शनिवार, 28 जून 2014

[ नागरिक पत्रिका ] = 12 अप्रेल 2014 से 28 जून 2014


आज मुझे यह इलहाम हो रहा है कि यदि यह गीतों की तरफ नहीं गया , तो हिंदी साहित्य से कविता गुम ही हो जायगी | इसे कोई पढ़ने, गुनगुनाने, याद रखने वाला नहीं मिलेगा |
दूसरे यह कि कलाओं को आकार देना scientific temper की देन है | और यह जिंदगी है ससुरी, कि पूरी की पूरी ही कला है |
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Withering away of religion with Islam :-
आज कुछ नया ख्याल आया, इस्लाम के परिप्रेक्ष्य में । यद्यपि इस आधार पर इस्लाम की आलोचना होती है । लेकिन मुझे उसमे कुछ शुभ लक्षण दिखे । संक्षेप में मोटे तौर पर उसने यही तो कहा कि मोहम्मद आखिरी पैगम्बर ? इसका अर्थ यह भी तो हुआ की अब धर्म के नाम पर तमाशे और नौटंकी बंद । अब आगे कुछ नहीं होगा , कुछ नहीं होना चाहिये । गौर किया जाय इसने तो धर्म का सिलसिला बंद कर दिया । रोक दिया फालतू धार्मिक विचारों को । क्या यह उसी प्रकार नहीं हुआ जैसे महात्मा मार्क्स का Withering away of state की परिकल्पना थी ? इस्लाम ने इसे भले इस प्रकार नहीं कहा लेकिन किया तो ऐसा ही ! या हम उसके प्रति अपनी समझ को यह आयाम , नया मोड़ तो दे ही सकते हैं ?
मैंने कुरआन पढ़ी ज़रूर है लेकिन मैं उसका अध्येता नहीं हूँ । इस्लाम के आलिम यदि इस कोण से इस्लाम की खोज करे तो असंभव नहीं वे ऐसे निष्कर्ष पर आधिकारिक तौर पर व्याख्या को पहुंचा पायें । फिर धर्मों के समाप्त होने का रास्ता, एक क्लू मिल जायगा ।

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एक ख्याल आ गया और मन कुछ बुझा बुझा सा है । सोचता हूँ क्या अभी ही जमीनों की कीमत एकायक बढ़ गयी । क्या ४० - ५० पहले ज़मीनें इतनी कीमती न थीं ? तब तो गरीबी ज्यादा ही थी आज की तुलना में ! फिर उनमें ज़मीनों को लेकर इतनी लालच क्यों नहीं थी ? ५० से ७० की दशक तक गाँव में ही था । मिडिल स्कूल के पास इतनी ज़मीन थी कि आज के हिसाब से डिग्री कालेज बन जाता । तालाब के किनारे भीठे तमाम खाली रहते जहाँ गाय भैंसें बकरियाँ खुलकर चरतीं । बागों के विस्तृत क्षेत्र थे । गरीब घरों के भी सेहन बड़े होते,पशुओं के लिए चन्नी घारी होती ही थी , सब्जी की क्यारियां थीं ,खुले खलिहान थे , पानी के घोले थे , थोड़ी थोड़ी दूरी पर ताल तलैया थीं । कम से कम इतनी कंजूसी तो नहीं दिखती थी । अब क्या हुआ कि लोग श्मशान भी जोत लेते है ,खलिहान तो गायब हैं , तालाबो के तट भी सिकुड़ गये । कोई ज़मीन नहीं जो ज़रा सी भी फ़ालतू रहने पाए । हुआ क्या है ?
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पकिस्तान जिंदाबाद के नारों से क्या यह नतीजा निकाला जाय कि दोनों देशों में भाई चारा बढ़ रहा है ? हमारे नागरिकों के लिए हिन्दुस्तान - पाकिस्तान में कोई भेद नहीं है | हिन्दुस्तान जिंदाबाद की जगह यदि पाकिस्तान जिन्दाबाद भी कह दिया जाय तो चलेगा | लेकिन तर्क यह है कि इसी पैमाने पर यदि पाकिस्तान जिंदाबाद के बजाय हिन्दुस्तान जिन्दाबाद ही कह दिया जाय तो यह भी तो पाकिस्तान जिंदाबाद तक पहुँच जायगा ?
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किशोर शिक्षा या स्वास्थ्य चेतना :-
जहाँ पर वह खड़े हैं , हर्षवर्द्धन जी बिल्कुल गलत नहीं हैं । दरअसल भ्रम सेक्स शब्द में है जिसका हिंदी अनुवाद नहीं है , जैसे सेक्युलरिज्म का नहीं है । इसलिए विवाद है । सहज आदिम और पशु समाज के लिए भले यह शिक्षा गैरज़रूरी है । लेकिन मानव समाज के लिए तो यह आवश्यक है जैसे अन्य शिक्षाएँ , इतिहास भूगोल विज्ञान विषय । इससे बिदकने जैसी कोई बात नहीं है । परिवार इसकी सही शिक्षा नहीं दे सकते क्योंकि वह स्वयं अशिक्षित हैं । sex education सचमुच विज्ञान सरीखा विषय है । विज्ञान में प्रजनन तंत्र पढ़ाया जाता है कि नहीं ? काम शिक्षा भारतीय परिप्रेक्ष्य में भी कुछ नया नहीं है । स्त्री के तमाम गुणों में काम कला प्रवीणता भी एक कला के रूप में स्थान प्राप्त है भारतीय वांग्मय में । लेकिन यहाँ तो उसकी बात भी नहीं है । किशोरों को अपने शरीर का गोपनीय ज्ञान तो होना ही चाहिए । इससे वह कई विकारों से बचेंगे । विशेषकर लडकियाँ सचेत हो सकती हैं कि किस प्रकार वह पुरुष के मानस को समझ उनकी गलत हरकतों को पहचान सकें और अपने को बचा सकें । और यदि स्वैक्षिक सेक्स रत हों तो आधुनिक जइवन के अनुकूल क्या सावधानियाँ बरतें ।
अलबत्ता इसे प्रौढ़ता की , दुनियादारी की , शिक्षा किशोरों के लिए कहा जाना चाहिए । या फिर स्वास्थ्य चेतना जैसे विषय - अंतर्गत । sex education कहने में ही भोडा लगता है । और यदि शिक्षकों की मानस - योग्यता को ध्यान में रखा जाय तो आशंका निर्मूल नहीं है कि शिक्षिकाएँ तो शायद कम , शिक्षक जन इस विषय को practical करके ' ठीक से 'समझाने लगेंगे ।