

खेल मान्यताओं का


*अपनी आस्तिकता की खोज , उसका निर्माण स्वयं कीजिये | इसके लिए पहले नास्तिकता पर तो आइये , उन विश्वासों के बरखिलाफ जो दुनिया में व्याप्त हैं ! तब तो बात बने !

* ईश्वर को मानने के पीछे मनोवैज्ञानिक कारण के अलावा बस साहित्यिक , सांस्कृतिक , कलाकृति भर जोड़े जा सकते हैं | अन्यथा वस्तुतः तो वह है नहीं , वैसा जैसा उसका होना बताया जाता है | आश्चर्य है जिसे हम अपने वैज्ञानिक औजारों से नहीं जान सकते, उसे हम ' जानते हैं ' कैसे मान सकते हैं ? कैसे किसी ने ईश्वर को जान लिया ? नहीं जान सकते इसीलिये ईश्वर के तमाम धर्मों और मान्यताओं में अलग अलग , परस्पर विरोधी स्वरुप हैं , और विवाद के कारण बनते हैं | तो खेल तो सब मान्यताओं का है , सच्चाई कुछ नहीं | हाँ , मानने में हर्ज़ क्या है , इस पर मैं भी सहमत हूँ | लेकिन पहले यह मान कर कि वह वस्तुतः है नहीं , हम उसे इस तरह मानते हैं अपने किन्ही मानवीय प्रयोजनों के लिए | और तब बात आएगी कि यदि हमारा शुभ प्रयोजन उस ईश्वर से सिद्ध न होता , तो ऐसे ईश्वर का फिर क्या काम ?


*आस्थावान लोग आपस में झगड़ते क्यों हैं , यदि आस्था बड़ी अच्छी और नेक चीज़ है ?

* लड़ाई मंदिर और मंदिर [मस्जिद] की नहीं हो सकती | हो तो हो मंदिर और अमंदिर के बीच |

 * हाँ रवीन्द्र जी , यकीनन ध्यान देने योग्य है यह बात | और इन्ही पर ध्यान हमें नास्तिकता पर ले जाता है , जो मेरी दृष्टि में अनुपम , श्रेष्ठ , सुपर आस्तिकता है / यद्यपि उन्हें अधर्मी कहकर लताड़ा जाता है , मानो वे स्वयं बड़े धर्म के काम में लगे हों |

* आस्
तिकता का शीर्ष शिखर होगा - नास्तिकता / अति विश्वास, सुपर आस्था | लेकिन कोई जल्दी न कीजिये / हम सभी लोग उसी रास्ते से गुज़रे हैं | ध्यानी तो मैं अभी भी हूँ , जो पहले नहीं था | बस पाखण्ड छूट गए , दूर जा गिरे |


* और आगे सोचिये | नास्तिक होकर आप अपनी आस्था ( इस आलोचना पर कान न दीजिये कि नास्तिकों की कोई आस्था नहीं होती | बड़े गहरे आस्थावान होता है  वह यदि सचमुच नास्तिक हैं तो ) को निष्पक्षता से, बराबरी से सभी धर्मों , सभी ईश्वरों में बाँट सकेंगे | अपना प्रेम सभी बंधुओं में समता पूर्वक , बिना भेदभाव ,without prejudice दे सकते हैं | आस्तिकता , देखते रहिये , आपको किसी एक खूँटे से ऐसा ले जाकर बाँध देगी कि आप जीवन भर कोल्हू के बैल की तरह एक घेरे में चक्कर लगाते रहेंगे | और अपना जीवन तो कदापि नहीं जी पाएंगे |

* नहीं | आधुनिक काल में शब्दार्थ इतने तो न बदलें | आस्तिकता / नास्तिकता दोनों ही आध्यात्मिक अभिप्राय हैं | और यह भारतीय वांग्मय में संभव हुआ इसका मुझे गर्व है | मुझे आश्चर्य होता है जब नास्तिकता पर कोई हिन्दू आश्चर्य या विरोध करता है | यह तो वह संपत्ति है जो केवल हिन्दू के पास है | जाबालिसमेत कितने ऋषि मुनि नास्तिक हैं , बौद्ध जैन सांख्य योग मीमांसा आदि अधिकांश दर्शन तो नास्तिक हैं | इसी से वह समृद्ध है | पता नहीं नास्तिकता से क्या आशय लेते है लोग | हमें एक तो लगता है की पढ़ने लिखने में रूचि समाप्त हुई है | न आध्यात्मिक उन्नति से किसी को कुछ लेना देना  रहा है | ढोल पीटने में आसक्ति बढ़ी है | दुसरे मौलिक चिंतन में आस्था सपाप्त हुई है | यहाँ मैंने आस्था शब्द का प्रयोग किया , जिसके बगैर कोई जीवन नहीं होता | यदि नई परिभाषा देनी हो तो कहें - आस्तिकता का प्रयोग साम्प्रदायिकता और नास्तिकता आध्यात्मिकता के सन्दर्भ में लिया जाय | और हाँ , यह कितनी झूठी बात प्रचलित है कि सेक्युलरवाद विदेशी अवधारणा है | क्या सत्यनिष्ठा, न्यायप्रियता , मानव सम्मान , चार्वाक ,बुद्ध आदि विदेशी हैं ?


मुर्गा पकेगा


* कुछ न कुछ
लिखते रहते हैं
अभ्यास होता |

* फुरसत है
नेतागिरी के लिए
लोगों के पास |

* कहाँ जाओगे
यार आज तो रुको
मुर्गा पकेगा |


* सहमति है
मना नहीं करते
यदि छूने से |

* जीव जंतु है
मानव प्रजाति भी
नर व नारी |

* देखा तो मैंने
घर फूँक तमाशा
और क्या करूँ ?

* बताओ मत
मैं सब जानता हूँ
छिपाते रहो |


* बस थोडा सा
दिमाग लगाइए
समस्या हल !

* हर हाल में
प्यार तो करना है
मुझे सबसे !


* मैंने क्या पढ़ा ?
न वेद न पुराण
कुछ तो नहीं |
[ बस आदमी की आँखें ]


* बिना चिंता के
 कहाँ निकलता है
कोई विचार !

* सोचिए नहीं
सोचते ही रहिए
निशि वासर |

* उन सबका
नाम मुझे याद है
एक आदमी |

* दिल होता है
धनिकों के पास भी
बुद्धि होती है
गरीबों के पास भी
वंचितों में भी
होती समझदारी
संवेदनाएँ |

शनिवार, 8 दिसंबर 2012

बिलावजह क्यों बोलें


मौर्या जी कि टिपण्णी हंसी मज़ाक के लिए अच्छा / अच्छी शैली में है , और इसे इसी प्रकार लिया भी जाना चाहिए | क्योंकि हिंदुत्व कोई इसलाम नहीं है , न वेद कोई किसी की संपत्ति | वह सारी मानवता का ज्ञान कोष है , और उस पर हर मनुष्य का अधिकार है | मैं यह नहीं समझ पाता कि कोई यह कैसे कहता है कि अमुक ने हमारे पैगम्बर / देवता / ईश्वर / किताब कि अवमानना की है | क्या हम ईश्वर से ज्यादा ताक़तवर हैं ? जो जैसा करेगा वैसा भुगतेगा | लेकिन यदि गंभीरता से देखा जाय तो जो वेद पढ़ते हैं / कुरआन पढ़ते हैं वे उस पर कुछ कहें | जिन्हें उनसे मतलब नहीं है , वे बिलावजह क्यों बोलें , बगैर जन भावना का ख्याल किये ?

इतनी गहराई से देखा


[ अशआर ]
* मुखौटे इतने हम पर पुरअसर हैं
हम उनकी साजिशों से बेखबर हैं |

* घोडा बने, गदहा बने, बिल्ली बने
अपने बच्चों के लिए उल्लू बने |

* नहीं लगता इसमें मेरा मन ,
मुझे जैसे काटता है धन |

* इतनी गहराई से देखा ,
मन की ऊँचाई से देखा |

कविता के अलावा ईश्वर

कविता के अलावा ईश्वर को और कुछ मन्ना तो गलत ही है । और हाँ , कविता क्या कम पावरफुल है और मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक ?

मंत्री पद दो


* मंत्री पद दो
तो पार्टी में रहेंगे
नहीं तो नहीं |

* सब एक हैं
देखने में लगते
सब अलग |

* संत भी तो हूँ
फटकने न देता
पास किसी को |

* उन्होंने पूछा
और क्या करते हैं ?
आपकी याद |

कविताओं के साथ

किसी एक को क्यों कहें ? कोई मंदिर / मस्जिद पर अपना दावा नहीं छोड़ता | कविताओं के साथ एक यही दिक्कत है | वे इतनी ऊंची होती हैं कि कोई उन्हें छू नहीं पाता , पालन नहीं करता | उनका कोई असर सामजिक जीवन पर दिखाई नहीं देता | ग़ालिब ने कहा -दिल के बहलाने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है | या जोश - किधर से बर्क चमकती है देखें ऐ वाइज़ / मैं अपना जाम उठाता हूँ तू किताब उठा | ईश्वर के खिलाफ अनगिनत तो अश आर हैं | कितने हिन्दू तो छोड़ दीजिये , मुसलमान नास्तिक हुए / बने | यह गनीमत ज़रूर रही कि इन पर कोई फतवा जारी नहीं हुआ [ सलमान रश्दी शायर नहीं हैं ] |

माँ की याद ही


* दवा है मेरी
तुम्हारा इंतज़ार
युग जी लेता |

*  कम्युनिस्ट हूँ
लेकिन मार्क्सवादी
संशय में हूँ |

* भेदभाव था
भेदभाव रहेगा
भेदभाव है |

* माँ की याद ही
माँ का आशीर्वाद है
करो तो पाओ |

* आप ग्रस्त हैं
अतिरिक्त मोह से
तो विचार क्या |

* कथ्य में डूबा
तथ्य कहाँ जानूँ मैं
क्या लिखूँ लेख |

* क्या करता हूँ
लिखता पढ़ता हूँ
खाक काम है |

* मन तो सही
मन में कुछ नहीं
ध्यान का फल |

* बस ध्यान ही
बेड़ा पार लगाएगा
मानवता का |

* चाहे हम हों
सबकी ज़िन्दगी है
चाहे आप हों |

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

छुट्टियाँ कम से कम

६ दिस / ' जय भीम ' तो सर्वथा उचित है | वरेण्य हैं आंबेडकर जी निश्चित ही | लेकिन यह सार्वजनिक अवकाश का मामला क्या है ? क्या हम एक नई संस्कृति का विकल्प नहीं दे सकते आंबेडकर की याद या उनके सम्मान में ? हमारा आन्दोलन होना चाहिए कि सरकारी छुट्टियाँ कम से कम करके उनकी संख्या दो या तीन करो राष्ट्रीय दिवसों पर | शेष कुछ छुट्टियाँव्यक्तियों के हवाले कर दो , जिन्हें वे अपनी आवश्यकता / सुविधानुसार उपयोग कर सकें |

" प्रिय मनुष्य " ( Godless Humanity )

अनुमान से हमने कुछ लोगों को अपनी तरफ से इस ग्रुप " प्रिय मनुष्य " ( Godless Humanity ) में शामिल किया है | तथापि, जिन्हें इस दुनिया के ईश्वरविहीन होने में कोई संदेह हो, वे कृपया अपना नाम इस समूह से हटा लें | कृपा होगी | और जिन्हें इसमें कोई संदेह नहीं है और इस समूह से अभी बाहर हैं , वे कृपया अन्दर आ जाएँ |

चिन्ह चरनों के


[ गायन ]
* ऐसा लगता है कोई आया था ,
चिन्ह चरनों के बने घर में |

राम नाम सत्य


[ कवितानुमा ]
* सबसे बड़ा सत्य है -
" भ्रम " |
हर व्यक्ति भ्रम में है ,
पूरी दुनिया भ्रम पर जीवित है |
सत्य है -
वह मुझे प्यार करती है
सत्य है -
मैं उसे प्रेम करता हूँ |
सत्य है राम का नाम ,
राम नाम सत्य है |

सबसे बड़ा सत्य है भ्रम

[ उवाच ]
* सबसे बड़ा सत्य है = " भ्रम " | हर व्यक्ति भ्रम में है , पूरी दुनिया भ्रम पर जीवित है |

* मुझे किताबों से बाहर पढ़ना भाई ! नहीं तो मुझे समझ नहीं पाओगे |

कामता नाथ जी


* भीड़ तंत्र के विरोध में
है तो एक छोटी सी भीड़ ,
लेकिन किसी की मृत्यु पर
भीड़ ही बताती है
उसकी लोकप्रियता |
अभी मैं कामता नाथ जी के
घर जा रहा हूँ
कल रात उनका देहांत हो गया |
कहानीकार थे ,
मुझसे बारह साल बड़े ,
उन्हें मैं सारिका के ज़माने से ही
जानता था , फिर लखनऊ आने पर
उन्हें देखा | वह वरिष्ठ थे,
मैं उनके निकट नहीं था |
उन्हें श्रद्धांजलि |

गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

अंगूर हो जाना


[ कविता नुमा ]
* आम आदमी को अब
अंगूर हो जाना चाहिए ,
खट्टे अंगूर ;
राजनीतिक दलों की
पहुँच से बाहर
बहुत दूर |

बुधवार, 5 दिसंबर 2012

अच्छा ही तो है


* विचार में हो
सोच में प्रगति हो
संस्कार में हो |

* जन्म से नहीं
अक्ल से दलित हों
तब तो सच्चे |

* हमारी बात
कोई भी दुहराए
अच्छा ही तो है |

अमौसी


[ बदमाश चिंतन ]
* रेडीमेड कपडे खरीदने में एक दिक्कत बहुत आती है | यदि थोडा ओवरसाइज़ लो तो कंधे लटकने लगते हैं | और यदि बिल्कुलसाइज़ के लो तो गले का बटन बंद नहीं होता |
* अमौसी | मैं इस चिंतन में था कि लखनऊ का हवाई अड्डा अमौसी में क्यों है ? और मैंने इसका कारण ढूँढ निकाला | क्योंकि मेरी मौसी का घर बालागंज में है, और उसके विपरीत शहर से दूर दूसरे छोर पर हवाई अड्डा है जहाँ मेरी मौसी नहीं रहतीं | इसलिए उसका नाम अमौसी पड़ा |
* पैदल चलना एक भी किलोमीटर नहीं है, और खरीदेंगे खूब बड़े मजबूत तली के वज़नदार ब्रांडेड जूते | नाम नहीं बताऊंगा नहीं तो उसका प्रचार हो जायगा और मुझे कोई पैसा तो मिलना नहीं है !
* दलितों से तो भेदभाव करता ही हूँ , उनमे भी औरतों और मर्दों में फर्क करता हूँ | दलित नर मित्रों के फ़ोन आते हैं तो दो चार बार बजने पर स्वीकार करता हूँ , जब कि दलित नारी मित्रो के फ़ोन घंटी बजने से पहले ही उठा लेता हूँ |
* पुरुषों को चाहे गोली मार दो , सूली पर चढ़ा दो , या उनके अंग - अंग काट कर ज़मीन में गाड़ दो , वह कुत्ते की पूँछ हैं | वह हर हाल में नारी शरीर और आकृति पर आकर्षित होता रहेगा | उनके लिए वह अपनी जान गवाँता रहेगा |
* बुढ़ापे में यह ज़रूर हो जाता है कि हवा खिसकाने में शर्म हया कुछ कम हो जाती है |
 

मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

ढाई आखर


* कुछ हो न हो
तुम सुंदर तो हो
यही बहुत |

* तरस गए
मेरे होंठ , बोलना
ढाई आखर |

* वह अंधी थी
मैंने आँखें चूमीं तो
खिले कमल |

* लोकतंत्र की
दूरी ज्यादा नहीं है
भीड़तंत्र से  |

* क्या घुस जाए
कब मेरे सिर में
नहीं जानता |

* सरकार हो
अव्यवस्था न हो तो
सूना लगता |

बिल्ली नि रास्ता जो काटा


[ उवाच ]
* बिल्ली नि रास्ता जो काटा था / मैं सही मुकाम पर पहुँच गया |
* एक एक पैसा दाँतों के बीच फँसाकर बचाने वाले शादी विवाहों में किस तरह पैसा पानी की तरह बचाते हैं कि आश्चर्य होता है |
* वैसे तो कहने को हर व्यक्ति संवैधानिक अधिकार प्राप्त स्वतंत्र इकाई है , लेकिन संपत्ति पर हक ज़माने के लिए सब बेटवा - बिटिया - ससुर -दमाद रिश्तेदार बन जाते हैं !
* वैसे ही बहुत वज़नदार है यह धरती , मनुष्य इसे अपने विचार - व्यवहार से और भारी तो न बनाये !
* जो ज्यादा सफल होना चाहते हैं , वे जल्दी असफल भी हो जाते हैं | हो ही जाना चाहिए |
* जाति या धर्म केवल पैदाइशी तक क्षम्य है | उसके बाद यदि व्यक्ति अपनी तरफ से हिन्दू - मुसलमान बनता है तो वह जाने | उसका फल - कुफल उसे भुगतना पड़ेगा |
* बाबा रामदेव योग करते करते राजनीति करने लगे | उसी प्रकार क्या केजरीवाल को राजनीति करते करते योग गुरु नहीं हो जाना चाहिए ?
* जो साधारण आदमी हो उसे सहर्ष सम्मान दो | जो विशिष्टता की ऐंठ में हो उसे साक्रोश उपेक्षा , लानत - लताड़ दो |
* सहालग है | उनके बहन की शादी है अगले सप्ताह | मुझसे मिलने कहाँ आ पायेंगे !

कन्या दान


कन्या दान अश्लील है , बुरा लगता है ? तो मत दीजिये ऐसा दान | कन्या धन को घर में ही रखिये | अरे भाई , ये सब रस्में हैं पाखण्ड हैं विवाह के | ये गाजे - बाजे, नाच गाना , जयमाल [?], अंतर मंतर, वर के पाँव पूजना, माड़व  - कोहबर, कलेवा, भात, वगैरह  | पुराने लोगों को इन सब छ्छंदों में मज़ा आता था तो वे करते थे, आप को उनका उपहास करने में मज़ा आता है तो आप मज़ाक उड़ाने में लगे हैं | और कुछ तो कर नहीं सकते , विवाह की कोई नई विधि ईजाद नहीं कर सकते , तो करने दीजिये उन्हें | कुछ नया करते  तो हम भी उसका अनुसरण करते | लेकिन आप को यह तो ज्ञात होना चाहिए कि कन्या दान करके कोई कन्या से छुटकारा नहीं ले लेता | पैर पूजने को लेकर एक घटना है कि कहीं पुत्री से दामाद ने कोई दुर्व्यवहार कर दिया |  कन्या के बाप ने चेतावनी दी कि तुम्हारा पैर ही तो पूजा है गर्दन नहीं , उसे काट कर अलग कर दूँगा | निश्चय ही बहुत कुछ आलोच्य हैं पुराने रस्मों में, और इसका पूरा हक है आपको, क्योंकि आप उसके निर्णायक सदस्य हैं | लेकिन ज़रा ज़िम्मेदारी से, केवल मजाहिया लहजे में नहीं, न उन्हें अपमानित करके |  
मन में भाव कैसे भी हों , जो भी हिन्दू रीति से विवाह संपन्न किये जाते हैं उनमे यही पाखण्ड निभाए जाते हैं | वही अग्नि के फेरे , वही कसमें | क्या कोई अर्थ होता है उनका ? नहीं तो कोई दूसरा रास्ता बताइए जिसे व्यवहृत किया जाय, जो व्यवहार में लाने योग्य हो , सर्वदोषमुक्त | अन्यथा दिल के बहलाने को ग़ालिब ये ख्याल से क्या फायदा ? किससे कह रहे हैं आप ?


अच्छा हाँ , बात ही तो कर रहे हैं , और बात ही करने के लिए तो है फेस बुक ?