शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

नेतागिरी का ड्रेस

अरविन्द  केजरीवाल की मुझे एक बात तो पसंद आई | वह आम आदमी के , हम लोगों जैसे कपडे पहनते हैं | नेतागिरी का ड्रेस या यूनिफार्म नहीं धारण किया |

कहना चाहूँ

* कहना चाहूँ
ईद मुबारक़ भी
शुभ दिवाली !

* अब तैयारी
छोटे युद्ध की नहीं
महाकूच की ।

* मुझसे मिले
वे बड़े होते गए
मैं झुक गया ।

* बैंक बैलेन्स
कोई लूट न ले ,
शून्य रखता ।

* आसन होता
खिलाफत करना
निभाना नहीं ।

* असर नहीं
कोई नाराज़ हुआ
कोई हो खुश ।


* दलित जन
अपनी सोच में तो
बेईमान हैं ।

तब तक मैं विद्वान नहीं

मार्क्सवाद पर जब तक मैं एक घंटा धाराप्रवाह न बोल पाऊँ , तब तक मैं विद्वान नहीं हो सकता |

गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

अंतरजातीय - अंतर्धार्मिक बच्चे

अभी ' मुक्त यौन ' कह दूँ तो युवा भी हमसे उखड़ जायेंगे | इसलिए मैं इसे अंतरजातीय - अंतर्धार्मिक बच्चे पैदा करने का शुभ कर्म कहकर प्रस्तावित करता हूँ | शादी सजातीय हो , किसी से हो , अनमेल हो , कैसी भी हो, किया जाय और उससे निभाया जाय | ऐसा मेरा मानना है | मैं तलाक़ का पक्षधर नहीं हूँ , भले विषम परिस्थितियों के लिए इसे कानून में रहना चाहिए | लकिन ऐसी शादी चलेगी कैसे जब पार्टनर्स को संतोष नहीं मिलेगा ? यह एक प्रश्न है जिसे मैं जनमत के नाते गौड़ करता हूँ | महत्वपूर्ण दूसरा पक्ष है | यदि इसी प्रकार सजातीय , माता पिता द्वारा अरेंज्ड मैरेज होते रहे तो समाज कैसे प्रगति करेगा और आधुनिक होगा ? इसका जवाब है | युवा इसके लिए भाव एवं व्यवहार के स्तर पर तैयार हो जायं कि शादी तो चलिए हमारे हाथ में नहीं है लेकिन संतानोत्पत्ति तो हमारा निजी मामला है ? वह भी परदे के भीतर का ? इसलिए हम यह करेंगे कि बच्चे सजातीय नहीं होने देंगे | ज़ाहिर है यह शादी किये गए पति या पत्नी के माध्यम से संभव नहीं है | अर्थात, विवाहेतर या नियोग सम्बन्ध अपनाएँगे |  हम अंतरजातीय बच्चे पैदा करेंगे | बाहरी दुनिया के परिचय के लिए भले वे बच्चे किसी ख़ास जाति के बताये जाएँ , लेकिन वैज्ञानिक , अनुवांशिक संरचना में तो वे मनुष्य मात्र ही होंगे ? और यदि DNA और JEANS की खुसूसियत ने अपना रंग दिखाया तो वे सच्चे समतावादी , भेदभाव मुक्त अनूठे इंसान निकलेंगे | अभी तो यह अन्दर की बात होगी , फिर धीरे धीरे जब मामले लीक होते जायेंगे तब समाज का पुराना मानस भी विषम [ अंतर जातीय / धार्मिक ] विवाहों को स्वीकार कर लेगा और इसका मार्ग प्रशस्त होगा | तब तो शायद इसकी प्रासंगिकता ही नहीं रह जायगी , और शायद कभी ' विवाह ' संस्था से मुक्ति भी !

आधुनिक राजनीतिक वातावरण

कम्प्यूटर युग है | हर चीज आधुनिक | आधुनिक हो गया है राजनीतिक वातावरण भी | मेरा आशय मीडिया पर इसकी निर्भरता मात्र से नहीं है | आप गौर करें कि इसका चलते आज कितने तो युवा राजनीति के शीर्ष -शिखर पर आ गए हैं | IIT - IIM शिक्षित चिकने चुपड़े छोरे सांसद विधायक बन रहे हैं | मुख्यमंत्री पद पर आसीन हैं | कम्प्यूटर- लैपटॉप वितरित किये जा रहे हैं | आप इससे प्रसन्न हैं क्या ? तो मैं ही शायद  निराशावादी सोच और प्रवृत्ति का हूँ जो इसमें निगेटिव एस्पेक्ट का दर्शन कर रहा हूँ | मेरे ख्याल से यह फेनामेना देहात और शहर , अमीर और गरीब के बीच खायी को और बढ़ाएगी , और वह भी प्रगति और विकास के नाम पर | क्योंकि इन आधुनिक ' युवाओं ' में अन्य चाहे जो गुण हों , इनका जोड़ कहीं भारत की असली भूमि से नहीं है | और भावभूमि से ? सवाल ही नहीं उठता |

लैपटॉप का विन्डोज़ ' करप्ट '


[ व्यक्तिगत ]
करप्शन के खिलाफ बड़ा आन्दोलन चल रहा है , लेकिन मेरे लैपटॉप का विन्डोज़ ' करप्ट ' हो गया उसकी चिंता किसी को नहीं है , न कोई उसे रोक पाया | कैसे मिटेगा भ्रष्टाचार ? अब मैं गाँव जा रह हूँ , कैसे बातें हो पाएंगी मित्रो से ? वे मेरे बिना कैसे रह पाएंगे ? यह दुनिया कैसे चल पायेगी मेरे निर्देश के बगैर ? और तो और , अब तो उसका ' हार्ड डिस्क ' ही ख़राब हो गया | ' निष्ठुर ' नहीं रह गया | कहें कि चलो अच्छा ही हुआ ? तो मित्रो , अलविदा | अब संपर्क तभी बनेगा जब लखनऊ आऊंगा , रहूँगा | अब मैं आपका प्रेम -संपर्क अपनी 'गोद' में लेकर फिर नहीं सकूँगा |

मानव जीवन के दो पहलू


मानव जीवन में मैं इसके दो पहलू देख रहा हूँ | एक है पोलिटिकल अथवा बाह्य व्यवहार और दूसरा आतंरिक या कहें पोलाइट - इकल , आध्यात्मिक | जैसे मैं अपना उदहारण दूँ , क्योंकि मैं अपने अनुभवों से ही अपनी नीतियाँ गढ़ता हूँ मेरे पास कोई किताबों की ताक़त तो है नहीं , | कि राजनीतिक रूप से बाहर बाहर तो मैं जातिवाद के पक्ष में हूँ कि हाँ , इनको आरक्षण मिलना चाहिए , सवर्णों को अपनी जाति घोषित करनी चाहिए जिससे वे आरक्षितों में घुसपैठ न करने पायें , भारत में हिन्दू या नॉन - इस्लामिक राज्य होना चाहिए , चीन पाकिस्तान से हमें सख्त होना चाहिए, इत्यादि | लेकिन अंदर अंदर तो सचमुच यही चाहता हूँ कि जातिवाद समाप्त हो , धार्मिक वैमनस्यता मिटे , देशों के बीच ' नो युद्ध ' समझौता हो |
अब गौर करने कि बात यह है कि क्या यह हमारा दोहरा आचरण नहीं है ? और यदि ऐसा ही है , तो क्या इस अंतर्विरोध के बगैर हम रह सकते हैं, जीवन जी सकते हैं ? अंदर बाहर सब एक हो जाय तो हम बुरे ही हो जायेंगे और हमारे सुधरने कि कोई गुंजाइश न बचेगी | यही है जीवन का द्वंद्व , इसी में से शायद कुछ निकलता है | लेकिन यही तो है छद्म भी | क्या इसी नाते पुराने लोग इस जग को झूठा कहते थे , हमारे इसी मिथ्याचरण के कारण ?

तो सहना पड़ेगा


 * भिन्न होंगे
तो सहना पड़ेगा
भेदभाव भी |

दलित उम्मीदवार

चलिए अब बताता हूँ दलितों को सत्ता हस्तांतरण की ज़रुरत और उसका तरीका | यह सन्देश देश प्रेमियों के लिए है , जिन्हें जातिवादी , ब्राह्मणवादी , संघी , राष्ट्रवादी आदि क्या क्या भी कहा जाता है | लेकिन इसके लिए ईर्ष्या द्वेष घृणा उन्माद से दूर रहने की आवश्यकता है | कारण यह है कि यह सत्य है कि इस वर्ग ने अधिकांश शासन प्रक्रिया में भाग नहीं लिया , या परिस्थितियों वश नहीं ले पाए , किसी पर दोषारोपण न करते हुए भी | इसलिए भी कि यह राजनीति है , और राजनीति में यदि सवर्णों ने ही सही, इन्हें सत्ता में भागीदारी नहीं दी तो भी उस पर अब छाती नहीं पीता जा सकता | उन्हें गालियाँ देकर भड़ास निकालने से कुछ नहीं होगा | राजनीति में यही होता है और दलितों को भी यदि सत्ता लेनी है तो इसी चाणक्य नीति से काम लेना होगा | राजनीति में कोई स्थायी दुश्मन नहीं होता | और जिसे दुश्मन कहा भी जाता है उन्हें भी खुलकर दुश्मन नहीं कहा जाता | हँस कर उनके साथ हाथ मिलाते हुए तस्वीर खिंचाई जाती है | तो , अब दलितों को साम दाम दंड भेद में से साम और भेद से काम लेना होगा | तो, एक तो यही कहना होगा लोकतान्त्रिक तरीके से अपनी माँग औचित्यपूर्ण ढंग से उठानी होगी, कि उन्हें अब भारत की सत्ता मिलनी चाहिए | क्योंकि हिन्दुओं ने पांच हज़ार तो मुसलमानों ने एक हज़ार वर्ष शासन कर लिया | अब उनका नम्बर है | वे शासन अच्छा करेंगे या बुरा , पर उन्हें इस कार्य में सारे भारतवासियों का सहयोग चाहिए , मिलना चाहिए | तब निश्चय ही वे अच्छा कर पाएँगे | यह 'साम' , समझाने का तरीका है | न्याय का तकाजा है | दूसरे, सवर्णों से जो हम एक सवर्ण की हैसियत से कहना चाहते हैं वह यह है कि दलित हमारे भारत मूल के अविभाज्य अंग हैं | वे उत्तेजना में कितनी भी गालियाँ दे रहे हैं , वे हिन्दू ही हैं और हिन्दू संस्कृति के पालक - संरक्षक हैं | उनसे देश को कोई खतरा नहीं हो सकता | ज्यादा से ज्यादा यही तो होगा कि वे राष्ट्र के संसाधनों का ज्यादा हिस्सा ले जायेंगे ? तो ले जायँ | इससे देश की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में सुधार ही आएगा , विषमता में कमी आएगी | तो अच्छा ही होगा , देश का नाम ही होगा | पर यह तो नहीं होगा , जैसा मनमोहन सिंह कहते हैं, कि संसाधनों पर सबसे पहला हक मुसलमानों का है ? जो कि वस्तुतः , दलितों का कहना गलत नहीं है कि, पहला हक उनका है , जनसंख्या के आधार पर भी, और गरीबी के लिहाज़ से भी | तो यह है खतरा दलितों को सत्ता न देने में, और यह है लाभ दलितों को सत्ता सौंपने में | क्योंकि सवर्ण तो अपने स्वार्थ में अंधा है , उसमे देश भक्ति का लोप हो चुका है , वह एकताबद्ध नहीं हो सकता देश हित में | वह, दलितों की भाषा में कहें, तो अपने सामंती घमंड में चूर है | दूसरी तरफ बाह्य शक्तियाँ गिद्धों की तरह नज़र गड़ाये हैं | देखा आपने , अन्य देशों की घटनाओं की प्रतिक्रिया में किस प्रकार भारत देश में आग लगाया जा रहा हैं ? और वे सत्ता के लिए विकल ही नहीं , सचेत और अत्यंत सक्रिय भी हैं | ऐसे में यदि हमारा दलित अंग [ जैसा वे महसूस कर रहे हैं , हालाँकि हम तो जातिवाद मानते नहीं और उसे मिटाना चाहते हैं , फिर भी इसे गरीबी का ही एक मानक मानते हुए , जो कि सच भी है ], यदि सत्ता की माँग कर रहा है तो क्या गलत कर रहा है ? शब्दावली भले तीखी है,तो भी अपने देश के भले के लिए हमें सहिष्णु होना चाहिए | बल्कि इसे तो हमें स्वयं आगे बढ़ कर उन्हें सौंप देना चहिये | क्या हम सवर्ण , भारत के चिर हितैषी , सत्यनिष्ठ , आध्यात्मिक , धर्म का मर्म समझने वाले , जगतगुरु राष्ट्र के निवासी नागरिक भारत का हित किसमे है , इसे पहचानने में चूक जायेंगे ? और इसके लिए अपना कोई निहित हित , यदि हो भी , तो नहीं त्यागेंगे ? सच कहूँ तो यह एक प्रकार की शहादत ही है जो राष्ट्र हमसे माँग रहा है | क्या हम उसे यह नहीं देंगे | फिर तो चेतावनी है - राष्ट्र आपके हाथ से जाने वाला है | यह फिर गुलाम हो जायगा | इसलिए अच्छा है की हम अपने ही गुलाम बन जाएँ , अपनों के ही दो लात सह लें , किन्तु देश तो बचे | एक बिंदु और कथनीय है कि अभी गनीमत है कि अभी जाति व्यवस्था के कारण दलित अपनी पूरी इयत्ता के साथ सशक्त रूप से देश में उभार पर हैं | यही हैं जो देश को बचायेंगे ,विजय दिलाएँगे | अतः इनके हाथ में सत्ता दे देना ही समुचित राजनीतिक रणनीति है | इसके लिए कुछ कष्टकर करना भी नहीं है | केवल हमें यह संकल्प कर लेना है कि किसी भी चुनाव में हम अपना बहुमूल्य वोट किसी भी , केवल दलित उम्मीदवार को ही दें |

बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

हम तुम्हारे ख्याल में हैं


१ - एक भूख प्यास , एक शौक या विलासिता कहिये , जो मैं एक अखबार आने देता हूँ घर पर | वरना क्या मिलता है उसमे ?

२ - अमीनाबाद बाज़ार में हर एक इंच ज़मीन का उपयोग किया जाता है | हिंदुस्तान की मितव्ययिता , किफायतशारी का पोर नमूना | पहले तो दूकान , फिर उसके साज सामान आगे तक बढ़ा लिए गए | फिर सामने की जगह किसी अस्थाई दुकानदार को दे दिया गया | अब उसके भी सामने एक ठेला खड़ा होने की जगह तो है ही | सड़क के दोनों और से ऐसा हो चुका तो ऐसे ठेले वाले भी तो हैं जो रुकते नहीं , चलते रहते हैं | इसे अतिक्रमण तो कहा नहीं जा सकता ! इसके अलावा हैं हाथ में सामान - मेक्सी . टाई आदि बेचने वाले विक्रेता | अब जब इतनी दुकानें हैं तो इन्हें खरीदने वाले खुद तो MBBS मियाँबीवी बच्चों सहित हैं ही , होने ही चाहिए | और उनकी साइकिलें - मोटर साइकिलें भी होंगी | तो हर एक इंच ज़मीन इस्तेमाल करने की दशा यह कि आने जाने वा
लों के लिए बस उतनी ही जगह बचे जिससे वे किसी तरह , थोडा शरीर छीलते हुए निकल सकें | क्या यह कम है ? थोडा धीरे चलना पड़ता है , पर , तेज़ चलेंगे तो दुकानों के सामान कैसे देखेंगे ? सम्हाव है कुछ खरीदने की इच्छा बलवती हो जाय , मेमसाहब किसी दूकान पर ठिठक जाएँ , या बच्चा किसी वस्तु के लिए मचल जाए |

* गावों के लिए न शौचालय चाहिए न खेल के मैदान | वहाँ केवल सड़कें चाहिए जिसका इस्तेमाल इन कार्यों के लिए किया जाता है | और वह मूलतः सड़क तो है ही | एक पंथ तीन काज |

* गीताभ्यास -
हम तुम्हारे ख्याल में हैं ,
तुम हमारा ख्याल रखना |

कस्मै देवाय ?


Haiku Poems

* कस्मै देवाय ?
किसकी पूजा करूँ ?
तस्मै देवाय |

* अगर आता
मुझे मरना तो मैं
जी गया होता |

* दशहरा से
उत्सव का धूम है
दीवाली तक |

* तिस पर भी
बड़ा काम करती  
पत्रकारिता |

* शमा रौशन
हुयी मंत्री के हाथों
मैं बुझ गया |

* नहीं आएगा
प्रतीक्षारत रहो
प्रलय तक |

* इस समय
कोई आएगा तो क्यों
यह तो सोचो !

* व्यापार हावी
हर सम्बन्ध पर
कैसा सम्बन्ध ?

* सिद्धांत सत्य
अनुभव कटु हैं
यही ज़िन्दगी |

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012

कजरीवाली पार्टी

केजरीवाल ने [ कजरीवाली ] पार्टी तो बना ली है , पर अभी भी IAC की NGO वाली भूमिका में ही हैं | अब तो उन्हें चाहिए कि अपने दल में किसी एक व्यक्ति का चेहरा शामिल करके दिखें जो उन्ही के मापदंडों पर ईमानदार हो | अभी तो किरण , प्रशांत , ने किया वह निश्चय ही बेईमानी के दायरे में आता है | और वह कवि जो किसी स्कूल से हिंदी पढ़ाने का वेतन लेता है और दिन रात अन्नान्दोलन में रहता है , वह भी भ्रष्टाचार है | अरविन्द या कवि महोदय ने जिस प्रकार गैर जिम्मेदाराना , कर्त्तव्य विमुखता का परिचय दिया है , वह अक्षम्य है , ईमानदारी का रोड शो चाहे जितने करते रहें | जिस भ्रष्टाचार के खिलाफ ये लड़ रहे हैं वह साफ़ सीधा -सादा भ्रष्टाचार है , जिसे सबलोग भ्रष्टाचार कहते हैं , जैसे घूस , कमीशन लेना | पर इनके भ्रष्टाचार को मैं और दूषित " कुटिल " भ्रष्टाचार की संज्ञा देता हूँ , जिसे जल्दी कोई समझ ही न पाए की यह भी भ्रष्टाचार है |   

दमादम मस्त कलंदर


कोई प्रगतिशील कवि क्या इस विषय पर भी कविता लिख सकता है ? यथा , हे जानवर ! भेंड , बकरा , ऊँट या तुम्बा ! तुम्हे तो कुर्बान होना ही है अल्लाह की राह में - हजरत इब्राहीम के हाथों , बेटे हजरत इस्माइल की जान बचाने की खातिर |  या इसी प्रकार कुछ - - -                                                                    
नहीं , कोई नहीं लिखेगा | यह कोई हिन्दू सीता , शम्बूक , एकलव्य , पन्ना दाई का मामला नहीं है , जिस पर कलम चलाते इनके हाथ नहीं थकते ?

PS - मैं कुछ गानों की सूची बना रहा था , इस प्रश्न के साथ कि क्या ऐसी कविताएँ भी वामपंथी साहित्यकार लिख सकते हैं ?
* दमादममस्त कलंदर / छाप तिलक - -  [ खुसरो ]
* सूली ऊपर सेज पिया की - - - [ मीरा ]
* लगता नहीं है दिल मेरा - - [ ग़ालिब ]
* सरकाय लाओ खटिया / आरा हीले छपरा हीले - -  [ लोक गान ]
   सूची अधूरी है , फिर भी पोस्ट कर रहा हूँ |

नया नज़रिया



तरक्की को चाहिए नया नजरिया,
यथा -
कैसे अखबार बिके ,
कैसे बाज़ार बढ़े ?
बाज़ार में सामान बिके ,
बाज़ार का व्यापर बढ़े ?
कैसे मिले विज्ञापन ?
कैसे इनामी कूपनों द्वारा
पाठकों की जेब कटे ?
चाहे वह जो भी पढ़े ,
चाहे बिलकुल न पढ़े |
कैसे बाज़ार चढ़े ?
तरकी को चाहिए -
नया नज़रिया |

सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

पुरुष दुष्ट, तो दुष्ट औरतें भी

पुरुष दुष्ट होते हैं तो दुष्ट औरतें भी होती हैं | इसी प्रकार सभी दलित अत्याचार के शिकार के नहीं होते , न सभी ब्राह्मण अत्याचारी होते हैं | लेकिन स्त्री और दलित आन्दोलन एक एक पक्ष को लेकर चल रहे हैं और सामान्य , सार्वजनीन चिंता को व्यक्त नहीं करते | क्या किया जा सकता है ? पर हम पाठकों को तो सोचना चाहिए और संतुलित रहना चाहिए |

चीन देश की यात्रा

 अनुमान किया जा सकता है कि जितने सारे लोग ज्ञान प्राप्त करने चीन देश की यात्रा पर गए , वे सब के सब अपना अर्जित एवं पारंपरिक ज्ञान भी , वहीँ छोड़कर स्वयं खाली हाथ लौट आये | तभी टी चीन इतना ज्ञानी है और शेष दुनिया अज्ञानी ? 

मेरी रचनाएँ मेरे ब्लॉग पर

फेस बुक के मित्रो को सूचित करना है की मेरी सारी रचनाएँ मेरे ब्लॉग nagriknavneet.blogspot.com पर सुरक्षित हैं । विभिन्न विषय इन शीर्षकों के अंतर्गत हैं - उवाच संग्रह ,कथा विषय , कवितानुमा , गड़बड़ शैली , घालमेल , जनांदोलन , धर्म - कर्म , पूरा आलेख , बिंदु - योजना , विचार शिला , हाइकु किताब , और - व्यक्तिगत सूचना ।

उनकी मासूमियत


उनके गुस्से से मुझे बिल्कुल डर नहीं लगता ,
उनकी मासूमियत है , मुझे मार डाले है |

स्वान्तःसुखाय


स्वान्तःसुखाय न भी लिखो , तो भी वह स्वान्तःसुखाय हो जाता है |
बहुलांश लेखक कहते हैं कि वे तुलसीदास की तरह स्वान्तःसुखाय लेखन में विश्वास नहीं करते , और वे तो समाज के लिए लिखते हैं , कुछ बदलाव के लिए लिखते हैं | स्वागत है , अभिनन्दन है | लेकिन यदि आपके लेखन को कोई पढ़े ही नहीं , उससे कोई प्रभाव ग्रहण न करे , तो वह तो अपने आप ही आप के लिए तो स्वान्तःसुखाय ही हो गया न ? ऐसा ही होता है मित्र | इसीलिये लोग अपनी पुस्तक को स्वान्तःसुखाय कह देते है , जब कि वह भी सामाजिक परिवर्तन के विचारों से शून्य तो नहीं होता |

संदेह के घेरे में

जो व्यक्ति जातिसूचक उपनाम नहीं लगाता , वह संदेह के घेरे में है ।

[ आरक्षण के इस युग में अपनी जाति छिपाना बेईमानी हो जायगी | आपकी निष्ठां कितनी ही प्रबल हो ,  लोग तो संदेह कर ही सकते हैं ? तो उसका निवारण क्यों न कर दिया जाय ? ]

कहना तो है


* कहना तो है
ज्यादा कुछ तो नहीं
बस थोड़ी सी |

* कहना तो है
ख़ास तो नहीं, पर
है कोई बात

* इतनी प्यास
क्यों है आदमी में जो
बुझती नहीं ?

* कोई तो मन्त्र
तकिया कलाम हो
ज़िंदगी कटे |

* कुछ न कुछ
सबके ही मन में
पक रहा है |

* कुछ भी नहीं
अब इस जग का
अच्छा लगता |

* हम गाफ़िल
कैसे सम्मेल होगा
तुम सतर्क ?

* अंधविश्वास
मत भरो मन में
जन जन के |

* गुज़रती हैं
ऐसी भी ज़िंदगियाँ
चुपचाप सी |

* कहे का शर्म
हम यही करेंगे
कैसी तो हया ?

रविवार, 21 अक्तूबर 2012

ब्राह्मण और वेश्या

* ब्राह्मण और वेश्या दोनों नीच कर्म में लीन हैं , तथाकथित | फिर भी ये व्यवसायरत हैं तो क्यों ? मैं सोचता हूँ - इसका कारण यह है कि दोनों समाज की बड़ी आवश्यकताएँ पूरी करते हैं | ब्राह्मण मन के भ्रम के कर्मकांड संपन्न कराता है , तो वेश्या तन के छद्म को शांत करती है | 

भ्रष्टाचार के रोना

* भ्रष्टाचार के रोना मैं तब से सुन रहा हूँ जब फिल्म बाबी में चंचल ने वह गाना गया कि झोले में पैसा ले जाते हैं और जेब में सामान लाते हैं | तब से मंहगाई तो बढ़ती गयी , मंहगाई का रोना और आन्दोलन भी बढ़ा | पर किसी के जीवन स्तर में कोई कमी नहीं आई | देखिये ब्यूटी पार्लर , आइस क्रीम, चाट , चाय -काफी , मुर्गा मछली , रेडीमेड कपड़ों की दुकानें और बाजारों की भीड़ ! तब से जेवेलरी की दुकानों में भी खूब इजाफा हुआ है | कहाँ है मंहगाई ? यह किसके लिए बढ़ी है ? कुछ असमंजस है , कुछ अविश्वसनीय | 

शुभागमन


HAIKU  POEMS

* सह ले जाऊँ
असहनीय पीड़ा
ऐसी शक्ति दो |

* जब भी आएँ
फोन करके आएँ
उन्होंने कहा |

* आंग्ल संस्कृति
में स्वागत आपका
शुभागमन ।

* दरकिनार
करो दुनिया भर
अपनी करो ।

* देखो सबकी
अपनी राह चलो
सुनो सबकी |

* गुस्से के नाते
कहीं बोलता नहीं
बस सुनता ।

* मूर्खता करो
हद न पार करो
तब तो ठीक ।

*  कथक प्रेमी
साहित्यानुरागी हूँ
गोष्ठी का श्रोता |

* सच तो कोई
औरत या आदमी
बोलता नहीं |

* मेरे कार्यों का
कोई शीर्षक नहीं
काम अनाम |

* युद्ध तो युद्ध
कभी पलायन भी
युद्ध का हिस्सा |


अपने छोटे भाई

उवाच -
* हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई ,
ये तो अपने छोटे भाई ।

* आदिम साम्यवाद से कृत्रिम साम्यवाद तक की कहानी है - मार्क्सवाद ।

आधी आबादी

कविता

* आधी आबादी
बिकने में लगी है ,
आधी ,
बेचने में ।

हाइकु तो अच्छे हैं

* उन्होंने कहा
हाइकु तो अच्छे हैं
मन प्रसन्न ।

* सबका मान
इतर , मेरे लेखे
कोई न ज्ञान ।

* काम चलता
जितने अँधेरे में
उसमें रहो
बिजली न जलाओ
खर्चा बचाओ ।

* पावर ही क्या
हाथ में ले लीजिये
पूरा टावर ।

* कहते रहो
मन बड़ा पापी है
पर है वही ।

* अब बाप हूँ
तो बड़ा तो हूँगा ही
कुछ न कुछ !

* छोड़ तो दिया
ज़माने के ऊपर
हित - अहित
सारा अपना !

* ऊब जाउँगा
शीघ्र इससे भी
मैं जानता हूँ ।

* आकर्षक हैं
सुंदर शरीर है
उनके पास ।

* ख़ुशी का वक्त
यूँ तो न गवाँइए
तर्क द्वंद्व में !

* विवाद कैसा
उनका विचार जो
मिल तो गया !

* कर न पाते
कोशिश तो करते
कर पाने की ।  

* कहते रहें
मन का मामला है
मामला तो है ?

आजीवन कुवाँरे

कविता -

* उनका मन हुआ
तो इनका मन नहीं हुआ ,
इनका मन हुआ
तो उनका मन नहीं हुआ ;
दोनों आजीवन
कुवाँरे रह गए ।
# #

मार्क्सवाद की महानता

 Badmesh - Ravana  , a  राइजिंग :-  On  मार्क्सवाद की महानता ।
कम्युनिज्म को मैं तदर्थ राम के समान सर्वव्यापी , सर्वसमर्थ और हर बात का समाधान - उत्तर मानकर , जैसा कि माना जाता है , मान कर यह लिख रहा हूँ ।
मैं इस बारे में प्रयासरत था , चिंतित होने की हद तक , कि आखिर ऐसा क्या कारण है , क्या बात है  इसमें , जो मार्क्सवाद लगभग सभी पढ़े - लिखे को पागल बनाये हुए है , या नहीं तो इतना प्रभावित किये है कि भले उसका वजूद कहीं नहीं है , भले कोई उसका एक तिनका भी नहीं पालन करता , न संपत्ति छोड़ता है न पत्नी , न समूह में रहने के आवश्यक त्याग करता है , फिर भी इस दर्शन के पीछे , कम से कम सार्वजानिक वोकल रूप से तो दीवाना है ही ? मित्र तो तमाम ऐसे हैं जिनसे जानकारियां मिलती रहती हैं और वे अपना हर काम व्यवस्था परिवर्तन होने तक स्थगित किये हुए हैं [वहाँ व्यक्ति के व्यक्तिगत की कोई गुंजाइश नहीं है] , लेकिन एक मित्र की सलाह पर माओ के पांच निबंधों वाली किताब भी ले आया । एक ही अध्याय के बाद इस नवरात्रि में मेरे भीतर रावण का उदय होने लगा और कुछ सूत्र हाथ आने लगे । 
मुझे अहसास होता है कि यदि हर छोटे बड़े विचार को किसी वाद का नाम दे दिया जाय , और यह कह दिया जाय कि इससे पहले इसे किसी ने नहीं सोचा . नहीं कहा , तो भला किस माई के लाल में साहस है जो उस वाद को नकार दे , या उसे मान न ले ? जैसे यदि मैं कहूँ कि गरीबी अभिशाप है , संपत्ति सारी बुराई  की जड़ , शोषण का माध्यम है , या ज्ञान के लिए आदमी का विनम्र और निर - अहंकारी होना आवश्यक है , या पहले हमारे परदादा हुए फिर दादा फिर पिता जी पैदा हुए फिर उनसे हम जन्मे और हमारे बाद हमारा पुत्र और फिर पोता -पोती पैदा होंगें , तो भला इससे कौन इनकार कर देगा ? और यदि मैं यह सार्वजानिक रूप से ऐलान कर दूँ कि " जीवन एक सतत संघर्ष , एक युद्ध है " तो इसे कौन नहीं मानेगा ? भले मैं कह दूँ कि यह नागरिक द्वंद्व वाद है , [ ठीक उसी प्रकार जैसे कोई वस्तु ऊपर से गिराने पर नीचे धरती की ओर गिरेगी ' को न्यूटन वाद कहा जाय ] तो क्यों नहीं मानेंगे लोग ? लेकिन मैं आप को निराश करना चाहता हूँ । मैं आपको यह कहकर नहीं देने वाला कि  इसके पहले इस बात को किसी ने नहीं कहा। कितने आये कहने वाले , कितने आये सुनने वाले ! जो ऐसा कहते हैं वे बड़े नाम हैं । और विचार एवं साहित्य जगत से परिचित लोग जानते हैं कि वहाँ नाम चलता है । मैं माओ की विनम्रता से ही कहता हूँ कि ये विचार मुझसे पहले कई लोग दे चुके हैं । मेरे विचारों में कुछ भी नया नहीं है । जीवन प्राचीन काल से चल रहा है । किसी ने कुछ कहा हो या नहीं बिना इन्हें जाने तो सभ्यता आगे बढ़ी न होगी ? और यह भी कि विचारों का इतिहास भी अपने आप को दुहराता है । यही चक्र प्रणाली है । इसका आदि भी अंत है और हर अंत एक आदि । इसीलिये मैं विचारधारा के अंत का कभी समर्थक न हुआ , मार्क्सवादी न होते हुए भी । 
लेकिन मार्क्सवाद यही कहता है । वह प्रत्येक ज्ञान को अपने वाद से जोड़ता है और कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं जो इस वाद से अछूता हो । इसलिए यह विशिष्ट है कि  साधारण बात को भी यह इतनी दम ख़म से जटिल बनाकर कहता है कि बुद्धि चकरा जाय । फिर तो अपने को ज्ञानी बताने के लिए मेरे लिए यह कहना  आवश्यक हो जाता है कि हाँ मैंने मार्क्सवाद को समझ लिया है , उसे जान लिया है और मैं मार्क्सवादी हूँ । भला ज्ञान विज्ञानं के क्षेत्र में मैं पीछे रहना अथवा दिखना क्योंकर चाहूँगा ? यह मेरा छद्म है और छद्म के सिवा कुछ नहीं , क्योंकि मैं वस्तुतः कुछ नहीं जानता , मार्क्सवाद तो बहुत ऊँची बात है इसलिए दूर की  । 
या देवी सर्वभूतेषु मार्क्सवाद रूपेण संस्थिता ,
नमस्त्स्ते नमस्त्स्ते नमस्त्स्ते नमो नमः ।

शनिवार, 20 अक्तूबर 2012

धर्मों में दखल


धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा यह बताई जाती है कि धर्म और राज्य अलग रहें | प्रश्न यह है कि धर्म राज्य से कितनी भी दूरी पर रहे एक या सौ पचास मीटर दूर , पर वह है तो अपने पूरे वजूद के साथ , उपस्थित तो है अपने उरूज़ के साथ ? और वह अपना होना जब तब एक दुर्द्धर्ष समस्या  बनकर सिद्ध भी करता रहता है | ऐसी दशा में राज्य उससे निरपेक्ष कैसे रह सकता है | तब क्या उसका अपनी जिम्मेदारियों से मुकरना नहीं होगा ? और यदि उसे धर्म से निस्पृह ही रहना है तो वह क्यों करे मेलों और यात्राओं का प्रबंध और उनकी व्यवस्था ? यह तो स्वीकार नहीं | फिर राज्य जैसी बड़ी संस्था देश और समाज के भीतर चल रहे धर्म के राज्य और समाज विरोधी कर्मों -कुकर्मों से उदासीन कैसे रह सकता है ?
अतः , मेरे विचार से राज्य तो धर्मों में दखल कर ही सकता है / सकना चाहिए सेक्युलरवाद की परिभाषा , सिद्धांत और कर्म में |

जीवन युद्ध


* कम बोलना
हे अर्जुन ! लड़ना
जीवन युद्ध |

अंग्रेजी दवाखाना


Fishing an Idea :-
हिंदी छाँडि अंग्रेज़ी ध्यावो | - अंग्रेजी दवाखाना |
  जिस प्रकार अंग्रेजी दवाखाना होता है | जिसका मतलब होता है - आधुनिक , वैज्ञानिक दवाओं की दूकान  | दूसरी और अन्य देसी यूनानी , आयुर्वेदिक , होमियोपैथिक , और नीम हकीम दवाखाने होते हैं , जिनका आशय होता अवैज्ञानिक और दकियानूस - पारंपरिक आदि | जैसे हर कोई हार थक कर अंततः आधुनिक अंग्रेजी इलाज के ही शरण में जाता है [ रामदेव भी गए थे, सांस्कृतिक अटल जी ने भी घुटनों का इसी प्रकार इलाज कराया ] , उसी प्रकार सारे सड़े गले , पुराने दकियानूसी , पारंपरिक अर्थात हिंदी धर्मों को छोड़कर आधुनिक अंग्रेजी धर्म अपनाने का आइडिया निकाल रहा हूँ | अब धर्मों का वर्गीकरण भी इन्ही दो नामों में कर दिया जाय जिससे इन्हें समझने , संदर्भित करने में सुविधा हो | हिंदी  [ देसी ] धर्मों के अंतर्गत हिन्दू - मुस्लिम - सिख - और कठमुल्ले ईसाई रखे जाएँ | और अंग्रेज़ी धर्म के तहत सेक्युलर , नास्तिक , तर्कशील , प्रगतिशील विचारों को रखा जाय | और हाँ , मार्क्स वाद , लेनिनवाद , माओवाद तो मैं छोड़ ही गया | उन्हें भी अंग्रेज़ी धर्म में रखा जाय |

आदमी बुरा भी है

हम अनीश्वरवादी , मानववादी सदा से ही मनुष्य को सर्वोच्च स्थान देते हैं , देने की वकालत करते हैं | लेकिन मैं इस "मनुष्य" को उलटे कामा में भी रखना चाहता हूँ क्योंकि मनुष्य खालिस मनुष्य नहीं होता | सच है कि वह मूलभूत रूप में मान्य है एक मानव के रूप में | लेकिन अनुभव कुछ विपरीत सन्देश भी देते  हैं | मैंने जब अब्राहम लिंकन का पत्र उनके बेटे के अध्यापक के नाम पढ़ा था तो उस पर आशंका मेरे मन में थी [ तब मैं मानव - प्रेम में अँधा था ] , लेकिन अब लगता है कि लिंकन ने बड़ी अनुभवजन्य बात कही थी | कि दुनिया में सभी आदमी भले ही नहीं होते | आदमी बुरा भी है , और उससे सावधान रहने कि ज़रुरत है |

देवी - देवताओं की इज्ज़त

आदमी को चाहिए कि यदि वह अपने भगवान् और देवी - देवताओं की इज्ज़त सचमुच बचाना चाहते हैं तो उनके नामों पर अपने , अपने बच्चों के नाम न रखायें | क्योंकि इसे स्पष्ट देखा जा सकता है कि लोग जब मनुष्यों को उनके नाम लेकर गाली देते हैं , और देते ही हैं , तो वह प्रकारांतर से ईश्वर और देवी देवता के लिए अपमान स्वरुप हो जाता है | कोई कहता है - ई साले हरामजादे किसनवा / राम लखना / संकरवा / इन्द्र देवुवा का देखो कैसा इठलाता है चोर कहीं का ! तो कोई कहतीं हैं - ई परबतिया तो छोनार निकर गयी | तो क्या होता है परोक्षतः ? अतः सबको सेक्युलर नाम रखने ही श्रेयस्कर है |

दलित शक्ति

जिस शक्ति ने उनको गुलाम बनाया , उनका शोषण किया , अब उसी शक्ति को दलित दूसरों को गुलाम बनाने के लिए अर्जित करना चाहते हैं | न कि किसी शोषण विहीन या प्रगतिशील रचनात्मक समाज बनाने के लिए !

सैफ - करीना की शादी


अब  कुछ बेफ़िज़ूल की भी बात हो जाय |
कल मित्र जी चिंतित थे कि दारुल उलूम ने सैफ - करीना की शादी को अमान्य कर दिया | अब चिल्लाये होत का जब फतवा उड़ा अकास | जब मैं कहता हूँ , और यह अख़बारों की भी भाषा है कि यह ' समुदाय विशेष ' है , तब तो मानते नहीं ! खैर उसे छोडिये क्योंकि उनके तरफदार हर हॉउस , हर ग्रुप में उनकी अपनी कुल जनसँख्या से भी ज्यादा है | फिर भी , इस पर दो तीन बातें उठती हैं | एक तो यह कि यदि अपना भी कोई " दारुल इंसान " जैसा संगठन होता और उसके मौलाना संदीप बाबू होते तो क्या वह आवाज़ न उठाते कि कामन सिविल कोड के तहत यह विवाह जायज़ है | तब तो वह चाहते तो हर सजातीय विवाह पर यह फतवा जारी कर सकते थे कि वह विवाह अवैध है और इनका सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए | ऐसी उनकी आकांक्षा भी यत्र तत्र प्रकट हुई है | लेकिन नहीं , इसी आशय का जब मैंने समूह मनाया 'सेक्युलर नागरिक ' यानि वैकल्पिक धर्म का , तब किसी ने ध्यान नहीं दिया | दर असल मेरे जैसे महान दार्शनिक को कोई तरजीह ही नहीं दे रहा है | लेकिन इसका दोष उन पर नहीं है | अपनी इस अवस्था के लिए मैं स्वयं ज़िम्मेदार हूँ | क्योंकि मैं सौ साल आगे की बात करता हूँ , और ज़ाहिर है सब अपने समय को जी रहे हैं | तो कैसे समझें मेरी बात | उलटे मुझे हतोत्साहित करते हैं | मुझे क्या है , उनकी मौलाना की गद्दी खुद ही छूट जायगी |
दूसरी बात | यदि सैफ - करीना मेरे बदमाश चिंतन का अनुसरण करते तो उन्हें चाहिए था कि वे किसी डमी दूल्हा / दुल्हन से वैध - सामाजिक विवाह करते | सैफ किसी मुस्लिम लडकी से और करीना अपनी जाति के लड़के से | वे तो इतने समृद्ध हैं कि वे तो अपने लिए दूल्हा / दुल्हन खरीद भी सकते थे | किसी को कोई आपत्ति न होती | दारुल उलूम भी मस्त - खुश होता | अब ये बड़े आराम से बिस्तर सम्बन्ध बनाते और अंतर धार्मिक बच्चे पैदा करते | हाथी के दांत दिखाने के और , खाने के और होते | धर्मों को अंगूठा दिखा कर कहते - ले , तू डाल डाल , तो हम पात पात | प्रगति की उपलब्धि यह होती किउनकी संतानें जींस , डी एन ए के अनुसार वस्तुतः तो अंतरजातीय होते | जिस वंश - कुल की शुद्धता का ढिंढोरा पीता जाता है , वह तो विनष्ट होता ! होगा तो अब भी पर चीख पुकार के साथ | फिर ऐसा करने का साहस हर जोड़ा तो कर नहीं सकता | जब कि मेरा फार्मूला सार्वजनिक  है और उसे कोई भी अपना सकता है - चोरी छुपे , लुका छिपे तो राम को भी बाली को मारना पड़ा था , और शिखंडी को समक्ष करके भीष्म को भी मारा गया था |
अब तीसरी बात | थोड़ी गंभीर हो जायगी इसलिए कहने से डरता हूँ | मूर्खता तो नहीं कहूँगा , विडम्बना की हद देखिये धर्मों की | कि करीना यदि कुछ शब्द उच्चारण कर दे तो वह मुसलमान हो जायेगी , भले उसका आचरण  कितना भी गैर इस्लामी हो | और यदि वह कलमा नहीं पढ़ती है तो मुसलमान नहीं हो सकती , भले उसका व्यवहार  कितना भी इस्लामी हो | बस आमीन , अब आगे नहीं बोलूँगा |

साईकिल से उतरती नहीं हैं लडकियाँ


कविता [ अच्छी है ]

* साईकिल से
उतरती नहीं हैं लडकियाँ
रुकना होता है तो
शरीर थोड़ा आगे बढ़ाती हैं
और जमीन पर
पैर टेक देती हैं लडकियाँ ,
अपनी ज़मीन , अपनी मिट्टी ,
अपनी धरती पर
पैर जमा रही हैं लडकियाँ |
# #

पैसे के चूज़े



* एक गलती
हो गई तो हो गई
अब न होगी |

* बेपहचान
जान न पहचान
मैं अनजान |

* उन्हें क्या पता
हँसने का तरीका
स्मित का मूल्य ?

* वहाँ रहूँ तो
यहाँ की चिंता , यहाँ
हूँ तो वहाँ की |

* यह तो हम
नहीं कर सकते
कि जान दे दें !

* सबके लिए
करना ही करना
पाना न कुछ |

* वहीँ पड़ीहै
सड़क कहाँ जाती
मैं चला आया |

* शरीरों पर
कितनी गन्दगी है
रोज़ नहाते ?

* चारो तरफ
विश्वास हनन है
धोखा धड़ी है |

* न यह ठीक
आदमी है , न वह
ठीक मनुष्य |

* चाहिए तो थी
मुझे सुख - सुविधा
मिले तब न !

* पैसे के चूज़े
बोले , हिंदुस्तान में
सवेरा हुआ |

* भारत देश
नक़ल में उस्ताद
असल में फिसड्डी
हमारा देश |

* टाइम पास
नहीं है फेसबुक
किताब मेरी |

* जितना लिखूँ
पूरा ही नहीं होता
कितना लिखूँ ?

* और क्या करें
पूजा तो करती हैं
देश की स्त्रियाँ ?

* मिले जो बड़े
वे छोटे होते गए
मेरी दृष्टि में |

* सभी हारते
अपनी औलादों से
देश भी हारा |

* हम गुज़रे
बहुत दिन बाद
राम गली से |

* शिक्षा का अर्थ
संदेह निवारण
तन - मन के |

* शहर छोड़
चलकर देखें तो
गाँव की दशा !

* कम्युनिस्टों के
संपत्तियों की जाँच
आधार भूत |

* ऐसा ही होगा
हिंदुस्तान है यह
अपना देश |

* हिंदुस्तान है
यहाँ ऐसा ही होगा
सारा अन्याय |

* कौन करता
ज़िम्मेदारी पूर्वक
अपने काम ?


गुरुवार, 18 अक्तूबर 2012

धर्म और विज्ञानं !

धर्म और विज्ञानं ! जैसे आम के तने पर उगा पीपल का पेंड़ |

गरीबी को अपने घर के गड्ढे की तरह पाटो

गरीबी को अपने घर के गड्ढे की तरह पाटो |

Live in Rome as Romans live

गावों के खिलाफ भी एक ज़बरदस्त मुहिम चल रही है | आंबेडकर का इस विषय पर विचार वचन आग में घी का काम कर रहा है | कि गाँव को नष्ट हो जाना चाहिए | गाँव का मजदूर शहर आता है तो वह अपने साथ अपना गाँव भी ले आता है , हरछठ पूजा कि तरह | फिर कैसे नष्ट होंगे गाँव , जिनमे भारत बसता है ? यदि गाँव की सामंतवादी , जातिवादी , ब्राह्मनवादी व्यवस्था के परिप्रेक्ष में देखा जाय तो इससे तो पूरा भारत ही ग्रस्त है , क्या शहर क्या गाँव | फिर तो आंबेडकर वादियों  को पूरा भारत देश ही नष्ट करने का बीड़ा उठाना पड़ेगा | अन्यथा तो उपाय यह है कि लिव इन रोम एज रोमन्स लिव |     

राष्ट्र पिता तय करेंगे या राष्ट्र - पीढ़ियाँ बनायेंगे ?


राष्ट्र पिता तय करेंगे या राष्ट्र - पीढ़ियाँ बनायेंगे  ?
कुछ विद्वान काफी पी पी कर अपने लिए राष्ट्र पिता चुनने में लगे हैं | मानो हर व्यक्ति एक राष्ट्र हो और सबके पिता अलग अलग | गाँधी जी को किसी ने इसलिए यह उपाधि दी और वह इसके पात्र भी थे क्योंकि गाँधी का राष्ट्र सर्व समावेशी था | उसमे सभी वर्गों के लिए स्थान था | फिर उन्हें राष्ट्र पिता मने जाने या न मने जाने से तो कोई राष्ट्र की समस्या तो हल होने जा नहीं रही है | सवाल यह है की पिता , दादा , परदादा , नाना , परनाना चुनने और परिवर्तित करने में लगेंगे या आने वाली पीढ़ियाँ बनाने की सोचेंगे ? एक पुत्र के रूप में हमारा क्या कर्तव्य मानता है ?

बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

Muslims in India need special treatment

Muslims in India need special treatment . अब इसे कोई चाहे तो मनमोहन सिंह के " पहला अधिकार मुसलमानों का " वाले बयान से जोड़े , या चाहे तो सुब्रमण्यम स्वामी के " पुरखे हिन्दू " वाले वक्तव्य से प्रेरणा लें !

सेक्युलर सरकार से मतलब

सेक्युलर सरकार से मतलब होना चाहिए था - धार्मिक मामलों में विशिष सतर्कता | क्योंकि धर्म बहुत ही नाजुक मामला होता है | जैसे खास तौर पर भारत में | लेकिन सरकार तो विभिन्न तरीकों , तरकीबों , उपायों और लापरवाहियों से सांप्रदायिक दुर्भाव की आग में घी डालने का काम करती है |

किताबों में लिखने से

किताबों में लिखने से कुछ नहीं होता , ऐसा लगता है | सत्यं वद , अहिंसा परमो धर्मः आदि तमाम वचन लिखे तो हैं | कौन मानता है उन्हें ? इस्लाम में सम्पूर्ण समता के आलेख हैं पर व्यवहार में विषमता का अंत नहीं | मार्क्स और मार्क्स वादियों ने लिख लिख कर पुस्तकालय पाट दिए | क्या हासिल हुआ ? इसलिए मुझे तो इस पर भी संदेह होता है कि मनुस्मृति में लिख देने मात्र से ब्राह्मणवाद पोषित और फलित हुआ , और मनुष्य दलितावस्था में हुए | भंगी क्या मुसलमानों में नहीं होते ? शायद , समाज अपना नियमन स्वयं अपने तरीके से करता है और उसी का फल होता है सब | इसे मार्क्सवादी विवेचक अच्छी तरह व्याख्यायित कर सकते हैं | बस मुझे यह लगता है कि हम लोग किन्ही एकांगी चिंतन में लगे हैं , और समस्या के मूल में नहीं जा पा रहे हैं |  

कुछ फूल उगाये


कविता :-

* गद्दी [सीट] कभी
खाली न होगी
मूर्खधिराज की |
एक गया तो दूसरा
आता रहेगा |
मूर्खों का '
मूर्खों के लिए
मूर्खों के द्वारा
देश हमारा |
# #

* मैं जी रहा हूँ
एक लम्बी आयु
क्योंकि मैंने
जीवन में
कुछ फूल उगाये ,
कुछ पेंड़ लगाये |
# #

कोई मुझसे पूछ ले न यूँ -
मकड़ियों का घर उजाड़ा क्यूँ ?
इसलिए तोडा न कोई जाल ,
अब न पूछो मैं फँसा हूँ क्यों ?
# #

इंशा अल्लाह


इंशा अल्लाह !
मैं उर्दू इसलिए बोलता हूँ क्योंकि यह संस्कृत का मज़ा देती है | जैसे ' ईश्वर ने चाहा तो ' कहने के बजायकहता हूँ ' इंशा अल्लाह ' | संस्कृत का पैर्प्कार भी मैं इसीलिए हूँ क्योंकि उसमे संक्षिप्तता का गज़ब का गुण है | और ज़ाहिर है संक्षिप्तता , लघुता , थोड़े में ज्यादा बात कहना मेरा प्रिय शगल है |

मूर्खता से मुक्ति कहाँ ?


मनुष्य है तो उसकी मूर्खता से मुक्ति कहाँ ?
मैं खुद भी असहमत हूँ | और असहमति का तरीका भी जानता हूँ | ठीक है आप नारियल नहीं फोड़ेंगे , तो फीता तो काटेंगे ? सरस्वती वंदना नहीं करेंगे , तो दीप प्रज्ज्वलन करेंगे | मृतक संस्कार नहीं करेंगे , पर दो मिनट का मौन तो धारण करेंगे ? सही है कि हम आप दूसरे विकल्प को तरजीह देंगे | लेकिन मैं समझता हूँ कि पाखंड तो है वह भी | इसलिए पहले पाखण्ड से चिलचिलाने के ज़रुरत मुझे नहीं पड़ती | एक साफ़ उदहारण लें | खुशवंत सिंह पूर्णतः सरदार सिख दिखते हैं , लेकिन हैं पूरे नास्तिक , सेकुलर और रेशनलिस्ट | अब यदि वह दाढ़ी - बाल मुद्वाने में लग जाएँ , सिख परंपरा को नकारने में जुट जाएँ , या हम उन्हें इस कमजोरी के लिए अपमानित करने लग जाएँ तो वह सिख संस्कृति का कुछ बिगाड़ तो पाएंगे नहीं , ईश्वर विहीन मनुष्य भी नहीं हो पाएँगे | इसलिए - - - और आगे क्या कहें  ?  

जो भी नर या नारी


* क्यों करते हो
बुद्धिमत्ता की बात
मूर्खता श्रेय |

* प्यार करेंगे
जो भी नर या नारी
शोषित होंगे |

* समझते हैं
अरविन्द की चाल
कुछ तो लोग |

Funding of Religious Pilgrimages- Press Statement by IHU


Funding of Religious Pilgrimages- Press Statement by IHU
      The following Press Statement was issued by the Indian Humanist Union on the 8th September 2012 through United News of India (UNI)

Press Statement by the Indian Humanist Union 
As an organization which has devoted itself to the cause of Secularism and National Integration for more than fifty years, the Indian Humanist Union is deeply disappointed by the decision of certain State governments to provide free religious pilgrimage to people belonging to  various religious denominations at the cost of the State.  It feels strongly that the Central and State governments should work towards the abolition of the existing practices of this nature - such as the funding of Haj pilgrimages - rather than introduce new such schemes. 
The preamble to the Constitution clearly proclaims that the people of India have solemnly resolved to constitute India into a SOVEREIGN SOCIALIST SECULAR DEMOCRATIC REPUBLIC.  Clearly, a Secular State cannot promote religiosity - howsoever even-handed it may try to be - without violating the Secular principle.  To promote religiosity among the people – and that too at the expense of the tax-payer – is not only a violation of the Constitution of India, it also discriminates against the secular citizen.  To that extent it is also a breach of Human Rights 
The Indian Humanist Union urges the Central and State Governments  to respect the secular nature of our Constitution and cancel any new attempts to fund religious pilgrimages,  and phase out those that may already be in operation. 
The Indian Humanist Union also humbly urges the Judiciary and the NHRC to consider taking suo moto action against such violations of the Constitution and Human Rights.
New Delhi 8 September 2012

ये कुछ शब्द


* ये कुछ शब्द
छंद में बंध गए
हाइकु बना |

* निषिद्ध करो
नारी पर नर का
हाथ उठाना |

* कहो तो करूँ
अपनी बातों पर
पुनर्विचार !

* कहो , न कहो
मैं करता रहूँगा
पुनर्विचार |

* आते रहेंगे
टहलने घूमने
जाते रहेंगे |

* चला जब भी
बुरा जो देखन मैं
खुद से मिला |

* करता गया
काम बढ़ता गया
करता गया |

* प्रेम करना
प्रदर्शन कदापि
नहीं करना |

* छोडो , जाने दो
घर का मामला है
घर में रखो |

* उसने कहा
और तू मान गया ?
तेरी गलती |

* कुछ भी करो
वह प्रार्थना होगी
कुछ तो करो |

* मेरे बप्पा थे
मुझे समझाते थे
अब नहीं हैं |

* भाई चारे में
कितना झुका जाए ?
एक दो इंच |

* आधा जीवन
बीतता प्रार्थना में
मनुष्य आधा |

* निरर्थक हैं
कथित विचारक
हिंदुस्तान के |

* बात करेंगे
मूर्खता की , बैठेंगे
काफी हॉउस !

* एक दो नहीं
सारे के सारे हैं
मूर्खाधिराज |

* सारी की सारी
मूर्खता की बातें हैं
क्या उत्तर दें ?

* गुड नाईट  
बोलिए , तो मैं चलूँ
बिस्तर ओर |

अंतरजातीय बच्चे

एक विचार बहुत प्रचलित है कि जातिवाद समाप्त करने का एकमात्र उपाय है अंतरजातीय विवाह | और स्वजातीय विवाहों का सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए | इस पर मुझे एक बदमाश चिन्तन सूझ रहा है | अन्यथा न लें तो बढ़िया , अन्यथा लें तो घटिया हास्य विचार है यह | स्वजातीय विवाहों का बहिष्कार करने से तो हमें हिंदुस्तान ही छोड़ देना पड़ेगा | इससे अच्छा ख्याल यह होना चाहिए कि आखिर शादी के बाद बच्चे ही तो पैदा होंगे ? तो शादी हो न हो , अंतरजातीय बच्चे तो पैदा हों | ऐसी कोशिश जाति उन्मूलक सामाजिक कार्य कर्ताओं को करनी चाहिए | अंतरजातीय बच्चे समतामूलक समाज के अमूल्य निधि साबित होंगे | उनसे अप्रकट अंतरजातीय बापों को भी प्रेम और लगाव होगा | समाज में सद्भावना का विकास होगा , रूढ़ियाँ टूटेंगी | बहुत बड़ा काम होगा |

किसी ब्राह्मण के मुख से अंतरजातीय स्वीकारोक्ति की बात कहलाइए तो मज़ा आ जाये | [ इसीलिये मैं दलित आन्दोलन को ब्राह्मणों को साथ रखने की सलाह देता हूँ , भीष्म से ही पूछो उनके प्राणांत का मार्ग] | यदि वह सामान गोत्र में विवाह की मनाही कर सकता है , तो सामान जाति में भी विवाह प्रतिबंधित कर सकता है [ थोडा अतिरिक्त दक्षिणा मिल जाय तो ] | वह यदि समान जाति के विवाह कराने जायगा ही नहीं  तो सजातीय विवाह कैसे होंगे ? सजातीय जोड़े तब कोर्ट मैरेज की शरण लेंगे और वैध , सामाजिक रूप से मान्य और प्रतिष्ठित होंगी अंतरजातीय शादियाँ | भैया संदीप राजा बजायेंगे बाजा |


चलिए , वह [ Saif weds kareena ] तो अंतर्धार्मिक विवाह कि समस्या है | हम लोग हिन्दू धर्म के अंतर्गत सजातीय /अंतरजातीय विवाह के चिंता में हैं |
तो मेरे उपरोक्त प्रस्ताव - विचार को इस लय - ताल में सोचिये :-
 " मेरा विवाह सजातीय हुआ , मेरे रिश्तेदार सजातीय हैं इस पर मेरा कोई वश नहीं था , लेकिन मैं अपने बच्चों को सजातीय नहीं पैदा होने दूँगा यह मेरे वश में है | "
अब ' नागरिक ' कोई बड़ा नाम नहीं है इसलिए आप लोग इस विचार की महानता को स्वीकार नहीं कर रहे हैं | वरना मुझे कहाँ से कहाँ पहुंचा देते |  कोई बात नहीं पर यह तो मानिये कि विवाह एक ओपन सेरीमनी है [ पाखण्ड ही सही ] | इसे अंतरजातीय बनाने में कई अडचनें हैं , एतराज़ है | तो अनावश्यक झगडा क्यों मोल लें समाज से ? इसे , जैसे यह हो रहा है होने दें [ जब तक ऐसा होने से रोक न पायें ] | लेकिन गर्भाधान और प्रजनन तो गोपनीय , आंडे में करने के काम हैं | उसे अपनी प्रगतिशील , सद्बुद्धि से संपन्न करें | पति पत्नी मान लें कि उन्हें अंतरजातीय बच्चे पैदा करने हैं | तो करें न !  कौन देखने आता है ? " जन्म से " कोई निम्न / श्रेष्ठ होता है यह भ्रम तो टूटेगा , जब बाद में यह पता चलेगा कि संतान तो जैविक रूप से कुजात है , फिर भी जैसा है वैसा है | धीरे धीरे यह कार्यक्रम लीक होगा , और फिर समाज इसे स्वीकार कर लेगा , और आगे चलकर अंतरजातीय विवाहों के लिए सरल मार्ग प्रशस्त हो जायगा | जातियों की श्रेष्ठता का कोई सम्बन्ध जींस से नहीं है , यह तो सिद्ध होगा | प्रगतिशील तबका यह तरीका भी अपना सकता है कि स्वस्थ , उत्तम वीर्य का संग्रहालय बनाये , जाति- निरपेक्ष | फिर उनका इस्तेमाल अपनी पत्नियों के गर्भाधान के लिए आवश्यकतानुसार करे | इससे भी जातीय भेदभाव का भ्रम टूटेगा और संतान भी उत्कृष्ट गुणवत्ता के होंगे | यह वैज्ञानिक सोच है | यह विचार आगे शोध माँगता है और क्रांतिकारियों की स्वीकृति | क्योंकि आगे मशाल लेकर तो उन्हें ही चलना है , शुरुआत उन्हें ही करनी है |
तब तक एक प्लान और है सवर्ण / पिछड़े दलितवादियों के लिए | उनके लिए अनिवार्य हो कि वे अपने घरों के विवाह दलितों में ही करें | सिर्फ बातें न करें |

लोकतंत्र बनाम सीमा तंत्र


लोकतंत्र बनाम सीमा तंत्र :-
उ . प्र. मंत्रिमंडल से पंडित की बर्खास्तगी  कोई उपाय नहीं है | इसका स्थायी हल निकलना चाहिए | मैं सोचता हूँ कि गोंडा , या कहीं का भी विधायक और राजस्व राज्य मंत्री अपने जिले के मुख्य चिकित्सा अधिकारी या किसी भी अधिकारी को हड़काने जाये ही क्यों ? कोई कथित जन प्रतिनिधि थाने जाकर अपने पद और प्रभाव का इस्तेमाल क्यों करे ? यह थोडा टिपिकल विचार है इसलिए समझना मुश्किल होगा , पर समझना तो पड़ेगा | कोई प्रतिनिधि है तो उसके प्रतिनिधित्व का कोई स्थान भी होगा | जैसे विधायक विधान सभा में अपने क्षेत्र का प्रतिनिधि है [ हालांकि यह बात भी विवादस्पद है, क्योंकि उसका महज़ एक खास इलाके का नुमाइन्दा  मानना भी एक संकुचित विचार है , फिर भी ] | तो वहथाना , अस्पताल , तहसील परगना जिला के हर छोटे बड़े अधिकारी के पास जाकर अपना काम निकलवाने क्यों पंहुच जाये ? हमने नेताओं की शक्तियों को प्रतिबंधित न करके बड़ी भूल की है , और अब चिल्लाते हैं कि हाय , नेता बेईमान हो गए हैं | जब उन्हें इतनी आज़ादी होगी और वे इस प्रकार काम करवाने में समर्थ होंगे तो भ्रष्ट तो हो ही जायेंगे | हम जनता स्वयं अपने स्वार्थ पूर्ण काम करवाने के लिए उनका इस्तेमाल करेंगे और उन्हें भ्रष्ट बनायेंगे | वे इससे इन्कार भी नहीं कर पाएँगे, जब उनके कहने मात्र से उचित -अनुचित काम हो जाया करेंगे | विधायक को जो कुछ कहना हो वह विधान सभा में कहे , और सांसद संसद में | इतनी बड़ी जगहों में उसकी पहुँच होने के बाद उसे कोई आवह्स्यकता नहीं होनी चाहिए छोटे छोटे प्रशासनिक स्थलों पर जाने की | क्या इससे उन्हें सम्मान हानि नहीं महसूस होती ? नहीं होती तो क्यों नहीं होती ? इसमें क्या उनकी छुद्रता , छुटपन छिछोरापन नहीं है कि वे एक अपराधी को छुड़ाने थानेदार के पास पहुँच जाते हैं ?
यह बहुत ज़रूरी कार्यभार है राजनीतिक शुचिता के कार्य कर्ताओं के लिए | अन्ना अरविन्द लोकप्रियता की लालच में इस बिंदु पर ईमानदारी से नहीं सोच नहीं सकते | सुब्रमनियम स्वामी भी नहीं | मुझे इस प्रचलित अवधारणा पर ही संदेह है कि भ्रष्टाचार ऊपर से समाप्त किया जा सकता है | लोग ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि उच्च स्तर पर काम करने से ख्याति बहुत जल्दी और ज्यादा मिल जाती है | फिर यदि उसे ही सत्य मान लें तो भी निष्पक्ष विचारकों को यह तो सोचना ही है कि बड़ी जगहों पर भी भ्रष्टाचार का मूल उत्स कहाँ है ? वह नीचे कहाँ तक गयी है ? इसीलिये हम कहते हैं कि विधायक - सांसद नीचे के स्तर पर क्या करते हैं उसे देखिये और उनके पर काटिए | उन्हें सदनों के अलावा कहीं कोई अधिकार नहीं प्राप्त होना चाहिए | सामान्य स्थानों पर वे साधारण मनुष्य बनकर रहें | तभी वे मनुष्य बनेंगे |
इस विचार को थोरो के उस विचार से भी जोड़कर देखें [ जिनसे अपने गाँधी जी बहुत प्रभावित थे ] कि सर्वोत्तम शासन वह है जो न्यूनतम शासन करे | तो सांसद - विधायक को , जो शासन के प्रतिनिधि हैं वे प्रशासन के सामान्य काम काज में न्यूनतम हस्तक्षेप करें , ऐसा प्रबंध होना चाहिए | वरना ये दीमक की तरह लोकतंत्र को चट कर जायेंगे |  और यदि लोकतंत्र में यही सब होना है तो मैं कहूँगा कि हमें लोकतंत्र की नहीं , एक सीमातंत्र की ज़रुरत है | जहाँ हर व्यक्ति , हर संस्था संगठन की एक निश्चित सीमा हो | वे उस सीमा के अन्दर रहें और उससे बाहर न जाएँ | इसे लोकतंत्र का ही विकास समझें , क्योंकि वहां भी स्वतंत्रता की सीमा किसी की नाक तक ही है | सारांशतः , यदि कुछ प्रतिनिधियों को असीम अधिकार दिए गए उन्हें सीमा उल्लंघन से वर्जित न किया गया तो देश का बड़ा नुकसान होगा | फिर कहना है कि पंडित राजस्व राज्य मंत्री को अपने कार्यालय में उन्हें उनको सौंपे गए काम को निष्पादित करना चाहिए | अपने जिले के किसी विभाग या अधिकारी कि कोई शिकायत उन्हें विधान सचिवालय में ही उठाना श्री होगा , अन्यत्र नहीं | और कानून को अपने हाथ में लेना तो निश्चय ही अक्षम्य होना चाहिए इन नेताओं के लिए भी खासकर |    

आत्मसम्मान

यदि किसी की सदाशयता से मेरा कोई हित - लाभ होता है , तो क्या मुझे उसे यह कहकर लेने से मनाकर देना चाहिए कि इससे मेरा आत्मसम्मान चोटिल होता है ? क्या सचमुच ऐसा होता है ?

Castes are behaving like nations


I am going to replace the name of caste by its nation . One can see that every religion , every caste is behaving like a nation . So , अब मैं यह नहीं कहूँगा कि आपकी जाति , बल्कि आपका ' देश ' यह काम नहीं कर सकता या यह काम कर सकता है | और व्यक्ति की बात भला करें तो क्या करें ? वह , उसका स्व, उसका अध्यात्म तो धर्म जाति वर्ग वंश के आगे पानी भरने चला गया है |
वैसे भी , जाति को कौम भी कहते हैं और कौम को राष्ट्र भी | इस तरह कोई आक्षेप व्यक्तिगत भी नहीं समझा जायगा और मैं दोषी होने से बाख जाऊँगा | ज्ञात ही कि मैं जाति उन्मूलन के लिए किसी भी सीमा तक जा सकता हूँ | Shall leave no stone unturned | जो जाति की बात करते हैं उनकी ज़िम्मेदारी है कि जाति की बात मत करें , करना बंद करें वरना वे मुंह की खायेंगे |        

मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012

खुशवंत सिंह , हिंदुस्तान , १३ अक्टूबर 2012


इंग्लैंड के तत्कालीन प्रधान मंत्री क्लेमेंट एटली ने १९४७ में हिन्दुस्तानी आज़ादी का बिल ब्रिटिश पार्लियामेंट में रखा. उस पर वहां जम कर बहस हुई . तब दूसरे विश्व युद्ध के वक्त इंग्लैंड के प्रधान मंत्री रहे सर विंस्टन चर्चिल ने गुस्से में कहा था,"गुंडे मवालियों और मुफ्तखोरों के हाथों में सत्ता चली जायेगी.
तमाम हिन्दुस्तानी नेता छोटे कद के होंगे और तिनके जैसा वज़न होगा. उनकी जुबान मीठी लेकिन दिल मूर्खों जैसा होगा. ये लोग सत्ता के लिए आपस में लड़ते रहेंगे. और हिंदुस्तान इस लडाई में ख़त्म हो जायेगा. एक बोतल पानी और ब्रेड का टुकड़ा भी टैक्स से नहीं बच पायेगा. और इन लाखों भूखे लोगों का खून एटली के मत्थे मढ़ा जायेगा."
हमारा देश अस्च्मुच कमल का है. हमने सचमुच बहुत मेहनत की है. और चर्चिल को सही साबित कर दिखाया है.
खुशवंत सिंह , हिंदुस्तान , १३ अक्टूबर 2012

कुछ हाइकु लिखे


* मैंने क्या किया
कुछ हाइकु लिखे
और क्या किया ?

* बेतुका सही
ऐसा ही लिखूँगा मैं
अपनी मर्ज़ी |

* कहीं न कहीं
खटकती है बात
धर्मों की बात |

* गनीमत है
मैं जानवर नहीं
आदमी हुआ |

* हर आदमी
किसी से बड़ा होगा
किसी से छोटा |

* हर जन को
सीमा में रहना है
सबकी सीमा |
 

समस्याओं का ज़िक्र

अभी तक , बल्कि ईमानदारी से कहूँ तो पूरी ज़िन्दगी में , सबसे बढ़िया टिप्पणी जो पड़ने को मिली वह थी रवीन्द्र मोथसारा  की टिप्पणी , प्रिय संपादक की इस चिर प्रश्न चर्चा के प्रत्युत्तर में कि " आप की नज़र में हिंदुस्तान की सबसे बड़ी समस्या क्या है ? " इस पर रविन्द्र की अति छोटी सी टिपण्णी आई - " समस्याओं का ज़िक्र " | मैं तत्काल व्यस्तता के चलते इसका appreciation नहीं कर सका , पर यह बात है बहुत महत्व पूर्ण | यद्यपि यह स्थापना मेरी सोच के विपरीत है | मेरे विचार से ' नागरिकों में ज़िम्मेदारी की भावना का अभाव ' हिंदुस्तान की बहुत बड़ी समस्या है | मैं अब भी अपने मत पर कायम हूँ , पर मैंने अपने भीतर बरसो की सफाई - मंजाई के बाद यह गुण [ गुण ही कहना ठीक होगा ] विकसित किया है कि मैं अपने खिलाफ भी सोचूँ | सो उस दृष्टि से मुझे मोठसरा की शब्दावली सटीक लगी | सचमुच हम स्वयं समस्यायों को जन्म देते हैं , हर बात में समस्या ढूंढते हैं | और यदि कोई छोटी सी मिल जाय तो हम उसे तूल देते हैं | जब कि कई बीमारियों की तरह तमाम समस्याएं भी ऐसी होती हैं जिनको यदि नज़रंदाज़ किया जाय तो अपने आप समाप्त हो जाती हैं | कह सकते हैं कि यह तो वैज्ञानिक तरीका है चीर फाड़ करने का | लेकिन ज़िन्दगी सारी विज्ञानं से तो नहीं चलती , वह अधिकांशतः मनोविज्ञान से भी संचालित होती है , जिसे अध्यात्म नाम से भी जाना जाता है | तो वाही रविन्द्र की बात - " समस्याओं का ज़िक्र " , हर वक्त उसका खुलासा , उसका विज्ञापन , हर दर्द की चीख - पुकार , रोना धोना , धरना आन्दोलन हिंदुस्तान की सबसे बड़ी समस्या है |    

रविवार, 7 अक्तूबर 2012

पर्याप्त शिक्षित


पर्याप्त शिक्षित -
यदि आप गाँधी को गाली देना जान गए हैं , तुलसी रामायण के पन्ने फाड़ सकते है , तो आप पर्याप्त शिक्षित हैं | अब आपको आगे कुछ भी पढ़ने लिखने की ज़हमत उठाने की ज़रुरत नहीं है | आरक्षण से कुछ न कुछ उपलब्ध हो ही जायगा और आप बड़ी आसानी से दलित नेता बन जायेंगे |

हो न हो, कोई ईश्वर अवश्य है

 मैं ईश्वर में कतई विश्वास नहीं करता , न उसके प्रति विश्वास को पुनर्जीवित करने का ही कोई इरादा है | लेकिन जब मैं तमाम धूर्त और चालाक लोगों को देखता हूँ तो संदेह करने का नाटक करने का मन होता है  कि हो न हो,  कोई ईश्वर अवश्य है | उसके अलावा किसी में यह सामर्थ्य नहीं है जो ऐसे निम्नकोटिक  जीव बना सके , पैदा कर सके | किसी टापू पर रहने वाला स्वतंत्र अकेला , अशिक्षित-असभ्य  व्यक्ति भी इतना अनैतिक नहीं हो सकता जितना कुछ लोग दिखते हैं | और मज़े की बात - वे बाकायदा सफल भी हैं     |

आदमी महत्वपूर्ण है


* आदमी महत्वपूर्ण है , लेकिन गलत आदमी को कभी महत्व मत दो |
* विवाद वही करते हैं जिनके पास जीवन का कोई उद्देश्य नहीं होता |

तो अति तक जाऊँ


* जब जाना है
तो अति तक जाऊँ
आधे तक क्यों ?

शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

वह समय अच्छा था

वह समय अच्छा था जब शोषण था , अत्याचार था | आदमी बंधन में था , उच्छृंखल  न था , अराजकता न थी | सब कुछ ठीक था , प्रशांति थी |   [ अन्यथा सोच ]

ब्राह्मणों को खानसामे की हैसियत

* ब्राह्मणों से बदला लेने की एक पद्धति मेरे दिमाग में आई है | वह यह कि समृद्ध समर्थ दलित जन केवल ब्राह्मणों के हाथ का बना खाना कहने का संकल्प ले लें | इस प्रकार वे ब्राह्मणों को खानसामे की हैसियत में लाकर खड़ा कर देंगे , जिससे वे अपमानित होने को विवश होंगे | ब्राह्मणों का दंभ भी टूटेगा और दलितों का अहम् भी संतुष्ट होगा | [ बदमाश चिंतन ]   

भाषा का अभिजात्य


भाषा का अभिजात्य : -
मैं इस प्रश्न में उलझा हूँ | क्या भाषा भी अभिजात बनाने में सहायक होती है | अंग्रेजी की आलोचना तो यही कहकर की जाती है | अपनी देसी भाषा हिंदी या अन्य कोई भी , के सापेक्ष यदि अंग्रेजी का प्रभाव देखें , तब तो यही कहना पड़ेगा | लेकिन अनुभव तो कुछ और भी इशारे करते हैं | भोजपुरी , अवधी , सामान्य भाषा बोलकर भी ज़मींदार बड़े आराम से सामंत बना होता था और बराबर शोषण और अत्याचार करता था , भले उसे अंग्रेजी बिलकुल न आती हो , या न बोलता हो | भाषा का उसके जलवे से कोई सम्बन्ध नहीं होता था | वह गालियाँ अंग्रेजी में तो नहीं देता रहा होगा ?  

ग़लतफ़हमी


[ कहानी ]           ग़लतफ़हमी

मैं यह तो जानता था कि मेम साहेब मुझे बहुत मानती हैं , लेकिन यह नहीं जानता था कि उन्हें यह भी पता है कि  मुझे मुर्गे का कौन सा पीस पसंद है | हुआ यह कि घर में मुर्गा पका था | साहेब ने मेम साहेब से कहा - अरे वह टिलुआ भी  खाता है उसे क्या दे दूँ ? तो मेम साहेब ने कहा - देखो लेग पीस तो उसे मत देना उसे तुम ले लो | [ उन्हें पता नहीं कैसे यह पता था कि मुझे लेग पीस बिलकुल पसंद नहीं ] | ऐसा करो , उसे सर , गर्दन , लीवर और पीठ का हिस्सा दे दो | [ गज़ब की बात कि यही सब टुकड़े मुझे पसंद हैं ] |
तो , मैं यह तो जानता था कि मेम साहेब मुझे बहुत मानती हैं , लेकिन यह नहीं जानता था कि उन्हें यह भी पता है कि  मुझे मुर्गे का कौन सा पीस पसंद है |
सचमुच मेम साहेब मुझे बहुत मानती हैं |  

प्रगतिशील कायस्थ

मैंने कहा था , फिर कह रहा हूँ अपने प्रगतिशील कायस्थ मित्रों से अनुरोध स्वरुप कि कृपया अपने जीवन यात्रा से समूह को परिचित कराएँ और अपनी उपलब्धियों के साथ साथ कुछ ऐसे भाव - विचार दर्शन का उल्लेख करें जिन्होंने उन्हें इस स्थान पर पहुँचाया | कुछ ऐसे कर्म का विवरण दें जिससे एनी सदस्य प्रेरणा लें और आगे बढ़कर अपने जीवन ऊंचा उठायें | सबको अपना साथ सान्निध्य और निकटता दें | वरिष्ठ जन यह भी बताएं कि वर्तमान समय में इस समुदाय की युवा पीढ़ी को क्या करना चाहिए जिसे वे सफल हों और विचलन , फिसलन और विभ्रम से बचें | हम सचेत हैं कि हमारे साथी जातिवादी नहीं हैं , हम ऐसी अपेक्षा भी नहीं करते | न हम स्वयं जातिवादी हैं | पर जब जातियों का अस्तित्व है , और वह मिट नहीं रहा है तो एक जाति के छोटे से समूह में काम करने और उनका हित करने में क्या हर्ज़ है ? हम कोई जातीय राजनीति तो कर नहीं रहे हैं ? हम तो एक समूह को उत्कृष्ट की और ले जाने के लिए कह रहे हैं , भरसक | और यह तो है ही कि जीना यहाँ , मरना यहाँ |  

ईश्वर is a Doctor


लेखन बिंदु -
ईश्वर is a Doctor - Dr God . इस विषय को थोडा विस्तार देना है कभी | ईश्वर वैद्य हाकिम का भी काम करता है , बीमार मनुष्य मानस का इलाज भी करता है | भले यह अवास्तविक और झूठा है | जैसे होम्योपथिक दवा को वैज्ञानिक नहीं माना जाता लेकिन बहुतों को यह फायदा तो पहुँचाता है | तो हमारा उद्देश्य तो मनुष्य को हर हाल में लाभ पहुँचाना है , वह किसी भी तरीके से हो | हम नास्तिकों को ईश्वर को इस दृष्टि से भी देखना है | क्योंकि हर मनुष्य इतने आत्मशक्ति शील नहीं होते कि वे ईश्वर के बगैर गुज़ारा कर सकें | और हमारा आराध्य भले ईश्वर नहीं पर मनुष्य हित तो हमारा अभीष्ट है ही |      

आत्मवादी दल (Individualist)


आत्मवादी दल (Individualist)
इस क्षेत्र में कम काम हुआ है हिंदुस्तान में | या इसकी चर्चा कम हुई है | Individualism एक पूरा मानववादी दर्शन है और वह व्यक्तिवाद नहीं है , न अहंकार की इसमें गुंजाईश है | अलबत्ता इसमें व्यक्ति के श्रेष्ठता की और उन्मुख होने की चाह अवश्य है | तो क्या यह कुछ गलत या अवांछनीय है ? पर समाजवाद के ढोल के पीछे यह दर्शन गौड़ हो गया , और अब आदमी जैसा है वह सब दिख ही रहा है | राजनीति के प्रदुषण का जो रोना हम रोते हैं उसका कारण यही है कि इसमें अब 'आदमी ' , 'व्यक्ति ', 'आत्मवादी जन 'नहीं हैं | वहाँ यह मान लिया गया कि समाज ठीक होगा तो व्यक्ति ठीक हो जायगा, कहाँ तक हम एक एक जन को सही करते फिरेंगे ? हमारी प्राथमिकता पलट है | बात सभी जन की नहीं है , देश के अधिकांश जन  जब तक ठीक नहीं होगें , अच्छी से अच्छी व्यवस्था चौपट होती रहेगी | और यदि नागरिक उत्कृष्ट हुए तो वे दुर्जनों पर भरी पड़कर कुछ बुरी व्यवस्था से भी अच्छे काम निकाल लेंगे |
     

जो लिखते हैं


* मर जायेंगे
तब मर जायेंगे
अभी जिंदा हैं |

* दूध का दूध
कब होगा मनुआ
पानी का पानी ?

* क्या फायदा है
बहस करने से
मानेंगे नहीं |

* डिमाक्रेसी  ही
ले बीतेगी देश की
डिमाक्रेसी को |

* पद ले लेंगे
काम नहीं करेंगे
यह हाल है |

* बोला जाता है
थैंक्यू बोला जाता है
भारत में भी |

* जो लिखते हैं
सो लिखते हैं, शेष
नहीं लिखते |

God Particle

वैज्ञानिक जन ब्रह्माण्ड के God Particle की तलाश में हैं | हम मनुष्य के अंदर उस ईश्वरीय तत्त्व की खोज में हैं जिसने वैज्ञानिक खोज से पहले ही अपने लिए एक काल्पनिक ईश्वर बना ली |   

गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

नागरिक धर्म (secular)


नागरिक धर्म (secular)
Secular  Register   पर प्रत्याशित  प्रतिक्रिया - प्रोत्साहन नहीं मिला तो ज़रूर कोई वाजिब कारण होगा | कमी हमारे नाम्करारण में हो सकती है , पर यह भी ज़रूर है कि आदमी की धार्मिक पहचान के लिए कोई नया शीर्षक तो चाहिए | इस सम्बन्ध में मुझे व्यक्तिगत तौर पर एक व्यावहारिक अनुभव उठाना पड़ा | एक फार्म में धर्म का कालम भरना था | सेकुलर लिख तो दिया पर संतोष नहीं हुआ | कुछ अधूरा सा लगा |  फिर महसूस होने लगा कि मुझे Secular Citizen , सेकुलर नागरिक लिखना चाहिए  था | इससे परिचय पूरा होता है | इसलिए ग्रुप का नाम बदल रहा हूँ |  

ईश्वरीय तत्त्व ( God Particle )


ईश्वरीय तत्त्व ( God Particle )
ईश्वर तो नहीं है लेकिन मनुष्य तो है अपनी पूरी इयत्ता के साथ ? धार्मिक जगत में मनुष्य गौड़ हो जाता है इसलिए हम मानववादी नास्तिकता को गले लगाते हैं | लेकिन प्रतीतितः नास्तिक मंडली में नास्तिकता को ठीक से समझा नहीं जा रहा है | बस ईश्वर नहीं है या उसमे हमारी आस्था नहीं है , इतना भर तो पर्याप्त नहीं ! सोचना पड़ेगा कि फिर है क्या , और क्या होना चाहिए उसके विकल्प में जो ईश्वर बन कार पूरे विश्व पर छाया हुआ है ? कुछ को अमानव बनाता है तो कुछ को मानवीय श्रेष्ठता भी प्रदान करता है | यदि वह सब कुछ गलत होता तो अब तक वह रह न पता , वह भी इतनी शिद्दत के साथ | इसलिए हमें उसकी श्रेष्ठता को पकड़ कर उसे नास्तिकता के रूप में दृढ़ता के साथ मानवीय आस्था में तब्दील करना है | वरना यह सारा आयोजन एक फिसड्डी बन कर रह जायगा | हमें अपनी पूरी बौद्धिक और हार्दिक पराकाष्ठा के साथ इस क्षेत्र में उतरना है , न कि केवल छिछले ढंग से | जिसे मानव का कल्याण और वैज्ञानिक उत्थान संभव हो सके जो कि हमारा अभीष्ट है | वरना आस्तिकता और भजन कीर्तन में क्या दिक्कत थी ? यदि नास्तिकों ने मानवीय आचरण की कोई लम्बी लकीर खींच कर दुनिया को नहीं दिखाई कि देखो हम यह हैं उन पुजारियों से अलग , तो दुनिया हमारी ओर अर्थात वैज्ञानिकता - नास्तिकता की ओर कैसे खिंचेगी ? शब्द से चिढ़ने की ज़रुरत नहीं है , यदि हमने मनुष्य की आध्यात्मिक भूख नहीं शांत की , उसे उसका वांछित सुख , संतोष और शांति नहीं दिया तो शुद्ध मानववाद का हमारा सपना कैसे पूरा होगा ? इस महीन बात को समझने की ज़रुरत है |  पूरी मार्क्सवादी पीढ़ी नास्तिक है, पर वे इसके प्रचार प्रसार को कोई तवज्जो नहीं देते | उनके अनुसार कुछ वैसा होगा तब ऐसा होगा और तब ईश्वर समाप्त हो जायगा , धर्म मिट जायेंगें | जब कि आवश्यकता है कि इस दिशा में पूरी मिशनरी तरीके से काम किया जाय | अब वह उत्साह आये तो कहाँ से आये | नास्तिकता को नकारात्मक [ negative ] धारणा मानने से तो वह आने से रहा | यह ऐसा विचार वस्तुतः है भी नहीं | नास्तिकता तो एक प्रकार से अति , आत्यंतिक आस्तिकता है , जहाँ कथित आस्तिक जन नहीं पहुँच सकते | आस्तिकता का चरम है नास्तिकता, मनुष्यता पर , मानवीय सभ्यता पर परम विश्वास की स्थिति | यह अकर्मण्य और भाव शून्य नहीं बनाती मनुष्य को | मानव मूल्यों के प्रति यदि यह संवेदनशील और सकर्मक न हुयी तो यह टूट जायगी | सिर्फ स्थूल ईश्वर ही तो नहीं है | पर मनुष्य केवल स्थूल तत्त्व भी तो नहीं है ? इस सूक्ष्म तत्व को पहचानने में नास्तिक मंडली कुछ चूक रही है | फिर इधर उस सूक्ष्मता का वैज्ञानिक एक नाम सामने आया है | सो उसी नाम पर ग्रुप का नामकरण किया जा रहा है , जिसमे मानव सभ्यता और संस्कृति पर कुछ गहराई से चिंतन मनन और कर्म कार्यवाही , संभव है हो सके |   

घर के आँगन में


* मंदिर कभी मत जाइये | इससे आप का आत्मविश्वाश टूटता , ढीला पड़ता है |

* मैं अच्छी तरह समझता हूँ की आदमी बिल्कुल बेचैन है नग्नावस्था में रहने के लिए | उसी में उसका सुख-चैन उसकी शांति है |
* मैं स्पीड ब्रेकर के आयें बाएँ काटकर कभी नहीं निकलता | मैं जीवन के अवरोधों का पूरा आदर करता हूँ और और धीरे से पार होता हूँ | मैं गंभीर जिम्मेदारियों से कभी मुँह नहीं मोड़ता |  



* पहले अपना आचरण सुधारो , फिर नेता बनने की बात सोचो |

* घर के आँगन में व्यापार नहीं किया जा सकता |
(नागरिक उवाच)

इज्ज़तदार



* स्त्री  पुरुष  की 
कमज़ोर नस है 
रक्त वाहिनी |  
 
* यह  मोहब्बत   
तेरी  इनायत  है
मेरे  ऊपर  |



* चिढ़ते हैं तो
चिढ़ाए भी जाते हैं
मुसलमान |

* मान लीजिये
मैं न लिखता तो क्या
सच न होता ?

* इज्ज़तदार
आप न भी हों तो भी
हमारे पूज्य |

* नीच जातियाँ
नीच ही हो जाती हैं
फिर स्वभावतः |