शनिवार, 30 मार्च 2013

Nagrik Blog 30 March 2013


Vandita Mishra = commented in HOC on my post yesterday= " जय अनुमान ज्ञान गुण सागर "
कुछ को छोड़कर लगभग पुरे हॉउस आफ कामन्स के ज्ञान का निचोड़ रख दिया है ...बहुत कम शब्दों में बहुत बड़ी व्याख्या है ..ऐसे ही व्यंग्यकार की आवश्यकता है ...बधाई हो उग्र जी ...

Shriniwas Rai Shankar जय कपीश तिंहू लोक उजागर ..राम दूत अतुलित बल धामा......परन्तु ये सब पंक्तिया तो हनुमान का गुण गान करती हैं..अनुमान को यहाँ कैसे फिट किया जाये...!और इसमें राम भी घुसे हुए हैं..

दो पंक्ति से अधिक अब तो स्मरण ही नहीं है | इससे ज्यादा की ज़रुरत क्या है , इतना समय किसके पास है ? पूरी चालीसा वे गढ़ें जिन्हें मूल को अपभ्रंश करते करते मुलायम / लालू चालीसा तक ले जाना हो ! हमारा काम तो बस इतने से चल जाता है, वह भी जब कभी गाने का मन हो | वरना यह भी हमारी दैनिक ज़रुरत कहाँ है ? =    
जय अनुमान ज्ञान गुण सागर ,
जय बुधीश तिहु लोक उजागर |

* बेटे की शादी के बाद पहले तो माता पिता कुछ दिन चिंतित होते हैं कि कहीं ऐसा न हो बहू बेटे में न पटे, तलाक़ की नौबत आये, या वैवाहिक जीवन खटपट में बीते | लेकिन जब बहू बेटे में पटरी पुख्ता हो जाती है तो सशंकित हो जाते हैं - हाय, हमारी तो कोई पूँछ ही नहीं रही | बेटा तो बहू के कहने में आ गया, गुलाम हो गया | अब वह हमारी सुनता ही नहीं |

[ मैं नास्तिक ही हूँ]
* नहीं भाई साहेब एवं आस्तिक अनुज मित्र , विश्वास कीजिये मैं नास्तिक ही हूँ | चचा भतीजा मिलकर हमारे आन्दोलन को खराब न कीजिये, गाँधीवादी तरीके से | मालूम है, गाँधी जी ने भी परम भारतीय नास्तिक हमारे वरेण्य अग्रजन ' गोरा ' [Founder - Atheist Center] को भी ऐसा ही कहा था | गांधी जी तो जैसे गाँधी जी थे, वह गोरा के अंतिम संस्कार में शामिल होने गए और उन्होंने गोरा के सम्मान में कहा - गोरा तो महान आस्तिक थे | अब बताईये उनके द्वारा यह हिंसा हुयी या अहिंसा ? उन्होंने एक वाक्य में गोरा के जीवन भर के प्रयास पर पानी फेर दिया | मेरे ख्याल से गाँधी द्वारा यह गोरा का सम्मान नहीं, असम्मान था | व्यक्ति को उस व्यक्ति के रूप में ही लिया जाना चाहिए था | क्या गांधी के कहने का यह मतलब था कि नास्तिक आदमी तो अच्छा हो नहीं सकता, और गोरा अच्छे आदमी थे | इसलिए गोरा नास्तिक हुए | यह तो गोरा को गाली देने के समान हुआ कि उनके चिंतन और आदर्श को ही उलट दिया जाय | उन्हें यह समझ कभी नहीं आई कि नैतिकता अलग है आस्तिकता - नास्तिकता / या धार्मिकता - साम्प्रदायिकता अलग | ठीक है कि नैतिकता के उच्च धरातल पर जाना व्यक्ति का उद्देश्य होना चाहिए, लेकिन इससे उसकी आस्था - अनास्था का कोई सम्बन्ध नहीं है | सबके अपने तरीके हैं और सब अपने मार्ग को श्रेष्ठ समझकर / बताकर उसका संवर्धन और प्रचार प्रसार करते हैं | वही मैं भी करता हूँ - नास्तिक मानववाद का सरोकार | ज़ाहिर है हम भी उन्ही संस्कारों से निकले हैं जिनके प्रभाव में आप लोग अभी रमे हो | लेकिन अब हम लोगों की संख्या और संस्थाएँ विकास पर हैं | आप के विचार स्वाभाविक रूप से हमसे टेली करें तो उससे हमें क्या परहेज़, लेकिन यह तो निश्चित है किजिन रूपों में आमजन ईश्वर को जानता समझता है, आराधना  करता है उस पर हम विश्वास नहीं करते | वैज्ञानिक चिंतन के पक्षधर हैं पर मनोविज्ञान और कल्पना - काव्यात्मकता को स्वीकार करते हैं और इसलिए हम देवताओं - भगवानो को उस तरह नहीं नकारते जैसा इस्लाम उनके साथ करता है, या अल्लाह के विरुद्ध उस तरह नहीं बोलते जैसा हिन्दू बोलता है | अब इसी इंसानी व्यवहार से लोग समझते हैं - गाँधी जी के तर्ज़ पर  = " साला यह तो आस्तिक बन गया " [ यह सगीना फिल्म में दिलीप कुमार का एक डायलाग गीत के बतर्ज़ भी है] |
विचार और ट्राई भी किया आस्तिकता आधारित मूल्यों की सफाई का धर्मों में सुधार का | लेकिन भारत के हिन्दू - मुसलमान में कोई फर्क तो आ नहीं रहा है | बहुत प्रयास किया महात्माओं ने दयानंद विवेकानंद जी भी उनमे शामिल हैं | लेकिन उस सारी सफाई का लाभ पारंपरिक दकियानूसी पाखंडी ब्राह्मणवाद को ही मिल जाता है | वे उससे अपनी प्रासंगिकता - प्रगतिशीलता सिद्ध कर ले जाते हैं और महात्माओं के सद्प्रयास धरे रह जाते हैं | गांधी को बड़ा गर्व था अपने धर्म पर , क्या वह किंचित भी बदल पाए उसे ? हरिजन सेवा में सन्नद्ध कर पाए सवर्ण को ? तो धर्मों को बचाकर इंसानियत की कोई उम्मीद ? बस राम कहिये | इसलिए हम चुपके से इनके चंगुल से निकल आये | हमें जो मानना होता है मान सकते हैं पर इसलिए नहीं की वह धार्मिक आदेश है | इस और आने वाले भौतिक वैज्ञानिक युग के लिए इससे अधिक सही और कोई रास्ता नहीं है |  
तो आप भी, इसलिए हे मित्रो ! बंधुओं, अनुजो और अग्रजो, बिना अपने कीमती जीवन का समय गवाएँ नास्तिकता की शरण में आ जाओ [ ऐसा ही श्री कृष्ण ने कहा था ] | आखंड पाखण्ड परित्यज अपने बुद्धि विवेक को नैतिकता का आधार बनाओ , और सारे मनुष्यों के बीच, मनुष्यों से एकरस होकर, अपना विशिष्ट मानुषिक जीवन सफल और सार्थक बनाओ | समय बीत जाने पर नास्तिक बनकर ही क्या करोगे जब शरीर में न शक्ति रहेगी, न मस्तिष्क में गूदा ? बिलकुल अभी किसी भी ईश्वर अल्लाह की गुलामी छोड़ सृष्टि का मूल उद्देश्य अपने आप सोचो समझो- निर्धारित करो और सृजन के सर्जक [ जिसे आप भगवान् कहते हो ] का स्वप्न यथार्थतः साकार करो | अपने भ्रम और संशयात्मा से मुक्ति लो | ईश्वर तुम्हारा कल्याण करेगा :-)                  


[ कहानी - 'अभी तो मैं जवान हूँ' ]
सिटी बस में एक साठ साल के बूढ़े ने सीनीयर सिटिज़न सीट पर बैठे मेरे पापा से उठने के लिए कहा | पापा खड़े हो गए और वह सीट पर बैठ गया | मैं तो खड़ा था ही | थोड़ी देर बाद जब हम नीचे उतरे तो मैंने पापा से पूछा - आप की आयु तो उस बूढ़े से ज्यादा है पापा, फिर आप ने उसे सीट क्यों दे दिया ? पापा ने कहा - उस व्यक्ति की नज़रों ने मुझे बूढ़ा नहीं समझा क्या यह कम तारीफ़ थी ? उसकी ऐसी प्रशंसा ने मुझे सीट छोड़ने को प्रेरित किया |
लेकिन दूसरी यात्रा में तो पापा ने गज़ब ही कर दिया | जब वह बस में चढ़े तो बूढ़ों की सीट पर बैठे एक युवा ने उठकर उनके लिए सीट खाली करने का उपक्रम किया | पापा ने उसके कंधे पकड़ कर उसे वापस सीट पर बिठा दिया - " बैठो यार, अभी तो मैं जवान हूँ | "
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* Shraddhanshu Shekhar
What is love? The word is so loaded and corrupted that I hardly like to use it. Everybody talks of love - every magazine and newspaper and every missionary talks everlastingly of love. I love my country, I love my king, I love some book,I love that mountain, I love pleasure, I love my wife, I love God. Is love an idea? If it is, it can be cultivated, nourished, cherished, pushed around, twisted in any way you like. When you say you love God what does it mean? It means that you love a projection of your own imagination, a projection of yourself clothed in certain forms of respectability according to what you think is noble and holy; so to say, `I love God', is absolute nonsense. When you worship God you are worshipping yourself - and that is not love.

- Jiddu Krishnamurti
(Freedom From the Known Chapter 10)

* मैं तो ज़रा खानदानी डरपोक संस्कार वर्ण जाति लिंग देश का हूँ इसलिए बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था | लेकिन मामला सुश्री वन्दित मिश्र ने उठाया तो मैं भी साफ़ कहे दे रहा हूँ | आप जानते ही हैं कि औरत की ताक़त मनुष्य को कितना बलवान बना देता है | तो जब से यह भाषा का विवाद उठा है मैं दलितों और इसे बढ़ा कर कहूँ तो गरीबों, और ग्रामीण परिवेश में पल रहे होनहार - साधन विहीन छात्रों से कहना चाहता हूँ कि इन भाषाई नेताओं के चक्कर में न आयें | आत्र भाषा - मात्र?मातृ भाषा के व्यामोह में न पड़ें | केवल अपना भविष्य सोचें और बनायें | वरना ये हिंदीवादी प्रचारक किसी काम न आयेंगे | इन सबके बच्चे - पुत्र पुत्रियाँ नाती पोते पोतियाँ सब इंग्लैण्ड अमरीका और भारत के भी, अंग्रेजी नहीं इंग्लिश मीडियम में शिक्षा [?] प्राप्त कर रहे हैं | मुलायम सिंह कै लरिका कौनो देहाती स्कूल में नाहीं, विदेसी स्कूल में पढ़े है जौन आज मुख्य मंत्री बना भवा है | इसलिए हे बच्चो ! आप लोग भी खूब अंग्रेजी पढ़ो, इसमें पारंगत हो | खूब बोलो और बोलना जानो, जुबान का एक्सेंट असेंट सुधारो, तभी आप तरक्की कर पाओगे  | और इन क्षेत्रीय भाषा आन्दोलनों में भी न पड़ो, न कूदो | यह कुछ लोगों के राजनीतिक कार्यक्रम भर हैं | अवधी - भोजपुरी बोलो, ये बोलने के लिए ही हैं इसीलिये बोलियाँ कही जाती हैं | या फिर इनका इस्तेमाल कविता कहानी नाटक में देसी छौंक लगाने के लिए है | इनसे अंतर राष्ट्रीय काम काज नहीं हो सकता | यहाँ तक कि मुंबई भी रोजी के लिए जाओगे तो मराठी बोलनी पड़ेगी | अब दुनिया बड़ी है, बड़ा दिल दिमाग रखना होगा और ये सब संकुचित बातें हैं - अपना गाँव, अपना देश, निज भासा, निज धर्म-जाति- वर्ण- लिंग वगैरह | आंबेडकर को ठीक से पढ़ो और उनकी बात मानो | सब छोडो और आगे बढ़ो | तब देखो - सारा आकाश तुम्हारा है |      
- - बाबा , यह गोरा कौन थे ?

* ठीक है कि कर्म करना चाहिए | यह भी मान लिया कि कर्मे के फल की भी आशा करनी चाहिए, और फल मिल जाए तो भोगना भी चाहिए | लेकिन मेरी सलाह है कि फल की लालच में इतना ' कर्म ' भी नहीं करना चाहिए कि चलती बस में बलात्कार किया जाय और बम - बंदूकें लेकर आदमियों को मारते फिरा जाय ?
क्या मैं ठीक नहीं कह रहा हूँ ? होली के बाद अब मेरा दिमाग कुछ ठीक तो लग रहा है ! लेकिन क्या पता ?

* * लडकियाँ बहुत दुष्ट होती हैं | शादी होकर जब पालकी में विदा होती हैं, तो यदि वे सचमुच ही रो रही हों तो भी, अपनी माता को पुल्लिंग बना देती हैं - उन्हें अम्मी नहीं कहतीं | चिल्लाती हैं - अरे  मोर अम्मा आ आ - - हो $ $ | और अपने पिता को बप्पा नहीं कहतीं | उन्हें स्त्रीलिंग बनाकर फेकरती हैं - अरे हमार बपई ई ई - - हो $ $ $ $ - - |   लडकियाँ बहुत दुष्ट होती हैं |

* जब मैं कहता रहा हूँ की अब कोई भी व्यक्ति संस्था संगठन धर्म राज्य विश्वसनीय नहीं रह गया है, तो क्या मैं गलत कहता था ? क्या मार्कंडेय काटजू विश्वसनीय हैं ?

[ नया अंधविश्वास ?]
* दीर्घजीविता के लिए आवश्यक है कि जन्मदिन अत्यंत सादगी से मनाया जाय, या मनाया ही न जाय | [ पाखंड भारती ]

* पत्रकार भी तो इसी बहती सामाजिक गंगा का श्रद्धालु स्नानार्थी है ? कहाँ है किसी कुएँ में ' पानी '  जिससे वे कुछ 'अलग' नहाएँ ?

* [ To Nilakshi Post ] यद्यपि यह विचार किंचित आयातित, कहीं और भी पढ़ा लगता है, तथापि इस पोस्ट की "पोस्टर " यदि अपनी बात पर कायम रहें तो इससे उनके तमाम विरोधियों का काम अपने आप हल हो जाय | यदि "आर्थिक गैर बराबरी कोई मुद्दा ही नहीं है" तो छोडिये यह आरक्षण द्वारा हासिल नौकरियों द्वारा प्राप्त छद्म आर्थिक सम्पन्नता ! क्योंकि, इससे सचमुच तो केवल आर्थिक लाभ ही हासिल हुआ है  | सामाजिक रूप से तो इसने उन्हें द्वेष और तीछी नज़र ही बक्शी है, जिसका कोई मतलब नहीं | इससे अधिक 'सम्मान्यता ' तो विपन्नता में ही थी ?     +
"आरक्षण आर्थिक समानता के लिए तो कदापि नहीं है", इस पर एक बदमाश विचार सुझाई दे रहा है | फिर तो यह माँग बड़े दमदार तरीके से उठाई जा सकती है कि हमारा आरक्षण बढ़ाओ, और बढ़ाओ, खूब बढ़ाओ | और हमें वेतन चपरासी से लेकर डी एम/ सचिव के पदों तक सबको एक सामान = तृतीय श्रेणी के न्यूनतम वेतन के बराबर दो | इससे सरकारी कोष पर बोझ कम होने की लालच में इनका आरक्षण औरन फ़ौरन स्वीकार करना चाहेगी | साथ ही आर्थिक लालची सवर्णों का मुँह भी बंद हो जायगा |

* यह मैं बहुत गंभीरता से कह रहा हूँ | कि -
क्या हम पूर्ण ज्ञानी हैं ? या पर्याप्त ज्ञानी हो गए हैं ? क्या हमें अपनी वैज्ञानिक सोच के आधार पर ही सम्पूर्ण मानव समाज की तरफ से, उन्ही की तरह, अपनी अज्ञानता स्वीकार नहीं कर लेनी चाहिए ? और उसके प्रतीक किसी ईश्वर के अस्तित्व को मान नहीं लेना चाहिए ?
[यह मैं नास्तिकता पर अपने दृढ़ विश्वास के बावजूद कह रहा हूँ ] |


* हालाँकि कहने में कुछ संकोच तो है लेकिन ऐसा अनुभव होता है कि लड़के लड़कियों का आपस में घुलमिल कर रहना उनके बीच साम्बंधिक अनेक विकारों को नष्ट कर सकता है | यह विचार भाई बहनों और सम्बन्धियों के पुत्र पुत्रियों के उदाहरण के मार्फ़त ही मस्तिष्क में आया | वे सब साथ रहते बोलते बतियाते झगडे करते है पर कोई बुराई नहीं आती | इसी तरह सहशिक्षा और सामान्यतया इनके बीच निःसंकोच व्यवहार की सांस्कृतिक स्वतंत्रता हो तो शायद, कहा जा सकता है कि, इनके बीच निर्विकार सम्बन्ध विकसित और कायम हों ! लेकिन अब, इसमें दिक्कत तो है कि बस -ट्रेन में, राह चलते सड़कों लड़के लडकियाँ, पुरुष महिलाएँ कितनों से तड़ा तड बतियाते फिरेंगे ? और फिर वे बातें भी क्या, किस विषय पर करेंगे, जितना बहन भाइयों या घर के स्त्री पुरुषों के बीच सहज संभव है ?


A dialogue by Mr Akbar Hussain , a very rationalist Indian (abroad) thinker [ muslim ?]
Akbar Hussain
Why Muslims are so detested by non Muslims?

A few Muslim passengers were speaking in Arabic in an airplane which made some other passengers scared and the pilot had to ask them to disembark, A Muslim name creates fear and suspicion in an airport check in counter in a non Muslim country, A Muslim name faces difficulty, sometimes outright denial when they go to rent a house in India, a bearded man, hijabi or niqabi woman instantly creates disgust in the mind of the others. Nobody can deny these realities anymore. In Burma Muslims are being killed and tortured by the Buddhists, in Sri Lanka majority Sinhalese are complaining against against the Muslims for their dress and life style. Europe does not welcome Muslim immigrants anymore although its not an official policy yet.

These realities are not shared by the majority of the Muslims. They complain that these facts are motivated to destroy the Muslims. Is that so? After the 9/11 terrorist attack in New York, Muslims around the world are searching for answered from a 7th century Book rather than be pragmatic to solve their problems. They are trying to make a lethal brew of religion and politics thereby making their position more vulnerable.

Muslims need to engage themselves in a vigorous soul searching to find out where the real issue is. They must understand that their dogmatic approach to Islam will just increase their woes. If they are facing refusal in the world they must address the reason, rather than blaming other. By blaming others for their miserable failures and woes, they will just invite more disregard and hatred. A 7th century tribal dogma is no solution for the 21st century.


Martin Pembroke Harries = I reckon the situation will help when religion is recognised as simply a group of people ascribing to certain rules - just like any other association or club.

Like Christians have to subscribe to the rule that Jesus died for the sins of people born in the future (bizarre!) and like Muslims have to subscribe that Miohamed had a perfect unassailable character (undeserved!).

A religion is just a club. Nothing more. No different to a political party membership. Religious clubs have their leaders, or heroes, and criticism of them is painful. But why is it painful? Take any fervent Beatles fan - s/he may feel 'hurt' when s/he hears criticism or ridicule of the Beatles. But s/he will allow such criticism to affect her well-being only if s/he is emotionally immature. Otherwise s/he realises that others may have opposing views and maybe, just maybe, their views may have some merit. Best to calmly consider what they have to say.

If the guidelines and rules of a club are anathema to tolerance and freedom of thought and championing individual liberty regardless of gender, then criticism of that club and its inspirational leaders is right and proper.

Muslim population in the UK since 911 has increased by 60%. One normally moves to an area where one feels more comfortable. One of the major reasons why Europe is more comfortable is because Islamic-thinking hasn't influenced its community mores or public policy. A lot of hot-headed Muslims demanding Sharia-type public policy and mores should try and understand that.

- phew, hope that wasn't TL/DR!


Jaideep Kulkarni = I found myself nodding my head in total agreement with this...very well put Dada.


Akbar Hussain = Tomal....The most tragic part of the entire saga that this shameful disrespect does not affect their sense of honor and integrity. The situation is so disgusting that a very illiterate Muslim also started showing their K9 teeth after 9/11. Muslims never tried to clear their name from the allegations of terrorism and extremism. I wonder if a criminal act like 9/11 is their source of Islamic regeneration what more in the store for us. Their hatred for non Muslims has made their faith a satanic one. How they can expect respect and compassion if they themselves does not know the meaning of these two profound words?


Tapash Nag = One of the guys ever pointed, hey can't you see around., it's the fastest growing religion Muslim population is on the rise. I said in reply,"Is it by head count (addle) with outstanding birth rate ( planned family is not an option in Islam) or brain count? Jews are far ahead in brainworks with population only a fraction of your size. "


Ugra Nath = Truthful analysis . इसमें कोई संदेह नहीं है कि मुसलमान, सही या गलत, शेष समाज की नज़रों में संदेहास्पद हो गया है |

Jim Heller Right. = Thus appeasing Muslim scapegoating and myopic over-amped sense of victimhood does no one any favours. Muslims created "Islamophobia" to deflect fair scrutiny. The real syndrome, though, is infidelphobia.

Siratul Mustakim  = I verily agree with you Akbar Hussain,
Muslims never realizes their mistakes,and even when anyone tries to explain them their mistakes and suggests the solutions to improve them, they keeps on saying the same thing again and again that is- You don't know anything about Islam,so just shut up and allow us to follow our religion,.,.,.
Look at the Christians of the west they too have many many restrictions and meaningless rules in their religion but still to cope up themselves with the 21st century they modified their lifestyles by believing in God like a moderate theist but not a zealot,whereas Muslims remained as zealots rather than solving themselves.

Karla Wachsmann = So muslim population is on the rise? I hope history only repeats itself: the same was once with brainwashed fascists or communists. My question is: where are they now???

Akbar Hussain = Siratul Mustakim...The amount of ignorance is so overwhelming that no one is ready or dare to listen to reason. If the Fatwa to kill Salman Rushdie was taken as Halal by the Muslims for just writing a book, what about those bloody killers of Iraq, Afghanistan and Pakistan? Is it also Halal to kill the innocent? The so called custodian of the two holy Muslim shrines never tried to make a dialogue with those thugs to make them understand if their killing spree is justified in Islam or not? If they have not done it, they are a party to these crimes. In millions of mosques around the world they curse Israel and America but never Osama bin Laden or Mullah Omer. It proves that the connection between their sense of rationality and reason has snapped.


Ugra Nath Nagrik [ Lucknow, India] = This is a serious humanist issue . How long should it go ? Though my suggestion may sound communal, but Akbar Bhai, I very honestly and purity of my heart, think that every nation undoubtedly bears a ethnic and cultural origin which it wants to adhere to . This phenomenon, besides all modernization, should be duly respected . And so , every individual or group immigrant should adopt a new literary - political nick name and clothing for use in that country, just as we wear uniforms for specified purposes.. Don't change faith . Let it be in the heartsas it pertains to it. But come into a new lifestyle and " Live in Rome as Romans live " . Or , rather, why are you going to the 'other' country Mister ! which is unbinding, unfaithful to your aspirations ? Why should you think of a slut walk in Arabia ? Why should you keep your turban up in England ? Why should you wear a Naquab in America . The problem is - nobody follows other-bodies rules . Everyone thinks that this world is his/hers and he/she owes nothing to the world . The new misunderstanding has grown due to rapid development of information technology that the world has become very small for them to achieve all the goods they want . They should be told that the world is not ' small'. It is "shrinking" too . And you must adjust accordingly. If you are eating fruits of new age , come into new age . Don't carry your own old baggage while entering alien gardens . O yes ! you can do so while being in your own old orchard . And so on  - And so on  - -

Akbar Hussain = Very wise observations..Ugra Nathji. Faith is not bad but when it overcomes your common sense, it becomes dangerous.

बुधवार, 27 मार्च 2013

Nagrik Blog 27 March 2013

* न मानते हुए भी मानना ( मानने का नाटक करना ) = आस्तिकता $
मानते हुए भी न मानना ( न मानने का नाटक करना ) = नास्तिकता ?

Sayed Jafar Raza Zaidi  देखते हैँ सर !
आप के विचार कितने प्रभावित कर पाते हैँ

तमन्ना है प्रभावित न कर पायें तो ही अच्छा | ज़रूरी है मैं हारता ही रहूँ, क्योंकि मैं हर हाल में विनीत व्यक्तिगत मानुषिक सम्बन्ध कायम रखना चाहता हूँ | जब कि उलटे ये विषय माहौल ख़राब करते हैं | फिर भी चलिए यहाँ से शुरू ही कर दीजिये - | यह जो आप ढोल मजीरा, घंटा घड़ियाल, अखंड पाठ, भगवती जागरण, कुम्भ स्नान etc देखते हैं, उन्हें आप आस्तिकता कहेंगे या आस्तिकता का नाटक ? तथापि मैं हारना चाहूँगा | मैं चाहूँगा कि शालीनता और सांप्रदायिक सौहार्द्र का पालन करते हुए इसका उत्तर आप लिखकर न दें | अपने मन में रखें, और मेरी बात विचारें | मैं आगे ज्यादा न कह पाऊँगा | वह मेरी ज़िम्मेदारी भी नहीं है | उसे मेरा निजी विचार समझ कर त्याग दें |

Sayed Jafar Raza Zaidi सर  !
एक एक शब्द प्रभाव ड़ालने वाले |

* * मैं व्यक्तिवादी हूँ , अकेला आदमी | जुड़वाँ तिड़वां भी नहीं पैदा हुआ | मैंने तो यह देश दुनिया , धर्म सम्प्रदाय, वर्ण लिंग जाति सम्प्रदाय वगैरह नहीं बनाये | फिर ये फेसबुक वाले और कुछ संगठन - आन्दोलन मुझे इनका ज़िम्मेदार क्यों बना रहे हैं ? मैं अकेला आदमी ! अकेला ही मरूँगा   |

* मैं मानता हूँ कि मुझे ईश्वर की मूर्ति नहीं बनानी चाहिए | तो क्या ईश्वर को मेरी मूर्ति बनानी चाहिए थी ? उसने हमें तो मना कर दिया | तो क्या हमने उन्हें लिखित प्रार्थनापत्र या परमिसन दिया था जो उन्होंने हांड - मांस जोड़कर हमें खड़ा कर दिया ? हमारा कुफ्र कुफ्र और उनका कुफ्र कुछ भी नहीं ? :-)

यह आध्यात्मिक सत्संग है भक्त ! इसका आनद लो |



* जहाँ ज़फ़ा लिखते हो वहाँ वफ़ा लिख दो ,
 वरना अब किससे करोगे वफ़ा की उम्मीदें ?  OR

जहाँ जहाँ भी ज़फ़ा लिखते हो वफ़ा लिख दो ,
वरना उम्मीद-ए-वफ़ा अब तो कहीं शेष नहीं |

* बहुत प्यार
पाया, बहुत प्यार
दे नहीं पाया |

* है तो भ्रम ही
भ्रम ही जीवन है
प्रतीति यह !

* गधे को बाप
कहना नहीं पाप
आपातकाल में |
                       
* महायोगी हूँ
मैं, मनोयोगी हूँ मैं
क्या झूठा हूँ मैं ?

* ज्ञान पर कभी ब्राह्मणों का एकाधिकार रहा हो यह तो संदिग्ध हो सकता है | लेकिन यह तो अब तय कहा जा सकता है कि अज्ञान पर भी उनका एकाधिकार नहीं रहा |

[ लव इन सोसायटी ]
* मैं आश्चर्यचकित हूँ प्राच्य भारत की प्रगति शीलता का अनुमान करके ! भाई ने याद दिलाया - " फागुन में जेठ देवर लागे " , जिस यौन स्वातंत्र्य के लिए आज लोग संघर्षरत हैं वह तो भारत का  सहज जीवन था, ऐसा कहा जा सकता है | जिस "लिव इन" सम्बन्ध की मान्यता के लिए कशमकश हो रही है, वह तो फिर भी कुछ कुछ विवाह जैसा है | यहाँ तो बिना विवाह के ही विवाहित रहते रहे लोग ! उसे क्या कहें ? Love in Relationship ? और ऐसे सम्बन्ध में भला जात क्या पाँत क्या ? अब उसी को सभ्य लोग मरोड़ कर ' दलित स्त्रियों का शोषण ' के रूप में उछाल रहे हैं | क्या कहा जाय कि अब उलटे उस स्वाभाविक यौन स्वतंत्रता के मुहिम पर पानी फेरा जा रहा हैं, उसे आगे बढ़ाने के बजाय ? Holi (होली ) = Holy (पवित्र ) संस्कृति, सांस्कृतिक सेनाओं द्वारा समाप्त की जा रही है और फिर बलात्कारी मानसिकता को मृत्यु दंड के माध्यम से समाप्त करने का बचकाना प्रयास किया जा रहा है | क्या विडम्बना है ? तथापि आज अप्रिय प्रसंग कोई नहीं | आज सबको हैप्पी होली !      

Pramod Kumar Srivastava comments at Lucknow School group = Until there is value of 'sanctity of virginity', is ruling the social minds of Indian masses there is no hope against prevailing atmosphere of criminal assault against women, howsoever, stringent laws against rape is promulgated. Festival of Holi is a natural festival of Man and Women symbolising natural instict of Adam and Eve; and a message and directive for a healthy society. Lets celebrate it with similar spirit and say good bye to historically imposed unnatural social measures with an hope for creating once again a healthy society.

* आज तो मैं कह ही सकता हूँ कि पैर छूना भी सेक्सिज्म का हिस्सा है | और पैर छूना भारत की परंपरा में शामिल है |

* देखिये , देख रहे हैं न ? किस प्रकार ग्रुप्स के सदस्यों के बीच कडुवाहट भरे पोस्ट्स & कमेंट्स आज शुभ होली में तब्दील हो गए  ? - अशोक दुसाध , संदीप वर्मा , कामेश्वर जी , बटोही भाई , शंकर राव एवं अन्य तमाम साथी ? यही तो है यह त्यौहार  ? - होली है ना !

* उनका मन हुआ, उनकी इच्छा हुई और उन्होंने [केलि- केलि ] खेल में अपनी खुशी , अपने आनंद के लिए यह सृष्टि, कायनात अपने मनोरंजन के लिए रच डाला | अब लीजिये ! तो हमने भी सोचा क्यों न अपनी खुशी के लिए ही हम यह ज़िन्दगी जी डालें ? इसलिए हमने भी सब फूँक ताप कर [ बहाना यह की बुराई की राक्षसी जला रहे हैं ] होली मनाना शुरू कर दिया | अब कहाँ जाओगे ? तुम डाल डाल तो हम तुम्हारी उत्पत्ति पात पात | तुम खुश तो हम भी खुश | तुम हमारे लिए खुश हुए , तो हम तुम्हारी खुशी के लिए खुश |
[ Serous Moral - Every  Human Philosophy should be Human joy and happiness oriented , in my view ]

[उपसंहार होली तो हो - - ली  - -]
सारी शुभ होली समाप्त होते होते मन पर कुछ न कुछ आ ही गया ! कोई रंग प्रहार ! गाँव के अनुभव याद आये | यह झगडे का भी त्यौहार है | सलामत गुज़र जाय तो गनीमत समझो | कहीं कहीं तो लाठियाँ निकल जाती हैं | लेकिन फेसबुक पर तो प्रेम भी आभासी तो अदावत भी आभासी ही होना चाहिए | क्या हुआ जो नासमझ, मूरख मन को थोड़ी चोट लगी ? कुछ सीख भी तो मिली ! होली तो हो - - ली  - - | 27/3/2013


*  By - बी.कामेश्वर राव
होली स्त्री० [सं० होलिका] १. हिदुओं का एक प्रसिद्ध त्योहार, जो फाल्गुन की पूर्णिमा को होता है और जिसमें चौराहों आदि पर आग जलाते एक दूसरे पर रंग-अबीर डालते और परस्पर हास-परिहास करते हैं। पद—होली का भड़ुआ=वह बे-ढंगा और भद्दा पुतला, जो होली के दिनों में हास-परिहास के लिए कहीं खड़ा किया जाता अथवा जुलूसों के साथ निकाला जाता है। मुहा०—होली खेलना=आपस में एक-दूसरे पर अबीर, रंग डालना और हास-परिहास करके होली का त्योहार मनाना। २. लकडियों आदि का वह ढेर जो उक्त दिन प्रायः रात को एक निश्चित समय पर जलाया जाता है। ३. एक विशेष प्रकार का गीत, जो माघ-फागुन में अनेक धुनों और राग-रागनियों में गाया जाता है। ४. प्रायः अनावश्यक रूप से अथवा व्यर्थ के कामों में बिना सोचे-समझे किया जानेवाला व्यय। जैसे—बात की बात में हजार रुपयों की होली हो गई। ५. किसी उत्सव या सामारोह के समय आनंद मनाने के लिए खुली जगह में और सब लोगों के सामने जलाई जानेवाली आग। ६. अनिष्टकारक का त्याज्य वस्तुओं का अंतिम रूप से विनाश करने के लिए सार्वजनिक रूप से उनकी राशियों में जलाई जानेवाली आग। (बानफा़यर) जैसे—विलायती कपड़ों की होली। क्रि० प्र०—जलना। स्त्री० [देश०] एक प्रकार की कँटीली झाड़ का पौधा।


संस्कृत शब्द 'होलक्का' से होली शब्द का जन्म हुआ है। वैदिक युग में 'होलक्का' को ऐसा अन्न माना जाता था, जो देवों का मुख्य रूप से खाद्य-पदार्थ था।
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[ जय अनुमान ज्ञान गुण सागर ]
* मेरे नए बने मित्र और कुछ पुराने भी , जो मेरी फितरत से परिचित नहीं हैं , मुझसे रिसियाने रहते हैं कि मैं बहुत और उटपटांग- उलजलूल [ khurafat] लिखता हूँ | पर आखिर मैं क्या करूँ ? अब यही देखिये कल सुबह कहीं से धुन आई - " जय हनुमान ज्ञान गुण सागर " , और मैं पहुँच गया उसके उत्स पर | ज्ञानी जन फिर मुझे लताड़ेंगे जब मैं कहूँगा कि इसका मूल version है - " जय 'अनुमान ' ज्ञान गुण सागर " | अर्थात मूलतः हनुमान नहीं "अनुमान" था यह | कालांतर में बिगड़कर कहें या धार्मिक सद्भाववश kahen 'बनकर' , यह हनुमान हो गया  और फिर जो हुआ वह साक्षात है - हनुमान चालीसा, उनके मंदिर और यह सब - -वगैरह  - | पर अत्यंत गहराई से देखें तो 'अनुमान ' की विधा ही वस्तुतः वह ज्ञान का सागर है जहाँ से जीवन की अनमोल मोतियाँ मिलती हैं | तो अगर केवल पूजा पाठ करके ज्ञान अभीप्सा को किल करना हो और बात है , वरना तो हमारी प्रार्थना बनती है = " जय अनुमान ज्ञान गुण सागर " | ज्ञान की होली आपको शुभ हो !    


* पढ़ाई लिखाई का मतलब - कम से कम B .A . तो पास होना चाहिए था मुझे ?

समता और स्वतंत्रता ]
राजनीतिक नेतृत्व तो अपने तुच्छ स्वार्थों के लिए जो कुछ कर रहा है उस पर तो सबकी दृष्टि है, और सब उससे अवगत हैं, उसके विरोध में सक्रिय अथवा आंदोलनरत भी हैं | लेकिन वैचारिक - दार्शनिक समाज भी, मुझे अनुमान हो रहा है कि जनता से छल ही कर रहा है, जो उसे तो कम से कम नहीं करना चाहिए | वह स्पष्ट और साफ़ चीज़ें नहीं बता रहा है | जैसे, मैं यह कहने का दुस्साहस करना चाहता हूँ कि अति महिमामंडित समता और स्वतंत्रता के विचारों में कहीं अतिगंभीर खोट है , और इसे ज्ञानी जन जानबूझकर छिपा रहे हैं | शायद इस कारण कि कहीं उनकी नैतिकवादिता, आदर्शवत्ता धूमिल न पड़ जाय, लोकप्रियता पर ग्रहण न लग जाय | उनके बीच ये दोनों शब्द फैशनेबुल तकियाकलाम जैसे हो गए हैं | मेरे साथ ऐसी कोई समस्या नहीं है | मैं कह सकता हूँ कि ये दोनों चीजें असम्भाव्य हैं, और संभाव्य हैं तो बस एक छोटी सी सीमा तक | बच्चे बच्चियाँ आज़ाद होना चाहते हैं | लेकिन यदि माता ने उन्हें गर्भ से निकाल कर नाल से असम्बद्ध होते ही आज़ाद कर दिया होता तो उन्हें कुत्ते बिल्ली खा गए होते | हर किसी का अस्तित्व प्रकृति की अदृष्ट नाल से किसी न किसी प्रकार जुड़कर ही जीवन पाटा है | सारी सृष्टि ग्रेविटेशन एवं पारस्परिक बंधन - अनुबंधन से ही चलती हैं | इसे गुलामी न कहें तो आज़ादी भी कहकर नई सभ्यता को दिग्भ्रमित करना उचित नहीं होगा | इसी प्रकार समता भी एक नैतिक और आध्यात्मिक स्तर पर ही संभव है | इसे भौतिक आकांक्षा बनाकर मनुष्यों को मनुष्यों के खिलाफ रणभूमि में उतारना, युद्ध के लिए उकसाना एक निरर्थक कवायद है जो मानव जीवन को अस्थिर, अशांत, हिंसक बनाकर अमानुषिक ही बनाएगा और हासिल कुछ नहीं होगा | वैविध्य, वैषम्य आदि नैसर्गिक नियम है | मनुष्य को इनके अंतर्गत जीना सीखना होगा, और एतदर्थ ही लोक का मानस बनाने का काम समझदारों को करना चाहिए , न कि उन्हें उलझाकर, उल्टे- सीधे दिवास्वप्न दिखाकर उनका जीवन नर्क बनाने का अज्ञानता भरा प्रयास |      [ शायद सत्य आन्दोलन ]


आजकल कोलकाता में पोते के पास हूँ | उसके खिलाने के लिए घंट मंट खूब गाना पड़ रहा है | जितना याद पड़ता है, सुनाता हूँ :-
* घंट मंट दुई कौड़ी पायेन
उइ कौड़ी हम गंग बहायन        
गंगा माता बालू दिहिन
बालू हम भुजैनियक दिहेन
भुजैनिया हम्मे भूजा दिहिस
भुजवा हम घसियरवक दिहेन
घसियरवा हम्मे घास दिहिस
घसिया हम गैयक दिहेन
गैया हम्मे दूध दिहिस
दुधवा हम राजक दिहेन
रजा हम्मे घोड़ दिहिन
घोड़ चढ़ा जाईत हन
पान फूल खाइत हन    
तबला बजायित हन
नवा भीत उठायित हन
पुरान भीत गिरायित हन


Input - by sushil yadav]

लल्ला हमरे जात हैं
हांडी कूंडी सम्भाले रहिया
वोऊ पुल्लू लूलू
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Input by - Diwakar Prasad pandey

बुढ़िया आपन कोहंड़ी भाँड़ी सैन्हारो ....
भैया कूदै जात हैं ...
पू लू लू लू - -- |
- - -
पू लू लू लू - -- |
- - - - - -- - - - - -
बछ्पन में हमारे नाना ने हमें बहुत किआ है ......... लास्ट लाइन ... भैया की बरात में बाजा बाजे तुरू धुत्तू......[v.s.yadav]
= = = = = = = = == = = = = = ==

* प्रेम के जो मर्ज़ में डूबे रहे ,
वे हमेशा क़र्ज़ में डूबे रहे ;
और जो इससे कहीं बचकर रहे
वे हमेशा फ़र्ज़ में डूबे रहे |


* [ स्वागत है असत्य परिचय का ]
मैं गौर कर रहा हूँ कि जो कथित झूठे हैं वे ज्यादा सही और सार्थक काम कर रहे हैं | अभी ईश्वर का अनालाग ले लूँगा तो हमारे गुरुसम राव साहेब रिसियाय लागत हैं | लेकिन ज़रूरी हो जाता है तुलना करना | जैसे कि जब तक ईश्वर झूठा , काल्पनिक, बनावटी रहता है वह मनुष्य के बड़े काम आता है | जैसे ही वह सच्चा , वास्तविक हो जाता है मनुष्य का अन्धविश्वास बन जाता है और गड़बड़ भूमिका अपना लेता है | फेस बुक पर एक नीलाक्षी जी पूरी बहादुरी के साथ अपना मुहिम चला रही हैं  मैं उनके पक्ष में नहीं पर उनकी निष्ठां का प्रशंसक हूँ | लेकिन उन पर एक हॉउस में आरोप लगा कि वह फर्जी हैं, और वह आउट | मुझे यह सब बेमतलब लगता है | झूठा क्या है ? प्रोफाइल चित्र और नाम ही तो ? लेकिन बातें तो जो हैं वे शब्दों में ढली साकार और सत्य हैं, और हमारा संबंध तो उसी से है ? इसी प्रकार मैं दावे के साथ कह सकता हूँ , अपनी आकलन बुद्धि के  अनुसार , कि पृथक बटोही जी अत्यंत उम्दा विचार - विश्लेषण- टिप्पणी दे रहे हैं | पूर्ण वैचारिक - तार्किक संतुलित, न इधर न उधर अपनी पूर्ण बुद्धिमत्ता - ज्ञान - विवेक - के साथ | बहरहाल कोई असहमत हो पर मुझे इनका मसलों पर अप्प्रोच बहुत भाता है | लेकिन लीजिये , कोई उन्हें झूठी आइ डी वाला बता रहा था | अब नीलाक्षी ने या बटोही ने मुझे अपने घर तो बुलाया नहीं है, न मुझे उनके ठिकाने जाने का कोई शौक है | विचारों , तार्किक विवरणों का प्रेमी हूँ | सो वह खुद लेकर नेट पर चले आते हैं | तो और मुझे क्या चाहिए ? क्यों आपत्ति है लोगों को ? फिर कहूँगा - सबसे झूठा आई डी वाला तो ईश्वर है , पर उसकी बात लोग " ईश्वरीय आदेश " के रूप में मान लेते हैं | और भी याद आते हैं तमाम देसी विदेशी कवि लेखक साहित्यकार जिन्होंने समूचा लेखन ही छद्म नामों से करके मानव का कल्याण किया | मेरी पसंद के तो अन्य भी लेखक है -खासकर श्री निवास रायशंकर , श्रद्धान्शु शेखर , संदीप वर्मा , कामेश्वर राव एवं अन्य | लेकिन उनके पहचानपत्र शायद फेसबुक सरकार द्वारा सत्यापित हैं | इसलिए उनपर कुछ नहीं कहना |


* Sainny Ashesh shared Deva Niseema's photo.
SAMBANDH : ASAM-BADH !

As long as I have the idea
in my head “I have a relationship”
or “I am in a relationship,”
no matter with whom, I suffer.

With the concept of “relationship” come expectations,
memories of past relationships,
and further personally and culturally conditioned
mental concepts of what a “relationship” should be like.

Then I would try to make reality conform to these concepts.
And it never does. And again I suffer.
The fact of the matter is: there are no relationships.
There is only the present moment,
and in the moment there is only relating.

How we relate, or rather how well we love,
depends on how empty we are
of ideas, concepts, expectations.

~~Kim Eng
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सोमवार, 25 मार्च 2013

Nagrik Blog 24 March 2013


* लोग धन संपत्ति हथियाने के पीछे पड़े हैं हाथ धोकर | क्या वे यह नहीं जानते कि सारी गैर बराबरी  तो धन संपत्ति के कारण ही है ?

* बड़ी मुश्किल बात है | मानववादी होने पर भी मुझे आलोचनाएँ झेलनी पड़ रही हैं | लोग कहते हैं - क्या जानवरों का कोई मूल्य नहीं ? भाई , जब मैं मनुष्यवादी हुआ तो क्या पशुवादी नहीं हुआ | क्या मनुष्य कुछ कम जानवर है ? दो चार के बराबर तो अकेले मैं ही हूँ |

* साहित्य , यदि वह है , तो उत्कृष्ट ही होगा | वरना वह साहित्य ही नहीं होगा | साहित्य कभी दलित - पतित - नीच नहीं होता | उसका विषयवस्तु कुछ भी हो सकता है | इसलिए मेरे दलितीय सवर्ण मित्र जानते हैं - मैं " स्वघोषित दलित साहित्य " नहीं पढ़ता |
उग्राः = Ulti Ganga Rationalist Association & Humanists .

उग्राः = Ulti Ganga Rationalist Association & Humanists .
और जो बहुत ठोंक बजा कर बियाह करते हैं वाही कौन से खुशी के तीर मार लेते हैं ? बाद में झंखते हैं, कहें न कहें | स्त्री एडजस्ट करती है तो पुरुष भी एडजस्ट ही करते हैं | यह दुनिया किसी को उसकी मनचाही पूरी नहीं देती | दुःख ही है यह जीवन | सुख केवल संतोष में ही है | भाई ने निजी बात की , तो मैं भी बताऊँ कि मैं पूरी तरह असफल विवाहित हूँ [ 15 साल की उम्र से ] | मेरी कभी नहीं पटी पत्नी से, और इसे सभी जानते हैं | दो बच्चों को फिर भी पाल कर नाती पोते वाला बना, और वे ही खुशियों के कारण बने हैं | इतना झेलने के बाद मेरी मानवीयता यह कहती है - कितना  
अमानवीय होता है सौ में से 99 लड़कियों को रिजेक्ट करना ! स्त्री के साथ यह त्रासदी क्यों नज़र नहीं आती ? घबराईये मत कभी बच्चे अपने जैविक माँ बाप को भी तलाक़ देकर अपने मनपसंद माँ बाप चुनेंगे | उनकी सारी रिश्तेदारी उनकी मित्र मंडली में सिमट ही गयी है, वे अपने मौसा मौसी , चाचा ताई सब बाहर सेलेक्ट करेंगे |

* John Milton - They also serve who only stand and wait .
जाफर भाई, यह प्रश्न आपने बड़ी निश्छलता से उठा तो दिया लेकिन इसके बड़े चिंतनीय निहितार्थ है [ दार्शनिक :-)  ?  यह एक बीमारी रही है सभ्यता की कि वह आदमी को बड़ा भला, कर्मशील, किसी के लिए जीने, कुछ कर गुजरने की प्रेरणा देने के चक्कर में सदैव रहा | इसने और कुछ किया या नहीं पर मनुष्य का चैन सुकून अवश्य छीना | ध्यान दें - इसी चक्कर में सरे धर्म पैदा हुए और कुछ अंतरराष्ट्रीय ism और वाद | अब आगे मैं लोगों को अप्रसन्न करने के लिए क्यों कहूँ कि इन्होने आदमी का जीवन अत्यंत जटिल और नर्क बना दिया | क्या आदमी को वह जैसा है अच्छाई बुराई, कर्मण्यता - अकर्मण्यता के साथ स्वीकार नहीं कर सकते ? क्यों ऐसा दर्शन नहीं उठ खड़ा होता जिसमे आदमी का हर हाल में सम्मान हो | जैसे ही हम मनुष्यता का कोई उच्च स्केल बनाते हैं, आदमी अदना और नीच हो जाता है | एक मनुष्य दूसरों को " कीड़े मकोड़े " समझने लगता है और फिर वही, जैसा पहले कहा - " महान ?" धर्मों / कथित संस्कृतियों / ब्राह्मण वादियों का उदय और [ मैं तो कहूँगा ] उनके कुकृत्य - - - इसलिए सबको मनुष्य मानें , और विश्वास करें --              
" They also serve who only stand and wait " |

* मैंने सब कुछ ईश्वर पर छोड़ दिया , और निश्चिन्त हो गया | ईश्वर को भी छोड़ दिया | ये sublimation और अत्यंत उच्च अनुभव और समर्पण की बातें हैं | मुझे दुःख है कि बचपनी आस्तिकता अतिशीघ्र प्रतिकूल टिप्पणियाँ जड़ देती है , जब कि यह उत्तरोत्तर आध्यात्मिक अभ्यास का विषय है | नास्तिकता इतनी निम्न स्थिति नहीं है जितना लोग इसे आसानी से करार देते हैं | to anshuman pathak
कहीं पढ़ा होगा आपने , नहीं तो कहीं पढ़ेंगे कि " जहाँ सारे संशय , प्रश्न - प्रतिप्रश्न समाप्त हो जाते हैं - - - - -  | " आप में जिज्ञासा शेष है यह ठीक है , जब वह मिट जायगा तब आप आस्तिक हो जायेंगे या नास्तिक | मेरे लेखे दोनों में भेद नहीं है | मेरे पास मेरा ईश्वर है, वह सृष्टि का सम्पूर्ण वांग्मय है, और मेरी अनुभूति - मेरा ज्ञान विवेक | अविश्वास उस पर करता हूँ जिस रूप में सामान्यतः उस पर अन्धविश्वास किया जाता है और दीन दुनिया उसकी आंड में अमानवीय बनाया जाता है | विरोध स्वरुप मैं ईश्वरवादी के बजाय मनुष्यवादी हूँ | व्यापक Humanist Movement में हूँ | बहुत से लोग हो चुके हैं, हैं, और होंगे | अभी, पहले काई तो साफ़ हो | जिसे बुद्ध, कबीर , सुकरात , कृष्णमूर्ति आदि ने - - - |


* लोकमान्यता में यद्यपि इसकी उलट समझ व्याप्त है फिर भी सभ्य भाषा में कहना चाहिए = " यादव जन सों तैने कहिये , सबको जो बेवकूफ कहे " | यादव महाशय , मनुष्य का मनोविज्ञान इतना सरल नहीं है कि आप कह दें और वह गाली मुक्त हो जाय | सभ्यता आज इस पड़ाव पर वैसे नहीं पहुंची है | अभी देखिये आप को "बेवकूफ" जैसी गाली का सहारा लेना पड़ा या नहीं ? ज़रा और ठीक से दिए होते तो आपका " मन और हल्का " हो जाता ! होली में अवेश बुरा भी नहीं माँ सकते थे  | यही लाजिक है गलियों का |


[ अपरिचय ]
मैं सोच रहा था कि परिचय क्या होता है ? क्या किसी का परिचय नाम पता पढ़ाई नौकरी से ज्ञात होता है ? बिलकुल नहीं | जब तक यह न पता चले कि व्यक्ति की conditioning , बनावट कैसी हुई है | उसका सामान्य व्यवहार, Attitude क्या होता है ? किस बात पर वह किस तरह प्रतिक्रिया करेगा , तब तक उसका परिचय [ यद्यपि यह भी आंशिक ?] प्राप्त नहीं होता | और इसमें उसके वंश जाति धर्म राष्ट्र की प्रभावी भूमिका होती है | संभवतः इसीलिये विभाजनकारी संस्थाएँ समाज में गहराई से विद्यमान हैं क्योंकि ये व्यक्ति के किंचित स्वभाव को परिलक्षित करती हैं | इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं है | इनके दायरों से व्यक्ति बाहर निकल सकता है और उसकी परीक्षा इस बात से होगी कि यदि मैं ईश्वर की आलोचना करूँ तो आप का चेहरा कैसा बदलता है , क्या रंग लेता है ?

* अगर भगवान को मानते हो तो एक शर्त है --
" सब बराबर हैं " , यह भी मानो |
[इसीलिये भगवान का होना असंभव है | वही तो मुझे कहना था | शर्त लगाना तो बहाना था | ]

* न मानते हुए भी मानना ( मानने का नाटक करना )    = आस्तिकता  $
मानते हुए भी न मानना ( न मानने का नाटक करना ) = नास्तिकता ?

* लोग हवा में तीर चलाते हैं
और समय के वीर कहाते हैं ,
जो चिड़िये की आँख देखते हैं
मौलिक वे रणधीर कहाते हैं |

[कविता ]
* फूल की मालाएँ
उनकी गर्दन के
आर-पार हुयीं |
# #
[ यह एक अच्छी, सूक्ष्म कविता है | ज़रा ध्यान से पढ़कर फिर बोलियेगा ]

* विज्ञानं को चाहिए की वह अध्यात्म के विषयों को भी अपना कार्यभार बना ले | खबरें आ रहीं हैं, हो भी रहा है यह काम | सपनों  पर शोध हो रहें रहे हैं, शायद भूतों पर भी | नतीजे सार्वजनिक होने चाहियें | ग्रह दशा राशिफल वगैरह ! हिंदुस्तान में तो नेक बहुत बड़ा काम है यह नकारना कि जातिगत अनुवांशिकी से व्यक्ति / मनुष्य नीच ऊँच होता है | यह कह तो दिया हमने लेकिन इसमें अनेक पेंच पैदा हो जायेंगे | उस शोध संस्थान में कितने ब्राह्मण कितने दलित वैज्ञानिक हो , इत्यादि | यहाँ तो यही समस्या है कि डाक्टर , वैज्ञानिक , शिक्षक , इञ्जिनिअर सभी पहले अपनी जाति के होते हैं | फिर शोध क्या खाक करेंगे | ऐसे मसलों कि आउटसोर्सिंग कर डी जनि चाहिए | बहरहाल उद्देश्य यह कि विज्ञानं को हमारे जीवन में व्यवहृत होकर उतरना चाहिए | ज्ञान हमारा धर्म बनना चाहिए | ऐसा तभी होगा जब विज्ञानं सभी प्रश्नों के उत्तर दे | अभी तो हम लंठई से काम चला रहे हैं कि तंत्र मन्त्र - टोना टटका , भूत प्रेत नहीं मानेंगे | अब इतनी तो आसानी है कि hypothesis कोई अवैज्ञानिक तो नहीं है, न ही परिकल्पना, न विज्ञान फिक्शन | फिर जगत को विज्ञानवादी होने में देर क्यों ?  

* एक बात और मस्तिष्क में आती है | राज्य अपने निवासियों की हिन्दू - मुस्लिम , या जाति के आधार पर गणना कर , उन्हें विभाजित रूप में मान्यता प्रदान कर स्वयं उनका जीवन खतरे में डालती है | और फिर खतरा पड़ जाने पर उनकी मदद में सामने आने का नाटक करती है | चूँकि सरकार अपनी जनता को इन विविध रूपों में पहचानना चाहती है तो जनता भी उन पहचानों से अपने को जोड़े रहती है और तब अन्य समूहों की आँख में किरकिरी बनती है | तब आता है अल्पसंख्यक - बहुसंख्यक का प्रश्न और फिर गन्दी राजनीति का सिलसिला | अभी म्यांमार में पहले एक बौद्ध मारा गया, फिर बौद्धों ने अनेक मुस्लिम घर जलाये चाहे वे दोषी थे या नहीं | यह जातीय पहचान का संकट है | यद्यपि समस्या इतनी सरल नहीं है , फिर भी राज्य को अपने नागरिकों को व्यक्तिशः पहचानना चाहिए और व्यक्तिगत स्वतंत्रता आदि अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए | क्योंकि यह व्यक्ति ही है जो राज्य के अधीन अपने कर्तव्यों का पालन करता है, न की कोई जाति, समूह, या धार्मिक सम्प्रदाय |

* हिन्दू धर्म के खिलाफ मैं भी हूँ | लेकिन इसकी मुखालिफत मैं क्या करून ? यहाँ तो हर हिन्दू ही हिन्दू के खिलाफ युद्ध रत है | परसुराम [ब्राह्मण ] क्षत्रिय वंश का नाश करने पर तुले हैं | धोबी सीता रानी को राजमहल से निकाले दे रहा है | वशिष्ठ विश्वामित्र आपस में जोर आज़माइश कर रहे हैं | कौरव पांडव अलग महा भारत छेड़े हुए हैं | रावण के पूजने वाले रामभक्तों से ताने हैं | और अब देखो - दलित  पिछड़े और ब्राह्मण आपस में गुत्थमगुत्था हैं | ऐसे में मेरे लिए बचता क्या है जो मैं हिन्दू धर्म का विरोध करूँ ?

* ऊर्जा [Energy]
* इस शब्द की याद एक संस्था - संगठन - कार्यक्रम के रूप में आई | जब अन्नान्दोलन पर चर्चा हो रही थी तो एक विचार यह भी था कि नौजवानों की ऊर्जा का इस्तेमाल सकारात्मक कार्यों में लगाया जाये तो ऐसे आदोलनों की भीड़ बनने से वे बाज़ आयें | फिर इसी के साथ अपना निजी प्रसंग भी जुड़ा जब अस्सी के दशक में जब हम अपने तीसवीं उम्र में थे और ऊर्जा से युक्त | तब हम कुछ सक्रिय युवा टोलियों से जुड़े | हमारी ऊर्जा का भी तब गलत इस्तेमाल हुआ या सही यह समीक्षा का विषय नहीं है | लेकिन युवाओं की ऊर्जा को सामाजिक नवनिर्माण के खेत में जोतना तो एक समस्या तो है ही | अन्यथा उसका गलत दिशा में स्थानांतरण स्वाभाविक है |

* कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं यह जो LIVE IN relationship की वकालत कर रहा हूँ , वह मेरी अपनी स्वार्थ प्रेरणा की उपज हो ? वह यह कि तब न बहू आयेगी, न हम सास ससुर बनेंगे, न हमारी हैसियत अपने ही घर में गिरेगी, न हम ठेल कर बरामदे में किये जायेंगे | न हमारी औलाद हमारे हाथ से निकलेगी | क्योंकि अभी तो बहुरिया के आते ही लड़के उसके वश में हो जाते हैं , और उसी के कहने पर चलने लगते हैं | जिसके कारण सास ससुर देवर ननद कि हालत पतली हो जाती है | इसलिए भैया यही ठीक है कि लड़के लोग बिना विवाह ही किसी को ले आयें और उसके साथ रहें | चाहें तो पूरा जीवन रहें पर वह हमारे घर पर राज तो नहीं करने पायेगी ?  

* शुद्र होने का सारा श्रेय केवल जन्मना शूद्रों के पास ही नहीं है | जन्मना सवर्ण भी आपस में शुद्र - सवर्ण खेला करते हैं | जैसे दामाद जी ब्राह्मण तो साला शूद्र | उसे जीजा का आदर सत्कार करना, पैर छूना लाजिमी है | लड़के वाले बाह्मण तो लड़की वाले शाश्वत शूद्र | उसे समधी के पैरों पर पगड़ी रखनी ही है | औरतों में सास , जिठानी ब्राह्मण, तो छुटकी देवरानी शूद्र | उसे उनके सेवा करनी ही है | इस प्रकार हम देखते हैं कि शूद्र और ब्राह्मण की प्रथा हर एक समूह में है | इस पर हमारे जन्मना शूद्रों को इतराने का कोई कारण नहीं है |  

* निश्चय ही दलित अपनी पहचान बनाते जा रहे हैं - अलग , नयी , ब्राह्मणों से पृथक | जिससे कोई ब्राह्मण अपमानित होने के भय से उनके निकट नहीं बैठने पाए | वैसे ये इसके लिए ब्राह्मणों को मना तो नहीं करते ? ब्राह्मणों की खुद की हिम्मत न पड़े तो इसमें इनका क्या दोष ? ब्राह्मणों ने तो इनको छूने से मना किया था न ! इसलिए वे दोषी थे, महँ अपराधी थे | लेकिन हमारे सामने परिणाम तो दोनों समान हैं | दोनों एक दूसरे के बराबर न तब बैठते थे , न अब बैठते हैं |

* पुराने ज़माने की तरह अब युद्ध में विषकन्याओं की ज़रुरत नहीं है | अब तो राजनीतिक द्वंद्व में 'विष- बोल ' कन्यायें चाहियें | कन्यायें जो प्रेस के समक्ष बोल भर दें कि अमुक राजनेता ने हमारे साथ ऐसा वैसा किया था |

[ जैसे को तैसा - Tit for Tat ]
* जैसे आप लोग ईश्वर को मानते हो | और आप लोगों में भी यह भाई साहब कुछ मानते हैं और वह बहन जी उसे किसी और तरह से मानती हैं |
उसी प्रकार हम , और हम लोगों में भी , ये इस तरह और वे उस तरह से , यानी सब अपनी ही तरह से ,  ईश्वर को नहीं मानते हैं | न आपके पास ईश्वर को मानने का कोई वैज्ञानिक कारण है , तो उसी प्रकार आप हमसे भी ईश्वर को न मानने का कारण न पूछिए | जब आपके पास कोई लाजिक नहीं तो हमसे भी आप किसी लाजिक की अपेक्षा न करें |

* Special majority we are . We, the humanists, Godless atheists, nonreligious rationalists .


Girijesh Tiwari via Himanshu Kumar
Himanshu Kumar -
महान विचार बदल जाते हैं
सस्ते चित्रों में

भगत सिंह बदल
जाता है
कार के पिछले शीशे पर चिपकाने
के एक स्टीकर में

उसकी सारी हिम्मत
और प्रेम
बदल दिया जाता है
एक पिस्तौलधारी
लड़के के कलेंडर में

गांधी
बदल जाता है
एक खादी के कुर्ते में
या चरखे में
पद में
या सम्मान दिलाने वाले एक साधन में

जीसस बदल जाता है
एक शानदार चर्च में लगे सोने के
क्रोस में

मुहम्मद
बदल जाता है
बकरे की गर्दन काटने की रस्म में

सदियों का सारा परम्परागत ज्ञान बदल
जाता है
कुछ कर्म कांडों में

मनुष्य के मनुष्य होने के लिये बनाये गये सारे नियम बदल जाते हैं
एक साम्प्रदायिक नाम में
और उसका रोज़मर्रा के जीवन में कोई भी दखल
इस चालाकी से समाप्त कर दिया जाता है
कि इंसान उनसे बच कर फिर से
लालच और जानवराना व्यवहार के साथ जीता रहता है
सारे पर्यावरण और समाज के साथ दुश्मनों की तरह

आपका सारा ज्ञान बदल जाता है
आपको ज्यादा ढोंगी
बनाने में
जिससे आप
अपने
स्वार्थी
और मतलबी व्यवहार को
अपने सभ्य होने के बहाने में
छिपा लेते हैं

आपके चारों तरफ
मेहनत करने वाले जब
भूखे घुमते हैं
और आप
आराम से बैठे बैठे
अमीर बने होते हैं
तब आप बातें करने लगते हैं
मार्क्स की
जिससे
आज और अभी कुछ भी ना करना पड़े"
# #

* झूठ के बल पर इश्क हकीकी ?
बेहतर सच्चा इश्क हबीबी |

[ गीत -- देखूँ तो ]
* खबर थी वह अतिशय सुंदर है , मन में आया - देखूँ तो !
उन पर मर मिटने से पहले , सोचा - उनको देखूँ तो !

[कव्वाली ]
* एक घर था बनाना मुझे , मैं डिज़ाइन बनाता रहा ,
आपको था रिझाना मुझे , बीन ही मैं बजाता रहा |

* चिट्ठी तो मिल गई थी , मुझको भी यह पता है ;
फुर्सत न मिली होगी , पढ़ने की - क्या खता है ?

* सफ़र तो क्या भला मुझसे ज़रा भी खाक हुआ ,
इसकी तैयारियों में ही समय का नाश हुआ |

* सच है बहुत दिनों से वह नाराज़ हैं मुझसे ,
मुझे खुशी है वह अब भी मुझे पहचानते हैं |

* ज़रा मुस्कराकर छिड़क दो नमक तुम ,
कि मुँह घाव का बेमज़ा हो रहा है |
[अज्ञात ]

* मजदूरों को रोज़गार क्यों मिले जब उन्हें काम से ज्यादा हड़ताल करना है ?

* सफ़ेद अंगोछा लेता हूँ तो बड़ी जल्दी गन्दा हो जाता है | रंगीन लूं तो उसका रंग उतरता ही जाता है, उतरता ही जाता है !

* कपडे बदलते समय कुछ न कुछ अंग कहीं खुल ही जाते हैं |
[uvach]

* Let us doubt over our caste .
Over our religion ,
Over our God .

शुक्रवार, 22 मार्च 2013

Nagrik Blog 22 March 2013


आज का कार्यक्रम ;-
" स्वतंत्रता , freedom "
उग्रनाथ नागरिक (श्रीवास्तव)
" व्यंग्यकार "
L - V - L / 185 , अलीगंज ,
लखनऊ - 226024 [उ.प्र.]

* वैसे भी
भगवान् का कहाँ
बचा है अस्तित्व ?
किसी को देखा आपने
ईश्वर से डरते ?
भगवान् का भय खाते ?
कोई नहीं डरता उससे ,
फिर मतलब क्या है
उसके होने का ?
# #


[ कविता ]
* रख तो छोड़ा है
हमने एक ईश्वर
बोलने बतियाने को,
दुआ सलाम बनाने,
कायम रखने के लिए !
इसमें मानने , न मानने
की क्या बात है ?
वह है या नहीं है
इससे क्या मतलब ?
मानते नहीं, तो उसे रखते ही क्यों ?
और उसके जिंदा रहने,
अजर - अमर होने का
सबब ही यही है - " क्योंकि वह नहीं है "
वह है तो इसीलिये क्योंकि
वह वैसा हो जाता है
हम जैसा चाहते हैं,
जैसा मनुष्य कि कुदरत,
उसकी फितरत चाहती है |
बिल्कुल फिट और उपयुक्त
अपने सर्वाइवल के लिए |
ठीक है - बनावटी है -
इमिटेशन अथवा पायरेटेड |
तो उससे क्या ?
कौन सा असल का ज़माना ही है यह !
फिर उसे हमेशा एक सा
थोड़े ही रहना है ?
उसका तो माडल आखिर
बदलता रहना है !
तो वह हमारे वक़्त ज़रुरत काम आये
इसलिए रख छोड़ा है हमने
एक ईश्वर जिंदा - जीता जागता
अपने लिए |
# # #

Posted by Zaara Khan
नास्तिक -----
( संदीप खरे जी कि मराठी कविता का हिंदी अनुवाद )

एक सचमुच का नास्तिक
जब मंदिर के बाहर ही रुकता हैं
तब असल में मंदिर की पवित्रता में ही इजाफा हो रहा होता हैं
की कोई तो हैं जो अपने तक सीमीत ही क्यूँ ना सही,
पर अपने सत्य से इमानदारी से चिपका हुआ तो हैं |

एक सचमुच का नास्तिक
जब मंदिर के बाहर ही रुकता हैं
तब पहल होती हैं
आलस्य झटक कर, भगवान के मंदिर से बाहर आने की |

एक सचमुच का नास्तिक
जब मंदिर के बाहर ही रुकता हैं
तब वो खाली नज़रों से देख रहा होता हैं
आसपास की भागदौड़, भक्तों की भीड़
तब, कोई तो हैं जो अपना बोझ खुद संभाल सकता हैं,
इसका संतोष मिलता हैं भगवान को ही |

इसीलिए एक सचमुच का नास्तिक
जब मंदिर के बाहर ही रुकता हैं
तब भगवान को एक भक्त कम मिलता हो शायद
पर मिलती हैं भरपूर ख़ुशी एक सहयोगी के मिलने की |

मंदिर बंद होने के बाद, एक मस्त अंगड़ाई लेकर
बाहर खड़े हुए नास्तिक से गपशप करते हुए
भगवान कहता हैं, "दर्शन देते रहना कभी कभार...
तुम्हारा नहीं होगा हम पर विश्वास,
पर हमारा तो हैं ना...|"

मंदिर के बाहर रुका हुआ एक सचमुच का नास्तिक
थके हुए भगवान को बड़ी मिन्नतों से भेजता हैं मंदिर में
तब जाकर कही अनंत वर्षों तक हम कर सकते हैं दर्शन
आस्तिकता के मखमली लिबास में दम घुटे हुए भगवान का....!!!
# #

[कविता ]
* यात्रा में
कहाँ समय लगा ,
समय तो लगा
यात्रा के
सामान जुटाने में !
# #

* सोचा दिल का
दिमाग का मालिश
कर लें थोड़ा |

* जाते हो जाओ
आखिर पछताओ
लौट ही आओ |

* छद्म ख़ुशी है
लेकिन सचमुच
यही ख़ुशी है |

* दहेज़ नहीं
हम हिस्सा तो देंगे
लड़कियों को !

* मेरे विचार में
एक दिमाग आया है
अभी कहूँ या
बाद में बताऊँ ?
बात यह है कि
मेरे दिमाग में
एक विचार आया है |
##

* तुम संभल कर चढ़ो आधुनिक सीढ़ियाँ ,
मेरी प्यारी दुलारी नई पीढ़ियाँ !

* यदि आपकी पत्नी अपनी उँगलियाँ चाटने लगे , तब समझो - तुम खाना अच्छा बना लेते हो |

* क्या कहते हैं आप ! क्या आप पृथ्वी को [ नर नारी के मध्य ] गुरुत्वाकर्षण [ की बुराई से ] मुक्त कर देंगे ?

* कई यथास्थितियाँ नकार देने से समाप्त नहीं हो जातीं | उन्हें सच की तरह स्वीकार करना पड़ता है |

* जब झूठ ही बोलना है , तो क्यों न प्यार बोलें ?


* रेंद्र जी कि बात सच है | ऐसा चौतरफा हो रहा है | पता नहीं क्या हासिल होता है इससे, पर कुछ लोग इसमें रत दिन संलग्न हैं | इसे मुतवातिर अपना लाइफ मिशन बनाये हुए हैं | कारण, हो सकता है  - इनके पास कोई रचनात्मक सकारात्मक कार्यक्रम , विचार या दर्शन नहीं है, जीवन का उद्देश्य | नया सोच - बना नहीं सकते, किसी की बात मान नहीं सकते | ठीक है आलोचना का अधिकार है | किया भी जाना चाहिए | पर उससे सबक लेकर कोई सार्थक रास्ता भी तो निकलना चाहिए ! देवदासी प्रथा अब नहीं है तो नहीं है , जब थी तब भी सीमित थी | गए दिनों की बात है | पर आज इतनी अकूत स्वर्ण - दासियाँ मंदिरों में क्यों पहुँच रही हैं ? या फिर, वेश्यावृत्ति ही इतनी सर्व व्यापक , सार्वजनिक और इसका बाज़ार इतना बढ़ और गर्म क्यों हो रहा है , इस पर सोचना और कोई उपाय निकालना इनके अजेंडे में क्यों नहीं है ? अभी इसे मनुवाद / जातिवाद कह दिया जायगा [जिसे ये स्वयं सवर्णों की अपेक्षा ज्यादा उछाल रहे / प्रश्रय दे रहे हैं ] , पर यह सब देखते हुए इनके हाथों में देश का शासन सौंपना तो मुझे खतरे से खाली नहीं लग रहा है, जो कि मेरे / हमारे/ कुछ सवर्णों का जीवन का स्वप्न है / हमने बनाया है ऐसा अपना लक्ष्य | ये तो बिल्कुल गैर जिम्मेदाराना बात - व्यवहार और हरकतें कर रहे हैं | केवल घृणा के औजार से ये भला कैसे देश की मशीनरी सही करेंगे / कर पाएँगे ?

* दलित होने का प्रिविलेज धारण करना चाहते हैं लोग | [ मानो यह उनका धर्म हो गया हो , धारयेति इति धर्मः ?] | सामान्य विषयों पर सामान्य जन बनकर ये आते ही नहीं | उसके लिए बहुत बड़े दिल - दिमाग के बूते की दरकार है | ऐसा करके वे प्रकारांतर से मनु की बात ही सत्य साबित कर रहे हैं |

* [ पुरुष की कीमत ]
नारी / महिला आन्दोलनों के ऊलजलूल चलते पुरुषों के सम्मान को बड़ा झटका लगा है | मैं उसकी पुनर्स्थापना के लिए बताना चाहता हूँ कि इससे महिलाओं का ही कितना नुकसान है | पुरुष कि कीमत समझकर ही उसके साथ अपना व्यवहार तय करें महिलाएं तभी ठीक होगा | क्योंकि वहीहै जो इनकी जिंदगी बिगाड़ बना सकता है | जानिये कि वेश्याएँ आखिर हैं क्या | ये पुरुषवादी समाज द्वारा बहिष्कृत जनानाएँ है, जिन्हें उनके पति बाप ससुर आदि से घर बघार कर दिया है | कोई पुरुष उन्हें सहारा देने वाला नहीं है इसलिए उन्हें पेशा करना पड़ा | सोचिये, यदि वे पुरुष के अधीन होतीं तो गरीब भले होतीं इज्ज़त से तो होतीं | और मज़े की बात - वही पुरुष फिर इनके कोठे पर आकर पैसे दे जाता है, जिससे उनका भरण पोषण होता है |
आज हालत यह है कि स्त्री के पास पद पैसा होते ही पुरुषों की दुर्गति करने लगती हैं | जब कि समृद्ध पुरुष अपनी पत्नियों से ऐसा व्यवहार नहीं करते | जान लें कि आधी आबादी की आधी औरतें अब भी पुरुषों की कमाई पर ऐश कर रही हैं, रानी बनी फिरती हैं | ऊपर से उन्ही के खिलाफ झंडा बुलंद करती हैं | यह गलत है | स्त्रियों को चाहिए की वे पुरुषों की कीमत समझें और उनका सम्मान करें | पुरुषों को भी संगठित होकर अपने मान सम्मान को वापस स्थापित करने का प्रयास करना चाहिए | इसके लिए उन्हें औरतों को अपनी तरफ से हर प्रकार की सुरक्षा और सम्मान देना चाहिए, जिससे पुरुषों की कीमत बढ़े, भाव में इजाफा हो |

* सेक्सुअल फ्रीडम की बात में दम तो है | लेकिन सेक्स भी तो इलास्टिक की भाँति है | जितना बढ़ाओ उतना बढ़ता है | इसका पेट भरने का नाम ही नहीं लेता | यद्यपि इसकी भी सीमा तो है, कितना कोई सेक्स करेगा | फिर भी इसकी भूख दूर तक है | दूसरी और उदाहरण हैं आजीवन ब्रह्मचर्य निर्वाह के | भीष्म पितामह का नाम न लें तो आज भी तमाम स्त्री पुरुष कुवाँरे/ अविवाहित जीवन व्यतीत करते है | पुरुषों को, मान लें कि बाह्य साधन उपलब्ध हो जाते होंगे | लेकिन तमाम स्त्रियाँ तो अक्षत योनि रह ही जाती हैं ? अर्थात सेक्स विहीन जीवन भी जिया तो जा सकता है [ ऐसा मैं अनुमान के आधार पर ही कह रहा हूँ, दृढ़ नहीं हो सकता ] |

* अकेले राम ही तो भगवान नहीं है ? वैसे जब भगवानों का ही अस्तित्व काल्पनिक है तो उसी में श्री राम भी आ गए | 'पुरुषोत्तम' राम क्या कुछ कम हैसियत है ? क्यों परेशान हैं ? सबको अपना अपना सहारा लेने दीजिये | या राम का कापीराइट अपने पास रखने का इरादा तो नहीं है ?

* तुम जीवन में ऐसे आये ,
जैसे सुबह की पहली चाये |

* ठीक है कि मुसलमानों पर थोड़ी सख्ती हुई | लेकिन अमरीका के मानवाधिकारी चिल्लाये नहीं | परिणामतः वहाँ 9 / 11 के बाद दूसरी घटना नहीं होने पाई | लेकिन भारत में तो हर घटना के होने के पहले ही ऐ वादी मुसलामानों को क्लीन चिट दे देते हैं |

* गाँव में हम
रहना जानते हैं
रहते नहीं

* चाट खाने में
हमारी लडकियाँ
बड़ी उस्ताद !

* मैं अपनी ही नज़रों का दोष मान तो रहा हूँ | तभी तो कहता हूँ मेरी नज़रों से थोडा परदा कर लिया करो |

* My next book of Poetry collection can be -
Approximate Poetry " निकट कवितायेँ "

* अब बताइए ! कहने में शरम आ रही है | अब मेरे पाँव 'भारी ' हो रहे हैं | सवेरे उठकर दो क़दम चलना तकलीफदेह हो रहा है |

* [ अनिश्चय ]
* आधी आधी रतिया बाबा मान्गाताने पानी ,
हम तो कही बाबा बाबा, बाबा कहें जानी | "
ऐसे लोकगीत रखने वाला समाज क्या 'असभ्य ' रहा होगा ? या सभ्यता के 'अति ' पर ? मेरे लिए तय कर पाना बहुत कठिन, लगभग असंभव है | मैं अपना अनुमान किसी पर थोप नहीं रहा हूँ लेकिन इससे तत्कालीन सामाजिक जीवन की झलक तो मिलती ही है , इसे चाहे जो मानें | क्या हम 'सभ्य ?' जन इस कटु यथार्थ को पचाने में समर्थ हैं ?

गौरैया दिवस को समर्पित - एक कविता : --
* तुम कि जैसे
एक गौरैया
मेरी फुनगी पर
आकर बैठ गयी ,
और मैं
कृतकृत्य होकर
झुक गया |
# #
20/3/13

* हम अजीब पशोपेश में हैं आजकल | हम चाहते तो हैं कि हिन्दू धर्म को आलोचनाओं के तीर से भर दें , उसे  शुद्ध और फिर से पवित्र कर दें | लेकिन मौजूदा स्थिति हमें रोक देती है और कहती इसका साथ अभी इसके अपभ्रंश रूप में ही देना है | वाकयी धर्म भी राजनीति ही तो है | बल्कि, मुख्यतः राजनीति ही है | पूरा दलित आन्दोलन क्या धर्म की राजनीति नहीं है ? धार्मिक सम्प्रदायों में राजनीतिक हिस्से का बँटवारा एक तरह से धर्म भी है, दूसरे तरीके से राजनीति भी है | हम कुछ भी करें अपनी रूचि के मुताबिक, दूसरा काम अपने आप हमसे संपन्न हो जाता है, हम उसे करें, न करें | हम अजीब पशोपेश में हैं आजकल |  

* यदि यह मान लिया जाय की " विद्या ददाति विनयम " तभी मैं विद्यावान होने का आरोप अपने ऊपर स्वीकार कर सकता हूँ | क्योंकि, निश्चय ही , मैं विनयी तो हूँ | भले मेरे पास किताबी ज्ञान का अभाव है |

* मेरा लघु विचारक सदैव इस मत का रहा है कि हमें अपने , अपने विचारों के विरुद्ध भी सोचने का माद्दा / साहस और योग्यता विकसित करना चाहिए | इसका अभ्यास मैं करता भी हूँ | और आज एक अच्छा मौका हाथ लगा जब मैं सभ्यता - असभ्यता , शिष्टता - अशिष्टता पर सोचने लगा | सच बात यह है कि मुझे असभ्य आचरण से अत्यंत चिढ़ है | लेकिन सोचता हूँ - कोई ऐसा व्यवहार क्यों करता है ? आखिर मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि जिस व्यक्ति को , [ और धीरे धीरे वही उसके समाज, जाति - सम्प्रदाय का व्यवहार बन जाता है ], जीवन के सरवाईवल के लिए बहुत ज्यादा मशक्कत, जद्दोज़हद और संघर्ष करना पड़ता है वह सभ्यता का पालन करके जी ही नहीं सकता | उसे कुछ कटु - कठोर - निर्मम किंवा असभ्यता का सहारा लेना ही पड़ता है | मतलब वह सभ्यता के विकसित काल में अशिष्टता का द्योतक हो जाता है | अतः , मेरे ख्याल से इस असभ्यता को सभ्य समाज द्वारा आदरपूर्वक स्वीकार किया जाना चाहिए , क्योंकि यह नितांत सहज और मानवीय ही होता है | क्या मैं ठीक कह रहा हूँ ?  

* हिंदुस्तान में होना 'हिंदुत्व ' है |
(uvach)
यही गर्व और गर्भ वाली बातें ही किसी को हिन्दू होने नहीं देती | हिन्दू होने की कोई शर्त हिंदुत्व विरोधी है |


[ First poem,  by ---  Ambi ]
* दुनियां सुंदर हैं,
पर ज़िन्दगी क्रुर हैं|
हम महान के आगे सर झुकाते हैं,
और गरीब हमारे आगे|
[Ambi is my grand daughter]

मंगलवार, 19 मार्च 2013

Nagrik blog 19 March 2013


गुड मोर्निंग एवरीबडी ! अरे नहीं , सुप्रभात यारो !
" नागरिक "
उग्रनाथ श्रीवास्तव
( व्यंग्यकार )

* पुराणमित्वापि च साधु किञ्चित |
[ पुराना भी कुछ अच्छा भी है ]

* वे तो बाभन हैं - दुष्ट, कमीने, और क्या क्या, जो कुछ भी ! लेकिन आप तो आदमी हो ! तो, आदमी बने रहो !

* मैं दलितों से बिल्कुल बराबरी के स्तर पर लड़ना चाहता हूँ | उसी तरह तू तू मैं मैं, हाथा पायी, छिनरी बुजरी  !

* वह जींस [ कपड़ा ] ही क्या जिसकी दशा जीर्ण - शीर्ण न हो ?

* कुछ मानोगे नहीं तो कोई तुम्हे कुछ बताएगा क्यों ? मेरा मानना है की कुछ किसी का कहा मानना पड़ता है, और मानना चाहिए | यह मेरी एक स्मृति के सन्दर्भ में है | मेरी एक बहुत प्रारंभिक कविता है - " कफ़न " | लगभग 1976 की, बलरामपुर जिला गोंडा में था मैं उस समय | वह कविता बहुत सराही गयी, बल्कि वह मेरी पहचान बन गयी | इसके कई वर्ष बाद जब एक वरिष्ठ कवि श्री लक्ष्मी चंद 'दद्दा ' से गोंडा में मिला तो उन्हें भी उसे वैसे ही सुनाया जैसा हर जगह सुनाया करता था | एक बार तो उन्होंने सुना, फिर दोबारा पढ़ने को कहा और तब बताया कि " शव को देता हूँ कब्र तक साथ " नहीं - " शव का देता हूँ कब्र तक साथ " करो | को और का में इतनी बड़ी चूक थी कि दुःख हुआ अभी तक क्यों नहीं किसी ने इंगित किया ? पहले यह था | वरिष्ठ जन त्रुटियाँ बताते थे क्योंकि कनिष्ठ उन्हें मानते - स्वीकार करते थे | अब किसी गुरु की ऐसी हिम्मत नहीं है, क्योंकि किसी का कहना न मानना प्रगतिशीलता में शुमार हो गया है | और इसी के बरक्स मेरे लेखे किसी को कुछ न बताना भी दुनियादारी के लिहाज़ से उचित व्यवहार हो गया है | मैं तो दो एक बार किन्ही को कुछ बता कर अपमानित भी हो चूका हूँ | बहरहाल , दुनिया की छोड़ें, मुझे तो ख़ुशी है मेरी कविता दुरुस्त हो गयी | वह पूरी कविता आगे लिख रहा हूँ |

[कविता ]
* मैं एक क़फ़न हूँ
जिंदा ही जला दिया जाता हूँ
एक मुर्दा लाश के साथ
गोया मैं एक जिंदा लाश हूँ ,
फिर भी मुझे गर्व है कि
शव का [को नहीं ] देता हूँ
कब्र तक साथ
और उसके राख होने तक
उसकी लाज ढके रहता हूँ ,
तथा राख बनकर भी
तन से लगा रहता हूँ |
लेकिन मुझे खेद है
कोई मुझे जीवन में
प्यार नहीं करता
आख़िरी साँस तक
स्वीकार नहीं करता
बस, चंद शहीदों के सिवा |
वही तो मुझे
अपनाते हैं जीते जी
और मैं भी उन्हें ,
कभी मरने नहीं देता |
# #

* जो कहें उनके साथ बलात्कार हुआ है तो ऐसे केस को अपराध के रूप में दर्ज किया जाय चाहे पीड़िता की आयु कुछ भी हो, लेकिन एक समय सीमा के भीतर, न कि साल दो साल बाद | और जो सहमति से सेक्स करें और सीमावधि के अन्दर शिकायत न करें, उसे अपराध न माना जाय, चाहे दोनों की उम्र १६ हो या १८ |    

* मेरा काम है - छिद्रान्वेषण / spotting  the  loophole .

* मुश्किल नहीं है कुछ होना | जिसे हिन्दू होना हो हो जाय, मुस्लिम ,ईसाई, बौद्ध किसी भी दर्शन से प्रभावित  हो तदनुसार व्यक्तिगत जीवन जी सकता है | इसीलिये धर्म को व्यक्तिगत मामला कहा भी जाता है | लेकिन दिक्कत आती है जब कोई वैसा कुछ कहलाने, पहचान बनाने का आग्रह करने लगता है | यह राजनीति की देन है | मुझे आतंरिक खेद है कि नीलाक्षी जी इसमें माहिर हैं | उनके पास कोई सकारात्मक कार्य नहीं है, वे मामले को उलझाती, जातिकरण/ राजनीतिकरण करतीं और परिणामतः केवल कटुता पैदा करती हैं | नतीजा कुछ नहीं निकलता, निकल ही नहीं सकता | एक छोटी सी टीप देता हूँ - यदि हिन्दू धर्म इतना नीच, घृणित है तो फिर इसमें कोई लौट कर वापस आना ही क्यों चाहे ? ऐसी कृपा हिन्दू धर्म पर क्यों ? क्या आरक्षण लेने के लिए ? फिर मतलब क्या है इस अप्रिय तथ्य को उठाने का ? इसके आगे मैं अपना आन्दोलन जोड़ सकता हूँ कि धर्मों की ज़रुरत क्या है ? इन्हें छोड़ने, त्यागने की ज़रुरत है, न कि ग्रहण करने या अदल बदल करने की | अब बालेन्दु जी तो शायद धर्म रक्षार्थ कहें भी , कि धर्म तो " धारणीय " वगैरह है | लेकिन अभी भी मेरा इतना विश्वास उन पर शेष है और कायम है , कि नीलाक्षी जी ऐसा नहीं कहेंगी |        

* कुछ बूढ़े और बूढ़ियाँ बिलावजह इस गलतफहमी में हैं कि यदि वे पूत - पतोहू के साथ न हों, तो बच्चे स्कूल आने जाने से वंचित रह जायँ, सौदा सुलुफ, सब्जी वगैरह घर में न आये, बच्चे खेलने - बहलने न पायें, या / और / किचन में सारे बर्तन जूठे पड़े रह जायें, महीनों कमरों में पोंछा न लग पाए |

* थोडा कुछ शारीरिक बनावट में अंतर के कारण स्त्री पुरुष में इतना सामाजिक भेदभाव तो नहीं बरता जाना चाहिए था !

* वैज्ञानिक विचार नहीं हैं ईश्वर और धर्म | ' मनोवैज्ञानिक ' जबरदस्त हैं |

* पूरा भारत एक है, और वह हमारा है | अब मोटर गाड़ी या मोटर सायकिल एक राज्य से दूसरे राज्य में ट्रांसफर करवाने में जो मुश्किलें पेश आतीं हैं, वह इस एकता के आगे कुछ ख़ास तो नहीं ?

* दरअसल जब हम किसी से विवाद कर लेते हैं तो फिर उससे संवाद के सारे रस्ते बंद हो जाते हैं | यह स्थिति फायदेमंद नहीं होती | इसका तरीका है जिससे विवाद हो उससे मौन संवाद प्रारंभ कर लें | कभी मुखर होने की संभावना शेष रहे |

* मुझे लगता है मनुवाद तत्समय और समय समय के अनुभवों पर आधारित वाद है | इस प्रकार इसे अनुभववाद कहा जा सकता है | और आश्चर्य यह है कि इसने अपनी प्रासंगिकता सदैव कायम रखी, अपनी सत्यवत्ता यह आज भी अक्षुण बनाये हुए है |

* कुछ मित्र थे
कुछ तो नहीं रहे
कुछ मित्र हैं |

* जब आएगी
वह मौत की रानी
तब देखेंगे |

* या तो असभ्य
आचरण समान
या अतिसभ्य |


Shriniwas Rai Shankar
मूर्खेषू विवादों न कर्तव्यह-----आचार्य चाणक्य

* प्रतीतितः, मनुवादः शाश्वतं अस्ति |


* गरीबी बाँटकर खाओ " |
[खाने वालो खाना है तो गरीबी बांटकर खाओ - उग्रनाथ]
पूजा शुक्ला जी द्वारा बहुत अच्छा संपादन | मैं मूलतः इसे इतना स्पष्ट लिखने में असमर्थ रहा था , जिससे उसका सही मंतव्य अधिकाँश मित्रों तक नहीं पहुँच पाया | आभार !

* आकांक्षाएँ पालो ही मत ,
दुःख का प्याला ढालो ही मत |

 [ मिसरा ]
* गालियाँ भी प्यारी लगें यदि मूड ठीक हो ,
प्यार भी काँटा लगे यदि ठीक मन न हो |


* एक बात बताइए सर जी [ पैर छाँडि ] लोगो | यदि मैं DMK का पूरा उच्चारण " दाल में काला " कह दूँ तो क्या मेरे ऊपर कोई अभियोग लग जायगा ?

* ऐसे ही लोगों को , मैंने अभी कुछ ही दिन पहले कहा था , ढूँढ कर अमुक अमुक श्री , भारत रत्न और आर्थिक पुरस्कार मिलना चाहिए , न कि फ़िल्मी सितारों - खिलाडियों और अन्यथा " खिलाडियों को |" [ For Hon'ble shri Vashishtha Narain Singh , mathematician

* [ उवाच एवं विश्लेषन ]
* अब किसी कि आँखें फटने नहीं पाएँगी | कोई किसी को घूर जो नहीं सकेगा | "
यह बात उस निर्माणाधीन कानून के सन्दर्भ में है जिसके तहत किसी महिला को घूरना गैर जमानती अपराध हो जायगा | इसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्षों पर मैंने दिमाग खगाला क्योंकि यह मेरा, क्या किसी भी परुष का प्रिय "विषय " होता है | एक अच्छाई तो मैंने यही ढूँढी कि अब इस कानून के पालन करने से हमारी आँखें फटने से बच जायेंगी, जो कि घूरने की कामक्रिया से हो जाया करती थीं | लेकिन इसमें मैं भारतीय सौन्दर्य जगत में एक क्षरण भी सूंघ रहा हूँ | इतिहास, यदि उसे अभयदान मिले तो , गवाही देगा कि भारत कि स्त्रियाँ  इतनी सुंदर रही हैं कि उन्हें देखकर पुरुषों की आँखें " फटी की फटी " रह जाती थीं, और उनको " नीहारते " किसी का जी नहीं भरता था | अब क्या होगा ? इस कानून ने तो सब बेडा गर्क कर दिया | स्त्रियाँ तो अब भी सुंदर ही होंगी पर हाय ! पुरुष उन्हें [ ठीक से ] देख नहीं पायेंगे | सत्यानाश हो ऐसे कानून का |
अब इसका एक शुभ  पक्ष यह है कि जब औरतों  को कोई देखेगा नहीं, तो वे श्रृंगार नहीं करेंगी | किसके लिए और क्योंकर करेंगी भला ? फिर तो सौन्दर्य प्रसाधनों पर राष्ट्रीय धन का अपव्यय रुक जायगा | पतियों के सर का बोझ कम हो जायगा | और गृहिणियाँ उन पैसों का उपयोग अन्य कार्यों , जैसे बच्चों के लिए खिलौने - किताबें और अपने एवं अपने पति के लिए कुछ साहित्यिक  पत्रिकाएँ खरीद सकेंगी |        
[ हाय, लेकिन यह क्या होने जा रहा है ? यदि ऐसा कानून लागू हुआ तब तो औरतें हमें " फूटी आँख " भी नहीं सुहायेंगी ? ]
* आपको, या किसी को भी, कम से कम मुझसे तो, डरने की ज़रुरत नहीं है | क्योंकि हम कोई संथागत - संगठित काम नहीं करते | हम केवल लिखते या बोलते बतियाते हैं | उससे क्या होता है ? तो, तुम निश्चिन्त होकर समाज को बनाने - बिगाड़ने - बरगलाने का जो भी काम करते हो, कर रहे हो, निर्द्वन्द्व करते रहो |

* [ और भी भ्रम हैं ]
मुसलमानों के बारे में अनेक भ्रम शेष हिन्दू समाज में व्याप्त है | जैसे वे गंदे होते हैं, गोमांस  खाते हैं, खाते हैं यहाँ की गाते हैं वहाँ की, या यही किवे आतंकवादी होते हैं इत्यादि | ये भ्रम जिनको हों उनको हों सही या गलत | लेकिन उनके बारे में हमारे भ्रम और भी हैं | जैसे पहले पहाड़ी नौकरों के बारे में हुआ करता था | कि वे बड़े ईमानदार होते हैं ईमान के पक्के | दोस्ती निभाना जानते हैं और फिल्मों के अनुसार दोस्ती में जान भी दे सकते हैं | जुबान के पक्के होते हैं और वायदे से मुकरते नहीं, किसी को धोखा नहीं देते | अमानत में खयानत नहीं करते और पूर्ण विश्वसनीय होते हैं | यह भी भ्रम ही है |  

* जो मैं कहता हूँ, वह सही - गलत हो सकता है | लेकिन इतना तो निश्चित है कि उनसे आप जनमत की नब्ज़ का अंदाजा लगा सकते हैं |            

* मेरे हाथों में फूल या गुलदस्ता नहीं, मेरे हाथों में अपना हाथ दो | वह अनुपम उपहार होगा |

* एतद्द्वारा प्रमाणित करता हूँ कि मैं BPL श्रेणी में आता हूँ - बे पेंदी का लोटा |

* [ मौलिक प्रश्न ]
सिर्फ फिल्मों और उपन्यासों को छोड़कर किसी धनी लड़के का 'प्रथम दृष्टि' का प्यार किसी कूड़ा बीनने वाली लड़की से क्यों नहीं होता ?

* मुझसे यह त्रुटि बराबर होती है , और मैं हर बार अपनी अज्ञानता पर अपने आप शर्मिंदा होता हूँ | जब भी मैं किसी घर - बँगले " प्रोo अमुक " अंकित देखता हूँ , मुझे तमाम ढाबों और मिस्त्रियों के दुकानों की याद आती है जिनपर लिखा होता - प्रोo मुन्ना लाल / प्रोo बन्ने खाँ - -

* एक निवेदन | मैं अपने पोस्ट दो जगह डालता हूँ - एक News Feed पर , दुसरे ' प्रिय संपादक ' पर | और कुछ Absolute Nonsense पर | मित्रो से अनुरोध है की अपनी प्रतिक्रिया केवल एक ही स्थान पर व्यक्त करें |

* आपके पोस्ट का अर्थ मैंने यह निकाला कि एक बच्चा पत्नी अन्य पुरुष से पैदा करे , एक बच्चा पति अपनी पत्नी से पैदा करे | यह होता तो ठीक था |

* महिलाएँ थ्रेडिंग करने ब्यूटी पार्लर जाती हैं | कहीं " डोरे डालने " को ही तो थ्रेडिंग नहीं कहते ?
[आप नाराज़ न हों प्रज्ञा जी ! मैं अंतर्संत्रस्त व्यक्ति हूँ , इसलिए खुश होने का कोई अवसर हो, मैं पकड़ना चाहता हूँ | 'थ्रेडिंग' और "डोरे डालना" में थोडा साम्य मिला तो उन्हें जोड़ दिया < बस ! ]

* जिनकी छवि आँख बंद करने मात्र से ही सामने आ सकती है , उन्हें देखने के लिए उनकी मूर्तियाँ बना कर मंदिरों में रखने की ज़रुरत मैं नहीं समझता |

* भ्रष्टाचार का
इतना चर्चा हुआ
ख्यात हो गया |

[ कथानक : क्या आप की उम्र सोलह साल हो गयी है ?]
* मैं मोटर गाडी में था | सड़क पर मुझसे एक लडकी ने लिफ्ट माँगा | लेकिन बदले कानून के तहत और वैसे भी सुरक्षा वश मैंने उससे दरयाफ्त करना उचित समझा - क्या तुम्हारी उम्र सोलह साल हो गयी है ? उसने कहा - हाँ | इतने में बगल में खड़ी एक बूढ़ी औरत ने कहा - मेरी भी उम्र सोलह साल हो गयी है , मुझे भी लेते चलिए | अब मैंने इनकार कर दिया | तुम लिफ्ट लेने के लिए अपनी उम्र सोलह साल बता रही हो , जब कि तुम हो नहीं | बाल सफ़ेद रंग में रंग लेने से कोई बूढ़ा नहीं हो जाता | अब यह भी एक फैशन हो गया है / हो जायगा |

* [ मुख्य मंत्री कहाँ कहाँ जाएँ ?]
यह एक प्रश्न चौथे खम्बे की और से उठा था , जब हर पीड़ित / पीडिता मुख्य मंत्री को उसके घर आने की मांग कर रहे थे | उनकी वे जानें | लेकिन मैं यह जानता हूँ की यदि मैं उनकी जगह दुर्भाग्य वश होऊँ तो मेरे अनुमान से मेरी यह जिद होती कि कोई राजनीतिक नेता घडियाली आंसू बहाने मेरे घर न आये, उनसे सहानुभूति लेने मैं घर से बहर नहीं निकलता , और कोई धनराशि लेते हुए मेरी शर्त होती कि कोई तस्वीर न खींची जाय जिसका दुरूपयोग वे अपनी राजनीति के लिए करें [

* [ अन्यथा सुयोग्य पुलिस ?]
जब कोई पत्रकार , सामाजिक कार्यकर्त्ता या लेखक विद्वान् भारतीय पुलिस की आलोचना - निंदा करते हैं तो मुझे उनपर अत्यंत क्रोध आता है | मन होता है की उन पर अभी वज्र पात कर दें | क्योंकि उनका यह कथन मानवीय गरिमा के विरुद्ध होता है | तआज्जुब होता है जब आलोचकों में मानवाधिकार कार्य करता भी होते हैं |
जब आप एक बार जान गए पुलिस की क्षमता , बार बार आपने आजमा भी लिया तो फिर उस एक्यों चिढ़ाते हैं ? उसे दोष देकर , उसकी कमियों कमजोरियों के लिए उसे अपमानित करना किस लोक तांत्रिक व्यवहार में आता है ? उदहारण के लिए अब तो शारीरिक रूप से अक्षम - अपंग, लूले लंगड़ों अंधों को भी विकलांग तक कहना अमानवीय / असभ्य करार दे दिया गया है | अब उन्हें Differently Able  कहने का प्रचलन है | इसी प्रकार हमारी पुलिस भी अन्यथा सुयोग्य तो है ही | उसने अपनी अन्य प्रकार की कुशलता बार बार सड़कों पर प्रकट भी की है | तो कृपया उसे अपमानित न करके उसके साथ आदर से पेश आयें |

* कोई चाहे वोट दे या न दे |
यह बात कहीं से आई है | किसी ने कहा की इन लोगों ने एक वोट नहीं दिया और अपेक्षाएं तमाम कर रहे हैं | जी हाँ जिसने सत्तारूढ़ दल को मत दिया है या नहीं, या वोट डालने गए ही म हों वे भी हक़दार हैं सरकार से उम्मीदें रखने के और आलोचना करने के | और उम्मीदें तो जागते हैं राजनीतिक दल संभव - असंभव वायदे करके | फिर उनसे पूछा क्यों नहीं जायगा ?

* मेरा कहना मात्र यह है कि हर प्यार या प्रेम सेक्स जनित ही होता है | इसलिए यदि सेक्स को घृणित मानते हो तो प्यार से भी उतनी दूरी बना कर रहो | लेकिन यदि प्रेम को पवित्र मानते हो तो सेक्स को भी उसका देय उचित सम्मान दो | मैं कोई बात थोप नहीं रहा हूँ | आप जो भी मानें तो उसे ईमानदारी से मानो | और इस विचार को मैं प्रत्येक प्रकार से , सिद्धांत में और उदाहरणों द्वारा सिद्ध करने का आजीवन प्रयास करता रहूँगा | जिसे फिल्मों और झूठे प्रेम आख्यानों ने रगड़ रगड़ कर मनुष्य को भ्रमित कर मन्त्र मुग्ध किया हुआ है | और पीढ़ी अनावश्यक इसके पीछे अपनी जान दे रही है | जैसे ईश्वर नहीं , वैसे प्रेम नहीं | सब जींस और मानव मन का खेल है |


* [ पार्क में प्यार ]
* पार्क में युवक - युवती कुछ कर रहे होते हैं | पूछा जाय तो कोई भी यही कहेगा "परस्पर प्यार " कर रहे हैं , जबकि वह काम क्रीडा का ही एक अंश , प्रारंभिक या प्राथमिक, होता है | तो यही है प्रेम और सेक्स में भेद ? अर्थात इनमे है पूर्ण अभेद |


* इसके लिए कोई मोटा तगड़ा धर्म बनाना पड़ेगा , इस्लाम से भी ज्यादा कट्टर और कठोर | इसे लागू करने के लिए भी बलशाली पुलिस की आवश्यकता होगी | वर्तमान में इस हेतु समाजवादी पार्टी से अधिक योग्य तो कोई दिखता नहीं |

* जब तक मानव मात्र रहेगा ,
तब तक यह मनुवाद रहेगा |

शुक्रवार, 15 मार्च 2013

अल्ला देख रहा है

* अल्ला देख रहा है
कोई देखे या न देखे अल्ला देख रहा है | बहुत से धार्मिक, सांप्रदायिक, राजनीतिक संस्थाएं और संगठन तमाम ऐसे काम कर रहे हैं, उन्हें मैं यह तो कहने का सहस नहीं करूँगा कि वे राष्ट्र हित में नहीं हैं, लेकिन वे सामान्य जनता को समझ और पसंद नहीं आते | ज़ाहिर है वे अपने कर्मों पर लीपा पोती करके उनका औचित्य सिद्ध करते हैं | मैं उनसे यह कहना/बताना  चाहता हूँ कि जनता भले आपके खिलाफ कुछ कह / बोल नहीं पा रही है लेकिन जान लीजिये कि वह बड़े ध्यान से आप लोगों को देख रही है और अपना मन कुछ बना रही है चुपचाप , जो समय पर , यदि उसे मिला तो , ज़ाहिर होगा | इतना मूर्ख न समझिये हमें कि आप झूठी साफ़ सफाई दें और हम मानते जाएँ | इनके अतिरिक्त इनके समर्थक एन जी ओ संगठनों और अग्रजन व्यक्तियों से निवेदन है कि इस देश में वैसे ही ३३ करोड़ देवता हैं , और उनसे देश कम परेशान नहीं है | अब आप लोग भी देवता और भगवान् बनकर इनकी संख्या में वृद्धि न करें | आदमी बने रहिये और साधारण आदमी की तरह ही सोचिये और उसका साथ दीजिये | समय देख कर रंग और राजनीति बदलियेगा तो अभी कुछ पैसा कौड़ी और ख्याति मिल जा रही है , अंततः आपको इतिहास की धूल चाटनी पड़ेगी |    [ अस्पष्ट Ambiguous बयान ]

Absolute Nonsense


* धोखा है , सब फरेब है इस युग के प्यार में ,
बरबाद एक पल भी न कर इंतज़ार में |

Nagrik Blog 15 March 2013


* पूर्ण अथवा उन्नत विचारक वह है जो अपने 'आमद ' विचारों के खिलाफ भी सोच सकता हो |

* " बहन की शादी करनी है " कहते तो हैं लोग | लेकिन वास्तव में उन्हें बहन के हिस्से की संपत्ति खरीदने के लिए पैसा चाहिए होता है |

* [ संदेह ]
एक इतिहास परक लेख पढ़ रहा था | उसमे था दो विचारकों का जीवन काल | रूसो Roussau [ 1712 - 1778 ] , और वाल्टेयर Voltaire [ 1694 - 1712 ] | अर्थात 1712 में जब वाल्तेयर का निधन हो गया तब रूसो का जन्म हुआ | फिर उनके बीच वह विश्व प्रसिद्द संवाद कब , कैसे हुआ जिनके नाते मूलतः बहुत से लोग इन दोनों विचारकों को जानते हैं - " I do not agree with what you say , but I can lay down my life for your right to say [ मैं आप से सहमत नहीं हूँ, लेकिन मैं आपके ऐसा कहने के अधिकार की रक्षा के लिए अपनी जान भी दे सकता हूँ ] " ? ? ?  

* Democracy has been defined as - " Of the people , for the people and by the people ". इसमें कहीं " On the people " का कोई Clause नहीं है | और यही सारी गड़बड़ियों की जड़ है | इसी से लोकतंत्र , कम से कम अपने देश मे तो , सफल होने का नाम ही नहीं ले रहा है | अतः , जैसे लोकतंत्र के चार पाए माने जाते हैं उसी प्रकार इसकी परिभाषा में भी एक पाया जुड़ना चाहिए | जिसका अर्थ हो कि इस व्यवस्था में जनता '' पर " भी एक दबाव हो इसे चलाने का | ठीक है वह BY the people तो बना लेकिन बनने के बाद वह जनता का राजा [शासक ] हो जाय | इस पर चिंतन की आवश्यकता नहीं है क्या ?

*  उनका आदेश भी क्या गज़ब का उल्टा पुल्टा होता | एक तरफ कहते हैं - " काम " से दूर रहो, तो कभी हमारे लिए एक पूरा विभाग ही खोल देते हैं - " आय 'कर' " | हम क्या करें ?

* हमरे गाँव का हाल चाल ]
ई बात 11 मार्च के रात कै है , हम्मै 12 की सुबह पता चला, जब हम बढ़या में रहेन |  गाँव के राम जियावन अउर पप्पू गए रहे नाच देखे कठौतिया | रातिम मोटर सायकिल से लौटत रहे | तीन जने बैठा रहे | सामने एक ठू कूकुर आई गा | तीनो जने गिरे धड़ाम | सुना है टूट फूट तो नाहीं भा , लेकिन चोट ज्यादा खाइ गए है लोग | हम्मे बस्ती आवेक रहा, भाई के बर्थडे में | तब तक वनके मरहम पट्टी नाहीं भै रहा | बाक़ी तो सब ठीकै है |  

[ असली फेसबुक ]
* मित्रता को मित्रता की तरह रहना चाहिए और विचारकर्ता / वक्तृता को उनकी तरह | हमारे तमाम मित्र हैं जो मुझे जान गए हैं और हम उन्हें | हम कुछ भी लिखते रहते हैं, उनसे विचार तो जो भी लेते देते हैं उससे ज्यादा विचारों का, बातचीत का मज़ा लेते हैं | परस्पर नोक झोंक के बावजूद एक विश्वास, एक प्रेम सम्बन्ध बना रहता है | हम उसे जर - जोरू - ज़मीन का झगड़ा नहीं बनाते | हमारा फेसबुक चलता रहता है | हम असली फेसबुक हैं | दूसरी और कुछ हाउसेज़ में मित्र वाद विवाद में जीत हार को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेते हैं | मानो उन्हें उसके आधार पर 2014 का चुनाव लड़ना है | और इस आशय से वे सदन की कार्यवाही रजिस्टर के पन्ने पर पन्ने रँगते जाते हैं |
   
* तुम्हे पता हो या तुमको न हो कुछ भी मालूम ,
तुम्हारे चाहने वाले बहुत सारे हैं दुनिया में |
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* हिंसा नहीं है
थोडा वाद - विवाद
या हाथापायी |

* शुभ नहीं है
महिला आन्दोलन
में सारा कुछ |

* उसी ने  लिखीं
किताबें, पोथी - पत्री  
तो वही पढ़े |
[हाइकु]

[ कहानी बन सकती है ]
* एक कन्या का पिता वर पक्ष के घर गया | घंटी दबाई | एक व्यक्ति निकला |
--  किससे मिलना है ?
- - मुझे सुरेश से मिलना है | उससे उसकी शादी के बारे में बात करनी है |
--जी बोलिए, मैं सुरेश का पिता हूँ |
-- शादी सुरेश की होनी है और बात आप से , उसके बाप से क्यों करूँ ?
- - तो सुरेश से शादी आप करेंगे क्या ?
- - नहीं , अपनी बेटी के लिए बात करनी है |
- - शादी बेटी की होनी है, तो बात आप क्यों करने आयें है ? जाइये, बेटी को भेजिए |
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* असली पहनावा वही जिसे व्यक्ति अपनी शादी में पहनता है | वही उसके संस्कार का द्योतक होता है | लडकियाँ अपनी शादी में कहाँ जींस टॉप पहनकर दुल्हन बनती हैं ? सवाल पलट कर आधुनिकता वादियों से यह बन सकता है - ऐसा वे क्यों नहीं करतीं कि काम के कपडे पहने पहने ही वे मंडप में आ जायँ ?
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[ यह तो कविता ]
* जब तक नहीं जानता
बोलता जाता हूँ ,
जब जानता हूँ
तब चुप रहता हूँ |
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* [ ATM और सिक्कों का ढेर ]=
* बाल पाठ्य पुस्तक की एक प्रसिद्द कथा है जिसने मुझे बिगाड़ने में कोई कसार नहीं छोड़ी - कि कोई किसान अपने खेत में श्रम कार्य कर रहा था | थोड़ी ही दूरी पर सिक्कों का ढेर लगा था | एक राहगीर ने किसान से पूछा - वहाँ इतना धन पड़ा है उठा क्यों नहीं लेते ? श्रम करके  क्यों पसीना बहते हो ? किसान ने उत्तर दिया - मैं बिना श्रम से प्राप्त धन का उपभोग नहीं करता |
इसी तर्ज़ पर मुझे एक कहानी बनाने की सूझ रही हैं | मजदूर म्हणत कर रहा है और बगल में ATM लगा है | राहगीर पूछता है - ATM से निकाल क्यों नहीं लेते ? मजदूर अपना म्हणत रोकता नहीं | उसके पास ATM card नहीं होता |    

* फिर जीव वादी , फिर वनस्पतिवदि , फिर जलचर - थलचर - नभचरवादी , फिर चराचर वादी , फिर ? फिर , फिर हिंदूवादी ?  जी नहीं, मानववाद की आपकी या किसी की भी समझ इसलिए अपूर्ण है क्योंकि इसे कभी बताया ही नहीं गया / न बताया जाता है | घूम फिर कर बात वहीँ आ जाती है जहाँ आप इसे ले आये हैं | मानववाद के तहत ही आप ' आप ' हैं , जो यह सब सोच रहे हैं, [सोच सकते हैं], जीव - जगत की बात कर रहे हैं | इसे समझने में किसी ईश्वर की ज़रुरत नहीं है | यही मानव वाद है | धर्मों के ईश्वर केन्द्रित होने के बार खिलाफ मानव वाद मनुष्य केन्द्रित है | इसका अर्थ यह नहीं है कि ईश्वर की भाँति मनुष्य पूरी सृष्टि का सर्वे सर्व होने का दावा करता है | कभी कभी धार्मिक विचारकों की यही - किसी अन्य दर्शन को झुठलाने की जिद, कोफ़्त पैदा करती है और तब कहना पड़ता है कि तुम्हारी गीता में ही जो लिखा है - " न हि मानुषात श्रेष्ठतरं हि किंचित " का अर्थ क्या है ?    

* यदि  आप  मुझे  अपना गुरू बना लें तब तो मैं आप को कुछ बताऊँ, वरना वैसे बोलने से क्या फायदा ?

* हाँ , हमें नास्तिकता का प्रचार शालीनता से करना चाहिए | तभी  यह ग्राह्य और प्रभावी भी होगी | और यह भी कोई हमारी बपौती नहीं है | थोड़ी विवेक बुद्धि , थोड़ी वैज्ञानिकता ! और है क्या नास्तिकता ? उस आस्तिकता के बरक्स जो आँखे बंद करने को कहती है |

* संघियों की बड़ी आलोचना हो रही है, और फूहड़ भी हो रही है | लेकिन खुदा न ख्वास्ता यदि इनके कुप्रयासों से  कहीं भारत में हिन्दू राज्य की स्थापना हो गयी, तो यही लोग कटोरा लेकर सबसे आगे खड़े होंगे - कि 'सबसे बड़का हिन्दू तो हमहीं हन ' |

[ गलत  आरोप ]
* महोदय ! मेरे ऊपर यह आरोप गलत है कि मैं उस औरत के साथ सोया |  वस्तुतः, मैं पूरे समय जागृत अवस्था में था |
-- उग्रनाथ [उर्वर दिमाग]

* भारत के मुसलमान वाकयी देशद्रोही नहीं हैं| लेकिन पाकिस्तान के हिन्दू तो अवश्य ही देशद्रोही रहे होंगे   | तभी तो पाकिस्तान से भाग जाने के लिए मजबूर किये गए ? बंगला देश में भी ऐसा हुआ होगा, और ऐसा ही हुआ होगा कश्मीर में | शायद इसी से सबक लेकर भारत सरकार आदिवासी क्षेत्रों से देशभक्त नक्सलवादियों को बाहर नहीं खदेड़ रही है !

* दुनिया को बनाने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है | हाँ , वाक्य बनाना ज़रूर अच्छा लगता है |

* बेशक प्रिय संपादक बिलकुल खुला मंच है किन्तु मैं इस विवाद में शामिल नहीं हूँ, जान बूझकर | लेकिन यह मानने का कारण साफ़ है की सत्येन्द्र यादव जी अशिष्ट भाषा का इस्तेमाल करते हैं | जिस स्टेज पर उन्होंने उज्जवल जी को " पशु " कहा वह निहायत आपत्तिजनक है | " यूरोप में चरने वाले पशु / यूरोपियन नस्ल के पशु " निश्चय ही असभ्यता के शब्द थे | उज्जवल जी यही के हैं | क्या कोई कहीं बाहर न जाए ? या किसी विदेशी को क्या आप जानवर कहेंगे ? केवल आप ही एक मनुष्य हैं | लेकिन इसमें गलती मैं निजी तौर पर उज्जवल समूह की भी देता हूँ कि वे जातिप्रथा अउर उसके प्रभाव को अब भी स्वीकार नहीं करेंगे , नहीं मानेंगे जब की सब कुछ अपनी आँखों के सामने देख रहे हैं | हिन्दुस्तान में थोडा इस पुराणी स्थापना को मान लेना चाहिए न की केवल " आप की शिक्षा और आप का परिवेश " भर | Ranjay त्रिपाठी का भी कुछ ऐसा ही अनुभव है | बहरहाल मेरा परिवेश इसे सहन नहीं करता यदि बोलने वाला तमीज से बात न करे, भले वह कितनी ही असहमति का हो | यादव जी न आयु का लिहाज़ करते हैं, न जुबान का, न सम्मान का | तथापि प्रिय संपादक किसी को समूह से बाहर नहीं निकालता | लेकिन व्यक्तिगत रूप से तो मैं [एडमिन] अपने आप को एकमात्र तर्कसम्मत, सही और  ज्ञानी समझने वाले महान सत्येन्द्र यादव जी को unfriend करने के बारे में तो सोच ही सकता हूँ ?  

* * मेरे विचार में एक दिमाग आया है "
फिर लिखूँगा | कि इस नाम से एक विचार संकलन छपवाऊं तो कैसा रहेगा ?

सोमवार, 11 मार्च 2013

Nagrik Blog 11 March 2013


" PER CHANCE ", there is a God .

* ईश्वर के शरीर पर लगे फफूँद के सामान है मानव जाति | अनायास उत्पन्न |

* बड़े लोगों के शगल से छोटे लोगों की ज़िन्दगी नहीं चलती | यह सहजीवन - - , स्लट वाक ? ?

* बिना " हिन्दू - मुस्लिम " समीकरण बनाये कोई राजनीति पूरी कहाँ होती है ?

* आस्था - इन्सानियत पर ,
अनास्था - हैवानियत पर ,
अब इस बीच में ईश्वर कहाँ से कूद पड़ा ?

* मेरा राशिफल -
मैं एक अखबार रोज़ पढ़ता हूँ | मैं कोई मामूली आदमी तो हूँ नहीं , इसलिए मामूली अखबार नहीं देश का एक महान अखबार ' दैनिक हिन्दुस्तान ' पढ़ता हूँ | और उसमे मज़े के लिए दैनिक राशिफल भी पढ़ता हूँ | जन्म 9 सितम्बर (1946 ) के अनुसार कन्या राशि का भविष्य | उसमे हर दो एक दिन अतर कर लिखा होता है - " धर्म के प्रति आस्था बढ़ेगी " | मानो टेप की तरह कम्पोज़ किया रखा हुआ है और उसे ही घुमा फिर कर दाल दिया जाता है | मेरे ऊपर यह भविष्यवाणी भी उल्टी लगती है लेकिन मैं उसे अपने लिए सीधी कर लेता हूँ | अब इतने बड़े समाचार पत्र के इतने ज्ञानी ज्योतिषी का कथन असत्य तो हो नहीं सकता | इसलिए मैं स्वीकार कर लेता हूँ की धर्म के प्रति मेरी आस्था बढ़ रही है , और जैसे जैसे बढ़ती जाती है वैसे वैसे मैं नास्तिकता के प्रचार में संलग्न होता जाता हूँ | आमीन |

* " वास्तविक ''
होना चाहिए,हमें
'' नास्तिक ''
होना चाहिए | "

(उग्रनाथ 'श्रीवास्तव' "नागरिक ")

[कविता ]
* मेरी दृष्टि
इतनी विशाल थी
कि नहीं डाल सका
सुई में तागा |
# #

[ कविता ?]
* अब गिरी कि तब गिरी
वह मेरी झोली में गिरी ,
वह देखो, कुछ ही क्षणों में
मेरी गोद में आ गिरेगी "
यही सोचते, ताकते, निहारते
प्रतीक्षा करते जिंदगी बीती
यह, न वह, न कोई, मेरे लिए गिरी |
इससे तो अच्छा था, मैं ही
उनके पास चला गया होता ,
उनके पाँव गिर गया होता !
# #

* सपने पहले , नींद बाद में आई ;
नींद से पहले याद तुम्हारी आई |

* ज़माना यूँ तो बदलेगा, नहीं तो यूँ, नहीं तो यूँ |
ज़माना क्यूँ न बदलेगा, भला यह क्यूँ, भला तो क्यूँ ??

* देख रहा हूँ कि जब से वायरलेस और इन्टरनेट का प्रयोग - प्रचलन बढ़ा है तब से धर्मान्धों के पौ बारह हो गए हैं | उन्हें लगता है वे अदृश्य वैज्ञानिक शक्तियों की तरह ईश्वर के अस्तित्व को भी अब कि तब सिद्ध कर ले गए और नास्तिकों के खिलाफ विजयी हो गए | उनके लेखे उन शक्तियों के बारे में वैज्ञानिकों से पहले उन्हें ज्ञान था जो ईश्वर के रूप में अवतरित हुआ, और यह वैज्ञानिकों की हठधर्मी है जो वह अभी भी ईश्वर के अस्तित्व और उसकी असीम शक्तियों को स्वीकार नहीं कर रहा है, वैज्ञानिकों से ज्यादा वैज्ञानिक तो उनके धर्म है | वैज्ञानिक तो निरा अज्ञानी हैं |

* मैं राजा भैया की शक्ति, उनके मान - सम्मान से इतना प्रभावित हुआ हूँ कि हमने तय किया है कि अपने एक वर्षीय पौत्र चि. दिनमान श्रीवास्तव का घर का पुकारू नाम हूबहू, यथावत राजा भैया तो नहीं लेकिन राजा बाबू रख दूँ | संभव है यह नाम उसके और प्रकारांतर से हमारे परिवार के राजनीतिक भविष्य के लिए फलदायी साबित हो | बात ठीक है न भाई साहेबान ?

* शिव रात्रि की पृष्ठ कथा क्या है ? कोई कहता है इस दिन शिव जी का विवाह हुआ था | कोई कहता है इस दिन उन्होंने विष / गरल पिया था | कोई कहता है- दोनों एक ही बात है |

* सरकारी नौकरी ही जब खैरात हो गयी है , तो फिर सरकारी कर्मचारी काम क्यों करेंगे ? क्या आप समझते हैं परवीन और उनके रिश्तेदार काम करने के लिए नौकरी ले रहे हैं ? जी नहीं , आजीवन मुआवजा लेने के लिए | तिस पर एना - अरविन्द Citizens ' Charter लाने, लागू करने के लिए सर्कार को घेर रहे हैं | इसी लिए मैं इनके आंदोलनों को वाहियात आन्दोलन कहता हूँ | क्योंकि ये आन्दोलन द्वारा अराजकता तो फैलाना जानते हैं पर इन्हें समाज और सरकारी तंत्र की कोई समझ नहीं है, न कोई रचनात्मक - सकारात्मक दृष्टि | वरना इन्होने मेरी तरह सर्कार को यह सलाह देने का प्रयास अवश्य किया होता कि इतना मुआवजा दे दो पर सरकारी नौकरी न दो | उसे योग्य और कर्मनिष्ठ लोगो को सौंपो, तब सही काम होगा |

* कलाकार , जो अपनी कला का पूरा पैसा वसूल करते हैं, जनता का प्यार और सम्मान, जगत में लोकप्रियता भी हासिल करते हैं | फिर ऊपर से पद्म भूषण, विभूषण,श्री , यहाँ तक कि भारत रत्न कि भी माँग क्यों करते हैं ? सरकार दे तो दे पर वे इसके लिए जोर , सोर्स सिफारिश क्यों करवाते हैं ? कभी क्रिकेट वाले , तो कभी फिल्म / संगीत वाले | इस प्रकार वे अपनी अयोग्यता सिद्ध करते हैं | ये मानद पुरस्कार / सम्मान उन्हें दिया जाना चाहिए जिन्होंने कुछ प्राप्त करने के लिए हाथ पैर नहीं मारा, अपने लिए कुछ नहीं किया | केवल कला के होकर एक वंचित ज़िन्दगी बिताई | और ऐसे लोगों कि खोज खुद सरकार को करनी चाहिए | जो कहे मुझे सम्मान दो , उन्हें सम्मान से वंचित कर दिया जाना चाहिए | इन लोगों की, मसलन शबाना / जावेद वगैरह की राज्य सभा की सदस्यता क्या कुछ कम कीमती है जो ये इतना पैसा प् लेने के बाद भी कापीराइट माँग रहे हैं | और मज़ा यह कि ये [संपत्ति विरोधी] कम्युनिस्टों द्वारा ''प्रगतिशील'' का खिताब भी हासिल करते हैं !  

* अगरचे सन्दर्भ मेरी पकड़ में नहीं है , फिर भी = " अतिथियों का आदरपूर्ण स्थान 'अतिथि गृह' है या घर में गेस्ट रूम " | गृह स्वामी के बेडरूम में घुसना उन्हें शोभा नहीं देता , न यह अतिथि सत्कार के लिए आवश्यक ही |

* कुछ मित्र मनुस्मृति की "बुरी " बातों को ढाँपने के लिए उसकी अच्छी बातों का उद्धरण देते हैं | लेकिन मैं तो उसकी बुरी बातों का भी प्रशंसक हूँ | उनकी अप्रिय सच्चाईयाँ बार बार सत्य सिद्ध होते देखकर हैरान होता हूँ | तब समझ में आता है कि वह व्यवस्था थी जब गैर बराबरी थी | वही व्यवस्था है क्योंकि गैर बराबरी है | और तब मैं चाहे मायावती के साथी भी उनकी आलोचना करें, मैं उनके साथ रहता हूँ | क्योंकि वह एक स्वाभाविक और ज़रूरी आचरण करती हैं | ऐसा उन्हें करना ही पड़ेगा, ऐसा करना ही चाहिए यदि राज्य करना है तो [ बस कंधे बदलकर ] | मैं मुंडा के व्यवहार पर,उन कंपनियों पर जो बारह-चौदह घंटे काम लेकर युवकों को अपने फायदे का अति लघु अंश देने पर भी नहीं खीजता | पर अचंभित तो होता हूँ मनु के कथनों की प्रासंगिकता न कहें तो उसकी सत्यता, व्यवहारपरकता पर, और वह भी इस युग में ? आश्चर्य इस पर भी होता है कि किस प्रकार नितांत असफल मार्क्सवाद को सही ठहराने में तो हम एँड़ी चोटी एक कर देते हैं और नितांत सर्वत्र सफलीभूत ब्राह्मणवाद को नकारने का दंभ भरते हैं ? हाँ, ब्रिटेन - अमरीका के व्यवहार को ब्राह्मणवादी के बजाय साम्राज्यवादी- सामंतवादी कहकर ही संतुष्ट हो लेते हैं | दोनों में, या सबमें कितना साम्य है, इसे नज़रअंदाज़ करते हैं | पढ़े लिखे तो खूब हैं हम, पर उस ज्ञान को हम यथार्थतः, वस्तुगत मानस में जीते नहीं | बराबरी-बराबरी एकतरफा चिल्लाये जा रहे हैं, और वह हमारे आस पास, अरीब करीब कहीं है नहीं | क्या कोई उद्भट विद्वान् / आचार्य यह मान लेगा कि उग्रनाथ भी उनके समान ही विद्वान एवं अनन्तर बराबर इंसान हैं ? फिर आयें बाएँ न खेलें तो बराबरी कहाँ है ? और गैर बराबरी जितनी भी मात्रा में है, उसमे हम क्या जी नहीं रहे हैं | तो इसी गैरबराबरी को जीने के दर्शन का नाम ही तो मनुवाद है , जिससे कोई मुक्त नहीं, कहने को कोई कुछ भी कह ले , दावा ठोंक ले | यह मानवीव स्वभाव का दर्पण - दर्शन और प्रत्येक व्यवस्था की नियति -विसंगति है | वरना वे समाज इससे ग्रस्त क्यों हैं जिनके पास मनुस्मृति नहीं, बड़े महान समानता का दर्शन है ? कोई बताये ? मुख से / पैर से पैदा होने की बात तो बस बात को कहने का ढंग भर है | उसी प्रकार जैसे कर्ण का कान से पैदा होना, या कानों के मैल से शुम्भ निशुम्भ दानवों का उत्पन्न होना | उससे क्या होता है ? दरअसल मुददआ तो दूसरा है | असल बात समता - विषमता / भेद विभेद / नाना प्रकार की सृष्टिगत उत्पत्तियों पर बात को टिकाईए | तब न पता चले हम स्वयं कितने पानी में हैं ? हम तो मानते हैं कि गलत है वह सब | लेकिन वह सब इतना सत्य क्यों है ? # #
[ मैं किसी अन्य ग्रुप में अपने पोस्ट इसीलिये नहीं डालता क्योंकि देख रहा हूँ हर जगह अपमानित / निष्कासित होने का भय है | स्वाभाविक है क्योंकि मैं स्वच्छंद लिखता हूँ, मैं अपनी कोई साख बनाने के लिए नहीं लिखता | सो , त्रुटिपूर्ण-उटपटांग भी लिख सकता हूँ | लिख कर सनद करता हूँ ताकि वक्त पर काम आवे | एक पागल आदमी इस तरह का भी था ] |        

* खंडित (आधे ) नेकर से अखण्ड (पूरा ) भारत का सपना कैसे पूरा होगा ?

* सारे अस्त्र - शस्त्र, अणु- परमाणु बम ढीले पड़ जाते हैं, बच्चों की तोतली बोली के आगे |
( बाल सखा समूह )


* मम्मी :-
सोना बहुत ज़रूरी है ,
चाँदी बहुत ज़रूरी है |
बेटा, यह मजबूरी है ||

बेटा :-
सोता हूँ तो सोना हूँ ,
मेरा मन ही चाँदी है |
मम्मी क्या मजबूरी है ?    
[Baal Sakha samuh]

[ Haiku ]
* असली नाम
इनका या उनका
क्या है, क्या पता ?

* दशा ख़राब
हमसे भी ज्यादा है
उन लोगों की |

* चोरी चमारी
औरों का पता नहीं
भारतव्यापी |

* किसी पर भी
न तो ज्यादा भरोसा
न ज्यादा शक |

* मौक़ा मिले तो
पानी पी ही लीजिये
छोड़िये नहीं |


* इधर एक चुटकुला सुना | सुनाने वाले के अनुसार यह काफी पुराना है | : --
किसी ने कहा - आवाज़ दो हम एक है |
दुसरे ने कहा - तो एक ही तो हो | दूसरा कहाँ है ?

* [मिसरा ]
शेरनी को शेर लिखता हूँ |
आजमर अजमेर लिखता हूँ ||
कुबेर / उलटफेर / दिलेर / सवेर / बटेर

* ज़रा याद करो कुर्बानी - - By Ugra Nath (उर्वर दिमाग)
कुर्बानियां याद रखनी बहुत ज़रूरी हैं, मै इससे सहमत हूँ | लेकिन इस बात से मैं सहमत नहीं कि कुबनियाँ शहीद भगत सिंह और गाँधी जी जैसों ने दीं, जिन्हें याद करना हमारा कर्तव्य बनता है | मेरे ख्याल से उनकी कुर्बानियां बहुत छोटी थीं और संकुचित | पृथ्वी के किसी भूभाग की आज़ादी के लिए जान गवाँना, एक रंग के मनुष्यों से राज्य लेकर दूसरे रंग के मनुष्यों को देना , बस ! इससे मनुष्यता का क्या कल्याण हो गया ? मुझे गलत समझा जाना बहुत स्वाभाविक है यदि मैं कहूँ कि चाहे झाँसी कि रानी हों या बेगम हजरत महल, सबने एक स्वार्थ [भले कुछ व्यापक हित निहित] की ही लडाई लड़ी | इसके विपरीत, या इनके सापेक्ष हम क्यों न सुकरात, ब्रूनो, गैलिलियो, आर्कमिडीज़, कोलम्बस जैसे विचारकों, वैज्ञानिकों, साहसी यात्रियों, और फिर पाईथागोरस, रामानुजम, भास्कराचार्य, आर्यभट्ट सरीखे गणितज्ञों, कर्मयोगियों की , जिनकी सूची अनन्त है, और जिन्होंने मानव सेवा में- मानव सभ्यता के विकास में तिल - तिल कर अपनी ज़िंदगियाँ होम कीं, उनकी भी " ज़रा याद करो कुर्बानी " करें ?
एक साहसिक यात्रा की याद ने यह विचार उत्सर्जित किया | एक समुद्री खोज यात्रा के दौरान जब यात्री बीच में फँसे, और उनका सारी भोजन सामग्री समाप्त हो गयी, तब उन्होंने लाटरी द्वारा अपने साथी को मारकर उसका मांस खाया और अन्ततः अभियान को सफल बनाया | मैं करबद्ध नतमस्तक हूँ उस दधीच/ शरीर दानी अज्ञात साहसिक यात्री के सामने, जिसने मनुष्य की ज्ञान - विज्ञान यात्रा में सहर्ष - स्वेच्छा से अपना प्राण देना स्वीकार किया | मैं आज, जाने क्यों, उसकी क़ुरबानी पर फ़िदा, अभिभूत और रोमांचित हूँ | #
- - उग्रनाथ (उर्वर दिमाग)                          

Universal Knowledge


[ कविता ?]
* मैंने सड़क पर 
झाड़ू लगा दिया है ,
पानी का छिडकाव कर दिया है ;
अपना काम पूरा कर दिया है |
अब उस पर चाहे राष्ट्रपति आयें 
चाहे प्रधान मंत्री , मुख्य मंत्री ,
या चाहे कुत्ते दौड़ें 
मुझसे क्या मतलब ?
[ कर्मनिष्ठा ]
# #

* कुछ छोड़ दें 
तो पा भी लें ज़रूर 
कुछ न कुछ |

* प्रेम संबंध
नाजायज़ संबंध 
माना क्यों जाए ?

* सोचता नहीं 
अपने बारे में मैं 
स्वस्थ रहता |

* चलिए सही 
जबानी जमा खर्च 
कहा तो सही !
[ Haiku]

* सेक्स कहते हुए ज़रा अच्छा नहीं लगता | प्यार इसके लिए शालीन शब्द है | इसलिए ऐसा बोलते हैं |

* कहा करता हूँ , लिखा करता हूँ ;
फ़र्ज़ अपना है अदा करता हूँ |

* वर्तमान लोकतान्त्रिक व्यवस्था में एक तो परिवर्तन फ़ौरन अपेक्षित है | वह यह कि चुनाव के ज़रिये स्थापित हो जाने के बाद नुमाइंदों को शासक बन जाना चाहिए , न कि विभिन्न समुदायों , वोट बैंकों के समक्ष रिरियाते भिखारी | क्योंकि जनता वाकई शासन , अच्छा शासन चाहती है | उसे इस बात से ज्यादा मतलब नहीं होता कि आप कितने लोकतंत्र का दिखावा करते हैं | और मानना होगा कि इस प्रणाली में governance का बहुत नुक्सान हुआ है जो अंततः लोगों का विश्वाश लोकतंत्र पर से ही उठा देगी | तब तो बहुत बड़ा नुक्सान हो जायगा | इसलिए समय रहते लिजलिजे लोकतंत्र को , कम से कम भारत के सन्दर्भ में , बदल कर रीढ़ की मजबूत हड्डी में तब्दील हो जाना चाहिए | अतः एक तो अन्य लोगों का सुझाव है कि राष्ट्रपति प्रणाली लागू हो | दूसरे मेरी बात को किसी प्रकार व्यावहारिक बनाया जाय कि जिस तरह शंटिंग करने के बाद रेल का इंजन अलग हो जाता है और गाडी को दूसरा इंजन ले जाता है , उसी प्रकार चुनी हुई सरकार को एक तरह से कहें तो , तानाशाह हो जाना चाहिए | यह कोई बुरी बात तो नहीं | सर्वहारा की तानाशाही तो बाबा मार्क्स भी कह गए हैं ? 

* कल मैंने स्नान किया था ,
और तुम्हारा ध्यान किया था ;
फिर जो भला बुरा था अपना 
सभी तुम्हारे नाम क्या था |
[#]

* हिंसा यदि व्यक्ति का क़त्ल करती तो शायद हमें इतनी तकलीफ नहीं होती | वह सत्य का क़त्ल करती है |"  
[ उवाच ]

[ मानव प्रेमी ]
* हमने लिखा था - धर्म के स्थान पर मानव लिखो और उसके आगे धर्म भी लिखो | यानी - " मानव धर्म " | पर क्या अब समय नहीं आ गया है, या नहीं तो कब आएगा कि धर्म का नाम ही न लिया जाय ? तो अभी से क्यों न लिखा जाय - धर्म = " मानव प्रेमी " ? प्रेम , आखिर तो हमारा धर्म है ? 

* आप मुझे ब्राह्मण - सम ही त्याज्य समझें , हमें कोई परेशानी नहीं है | लेकिन हम जन्म से जो कुछ भी, जिस भी जाति के थे, उसका परित्याग कर चुके हैं |  

Universal Knowledge :
* ब्रह्मज्ञान, जिसकी बड़ी महिमा गई गयी है, उसे हम सृष्टि - प्रकृति - अंतरिक्ष और ब्रह्माण्ड के ज्ञान के रूप में क्यों परिभाषित नहीं कर सकते ? आज के समय - आधुनिक युग के अनुरूप ? विज्ञानं ही ब्रह्म है, ऐसा क्यों नहीं हो सकता ?   

* यदि आपने आदमी को मारने का कोई औचित्य मन में बना लिया तो फिर आप आदमी को अनुचित भी मारेंगे ही | "
[ उवाच ]

* आप लोगों के वश का काम नहीं है यह ! जातिवाद को तो मैं ख़त्म करूँगा !

* ब्राह्मणवाद का एक दोष तो मैं स्पष्ट पकड़ पा रहा हूँ - कि इसने अच्छे दलित नहीं बनाये |

* असमर्थ :=
मैं यह नहीं समझ पाता कि औरतें बंद बाथ रूम में भी पूरे कपडे - साड़ी ब्लाउज पेटीकोट और वगैरह सहित , पूरी वस्त्रावृता होकर क्यों नहाती , स्नान करती हैं ? कहीं वही कृष्ण - गोपिकाओं वाला पुराना किस्सा, वरुण देवता का भय तो नहीं काम कर रहा है ?   

शनिवार, 9 मार्च 2013

Nagrik Blog 8 March 2013


" कपडा पहनने से नैतिकता नहीं आ जाती | "
[उवाच]

* व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन हो जायगा , वरना मैं कहता - यह चोटी , यह दाढ़ी / यह टीका यह खतना - - ?- - - - ?

* नेतओं की ऐय्याशी जब मँहगी होगी , तब बाज़ार में सामान सस्ते होंगे |

* नियम कानून सबके लिए बराबर है , जब यह स्थैपित होगा तब जाकर जातिप्रथा समाप्त होगी | भाई लोग ब्राह्मणों के पीछे बेकार पड़े हैं | वह तो जनेऊ लटकाए भीख माँग रहा है | असली दबंगई तो कर रहें हैं ठाकुर - यसव - कुर्मी लोग | अभी राज भैया को देख लीजिये | और वैसे भी छोटे शहरों में इनके और इन जैसे नेताओं - धनिकों के मनबढ़ कपूत सारे नियम अपने हाथों में लिए हुए हैं | ये सारे ट्रैफिक कानून तोड़ते हैं , लाइन में लग्न इनके शान के विपरीत होता है | यदि छापेमार - गुरिल्ला जैसी पुलिस इन्हें दुरुस्त कर दे तो जातिवाद की हनक कहाँ रह जायगी ?

नया ईश्वर शब्दों का होगा , वाक्यों - शुभवचनों में पिरोये हुए | O GOD ! , God bless you ! जैसे संबोधनों में वह जीवित रहेगा | इंशाअल्ला हम सफल होंगें , ईश्वर आपकी यात्रा सफल करे, प्रभो आप को शीघ्र स्वस्थ करे जैसी शुभकामनाओं में प्राणवान होगा | और , हँसी की बात है - भगवान आप का भला करे , कहकर ही भीख मांगे जायेंगे | वह मानुषिक करुणा और प्रेम व्यवहार का संवाहक बनकर रहेगा , तभी रह पायेगा | अन्यथा तो वह नीत्शे द्वारा मारा ही जा चुका है | और शंभू नाथ जी तो कह ही रहे हैं की सबसे नया धर्म भी 500 वर्ष पुराना हो चुका है | तो मेरे विचार से नया धर्म पुराने ईश्वरों से विहीन अथवा उपरोक्ततः  शाब्दिक / वाक्यों में संकुलित होगा | उसका उपयोग होगा, किया जायगा मनुष्य के हित में , मनुष्यता के उत्थान में , न कि मनुष्यों के बीच भेद - वैमनस्य फ़ैलाने के | देखिये न , यह उपभोगवाद - उपभोक्तावाद का ज़माना है | फिर इस समय - काल का ईश्वर उससे बाख कैसे सकता है ?
 By God , मैं सच बोल रहा हूँ -  |

* बाँग्ला देश के युद्ध में कूद कर , और फिर तदन्तर उसे खुला छोड़कर भारत ने बहुत बड़ी गलती की |

* इसीलिये मैं और श्रद्धान्शु शेखर कहते हैं Partyless Democracy को बल दो | राजा बाबू लोग जिस भी पार्टी में हों [किसी में हो सकते हैं , आते - जाते रहते हैं ] , वोट मत दो | मानिक सरकार जैसे लोग जिस भी पार्टी में हों या न हों उन्हें वोट दो | लेकिन इसमें एक समस्या दरपेश है | गाँव गिरांव की बात छोडिये , शहर में तो सभासद के लिए खड़े आदमी के बारे में कुछ ज्ञात नहीं होता | तो ऐसे में पहचान का तरीका बदलो | तब जाति देखो | जो दलित [ उसमे भी महिला को वरीयता ] हो , उसे जिताओ | हिन्दुस्तान में और कुछ पता चले न चले , जातॆ तो मालूम ही हो जाती है | और अब दलितों का भारत पर राज्य करने का हक वैसे भी बनता है |

* यह भी तो सोचिये कि कुंडा में पुलिस ने अपने व्यवहार के माध्यम से अपने चारित्रिक वैशिष्ट्य की लाज भी तो रख ली ! उसने दिखा दिया कि वह केवल सामान्य जनता को ही असुरक्षा में नहीं डालती, बल्कि अपने साथी अफसर को भी मौत के मुँह में गुंडों के द्वारा मारे जाने के लिए अकेला छोड़ सकती है |

* यह भला " राजनीतिक कार्यकर्त्ता " क्या चीज होते हैं ? क्या राजनीतिक नेताओं और उनके सिद्धांतों / कार्यक्रमों के गुलाम या मजदूर ? नहीं , मैं तो उनका अर्थ एक  " जाग्र्रूक  नागरिक "  से ही लेता हूँ | फिर तो वे अपनी तरह से राजनीतिक काम करेंगे ही |

[ Slogan]
* " मनु को छोडो , मनुष्य की सोचो "  - - OR
" मनु का चक्कर छोडो , मनुष्य पर ध्यान दो | "  OR
* " मनु का नहीं , मनुष्य का अध्ययन करो | "  OR
" मनु को नहीं , मनुष्य को पढ़ो " |

* जियो तो ऐसे जियो, जैसे मर रहे हो तुम ;
मरो तो ऐसे मरो, जैसे जी रहे हो तुम |

[योजना ]
बाल सखा समूह [ Facebook  Group ]
* बाल साहित्य , बालबुद्धि के मासूम सवाल , पवित्र मुस्कान | Nonsense नहीं , पूर्ण Childlike Sense युक्त समूह | वृद्धावस्था की बदमाशी नहीं , बचपने में झनकते हुए लेखन |

कभी पढ़ी बाल रचनाओं में से कुछ जो याद आयीं =
१ - [ बाल कविता ]
यही देश का हाल रहा तो मुझे राष्ट्रपति बनना होगा |
[रचनाकार - अज्ञात ]
२ - कलम तोड़ दावात उलट स्याही सब तुम्हे पिला दूँगा |"
[रचनाकार - अज्ञात ]
३ - मुझको आता हुआ देखकर चिड़िया क्यों उड़ जाती हैं ? "
[रचनाकार - अज्ञात ]
४ - [ बालिका कवि की रचना ]
ईश्वर ने मनुष्य को बनाया , तो ईश्वर को किसने बनाया ?
[रचनाकार - अज्ञात ]

[ गड़बड़ कविता ]
* जितने भी आशाओं के तारे
भूख प्यास के मारे
लेकिन बेचारे तो नहीं
चमक रहे हैं मनुष्य के
मस्तिष्काकाश में ,
उन्हें तोड़कर फेंक दो
तो मनुष्य का इनके लिए
पागलपन ,
इन्हें पाने की आतुरता
ख़त्म हो जाय ,
और मनुष्य के जीवन में
चैन आ जाय
जिनके लिए यह
मारा मारा फिरता है
सुख - शांति गवांता है |
निराश शून्य के करीब है
यही सत्य है जहाँ
अशांति की हड़बड़ी नहीं है |
# #

[ कविता ? ]
* मैं अपना काम
आपको समझाता हूँ -
मैं सुलझाता नहीं
प्रश्न उलझाता हूँ |
# #

* क्या करे  क्या न करे  ,
आदमी क्या क्या करे ?
कितना जी ले ज़िन्दगी ,
कितनी मौतें रो पड़े ?

* हर दिवस
पर्वतारोहण है
एक प्रोजेक्ट |

* कथन भी हो
कहने का तरीका
भी है साहित्य |

* मँहगी होगी
नेताओं की ऐय्याशी
घटेंगे दाम |

* जान ले लेना
कितना तो आसान
हो गया मित्रो !

* काम न आये
खाए पिए अघाए
लोग किसी के |

* दोस्त बनेंगे
दुश्मन भी बनेंगे
जिंदगी है तो !

* मानव जाति
नकलची बन्दर
यह प्रजाति |

* कुछ भी करो
वादाखिलाफी नहीं
कदापि नहीं |

* कहते तो हैं
जितना कह पाते
ज्यादा क्या कहें !

* अपना सुख
सबका है आदर्श
अपना स्वार्थ |

* अपनी वाली
हाँकते जा रहे हैं
नागरिक जी |

* अब हमने
पाला बदल दिया
पार्टी में गया |

* उम्र के साथ
फर्क तो आएगा ही
हर चीज़ में |

* डूबा ले गया
जलियाँवाला बाग़
ब्रितानियों को |

* ज्यादा तो दोष
बोलने में निहित
कम बोलो न !

* चाहती तो हैं
चिड़ियाँ पिंजरे से
निकल जाना  |

* चल रे यार
उनकी गलियों में
ज़रा घूम लें |

* कुछ बदले
वही बदलाव है
परिवर्तन |

* ले गया मुझे
अज्ञात आकर्षण
खींचता चला |

* बात ज़रा सी
बाक़ी लन्तरानियाँ
उपन्यासों में |

* [ मजबूरी का नाम मार्क्सवादी ]
परेशान होने से कोई फायदा नहीं है | कोई विकल्प है नहीं | जो कुछ थोडा बहुत है वह कम्युनिस्ट पार्टी ही है | बाकी सब बेकार हैं | वाद विवाद पर न जाइये | समाजवाद क्या कोई बुरा शब्द था , पर नहीं चला | मार्क्सवाद मेरे लिए सबसे अधिक जटिल / अपठनीय विषय है | इसलिए मेरे देश में यही चलेगा | यह इस देश की प्राचीन नीति है कि जनता को जो समझ न आये वही यहाँ का शासक | चलिए इसी पार्टी की दरी चादर बिछाई जाय | [ कम्युनिस्ट जन पार्टी = कजपा ]