उग्रनाथ'नागरिक'(1946, बस्ती) का संपूर्ण सृजनात्मक एवं संरचनात्मक संसार | अध्यात्म,धर्म और राज्य के संबंध में साहित्य,विचार,योजनाएँ एवं कार्यक्रम @
शुक्रवार, 1 मई 2020
धर्मो रक्षति
मेरी भाषा भी धर्मो रक्षति रक्षितः जैसी हो रही है । मैं भी कह रहा हूँ धर्म है तो तुम भी हो । आलोचना कुछ भी करो । वही आलोच्य धर्म आपकी पहचान भी है । या कोई दूसरी पहचान ग्रहण करो । फिर उसकी प्रंशसा आलोचना करो । यह खामख्याली और बचकाना उत्तेजना भर है, अव्यवहारिक - कि मेरा कोई धर्म नहीं । हो सकता है, लेकिन सामने वाला तुम्हारी पैदाइश से तुम्हारा धर्म जाति और राष्ट्रीयता पहचानता है । वह तुम्हें तुम्हारे नाम , चेहरे से पहचान लेगा। क्या कर लोगे? और जब वह आपको उसी तरह पुकारेगा-.ओ काले हिंदुस्तानी! ओ कमीने हिन्दू! ओ कटुए! तो आपको बोलना पड़ेगा । यथार्थ से मुँह चुराने से कोई लाभ नहीं । गर्व, घमंड न करो , न हवा में उड़ो। जहाँ हो उसमें द्वंद्व पूर्वक रहो, अपना निजी स्थान बनाओ । पहचानें सामूहिक विवशताएँ हैं। तुम्हारी क्रांतिकारिता से कोई लाभ नहीं हो रहा है । उल्टे क्रांति को नुकसान हो रहा है । जिसकी ज़मीन पक्की होनी चाहिए। पदार्थवादी ।
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