गुरुवार, 17 जनवरी 2013

Face Book , 17/01/2013


* कोई  लक्षण 
बदलाव के नहीं 
कैसा आदमी ?

* जो मूर्ख नहीं 
सबसे बड़ा , जानो 
मूर्ख वही 

* अपने आप 
अपने आप को मैं 
जीना चाहता |
  
[ पाकिस्तान से ] 
* कौन कह रहा है की लड़ो ?
लेकिन यदि युद्ध की स्थिति हो तो ?
अच्छा चलो , लड़ें नहीं | यह तो ठीक 
लेकिन तब क्या करें ?
बात करें ?
अच्छा तो किस विषय पर बात करें ?
झेलम और गंगा नदियों के सौन्दर्य पर ?
बहुत सुंदर हैं ये | 
क्या समझ कर बात करें ?
किससे बात कर रहे हैं यह तो समझना होगा ?
बतौर दुश्मन ही तो बात कर सकते हैं | 
दोस्त से क्या बात करना होता है , जब सब ठीक ठाक है ?
दोस्त हो , वह ऐसा है तो नहीं | मानना पड़ेगा |
दोस्ती बहुत जोर मारती है तो 
एक हो जाओ दोनों | लेकिन ,
एक होते तो अलग ही क्यों होते ?
जिन्ना का वचन शाश्वत है -
जिस आधार पर उन्होंने देश बाँटा - 
हिन्दू मुसलमान एक साथ नहीं रह सकते | 
तो यही बात तो हिंदुस्तान पाकिस्तान पर भी लागू होता है |
क्यों ज़बरदस्ती दिल से दिल मिलाते हो ?
क्या बिना दिल मिले अलग अलग अपने घर चैन से नहीं रह सकते ?
क्यों दिलों में तीर चुभाते हो ?

* वहाँ तो अभी लड़ाई छिड़ी नहीं | यहाँ हम ज़रूर लड़े जा रहे हैं |
हाँ , एक सुझाव यह हो सकता है - उत्तमोत्तम | भारत अपनी सेनायें अपनी सीमाओं से बिलकुल हटा ले | न रहे बाँस न बजे बाँसुरी | 

* जातिवाद जायेगा कैसे ?
क्या कौमों के विशिष्ट गुण नहीं होते ? या उन्होंने उनसे छुटकारा ले लिया है ?

* गलत बात है | आध्यात्मिक जगत में आइये | सबका बाप यह सृष्टि है, जिसे कुछ लोग ईश्वर कहते हैं | उसके समक्ष विनम्र हो रहिये | 

[ कविता ? ]     " विश्व सुन्दरी "
* मुझे ज़रुरत थी हेल्थ कार्ड और बैंक पास बुक पर 
लगाने के लिए पत्नी की फोटो की |
मैं उन्हें स्टूडियो ले गया | 
वह बैठ गई एक बिल्ली या उल्लू की तरह बेंच पर |  
कैमरे की और निहारती मूर्खों जैसी मुद्रा में
 चपुरी बाँधे, अपने बाहर निकले 

दाँत छिपाने के लिए |
बिना पलक झपकाए 
न कोई पोz , न कोई अदा, न नाज़ नखरा |

दो दिन बाद मैं फोटो ले आया 
दंग रह गया देखकर -
मेरी पत्नी तो फोटो में विश्व सुन्दरी लगती है 
है ही मेरी पत्नी विश्व सुन्दरी |
# # # 

* यह एक कटु सच्चाई है कि मुसलमान इंसान तो होंगे | अच्छे इंसान होंगे | लेकिन उतना ही जितना इस्लाम उनसे कहेगा | 

Ujjwal Bhattacharya  जैसा कि इन दिनों देखा जा रहा है, पाकिस्तान के साथ युद्ध के विरोध को भी सेक्युलरिज़्म के साथ जोड़ा जा रहा है. जबकि सचाई यह है कि अधिकतर सेक्युलर लोग भी युद्धोन्माद से ग्रस्त हैं, सिर्फ़ शांतिवादी इस उन्माद का विरोध कर रहे हैं. ये शांतिवादी अल्पमत में हैं और मैं भी उनमें शामिल हूं.|
Ugranath नहीं उज्जवल जी, मेरी हैसियत तो नहीं है पर दावे के साथ कह सकता हूँ कि कोई भी समझदार व्यक्ति युद्ध नहीं चाहता | कोई धार्मिक व्यक्ति भी नहीं , और सेक्युलर तो बिल्कुल नहीं | यही तो पेंच है जिसे मैं कहता हूँ - क्या हम वाकयी सेक्युलर हैं ? आप स्वयं इनसे त्रस्त हैं - " अधिकतर सेक्युलर लोग भी युद्धोन्माद से ग्रस्त हैं " | " पाकिस्तान के साथ युद्ध के विरोध को भी सेक्युलरिज़्म के साथ " जोड़ना बस उसी तरह का वार्तालाप है जैसे झगडे में लोग तू तू मैं मैं पर उतर आते हैं , बाप दादे तक पहुँच जाते हैं | कोई कहता है तू चमार या बाभन है इसलिए ऐसा कह रहा है | लेकिन देश की धड़कन और उसके हित को भी देखना होता है | तनाव और उसके निहितार्थ को नहीं देखेंगे तो शान्ति तो नहीं आएगी गांधी की तरह अनसुने रह जायेंगे | गीता के युद्ध में ही शांतिपर्व भी है | अल्पमत में होना श्रेष्ठ है यदि विश्वास हो कि हम सत्य हैं | लेकिन स्थिति यह है कि सेक्युलर जन अपनी करतूतों के कारण अविश्वसनीय हो चुके हैं | उनके सिद्धांत जो कुछ कहते हों | उनसे अपने को मत जोड़िये | The truth always lies with the minority |           

* आखिर सेनायें सीमाओं पर हैं ही क्यों ? क्या सर कटवाने के लिए ?


* हिन्दू तो गाय को पूजते ही हैं | और भारत के मुसलमान पवित्र गाय हैं |

* तुम्हारा नाम मेरी ज़ुबां पर इस कदर आता है ,
जैसे कोई मरीज़ कोमा में बडबडाता है |

* चलेंगे नहीं
रास्ता नहीं कटेगा
चलना तो है |

* आसान नहीं
तो कठिन भी नहीं
इतना काम |

* क्या बोलना है
सुनना ही है अब
ऐसी स्थिति में |

* कई मान्यताएँ वास्तव में गलत चल रही हैं | यदि भारत का मुसलमान मुल्क से प्रेम करे तो वह देशभक्त | और यदि हिन्दू राष्ट्रप्रेम प्रकट करे तो वह सांप्रदायिक ? मुझे लगता है कि हमारी नज़रें कभी साफ़ नहीं हो सकतीं | या मेरी ही आँखों में जाला पड़ा है ?

* धर्म निरपेक्षता [ Secularism ] के एक एक रेशे के खिलाफ सौ सौ मोटी मोटी रस्सियाँ हैं | कैसे न टूटें ये रेशे ? क्या मजबूती होगी इनमें ? कहाँ से आयेगी ताक़त ? जब इसके पास पौष्टिक तो क्या , ठीक से पेट भरने भर को ही भोजन नहीं है | सेकुलर वाद में एक एक व्यक्ति [ Individual ] की प्रतिष्ठा है  | और इधर हालत यह है कि सरे धर्म संगठन आदमी की व्यक्तिमत्ता को छिन्न भिन्न करने में लगे हैं |

बुधवार, 16 जनवरी 2013

Face Book 15 & 16 -01 -13


*******
*
*अंग्रेजी दवाखाना अंग्रेजी शराब से जब हमें परहेज़ नहीं है बल्कि उन्हें हम उत्तम मानते हैं और ज़रूरी हो गई अंग्रेजी भाषा हमारी नै पीढ़ी के लिए. तो फिर अंग्रेजी संस्कृति से ही हमें क्या दिक्क़त है?

*क्या गालियों में अभिव्यक्तियाँ संपन्न करने के लिए व्यक्ति  का अनपढ़ निरक्षर होना ज़रूरी है?
क्या पढ़े लिखे साक्षरों के लिए फेस बुक को मुक्त रूप से आवंटित नहीं किया जा सकता? सरकार अब अपने नियम कायदे अखबार और टी वी पर लगाये . यह तो हमारे निजी व्यक्तिगत पन्ने हैं.

* * यदि आपका कोई स्वार्थ नहीं होगा  तो आप के दुश्मन भी नहीं होंगे या कम होंगे.
* जाति चिपका,
 धार्मिक आदमी हूँ
तिस पर भी.
* जाति भी पूछो
अब तो हालत है
साधुजनों की.
* अकेला चना 
कुछ चल भी पाया
नहीं तो भला..
* शिक्षा  का अर्थ
बौद्धिक उत्कृष्टता 
नीतिमत्ता से.

*१. इस वैज्ञानिक युग में ईश्वर के रहने का कोई औचित्य तो नहीं बनता बस enchroachment  अन अधिकृत आवास है उसका.अतिक्रमण किये हुए मनुष्य के ह्रदय और बौद्धिक ज़मीन पर.
२. क्या किया जाये, सरासर बकैती है. और उसे भी शायद पता चल गया है कि ये बकैती का ज़माना हैफिर वह तो सर्व ताकतवर रहा है सदा से.
३.* क्या लड़कियां
सहमी हुई होंगी
 देश/दिल्ली की?
4. मूल्यवान है
आदमी की जान
किसी की भी हो.

*धर्म के नाम पर मानव भी लिखें और साथ में धर्म भी जोड़ें पूरा लिखें - मानव धर्म. यह सबको स्वीकार्य होना चाहिए. नास्तिकता हिन्दुत्व ईसाइयत  व्यक्तिगत हो जाएँ. सार्वजनिक बस  मानव धर्म .

*मानव धर्म 
ईश्वर क्या करेगा
कुछ भी नहीं 

*उवाच 
१. दुनिया में जो कुछ भी उपलब्ध है उसका न्यूनतम उपभोग ही मानव समाज को विलुप्त होने से बचाएगा. 
२. स्वीकारता हूँ/ होता तो है पुरानी चीजों से मोह/ उसे मारने/ मरते देखने का/ मन नहीं होता.
३. क्या  इसे  विडम्बना न कहें ? कि अंग्रेजों के शासन को तो गुलामी मान कर उनसे नफ़रत सिखाई जाती है दूसरी ओर अन्य शासन को भाई चारे के रूप में स्वीकार करने को कहा जाता है. 

*कुतर्क समीकरण 
सेक्युलरवाद =इस्लामवाद (अतः) इस्लामवाद=सेक्युलरवाद
मैं इस स्थिति पर बहुत पिनपिनाता था कि भारत में सेक्युलरवाद  मुस्लिम तुष्टिकरणवाद में क्यों बदलता जा रहा है? लेकिन  मैं तो खुश होने के तरीके ईजाद करने में  माहिर हूँ. मैंने अपने मन को सुझाव दिया कि सेक्युलरवाद को ठेठ सैद्धांतिक सेक्युलरवाद माना ही क्यों जाये? यदि इसे इस्लामवाद मान लिया जाये तो सारी मानसिक दुर्दशा दूर हो जाय. इसलिए अब मैं इसे इसी तरह से देखने की कोशिश करूँगा. और फिर तब मैं क्यों नहीं 'इस्लामी-समाजवादी राज्य' बनाने की वकालत करूँगा क्योंकि मैं 'सेक्युलर समाजवादी' संवैधानिक राज्य का कार्यकर्ता हूँ. मानसिक सुकून के साथ कुछ धार्मिक राजनीतिक काम भी करना चाहिए! आखिर बुद्धिजीवियों को उसमें क्या दिक्क़त है?
जिन्ना ने अपने प्रथम भाषण मैं सेक्युलरवाद की ही सलाह तो पाकिस्तान को दी थी. तो, अतः, पाकिस्तान अब जिस राह पर चल रहा है वह सेक्युलरवाद ही तो हुआ?  

*पागलपन की सवारी
में दो पागलपन पर सवार हूँ और सवार रहूँगा और यदि अग्रजों का आशीर्वाद तथा अनुजों का सहयोग रहा तो मैं इन पर आजीवन सवार रहते हुए  अंत में इन पर सवार  ही बैकुंठ धाम पहुँच जाऊंगा.
एक पागलपन ये है की भले जातिप्रथा में कुछ सच्चाई हो और आइन्स्टाइन न्यूटन जैसे बड़े बड़े वैज्ञानिक भी पुनर्जन्म ले करये बताएं की जन्म से मनुष्य शूद्र और ब्राह्मण होते हैं तब भी में उसे नहीं मानूंगा.
और दूसरे यदि ईश्वर साक्षात मेरे सामने खड़ा हो कर कहे- देखो यह हूँ में, तुम्हारा ईश्वर तो भी मैं उसे नहीं मानूंगा.
बड़ा मज़ा आता है कोई पागलपन जीने में.

*अंततः आदमी 
विश्वास भी मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं- एक अंधविश्वास तो दूसरे दूसरे को कहा जा सकता है जागृत विश्वास . जागृत विश्वास  आपत्तिजनक नहीं कहा जा सकता .
आगे- जागृत विश्वास  के साथ भी आदमी को हिन्दू मुस्लमान होना पद सकता है जन्म के नाते.  तब दो तरह के हिन्दू मुसल मन हो सकते हैं.  अन्धविश्वासी हिन्दू मुसलमान  और जागृत विश्वासी जन्मना हिन्दू मुस्लमान. 
फिर जागृत आस्तिक जन्मना हिन्दू मुस्लमान को भी पूजा पाठ रोज़ा नमाज़ करना पड़ सकता है- समुदाय में रहने की विवशतावश. इसे में जागृत आस्तिक जन्मना हिन्दू मुसलमान भी केवल एक प्रकार के पाए जायेंगे- वे होंगे जागृत आस्तिक जन्मना दिखावटी हिन्दू मुस्लमान .....
पर उन्हें तब एक शब्द 'आदमी', वह भी अभी से क्यों न कहा जाए?

* कैसे हो सकता है वह ?
(सुना है गैर मुस्लिम के लिए अल्लाह का नाम लेना वर्जित है इसलिए अल्लाह के प्रति ससम्मान इसे यूँ लिखता हूँ-  )
जो एक  ईश्वर को मानते हैं वे  दुसरे ईश्वर को नहीं मानते.  जो दुसरे ईश्वर को मानते हैं वे तीसरे ईश्वर को नहीं मानते , बल्कि वे एक दूसरे का बराबर विरोध भी करते हैं. तब भी बाकायदा वे अपने जीवन जी रहे हैं. इसे मेंकैसे कहा जा सकता है की ईश्वर नामक किसी शै का अस्तित्व है? 

* धर्म नहीं है 
धर्म की लकीरें हैं 
पीटे जा रहे |

* बुद्धि विवेक 
जवाब दे रहे हैं 
धर्म होने से |
* बुद्धि विवेक 
साथ नहीं देते हैं
धर्मान्धता में |

* पुलिस चौकी 
न बन जाए देश 
यह देखना |

* नहीं हो पाता
आक्रोश का शमन 
कभी कभी तो |

* सब कुछ तो 
उघाड़ता अपनी 
कविताओं में |

* जंगल में है 
जन गण मन है 
संकट में है | 

* कल्पनाशील  
होकर भी होता हूँ 
यथार्थवादी |

* कहाँ से आये 
कहाँ चले जाते हो 
घनश्याम जी ?

* लूटने वाले 
प्रचार तो करेंगे 
[ विज्ञापन तो देंगे ]
बचो तो बची 
[ सतर्क रहो ]
#
* आयेंगी याद 
गीता की सच्चाईयाँ 
तब जानोगे ! 

* सवाल नहीं 
कोई जवाब नहीं 
मैं निरुत्तर |

* कोई तो गुण 
मुझमे नहीं है जो 
मैं इतराऊँ !

* चलो रे मन , कोई गुनाह करें ;
 उनके दर्शन तो हों अदालत में !

[ कहानी ]       " शरीफ कौन "
* लड़का लडकी , आपस में दोस्त | कोई सप्ताह भर एक साथ एक कमरे में रहे | सोये , उठे बैठे , खाए पिए , घूमे | 
जब विदा होने लगे तो लड़की ने महा - तुम बहुत शरीफ आदमी हो | इतने दिन साथ रहे पर तुमने मेरे साथ कोई ' व्यवहार ' नहीं किया |
लड़के ने जवाब दिया - क्यों , हो क्यों नहीं सकता था , यदि तुम चाहती और कहती तो | आखिर तो पुरुष हूँ मैं , चिर कुख्यात |
वास्तव में तो शरीफ तुम हो |
# # 

* आरक्षण देना गलत नहीं है | आखिर इतनी विविधता वाला देश है | आरक्षण / संरक्षण नहीं देंगें तो न संस्कृति बचेगी और न प्रगति होगी | आखिर रूमी दरवाज़ा ,इमामबाड़ों , राष्ट्रीय धरोहरों आदि को पुरातत्व विभाग संजोता है या नहीं ? इसमें क्या अनुचित बात है ? फिर हमारे साँपों को दूध पिलाने वाले, गाय गोबर पूजने वाले या नंग धडंग नागाओं को उन्हें उनकी तरह रहने की स्वतंत्रता क्यों नहीं देते , उन्हें क्यों चिढ़ाते हैं ? आप दुनिया भर के रहनुमा क्यों बनते हैं ? आप को जो बनना हो, जो बन सकें वह बनिए | वह तो हम भी देख रहे हैं कि आप क्या बन रहे हैं और कितने सभ्य हैं | फिर आप विश्व के सांस्कृतिक पहरेदार और सभ्यता के ठेकेदार क्यों बन रहे हैं | और आप जानते हैं , प्रगति के चलते जो आज लडकियाँ न्यून वस्त्रावृत्त हो रहीं हैं , उसका दर्शन हिन्दुस्तान ने बहुत पहले पा लिया था | अधिक सभ्यता का दावा न कीजिये | देखिएगा , सभ्यता का अगला पड़ाव ही नग्नता है | 

* जब मैं कहता हूँ कि मैं सवर्ण हूँ , या कहता हूँ कि सवर्णों को अपना जातिगत उपनाम हटाने का व्यायाम नहीं करना चाहिए | तो उसका उद्देश्य यह बताना नहीं होता कि मैं जातिवादी हूँ या यह आह्वान  कि हम जातिवादी हो जाएँ | दर असल यह बिलकुल उसी तरह की मजबूरी है जैसे मुझे बताना ही पड़ेगा कि मेरा नाम अमुक है और मैं फलाना वासी हूँ | मैं अमरीकी / अरबी / जर्मन / पाकिस्तानी नहीं हूँ | भाई , मैं हिंदुस्तानी , अंग्रेजी में इन्डियन हूँ | अब मेरा नाम / प्रदेश / हिन्दुस्तान चाहे जैसा भी हो | भारत महान या या फिर Slumdog - - - | 

* जो लोग दलित - सवर्ण संघर्ष के समर्थक हैं , स्वीकारते हैं , हवा देता हैं और उसमे शामिल हैं | वाही लोग हिन्दू मुस्लिम तफ़रके  के समय इससे पल्ला झाड कर साम्प्रदौइक सदभाव की बातें करने लगते हैं |

*  " हम सब दलित "
जिनकी स्थिति इससे अच्छी हो वे कृपया इसे ' LIKE ' न करें |

* जो मित्र हथियारों की संभावित बिक्री [ पाक से तनाव के सन्दर्भ में ] से चिंतित हैं , वे बताएँ - यदि हथियार नहीं बिकेंगे तो लडकियाँ अपनी सुरक्षा के लिए हथियार कहाँ से पाएंगी ? और अब तो उनके दोस्त लड़कों को भी बन्दूक - तोप रखना पड़ेगा अपने खाप पंचायतों से लड़ने के लिए !

* गज़ब की बात है या नहीं | कि कुछ न होकर भी आदमी हिन्दू बन जाता है ?  
[ शून्य वाद ]

* हम मानव धर्म के प्रचारक हैं | [ अलबत्ता ईश्वर विहीन ]

* सही है तो | इस विलुप्त परिभाषा को पुनर्जीवित करना पड़ेगा | ईश्वर का नाम बीच में घसीटने से बचना होगा |

* पश्चिम की नग्नता भी प्रगति के ' फलस्वरूप " है |:-)

* मेरे घर एक वृद्ध मित्र आये | ठंडक भी थी नए वर्ष का आगमन भी | तय हुआ आज अंडा सेवन किया जाय | तो आमलेट ? नहीं मुझे पसंद नहीं , मैं तो ब्वायल खाऊँगा - दूसरे बूढ़े ने कहा | आगंतुक संदीप बाबू , यद्यपि शाकाहारी , किन्तु वृद्धों की सेवा में तत्पर, चल दिए अंडे लाने | दूकानदार से बोले - एक अंडा आमलेट वाला और एक ब्वायल वाला | दूकानदार भी माजरा समझ गया | उसने दो पूड़ियों में दो अंडे अलग अलग दे दिया - बताकर यह ये वाला है और यह वो वाला | इधर नीलाक्षी और राकेश का आगमन | बूढ़ों के लिए अण्डों का ज्योनार बनाने किचेन में प्रस्थान | लेकिन हुआ यह कि उनसे अंडे बदल गए | एक ने आमलेट वाले अंडे को उबाल दिया , तो दूसरे ने ब्वायल वाले अंडे का आमलेट बना दिया | ज़ाहिर है न अंडे ब्वायल बने , न आमलेट बने | कैसे बन सकते थे , अंडे बदल जो गए थे गलती से ? दोनों खिसिया गयीं | क्या करतीं ? उन्होंने उस ब्वायल अंडे का आमलेट और आमलेट अंडे का ब्वायल स्वयं उदरस्थ करके पिछले दरवाजे से निकल गयीं | थोड़ी देर बाद संदीप जी भी निकल गए मुंबई | दोनों बुड्ढे प्रतीक्षारत हैं अभी उनके लिए अंडे बना कर ला रही होंगी राकेश और नीलाक्षी जी |


* हम तेरे प्यार में सार आलम खो बैठे ,
तुम कहते हो कि तेरे प्यार को भूल जाऊँ ?
[ पूर्वज यवनों को भूल जाओ , और दलितों को पूर्वजों के किये का पूरा बदला दो ? ]

* अभी तो नहीं | अभी तो जो भी , जितना भी सशक्तीकरण और सुरक्षा के प्रबंध कर दिए जाएँ | लेकिन कुछ दिन बाद यह स्थिति आनी चाहिए कि यदि लडकी बलात्कार की शिकायत लेकर घर आये तो माँ - बाप उसके गाल पर थप्पड़ जड़ें | - " नालायक , तुम्हारे साथ बलात्कार होने कैसे पाया ? क्या यही सहने के लिए हमने तुम्हे जना था ? मैदान हार कर आई है और बोलती है - बलात्कार हुआ ! "

सोमवार, 14 जनवरी 2013

Nagrik Blog - Ghal Mel = 1 4 / 01 / 2013


[ घोषणा ]
* हमारे लीडरान और कार्यकर्ता पार्टी के संस्थापक या अध्यक्ष वगैरह का जन्मदिन नहीं मनाएंगे और पार्टी को व्यक्तिवादी नहीं बनने देंगे |
* हमारे नेता रोज़ा अफ्तार - होली मिलन कार्यक्रम में भाग न लेंगे | व्यक्तिगत , सामान्य तरीके से वे अपने त्यौहार मनाएं तो मनाएँ |
* सदस्य अपने पूरे नामों के साथ पंजीकृत होंगे जिस से उनकी जन्मना जाती के बारे में कोई भ्रम न रहे | यदि किसी ने सरनेम हटा दिया है या वह लगता ही नहीं था , तो स्वागत है | आशय , कि नाम के साथ कोई छेड़खानी नहीं होगी | 
* हमारे दल में विपक्षी सर्व सम्मानित होंगे | उन्हें बैठकों आगे की पंक्ति में बिठाया जायगा | " आँगन कुटी छवाय " | 
* राष्ट्रीय त्योहारों पर कोई अधिकारी भाषण नहीं देगा | दफ्तरों में झंडा फहराने के बाद अवकाश हो उनके मनोरंजन या गृह कार्य के लिए | सरकारी इमारतों पर झंडा फहराने का पाखण्ड  करने और झाडे का अपमान करने की कोई ज़रुरत नहीं |
* सरकारी नौकरियों को अनाथाश्रम नहीं बनाया जायगा | कर्मचारियों को निष्ठां पूर्वक ईमान दारी से काम करना होगा | 
* छात्रों का कोई युनियन नहीं होगा | शिक्षा घरों को राजनीति का वर्कशाप नहीं बनाया जायगा | छात्र समस्याओं के लिए मानिटर होंगे जो इस आशय के लिए बने प्रकोष्ठ के समक्ष ले जायेंगे |   [ भविष्य गर्भस्थ ]

] गीतांश [
* ज्ञान से ओझल नहीं मैं ,
ज्ञान से बोझिल नहीं मैं |

* घर में भूजी भाँग नहीं है ,
देखो कितनी शान चढ़ी है |

* मरद मेहरारू मिललें तब्बे भइलीं बिटिया ,
मरद मेहरारू मिलिहें  तब्बे होइहैं बेटवा |

[ग़ज़ल ]             "  कुछ कुछ "
* कोई सवाल उठाना जो तुझमें हो कुछ कुछ ,
कोई जवाब बताना तो तुझमें हो कुछ कुछ |

* ये है जम्हूरियत आज़ादियाँ ले लो सब जन ,
बड़ा नायाब खिलौना , इसे खेलो कुछ कुछ |

* मुझे पानी तो पिलाना ज़रा सा रुक जाओ ,
पहले वह आग दिखाओ जो तुझमे हो कुछ कुछ |

* अज्ञानी , अन्धविश्वासी या चाहे जैसी | भारतीय जनता का यदि कोई [ देसी / विदेशी ] अपमान करता है तो मुझे बुरा लगता है , गुस्सा आता है | यह मेरी लोकतांत्रिक समझ है | भले मैं स्वयं आने सहवासियों से बहुत खुश और संतुष्ट नहीं हूँ | 

* दलित साहित्य वह साहित्य है जिसे पढ़कर यह जाना जा सके कि इसे किसी दलित ने लिखा है, यह किसी दलित का ही लिखा हो सकता है |

* बहुत पैसा है रे साम्भा , इन नेताओं के पास ! 
कहाँ से आया रे , यह इनके पास ?

* देखने योग्य है 
कैसे सारे पाप 
पवित्र हो जाते हैं ?
संतान जन्म के साथ 
स्त्री की यौनिकता ,
पुरुष की कामुकता 
पवित्र हो जाती है }
पवित्र हो जाती  है 
जनता जनार्दन 
कुम्भ स्नान के बाद ! 
# # 

* हाथ बढ़ाना 
साथी हाथ बढ़ाना |
तो किसलिए ?

* जीते जीते भी 
मन भर जाता है 
उचट जाता |

* अंध विश्वास
मूर्खता का पैमाना 
भारतीयों का | 

* कोई समय  
पढ़ाई करने में 
नहीं गँवाया |:-)

* एक गिराया 
एक एक करके 
दसो गिराया |

* यदा यदा हि
ग्लानिर्भवतु देश 
जनता त्रस्त |  

* देखने से भी 
दुश्मन डर जाता 
आँखें तरेरो |

* आख़िरी बार 
हम कब मिले थे 
कुछ याद है ?

* तुम्हारे लिए 
अनिवार्य चिंतन 
तुम कौन हो ?

* मानना होगा 
सबकी इज्ज़त है 
लोकतंत्र है |

* रण में आओ 
 बहाने न बनाओ 
पाओ / गवाँओ |

* सारे कुएँ में 
यहाँ से वहाँ तक 
भाँग पड़ी है |
* सारे कुएँ में ,
राज करना हो तो ,
भाँग डाल दो | 
* दूध न दही 
भंगेडियों के बीच 
भाँग ही सही |

* मैं आप को बता दूँ | पाए (स्तम्भ ) कमज़ोर होंगे तो चार के चारो कमज़ोर होंगे | यह नहीं हो सकता की एक पाया मजबूत हो और तीन पाए लंगड़े चलें | या तीन पाए मजबूत हों और एक पाया उनके साथ घिसटे | इसी प्रकार मजबूत होंगे तो सभी पाए मजबूत होंगे | लोकतंत्र को पौष्टिक आहार मिलेगा तो कोई अकेला स्तम्भ नहीं सारे के सारे स्तम्भ सशक्त होंगे |

[ दो टूक ] 
* पकिस्तान से हिन्दुस्तान दोस्ती के अलावा और कोई बात कर ही नहीं सकता, न युद्ध की न युद्ध के प्रतिशोध की | क्योंकि भारत और पाकिस्तान दोनों जानते हैं की हिन्दुस्तान में पाकिस्तान विरोधी बहुत कम हैं और पाकिस्तान में हिन्दुस्तान समर्थक कोई नहीं | 

[नोट बुक ]
* रीति नीति = वह नीति जो सांस्कृतिक रीतियों से संपोषित हो और वह रीति जो मानव वादी नीतियों से संचालित हो | ऐसा नाम किसी संस्था - संगठन - पार्टी का हो सकता है | 
* याद आता है , मेरी एक संस्था हुई थी - सत्यनिष्ठां ( Honesty  International ) Amnesty की तर्ज़ पर | एक थी - Duty Parlour ( कर्तव्य बोध ) Beauty Parlour की तर्ज़ पर | फिर एक - Polite Bureau ( विनम्र परिषद् ) Polit Bureau की तर्ज़ पर |:-) हा हा हा , सब मुझमे समां गए | 

* विडम्बना की बात है कि लोक और लोक का तंत्र, जन और जन का तंत्र, हमारे साथ नहीं है | वरना कह तो हम सच ही रहे हैं | और अतिरिक्त विडम्बना यह कि हम इनके बगैर चल नहीं सकते | हम साधारण जन की उपेक्षा नहीं कर सकते | उनकी मान्यता के बिना हमारे काम का क्या मतलब ? चाहे हमारे विचार कितने ही सत्य हों ! तिस पर भी , लेकिन , हम कह तो सच ही रहे हैं |
       ( हम ईश्वर और धर्म के सन्दर्भ में बात कर रहे हैं | अभी समझ में आता है कि क्यों ज्ञान को दो श्रेणियों में बाँटा गया होगा - एक आम जन के लिए, शेष विद्वतजनों के लिए | पर यहाँ तो प्रबुद्ध जन भी सामान्य जन की आंड में हमारी बात नहीं सुनते !)     

* हम अपनी बातों का समर्थन करवाने के लिए किसी भीड़ की प्रतीक्षा नहीं करते |

* विडम्बना की बात है कि लोक और लोक का तंत्र, जन और जन का तंत्र, हमारे साथ नहीं है | वरना कह तो हम सच ही रहे हैं | और अतिरिक्त विडम्बना यह कि हम इनके बगैर चल नहीं सकते | हम साधारण जन की उपेक्षा नहीं कर सकते | उनकी मान्यता के बिना हमारे काम का क्या मतलब ? चाहे हमारे विचार कितने ही सत्य हों ! तिस पर भी , लेकिन , हम कह तो सच ही रहे हैं |
       ( हम ईश्वर और धर्म के सन्दर्भ में बात कर रहे हैं | अभी समझ में आता है कि क्यों ज्ञान को दो श्रेणियों में बाँटा गया होगा - एक आम जन के लिए, शेष विद्वतजनों के लिए | पर यहाँ तो प्रबुद्ध जन भी सामान्य जन की आंड में हमारी बात नहीं सुनते !)                

     #     आप समझ रहे हैं न ?
* मैं व्यक्तिवाची संज्ञा हूँ - Proper Noun . आप समझ रहे हैं न ? मैं अपने व्यक्ति का वाचक हूँ , व्यक्तिगत  बातें करता हूँ | अब यह जो व्यक्ति है न ? वह कुछ भी हो जाय , कुछ भी हो सकता है, कुछ भी हो |

* जुगनुओं को कौन ढूंढता है ? सब चाहते हैं जुगनू ही उनके पास आयें | और जुगनू जो हैं वे अपने अंतरिक्ष के सूर्य होते हैं | आप समझ रहे हैं न ?  

* निश्चय ही श्रेष्ठता को प्राप्त करना मनुष्य का उद्देश्य तो होना ही चाहिए | अब उसके साथ ब्राह्मण जोड़ना कितना ज़रूरी है , सोचना पड़ेगा | या देश काल के अनुसार कोई रणनीति बनानी पड़ेगी | क्योंकि एक बड़ा तबका ब्राह्मण वाद के खिलाफ है |
Doctrate के लिए मैं भी " पंडित " शब्द पर विचार कर रहा था | जैसे पं हरि प्रसाद चौरसिया |

रविवार, 13 जनवरी 2013

जिजीविषा


             * शेष कुशल है 
भारत पाक सीमा पर कुछ पटाखे दागने और कुछ शीश कटने पर लोग परेशान हैं | वे यह भी तो देखें कि दोनों देशों के बाशिंदों में अत्यंत प्रेम व्यवहार व्याप्त है, सांस्कृतिक एकता पूर्णतः कायम है | उसमें कोई कमी नहीं आई है और वह बनी रहेगी जब तक सूरज चाँद रहेगा | बार्डर पर वह तो कुछ सैनिकों का कुकृत्य है जो कि उनका नित्य का नियमित काम है | उससे हिन्द - पाक एकता का क्या सम्बन्ध ? 

* यदि जातिप्रथा और हिन्दू धर्म इस कदर अटूट रूप से अन्योन्याश्रित और एक दूसरे से जुड़े हैं, जैसा कि विद्वान जन बताते हैं, तो फिर इस प्रथा के खिलाफ काम करना निरर्थक ही है | इसके पीछे कोई क्यों अपनी शक्ति और समय गवाँए ?   

जिजीविषा - 13 - 0! - 2013 
* मैं आज इस सिद्धांत को गढ़ - बना , जी रहा हूँ कि यदि किसी स्थिति - परिस्थिति से हमारा मन विषाद पूर्ण हो रहा हो तो दो बातें हो सकती हैं | एक तो यह कि स्थिति सही सलामत हो , हमारा उसके प्रति दृष्टिकोण ही गलत हो | और दूसरे यह कि हमारा विश्लेषण तो बिल्कुल दुरुस्त हो स्थितियाँ ही सचमुच चिंताजनक हों | अब दोनों को मिलाकर हम पाते हैं कि स्थितियाँ तो हमारे हाथ से बाहर हैं और हमें अपनी मनोदशा भी ठीक करनी है | तो मैं कर क्या कर रहा हूँ कि अपनी सोच को ही गलत स्थितियों के अनुकूल ढाल - बदल लूँ | शायद यही ठीक होगा |
और मैं " जिजीविषा " मन्त्र को दुहराता हूँ | हर हाल में आदमी को जिंदा रहना चाहिए, जिंदा रहने की कोशिश करनी चाहिए, उसके सूत्र तलाशने चाहिए या नए दर्शन गढ़ने चाहिए | फिर आगे का काम आता है कि उसे खुश रहना चाहिए | बल्कि दर्शन के जिम्मे मैं यह काम सौंपता भी हूँ कि वह आदमी के सुखमय जीवन के रास्ते सुझाये , तदवीरें निकाले | इसलिए देश के लिए , धर्म के लिए जान देना जैसी बातें मुझे सुहा नहीं रही हैं | मुझे लगता है कि जिजीविषा ही प्राकृतिक ईश्वरीय तत्त्व है मनुष्य के भीतर | बल्कि जिजीविषा ही मनुष्य का ईश्वर है | और ऐसा कोई विचार जो मनुष्य में जीने की इच्छा को मारे, जीवन के प्रति उत्साह को क्षीण करे - दर्शन के क्षेत्र में , मेरे मतानुसार त्याज्य होना चाहिए |
अतः, और इसलिए, जिजीविषा - आज दिन भर इसे इतना जिया कि, सोचता हूँ मेरे कोई प्रपौत्री हो तो उसका नाम मैं यही रखूँ |
अब मूल मुद्दा बता दूँ जो इस विचार का स्रोत हुआ | आज मैंने सेक्युलरवाद के प्रति अपने addiction को इसे इस्लामवाद की तरफ मोड़ा तब जाकर निजात मिली | क्यों, ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि सेक्युलरवाद की हमारी ही समझ त्रुटिपूर्ण अथवा अधूरी हो ? या यह भी तो हो सकता है कि इस्लाम के प्रति ही हम किसी पूर्वाग्रही अवधारणा से ग्रस्त हों ?  
           

[ करुण उदगार ]

* कैसा समय है ? 
थोडा सुकून है कि
मेरी कोई बेटी 
जवान नहीं है |
# #


बस इतने में

मुझे याद है
उस दिन क्या हुआ था
हम तुम सड़क पर चल रहे थे
कहीं जा रहे थे
मैंने बहुत हिम्मत बटोर कर
तुमसे कहा- कह पाया था
मैं तुम से प्यार करता हूँ
तुम मुझे .... बहुत
अच्छी लगती हो
और झूट नहीं कहूँगा
तुमने भी हिम्मत की थी
मुंह खोल था
सामने सड़क को देखते हुए
बोल था - "मैं भी तुम से ---"
बस इतने में
एक बिल्ली रास्ता काट गई.

* गरीबी देख 
ज़हर हो जाता है 
मुँह का कौर |

* लोकप्रियता ?
जितना गिर जाओ 
उतना पाओ |

* अपने हाथ 
बोलना ही तो शेष 
और क्या करें !

* कहना शेष 
अब तो कुछ नहीं 
सुनना शेष | 

* के के जोशी जी 
पढ़ते बहुत थे 
लिखते कम |

* ज्ञान दो भी तो  
तुम्हारे पढ़ने से 
हमें क्या लाभ ?

* संदीप जी , युद्ध होंगे तो हथियार खरीदे जायेंगे , हथियारों के दलाल आयेंगे , "बोफोर्स" घोटाला होगा , एक प्रधानमंत्री जायेंगे ," वी पी सिंह " प्रधानमंत्री  बनेंगे , फिर वह मंडल लायेंगे | इस प्रकार युद्ध से और जो भी हो पर सामाजिक समरसता और पिछड़ों का भला तो होता ही है |:-) 

* बहुत बड़ा प्रशिक्षण माँगती है ज़िन्दगी | पल - पल सीखना , पल - पल बड़ा होना !

* ज्ञान पर विश्वास होने की हद तक ज्ञान हो तभी वह ज्ञान है | जो ज्ञान व्यक्ति को अविश्वास के अंधेरों में  घुमा रहा हो , उसे उसका ज्ञान और ऐसे व्यक्ति को ज्ञानी कैसे कहा जा सकता है ? 

* अपने हाथ पीठ तक नहीं पहुँचते | अर्थात प्रकृति नहीं चाहती कि हम खुद अपनी पीठ थपथपायें, स्वयं को शाबाशी दें | अपनी उपलब्धियों के गुण गायें , गुमान करें |

शनिवार, 12 जनवरी 2013

बस इतने में


बस इतने में

मुझे याद है
उस दिन क्या हुआ था
हम तुम सड़क पर चल रहे थे
कहीं जा रहे थे
मैंने बहुत हिम्मत बटोर कर
तुमसे कहा- कह पाया था
मैं तुम से प्यार करता हूँ
तुम मुझे .... बहुत
अच्छी लगती हो
और झूट नहीं कहूँगा
तुमने भी हिम्मत की थी
मुंह खोल था
सामने सड़क को देखते हुए
बोल था - "मैं भी तुम से ---"
बस इतने में
एक बिल्ली रास्ता काट गई.
# # 


* तुम ख़ुशी से थूक दो 
मुझ  पर वह गुस्सा ,
जो सब मेरे लिए है |
# #


* हट जाऊँ 
तुम्हारे सामने से 
शायद तुम्हारे दिल में 
मेरे लिए 
प्रेम उपजे !
# #

IHU-3 : एक झूठ सौ बार नकार


ह्युमिनिस्ट  आउटलुक खण्ड  13  संख्या 6 शरत 2012 में प्रकाशित लेख:-

एक झूठ सौ बार नकार

हम यह अच्छी तरह समझते है कि हम यह जो काम कर रहे हैं कागज, कलम, शक्ति- सामर्थ्य  लगा रहे हैं, ईश्वर के ऊपर अपना दिमाग खपा-खराब कर रहे हैं, वह मूलतः तो एक नकारात्मक निरर्थक काम ही है। ईश्वर, जो नहीं है उसे नहीं है बताना, भला कौन कहेगा कि सार्थक काम है? लेकिन है तो यह जरूर ही सार्थक प्रयास। वह इसलिए कि जब एक नितान्त असत्य, झूठी अवधारणा ईश्वर के होने की, वो भी उसके नितांत त्रुटिपूर्ण, अप्राकृतिक, अवैज्ञानिक स्वरूपों में, मानव समाज में विधिवत संगठित तरीके से फैलाई जा रही हो। तो इस नकारात्मक विचार को नकारकर एक सार्थक काम हो जाता है। उसी प्रकार जैसे ऋण (-) को ऋण (-) से गुणा करो तो वह धन (प्लस) हो जाता है। एक असत्य के सत्य होने का इतना प्रचार किया गया है कि अब उस सत्य के विरोध में विचार-प्रसार एक युगधर्म बन गया है मानवता का, मानववादियों के लिये।

इसलिए हम इसे करते हैं, अलबत्ता यह बीमारी इतनी बढ़ गई है कि इसके विपक्ष में बड़ा से बड़ा सुनियोजित प्रयास भी ऊँट के मुँह में जीरा ही होना है। फिर भी, मनुष्य होने के नाते, हमें अपनी जिम्मेदारी निभानी ही है।
जब हम लोगों ने लखनऊ में 80 के दशक में सेक्युलर सेन्टर की ओर से एक राष्ट्रीय सम्मेलन आहूत करने का निर्णय लिया तो जो मेहमान नहीं आ रहे थे उन्होंने अपने विचार और पर्चे भेजे। एक लम्बा पत्र श्री किशन पटनायक (स्व.) प्रख्यात समाजवादी विचारक का भी आया। वह तो जो था सो वह था लेकिन उसके एक बिन्दु पर जो उत्तर उन्हें सविनय लिखा गया वह इस प्रकार था-”कृपया यह बताइये कि जो वस्तु नहीं है उसका होना सिद्ध करना कठिन है या उसका न होना,“ जैसे इस कमरे में हाथी नहीं है और आप हमसे मानने की जिद करें कि वह है। जाहिर है हमारा आशय था कि ईश्वर नहीं है तो उसका न होना सिद्ध होना ज्यादा आसान होना चाहिये। और उसका होना सिद्ध करना निश्चय ही मुश्किल होना चाहिये।

लेकिन अब तो उल्टा हो रहा है। जो नहीं है उसे नहीं है कहकर आप अपमान तिरस्कार पायेंगे और अज्ञानी, मूर्ख आदि होने का सम्बोधन भी। और यदि झूठी बात की हाँ में हाँ मिला दीजिये तो वाह! यह है सच्चा धार्मिक आदमी। कहावत है कि किसी झूठ को सौ बार सच कहो तो वह सच हो जाता है। इसी प्रकार का सच हो गया है ईश्वर। बल्कि आँखों पर इतना मोटा पर्दा पड़ गया है कि यह भी नहीं दिखाई पड़ रहा फिर वह सच इतना अलग-अलग क्यो है? हिन्दू, मुसलमान, ईसाई आदि सबका अलग अलग ईश्वर? और सारे धर्म एक-दूसरे के इतने विपरीत और इतने विरोधी क्यो हैं? सारे धर्म एक है यह भी एक झूठा प्रचार है। 

तो ऐसी दशा में रणनीति, कार्यविधि यह बनती है कि उस ईश्वर नामक सत्य को हजारो बार झूठा कहा जाये। तभी कुछ काम बनेगा। तभी शायद कुछ फर्क पड़े।

पर यही रूक जाने से भी लक्ष्य हासिल नहीं होगा। इस झूठ का इतना बड़ा मायाजाल, वितंडा खड़ा कर दिया गया है कि उन दार्शनिक मसलों में भी उलझना पड़ेगा। लेकिन मेरा अनुभव है इस विवाद को उतना ही खींचा जाये जितना वह हमारे हित में हो। उसके आगे राजनयिक (डिप्लोमेटिक) तरीके से बचकर उन्हें नजरअंदाज कर दिया जाये। वरना जानते हैं, उनकी तो रणनीति ही यही है कि किस प्रकार आप उनसे शास्त्रार्थ (वाग्जाल) में फंसे और वे आपको लपेट ले। इसलिए यह पहला काम कि हम शास्त्रों को ही न माने।

वे किताबें हैं तत्कालीन बुद्धिमान-विद्वानों की रचनायें, विचार और कवितायें। हम उनके व्यक्ति, उनकी रचनाधर्मिता को प्रणाम करते है। उनका पूरा आदर करते है, श्रद्धांजलि देते हैं। लेकिन उन्हें पूरा का पूरा ज्यो को त्यो मानेंगे नहीं। और उनकी पूजा तो कतई नहीं करेंगे।
उनकी दुनिया में ईश्वर दृश्य भी है, अदृश्य भी है। दृश्य का तो फिर भी नकार आसान होता है। भला क्या इस प्रकार हो सकता है ईश्वर? लेकिन अदृश्य ईश्वर एक शक्तिपुंज के रूप में ऊर्जा के अर्थों में प्रकृति के करीब पहुंच जाता है। उसका न होना प्रमाणित करना कठिन होता है। लेकिन पकडि़ए न चोर की दाढ़ी में तिनका। तो क्या वह यह वह भाषायें भी जानता है? वह बोल भी सकता है और किताबें भी लिख या लिखा सकता है?
जीत आपकी निश्चित है। और आगे --- इतनी अच्छी-अच्छी बातें करते हो, इतना गुण गाते हो तो क्या वह इतना अशक्त और भेद-भाव वाला है जो उसके रहते दुनिया में इतनी विसंगति, इतनी विषमता, युद्ध, भुखमरी, बीमारी, बेकारी, मृत्यु होने पा रही है।

अब यह तर्क फीका पड़ गया कि आदमी को ईश्वर ने बनाया, फिर ईश्वर को किसने बनाया? या उसे तो आदमी ने बनाया। अब तो यह कहना पड़ेगा कि आपको बनाया होगा ईश्वर ने, मुझे मेरे इस अँगूठे, मेरी बुद्धि विवेक, मेरी क्षमता, मेरे अन्तर्निहित गुणों, मेरी कल्पनाशक्ति ने बनाया जिसे द्रोणाचार्य ने काटने का प्रयास किया था यह देखो मेरी हथेलियों पर उग आयें। तो आदमी के अँगूठे ने ईश्वर को बनाया। आदमी का अँगूठा ही अब उसका ईश्वर है।

और फिर उसने हमको पैदा ही क्यों किया, यदि वह कहता है कि उसने ही पैदा किया? क्या हमने उसे कोई प्रार्थना पत्र दिया था कि हे ईश्वर! मुझे उस पृथ्वी लोक नामक नर्क कुण्ड में भेजो? उनके पास इसका भी जवाब होगा। क्योंकि वे लाजवाब लोग हैं। दरअसल इन जिद्दी प्रश्नों का उनके पास कोई जवाब नहीं है।
तब आयेगा आस्था का प्रश्न। और यहीं हमें उनपर तमाचा जड़ देना है। तुम रखो अपनी आस्था अपने पास और अपने तक सीमित रखो, समाज में सार्वजनिक रूप से अपनी अंधी अवैज्ञानिक आस्था का प्रचार न करों। आस्था से दुनिया की जिन्दगी नहीं चलती।

और तुम सुन लो जिस प्रकार तुम्हारी आस्था है ईश्वर है, उसी प्रकार हमारी आस्था है कि ईश्वर नहीं है। इसमें विवाद की गुंजाइश कहा। जैसे तुम्हारे लिये ईश्वर और मजहब के विरुद्ध सुनना पाप है वैसे ही हमें भी ईश्वर का होना मानना दृढ़तापूर्वक अस्वीकार है। हम तुम्हारी भावना को यदि ठेस न लगाये तो तुम भी हमारी भावना कुचलने का दुस्साहस न करो।

है न हमारे पास भी कम से कम संशयवाद (एग्नोस्टिसिज्म) का दर्शन जिसे हम उनपर थोप सकते है। ईश्वर कहीं होगा तो हो किसी अन्य लोक परलोक में। वह इस कमरे (हमारी दुनिया) में तो निश्चित ही नहीं है। कम से कम इस लकीर में तो हमारे बहुत से मानववादी साथी है। इसे ही आगे खींचा जाये। और यह तो है ही कि धर्म को नकारने से ज्यादा आसान है ईश्वर को नकारना। धर्म तो ईश्वर के बगैर भी चलते है। उसपर आगे कभी चर्चा होगी।

उग्रनाथ नागरिक

गुरुवार, 10 जनवरी 2013

FB - 10/01/2013

* ज़नाबे आली ! अब दिन चार पत्नियों के नहीं चार पतियों के हैं | वे दिन और थे , वे चार औरतें और थीं जिन्हें एक पति पाल लेता था | अब तो चार मिलकर भी एक पत्नी का भरण पोषण , साज़ सिंगार का खर्च संभाल लें तो गनीमत समझो |

* बड़े सन्देश आये मेरे नव वर्ष के 'मंगल' मय होने के | मैंभी उनके लिए कामना करता हूँ कि   - -  " आप और आप के परिवार के लिए नव वर्ष में कोई रविवार न आये | "

* बहुत मुश्किल है कुछ ऐसा होना -
कि तू रहे और अम्न कायम हो !

[ भोजपुरी ]
* कबहु कान्हा कन्हाई तूं बनि जाला ,
कबहु लछिमन कै भाई तूं बनि जाला |

 * कौन आदमी 
जातिवादी नहीं है 
मुझे मिलाओ |

[ अच्छी कविता ]
* बोलना नहीं जानता ,
  हाँ , 
  सच बोलना जानता हूँ |

* औरत घर में हो भी तो भी ,
काम न लेना उनसे कुछ भी |


* आखिरश जो भी वह सजा देगा ,
उसे सहने की भी ताक़त देगा |

[ अनबनी कवितायेँ ]
* जिस अखबार में मेरे मरने की खबर थी ,
उसी अखबार में तिरे आने की खबर थी |

* आरक्षण तो लीजिये जितना कुटी समाय ,
बच्चे भूखे न रहें , पत्नी घर रह जाय |

* तुम जो गए तो चलते बनेंगे प्याले सब मयखानों के ,
फिर तो बस दरवाज़े खुलेंगे मेरे बुरे दिन आने के |

* मुझको तू जो भी सजा आखिर दे ,
उसको सहने की मुझमे ताक़त दे |

[कविता ]
* अब इस उम्र में 
प्यार एक और मोड़ लेता है ,
मैं उसके घुटने के दर्द 
का हाल पूछता हूँ ,
वह मेरे दमा की दवा 
तलाश करती है |
#

और जिनने वे रचनाएँ न पढ़ीं हों उन्हें पढ़ाया जाय / अथवा हुसैन के चित्रों के माध्यम से पुनः स्मरण कराया जाय / revise -revive कराया जाय |

[ उवाच ]
* हम किसी को मूर्ख नहीं कह सकते इसलिए नहीं कहते | लेकिन कहने का मन तो होता है |   

मुखातिब मुझसे नहीं , लेकिन मैं ठहरा दाल भात में मूसल चंद | एक कुतर्क करने का बिंदु समझ में आ गया जिस पर मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है | -" बोलने की आज़ादी नहीं है " - | तो क्या चंचल जी ऐतिहासिक दृष्टि से यह सिद्ध कर पायेंगे कि इस आज़ादी के बगैर कोई महिला किसी कि फैन हो सकती है ? अभी तक तो यही जग विख्यात है कि वे बहुत ' बोलती-बतियाती ' हैं | यूँ भी संघी और कम्युनिस्ट से कोई बातों में पार पा जाय , ऐसा मैंने नहीं देखा | वही तो उनकी निधि है | अब यह कथन सत्य हो सकता है चंचल जी का कि वे [ औरतें और कम्युनिस्ट ] उनकी तरह " सत्य " न बोलते हो इसलिए मार्क्स की गोद उन्हें प्यारी लगती है , तो वह और बात है |  

यही वक्त है की सारा देश "भैया" या "बापू" चीखता हुआ इन महापुरुषों के पैर पकड़कर एक स्वर में गुहार करे - हे महापुरुषों , कृपया भारत को बख्श दीजिये | [राजेन्द्र धोड़पकर]

* सही है कि भारत के मुसलमान भारत के दुश्मन नहीं हैं लेकिन पाकिस्तान तो भारत से दुश्मनी निभा ही रहा है ?

* धूप में बैठें 
या फेसबुक पर ?
बड़ी ठण्ड है |

* यही शरीर 
सोना था , अब मिट्टी 
यही शरीर |

* किस्से लडूँ
लड़ झगड़कर 
शांत हो पाऊँ ? 
 
* [ निजी ]
मुझ पर कोई दुःख पड़ता है तो मैं चुप हो जाता हूँ | बिल्कुल चुप | अपने अन्दर कुंडली मारकर बैठ जाता हूँ और उसमे अपनी पीड़ाएँ लपेट लेता हूँ | आराम मिल जाता है | आज मेरे पैरों में चिलकन है, ठण्ड लग रही है और कोल्ड डायरिया | अभी कुछ ही दिन पूर्व एक कष्ट से उबरा हूँ | उसके भी थोड़े अवशेष हैं | तो अब यह कष्ट ! छत्तीसगढ़ के गृह मंत्री कि मानें तो ' मेरी ग्रह दशा ' ठीक नहीं है |

[कविता ?]
* पेट काटकर 
तुमने पढ़ाया बापू 
तो पेट काटकर 
मैंने भी पढ़ा है बापू !
तुम्हारे भेजे पैसे से 
नहीं पड़ता था पूरा 
पूरे माह का खाना,
दो दो जून 
नाग कर जाता था बापू 
तब पढ़ पाया मैं बापू ! 
* फीस भरा, लाजिंग का बंदोबस्त किया और क्या करता ,
मैं नालायक पढ़ न सका तो बाप बिचारा क्या करता ? 

[कविता ?]
* होता है , होता है 
ऐसा हो जाता है 
कि बुलाओ किसी को 
कोई और सुन लेता है ,
अक्सर ही होता है 
पुकारो पंडित को 
ब्राह्मण सुन लेता है , 
होता है | 
ऐसा भी होगा ही 
बुलाओगे ब्राह्मण को 
दलित कोई सुन लेगा ,
ऐसा तो होगा ही |
होता है |
# # 

आज एक कविता पोस्ट कर रहा हूँ | संभवतः कल इस पर कुछ बातचीत , मित्रों से कोई निवेदन करूँ |
[ कविता ] 
          "समय याचक "
* समय अपने हाथ में 
प्रार्थना पत्र लिए 
हमारे द्वार पर खड़ा है ,
इसकी पीड़ा, उसकी समस्या पर 
विषद विवेचन, दूरगामी नीति और 
ठोस कार्यवाही की ज़रुरत है |
लेकिन हमें भी तो काम हैं ,
हम व्यस्त हैं,बड़ी जल्दी में हैं |
लोकतंत्र हमें स्थाई
होने नहीं देता -
दीर्घकालीन अवसर |
इसलिए मेंरे पास 
इनके लिए फुर्सत नहीं है |
पार्टी मीटिंग, अनुशासन समिति,
कुछ विकास की फाइलें ,
गबन के मुआमले तमाम  
देखने, निपटाने हैं मुझे |

मैं एक सरसरी निगाह समय पर 
और उसके प्रार्थना पत्र पर डालता हूँ 
मुस्करा कर उसके कंधे पर 
हाथ रखकर आश्वासन 
देता हूँ, और        
उसके हाथ से प्रार्थना पत्र लेकर 
पीछे खड़े सचिव को पकड़ाकर
आगे बढ़ जाता हूँ |
# # #  

* मुझसे रूठे हुए हैं जाने क्यों ?
मैं मनाता हूँ पर वह मानें तो !


* क्या जाने कब क्या हो जाए ,
चलो आज मंदिर हो आयें |
मेरे वश का काम नहीं है ,
ये ग़ज़लें पूरी कर पायें |

* मुझे साहित्यकार से ज्यादा वैज्ञानिक और दार्शनिक महत्त्व पूर्ण लगते हैं | उन्हें विग्यार्शनिक कहा जाय क्या ? और उनके काम को विग्यार्शन ? 

* जनमत निर्माण योजना [ politics ] , a facebook group

* ज़िन्दगी उतनी ही तुम्हारी है जितनी तुमने दूसरे के लिए जी | 

* अभिव्यक्ति का प्रश्न बहुत गहन है | मैंने बड़े बड़े अभिव्यक्ति की आजादी वालों और लोकतंत्र पर बहसबाजों  को देखा कि किसी के बोलते ही उसके मुँह से बात छीन लेते हैं और स्वयं चालू हो जाते हैं | अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब यह भी तो है कि कैसे कोई दूसरा भी खूब बोले | अटूट निष्ठां, मजबूत अनुशासन और  सघन संस्कार माँगती है अभिव्यक्ति की आजादी |   


मंगलवार, 8 जनवरी 2013

FB- 07-01-2013


* चिन्तक नहीं
पर चिंतित तो हैं
हम जो लोग |

* मन में आया
अपने समय का
मैं रहनुमा |

* विशिष्टता है
सामान्य बनने में
कठिन काम |


* अध्यात्म है मनुष्य के मन की गहरी ऊँचाईयाँ|

* मानववाद का मतलब है - मनुष्य भी कुछ कर सकता है |

* बलात्कार पर धरना, प्रदर्शन, मोमबत्तियाँ, राजनीति तो खूब हुयी लेकिन मानव मन के इस छोर पर कोई [मनो] वैज्ञानिक शोध भी हो रहा हो या होने की माँग हुई हो, इसकी सूचना नहीं है |      


* एक आप्त कहावत है कि कोई तुम्हे गाली दे और तुम उसे स्वीकार मत करो तो वह गाली देने वाले के पास वापस चली जाती है | यद्यपि अब कुछ कहने लायक नहीं है, क्योंकि दलित आन्दोलन एक अद्भुत हीन भावना और विक्षिप्त बौखलाहट में रूपांतरित हो चुका है | फिर भी कहना तो पड़ता है कि कोई हमारे विषय में क्या सोचता है [ और ऐसा हर समय हर किसी के साथ होता है ] यह कोई महत्त्व नहीं रखता जब तक हम उसे अपने ऊपर न ले लें | कई बार तो ऐसा भी होता है कि कोई कुछ कहता किसी और से या किसी और के बारे में है और हम उसे अपने ऊपर ले लेते हैं | इसी प्रकार ब्राह्मण हमें क्या समझता है, नीच -कमीना- शूद्र - अछूत इससे कोई मतलब नहीं , या है भी तो बहुत कम और उसे हम इसी तरीके से समाप्त भी कर सकते हैं , यदि हम उसे स्वीकार मत करें | सामान्य सामजिक जीवन में भी हम यही अस्त्र काम में लेट हैं - समझा करो तुम हमको कुछ , हम तो जो हैं वह हैं , हम जानते हैं कि हम सम्पूर्ण मनुष्य हैं और ऐसे ही रहेंगे | हम जानते हैं कि हम क्या है , तुम्हारे समझने से क्या होता है ? गलत है कि दलित आन्दोलन ब्राह्मण से स्वयं आक्रान्त है | आर्थिक - सामाजिक आदि स्थिति दरकिनार , वैसी स्थिति बहुतों की है, पर मनुष्य की हैसियत से हम मनुष्य हैं , तुम्हारी मर्जी तुम जानवर कहो या समझो क्या फर्क पड़ता है | ऐसा आत्मविश्वास ही हमारा सहायक होगा |

* भारत की बोलियाँ, जैसे यूँ समझिये क वे दलित भाषाएं हैं | लेकिन उसी भाषा में तो भारत का लोक जीवंत है | सोहर, बियाहू, आल्हा बिरहा चनैनी आदि गायन इन्ही बोलियों में है | लेकिन इधर दलित हैं की बिदके जा रहे हैं | जब ब्राह्मणवाद, कहिये कि, चरम पर था या रहा होगा तब तो दलितों की कला, उनका कौशल, उनकी संस्कृति उत्कर्ष पर थे | ऐसा अनुमान हम कर सकते हैं क्योंकि उनमे क्षरण अभी हमारे देखते देखते आया है | अब जब उनके पास शिक्षा है समृद्धि है तब वे प्रभाहीन हो रहे हैं | और अपनी विशिष्टता खोकर कोई कहाँ किस स्थान पर रहेगा यह सोचना कोई कठिन काम नहीं है | वे दलित हैं नहीं, पर अब दलित [ कला कौशल प्रभा विहीन ] होने कि पूरी तैयारी में हैं | यह नाम तो उन्होंने स्वीकार कर ही लिया है | उल्लेख करना अतिरिक्त हो जायगा कि यह बात ब्राह्मणों पर तो लागू हो सकता है कि वह ज्ञान गुण कला विहीन होकर पूज्य होने का ढोंग कर ले , लेकिन ऐसा कभी किसी कौम के लिए सच होता नहीं | उन्होंने ऐसा कहा पर वे उससे विहीन नहीं हुए | दलित भी बिना योग्यता के सम्माननीय नहीं हो पायेगा | Management  के किसी SCIENCE के किसी chapter में इसकी गुंजाइश नहीं है |          


* मनुस्मृति दीं कोई जवाब नीं | [ Unparrallel is the Manusmriti ]
इस पोस्ट को जो पढ़े, समझो वह मनुवादी है | नहीं है तो हो जायगा |

[ क्योंकि इस पर बहस है जिसका अंत नहीं |, प्रमोद जोशी जी !]


* बड़ों का फ़र्ज़ तो निभाना ही पड़ता है बड़ों का | एक किस्सा है न ! पुत्र ने पिता से पूछा गंगा किस देश में बहती है ? पिता ने कहा - मुझे नहीं पता | थोड़ी देर बाद बच्चे ने फिर पूछा - पिता जी भारत की राजधानी
कहाँ है ? पिता ने कहा - बीटा मुझे नहीं मालूम | फिर तो बेटा बिलकुल चुप हो गया | बहुत देर जब बच्चे ने बाप से कोई प्रश्न नहीं किया तब उससे बाप ने कहा - पूछो पूछो बेटा , पूछोगे नहीं तो जानोगे कैसे ?



ऐसे लोग हैं , शायद यह उतनी नहीं क्योंकि समाज में अच्छे बुरे तमाम तरह के लोग होते हैं , लेकिन ऐसे लोग समाज में महत्ता प्राप्त और आदर के पात्र बने हैं यह ज़रूर चिंता की बात है |

हाँ, बड़े नुक्सान की आशंका है | स्त्री पुरुष के सहज सामान्य संबंधों पर ग्रहण लगने वाला है | हादसे के बहाने कोई परदे की वकालत कर रहा ही, कोई सहशिक्षा समाप्त करना चाहता है इत्यादि | जब की इसका निदान इनके अधिकाधिक घुल मिलन शीलता में है , अंततः |

क्या यह उचित न होगा , और क्या यह संभव है कि आसा / ओवैसी लोगों को नज़रंदाज़ किया जाय ? उनकी बातों को अपनी टिप्पणियों द्वारा आगे न बढ़ाया जाय ?

इसके अतिरिक्त मेरे ख्याल से देश काल संस्कृति के अनुसार राज्य को अपनी भूमिका में परिवर्तन भी लाना चाहिए | कोई ज़रूरी नहीं जिस तरह का राज्य एक देश - समाज के लिए उपयुक्त हो वही दुसरे के लिए भी कारगर हो |


मेरी यह चिंता बड़ी पुरानी है, लगभग तीस वर्ष की , कि ऐसा क्यों हो कि उनकी [ e .g . आसा / ओवैसी / ठाकरे ] की बात तो परवान चढ़े और सामान्य जन [ e .g . उज्जवल जी नीलाक्षी , चंचल , पूजा जी आदि ] कि बातें अनसुनी रह जायँ? और यही मूल कारण था जो मैंने " प्रिय संपादक"  नामक  पाठकों के पत्रों की परिकल्पना की और उसे लंगड़े लंगड़े चलाया [ अब फेसबुक पर ] | सब लिखें - सब कहें | कहाँ तक नहीं सुनी जायगी हमारी बात | कोई परिणाम न हो तो भी यह दर्ज तो हो कि किसी/ किन्ही  ने ये बातें कही थी | हम अपने समय के समक्ष शर्मिंदा और गुनहगार होने की स्थिति से तो बचें  | और फिर कुछ न कुछ तो अवश्य ही होगा | स्वर व्यंजन - चीख पुकार निरर्थक नहीं जायेंगे |


ज़नाब वासिफ फारुकी से सुने उनके ख़ास दो अश आर -
* मैं अपने बच्चों की ख्वाहिशों को क़त्ल होते न देख पाया ,
  मैं जानता था कि ज़िन्दगी में हराम क्या है हलाल क्या है |

* मेरे बदन से कितने रिश्ते लिपटे हैं ,
  सोच रहा हूँ मैं संदल बन जाऊँ क्या ?


[ मुक्तक ]
* जानी पहचानी आवाजें ,
ह्रदय विदारक हैं आवाजें ;
खूब जानता किनकी हैं ये
मेरे दिल कि ही आवाजें |



एक छोटी सी विनम्र सूचना देनी थी | हम थोडा कट्टर किस्म के धुर नास्तिक Cantankerous Atheist लोग हैं | हम अपनी आस्था और विश्वास का ही प्रचार करते हैं और यूँ अमूमन धर्मों या धर्म विशेष का सन्दर्भ नहीं लेते, फिर भी ज़रुरत पड़ने पर मजबूरन उन पर कटु प्रहार भी कर सकते हैं , क्योंकि स्थितियां सहन शीलता की सीमा से प्रायः बाहर चली जाती हैं | इसलिए धार्मिक सांप्रदायिक आस्तिक मित्रों को सावधान करना है कि यदि उन्हें हमारी आस्था रुचिकर न लगे तो भी उसका आदर करें और हमें चिढ़ाएं नहीं, यदि वे अपनी आस्था का आदर बचाना चाहते हैं तो | बराबरी का [पौरुषेय] व्यवहार वैसे ही करें जैसे एक आस्तिक द्वारा दूसरे आस्तिकों से किया जाना अपेक्षित है | [ नास्तिक जन ]


* लोग मृत्यु दंड की बात करते हैं और यहाँ मैं थानों में थर्ड डिग्री मेथड अपनाने के ही खिलाफ हूँ | नतीजा जो भी हो |
* मैं यह सोच रहा था कि पुलिस थाने अपराध दर्ज करने से क्यों कतराते हैं ? अक्सर सुनने में आता है कि ऍफ़ आइ आर नहीं लिखा जाता | शायद सर्कार द्वारा थानो के मूल्यांकन में यह आंकड़ा काम आता है कि देखो हमारे यहाँ अपराध कम है | यदि सरकार थानों में दर्ज अपराधों को थाने के कार्य प्रणाली से न आंकने की नीति बना ले तो थानेदार उन्हें लिखने से न कतराएँ और सही वस्तु स्थिति , वह जैसी भी हो ठीक हमारे सामने आये |

* प्रमोद जी की बात से , इसीलिये बात आती है कि राज्य कमज़ोर आदमियों के लिए होनी चाहिए | कमज़ोर आदमी ही इकठ्ठा होकर राज्य बनाते हैं , राज्य का निर्माण करते हैं | मजबूत और दमदार लोगों का क्या ? वे तो अपने व्यवसाय - व्यापार का भी प्रबंध कर सकते हैं , अपने बच्चों के लिए शिक्षा का इंतजाम भी और आवास आदि , और अपनी सुरक्षा भी वे भली भाँति कर सकते हैं | इसीलिये हमने [ एकदा फितरतन ] " कमज़ोर पार्टी " बनाने कि सोची, जो हंसी में उड़ गयी मेरे हर ख्याली पुलाव कि तरह |  लेकिन सच यह है तो और ऐसा कहा जा सकता है कि - " राज्य वही जो कमजोरों के काम आये " |




शनिवार, 5 जनवरी 2013

किन्ही शायरों के

[ प्रातः स्मरण ]
किन्ही शायरों के कुछ अशआर :
* घर से मस्जिद है बहुत दूर, यह किया जाए -
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए |

* अमावट आ गया जब मार्केट में आम से पहले ,
तो क्यों मजदूर मजदूरी न माँगे काम से पहले ?

* यूँ ज़िन्दगी गुज़ार रहा हूँ तेरे बगैर ,
जैसे कोई गुनाह किये जा रहा हूँ मैं |


[ कविता ]

* प्रश्न था -
चुम्बन अश्लील है
या युद्ध ?
मैंने कहा -
युद्ध |
# #

* ज़िन्दगी भर
ज़िन्दगी के सामान
इकठ्ठा करता रहा ,
अब , जब सामान
इकठ्ठा हो गया
तब ज़िन्दगी
जीने का
समय ही नहीं बचा |
# #

* सोचो और
सोचते रहो कि
किसी को प्यार
करना चाहिए ,
किसी का प्यार
पाना चाहिए ,
लेकिन बस सोचो
सोचते रहो
सोच के दायरे से
आगे मत बढ़ो ,
किसी का प्यार मत लो
किसी को प्यार मत करो |
# #

मजबूरी बहुत ज़रूरी


* अपने स्वार्थ के अलावा कुछ भी न जानने वाला कुछ नहीं जानता | वह कुछ जान ही नहीं सकता | ज्ञानी होना तो बहुत दूर की बात है |

* मुसीबत को मुसीबत की तरह झेलो , नहीं तो मुसीबत झल्ला जायगी और खौखियाकर टूट पड़ेगी |
* ( गीता से सीखा ) अपनी ज़िन्दगी अपने भरोसे जियो | यह न समझो कि तुम्हारे कितने दोस्त हैं, कितने परिवार के लोग, कितने पुत्र पुत्रियाँ |  

* मुझमे तमाम दोष, तमाम खराबियां हैं | लेकिन एक बात है कि मैं अभिव्यक्ति की आजादी का नम्बर एक तरफदार हूँ | इसका भरपूर खिलाड़ी भी हूँ | बल्कि मेरे एक राजनीतिक मित्र का कहना है कि इस आज़ादी का मैंने सर्वाधिक उपयोग [ दुर ?] किया है | तो इस सिलसिले में मैं एक बात अभिव्यक्त कर दूं कि मैं आन्दोलनों के [ सख्त ] खिलाफ हूँ | एक तो इसने मेरा कैरियर चौपट किया | 1963 में कल्पनाथ रे ने गोरखपुर वि.वि. हड़ताल / मार पीट कराकर पूरा साल बर्बाद करा दिया | मै डिप्लोमा होकर रह गया | आगे जे पी के हिलन्त [ movement ] के समय मैं अपरिपक्व था और मुझे कुछ करना नहीं था , इसलिए मूक दर्शक रहा | इधर तो न अन्ना का, न रामदेव का समर्थक बना | ट्रेड यूनियनों के स्वार्थपूर्ण आन्दोलनों के कारण मुझे इससे घिन सी हो गयी | अब तो करे कोई प्रगतिशील मुझसे घृणा |  

* पुरुष होंगे तो पुरुष मानसिकता से ग्रस्त होंगे | भारतीय होंगे तो भारतीय मानसिकता से ग्रस्त होंगे | हिन्दू होंगे तो हिन्दू मानसिकता से ग्रस्त होंगे | कैसे निकलें इन मानसिकताओं से ? कैसे काटकर और कहाँ फेंकें इन्हें ? कैसे बनायें अपनी मानसिकता को राम चरित मानस ?

 * तलाक ज़रूरी है क्या अलग रहने के लिए ? बिलकुल नहीं | मैं रह ही रहा हूँ | तो सोचता हूँ , साथ रहने के लिए विवाह ही क्यों ज़रूरी हो ?




* लोकतंत्र चाहे रहे या जाय , लोकसेवकों [ कर्मचारियों ] को लोकसेवा का काम करना ही पड़ेगा |
लोकतंत्र के नाम पर हड़तालें काम चोरी !

* खुदा, एक एहसास है या नहीं ? यदि एहसास है, तो खुदा हो न हो क्या फर्क पड़ता है ? और यदि एहसास नहीं है तब तो खुदा है ही नहीं |

* कभी कभी मन अकारण ही , दुखी न कहें तो अन्यमनस्क हो जाता है | बुद्ध हर दुःख के पीछे कारण बताते हैं | कोई कारण नहीं होता फिर भी हम दुखी होते हैं | बुद्ध तब भी मुस्कराते हैं |



* मुसीबत को मुसीबत की तरह झेलो , नहीं तो मुसीबत झल्ला जायगी और खौखियाकर टूट पड़ेगी |

* ( गीता से सीखा ) अपनी ज़िन्दगी अपने भरोसे जियो | यह न समझो कि तुम्हारे कितने दोस्त हैं, कितने परिवार के लोग, कितने पुत्र पुत्रियाँ |

* मजबूरी बहुत ज़रूरी है | मजबूरी न हो तो गधे को कोई बाप क्यों कहे ? और गधों को बाप कहना आजकल कितना ज़रूरी हो गया है , यह तो बताने की बात नहीं है !


* मैं प्रेम विवाह का पूरा विरोधी नहीं हूँ | लेकिन इतना तो मानना पड़ेगा कि विवाह व्यावहारिकता का सम्बन्ध है जबकि प्रेम में भावात्मक बहाव होता है |

* ज़बरदस्ती कुछ भी नहीं होना चाहिए | रेप का तो सवाल ही नहीं उठता |

* माँ बाप की गलत बातों को गलत वैसे भी कहा जा सकता है | गाली देना ज़रूरी नहीं है |

* आने वाले समय में " विप्र " उसे कहा जायगा, जो 'विज्ञानं' में 'प्रवृत्त' होगा |

'सत्यवादी'

[ कहानी ]       'सत्यवादी'

* - कामरेड मैं सच बोल रहा हूँ |
= इसका मतलब तुम सत्यवादी हो ?
- अब सत्यवादी वत्यवादी तो मैं नहीं जानता, लेकिन मैं आपसे सच कह रहा हूँ |
= नहीं, पहले स्वीकार करो कि तुम सत्यवादी हो | तभी माना जायगा कि तुम सत्यवादी हो |  
- क्या बिना सत्यवादी हुए मैं सच नहीं बोल सकता |
= नहीं इसका अधिकार नहीं है तुम्हे | पहले वादी बनो फिर सत्य बोलो या नहीं , तुम्हारी बात सच मानी जायगी |
- लेकिन गुरुवर मैं कह तो रहा हूँ कि मैं सच बोल रहा हूँ | 
= तुम झूठ बोल रहे हो , यदि तुम सत्यवादी होना स्वीकार नहीं करते |

गुरुवार, 3 जनवरी 2013

बाहर धूप खिली


* Though, may not be enlightened (5)
But , I would like to sit with      (7)
High minded men and women (5)


* समानता भी 
क्या दोनों एक साथ ?
आरक्षण भी ?

* भीतर जाड़ा 
बाहर धूप खिली   
चलो निकलो |



* अतिशयोक्ति
झूठ तो नहीं होता
काव्यालंकार !

* चारो तरफ
झूठ का बोलबाला
सत्य का काला |

* सब सत्य है
सत्य असत्य सम
सब झूठ भी |

* ज्यादा सोचना
गुड़ गोबर हुआ
कम सोचता |

तीन तीन युद्ध


* अगर वक्तृता, लच्छेदार भाषणों  के बल पर सद्भाव कायम होता , तो अटल बिहारी जी को पाकिस्तान यात्रा बीच में छोड़कर कारगिल न लड़ना पड़ता |  
तीन तीन युद्ध हुए | किसने किया ? कौन जारी रखे हुए है ?

संबंधों को 'गन्दला' करने वाले हुक्मरान और सियासतदान कहाँ से आते हैं ? आप उनसे अपने मुल्क में लड़िये | हम तो यहाँ लड़ ही रहे हैं | इसमें जनता के बीच प्रेम मोहब्बत क्या कर लेगी ?

अजीब बात है | अन्य किन्ही देशों से प्रेम की बल्तों की इतनी नौटंकी नहीं की जाती , पर उनसे सम्बन्ध बिगड़ते तो नहीं हैं | इधर हिन्द -पाक के बीच जितना मोहब्बताना शोर होता है , उतना ही इनके सम्बन्ध बिगड़ते हैं |

[कविता ]
* पता चलता है 
वह शूद्र है ,
विश्वास तो नहीं 
पर शक होने लगता है -
वह शूद्र होगा |
# # 
* समानता भी 
क्या दोनों एक साथ ?
आरक्षण भी ?


* एक दो तथ्य और ध्यान देने योग्य हैं | लोग मृत्यु दंड की बड़ी मांग कर रहे हैं | यदि इस दंड में कोई ताक़त होती तो लोग इसके aagman के भय से ही डर गए होते , जैसे भेड़िया या शेर के अथवा प्रलय आने की सूचना से भय व्याप्त हो जाता है | लेकिन क्या हुआ ? बलात्कार के समाचारों से अखबार पटे पड़ रहे हैं | एक पत्रकार मित्र का आज कहना था कि अब ' बलात्कार समाचार ' नाम से अखबार की गुंजाइश हो गयी है | अतः फाँसी अशक्त और अपर्याप्त है अपराधियों को अपराध से विरत करने में |

दूसरे , अख़बारों में यह कोई गौर नहीं कर रहा है कि आयुर्वेदिक शक्तिवर्द्धक नाना प्रकारेण कैप्सूलों के विज्ञापनों की कितनी भरमार हो गयी है ? 


* एन डी तिवारी शिया कालेज पहुंचे | - - उन्होंने कहा कि समुदाय को शिक्षित करने व उर्दू भाषा के प्रचार - प्रसार के लिए सरकार सहित सामाजिक संगठनों को आगा आना होगा | 
 मुसलमानों को शिक्षित करने के बीच में यह उर्दू भाषा कहाँ से आ गयी ? कहा तो जाता है कि उर्दू किसी संप्रदाय की भाषा नहीं है | तो थोडा तो मूर्ख बनना हमें मनोरंजक लगता है, लेकिन सरासर मूर्ख बनाने कि कोशिशों को हम उचित नहीं समझते | मुसलमानों के निमंत्रण पत्र उर्दू / अंग्रेज़ी में छापते हैं | इसलिए यह कहा जा सकता है कि उर्दू हिंदुस्तानी भाषा है , लेकिन यह मुसलमानों कि थोड़ी ज्यादा है |

* आखिर थानों में महिला पुलिस कान्स्तेबुलों कि संख्या बढ़ानी पडी या नहीं ? मैं कहता हूँ तो मेरी बात कोई मानता ही नहीं - कि देश का बागडोर महिलाओं और दलितों को सौंप दिया जाना चाहिए | फिर चाहे महिलाओं की अस्मिता का प्रश्न हो या आरक्षण की समस्या , सब सुलझ जायगी | और यही केवल एक उपाय है भारत के लिए समुचित | इसमें कई कई गुण हैं | कोई समझे तो ! बस अपने स्वार्थ से निकलने और देश सेवा के भाव से आगे आने की ज़रुरत है |      

* लोग कहते हैं औरत पुरुष से निम्न और भिन्न है | इसे पलट कर क्यों न समझा जाए ? पुरुष औरत से भिन्न अतएव  निम्न है |

* दुर्घटनाओं , अप्रिय घटनाओं का कारण है प्रगति , अंधाधुंध गति | पैसा आ गया , खान पान , कपडे लत्तेवगैरह तो बदल गए पर उस हिसाब से दिमाग नहीं बदला / बढ़ा | उसके अनुकूल मानस तब्दील नहीं हुआ , बुद्धि में अभिवृद्धि नहीं हुई | इसलिए सामाजिक व्यवहार में पाँव लड़खड़ा जाते , क़दम गलत दिशा में पड़ जाते हैं |



एक छोटी सी विनम्र सूचना देनी थी | हम थोडा कट्टर किस्म के धुर नास्तिक Cantankerous Atheist लोग हैं | हम अपनी आस्था और विश्वास का ही प्रचार करते हैं और यूँ अमूमन धर्मों या धर्म विशेष का सन्दर्भ नहीं लेते, फिर भी ज़रुरत पड़ने पर मजबूरन उन पर कटु प्रहार भी कर सकते हैं , क्योंकि स्थितियां सहन शीलता की सीमा से प्रायः बाहर चली जाती हैं | इसलिए धार्मिक सांप्रदायिक आस्तिक मित्रों को सावधान करना है कि यदि उन्हें हमारी आस्था रुचिकर न लगे तो भी उसका आदर करें और हमें चिढ़ाएं नहीं, यदि वे अपनी आस्था का आदर बचाना चाहते हैं तो | बराबरी का [पौरुषेय] व्यवहार वैसे ही करें जैसे एक आस्तिक द्वारा दूसरे आस्तिकों से किया जाना अपेक्षित है | [ नास्तिक जन ]


* लोग मृत्यु दंड की बात करते हैं और यहाँ मैं थानों में थर्ड डिग्री मेथड अपनाने के ही खिलाफ हूँ | नतीजा जो भी हो |
* मैं यह सोच रहा था कि पुलिस थाने अपराध दर्ज करने से क्यों कतराते हैं ? अक्सर सुनने में आता है कि ऍफ़ आइ आर नहीं लिखा जाता | शायद सर्कार द्वारा थानो के मूल्यांकन में यह आंकड़ा काम आता है कि देखो हमारे यहाँ अपराध कम है | यदि सरकार थानों में दर्ज अपराधों को थाने के कार्य प्रणाली से न आंकने की नीति बना ले तो थानेदार उन्हें लिखने से न कतराएँ और सही वस्तु स्थिति , वह जैसी भी हो ठीक हमारे सामने आये |

* प्रमोद जी की बात से , इसीलिये बात आती है कि राज्य कमज़ोर आदमियों के लिए होनी चाहिए | कमज़ोर आदमी ही इकठ्ठा होकर राज्य बनाते हैं , राज्य का निर्माण करते हैं | मजबूत और दमदार लोगों का क्या ? वे तो अपने व्यवसाय - व्यापार का भी प्रबंध कर सकते हैं , अपने बच्चों के लिए शिक्षा का इंतजाम भी और आवास आदि , और अपनी सुरक्षा भी वे भली भाँति कर सकते हैं | इसीलिये हमने [ एकदा फितरतन ] " कमज़ोर पार्टी " बनाने कि सोची, जो हंसी में उड़ गयी मेरे हर ख्याली पुलाव कि तरह |  लेकिन सच यह है तो और ऐसा कहा जा सकता है कि - " राज्य वही जो कमजोरों के काम आये " |


निश्चयात्मा ( नास्तिक जन )


निश्चयात्मा
यद्यपि संशय / संदेह करना वैज्ञानिक प्रवृत्ति है और उसे एक सीमा तक हम स्वीकार करते हैं | लेकिन तदन्तर किसी तो समय हमें किसी निर्णय पर पहुँचना ही पड़ता है | तभी वह हमारा कोई लक्ष्य निर्धारित करता है और हम दृढ़निश्चय होकर किसी मार्ग पर प्रवृत्त होते हैं | सदैव संदेह में रहने वाला तो कहीं का नहीं होगा | संशयात्मा विनश्यते | इसलिए अपने जीवन (सर्वाइवल) के लिए आस्तिक को भी निश्चयात्मा होना पड़ेगा, और नास्तिक को भी संदेहमुक्त होना पड़ेगा | तभी मानुषिक आचरण (धार्मिकता) जीवित रह पायेगी | यह विनष्ट इसीलिये हो रही है क्योंकि आस्तिकों में भी आस्था का छद्म है | जिसे वे आस्था बताते हैं वह तो सर्वांगीण अनास्था है | तनिक से दुःख में या विपरीत स्थिति में वे घंटा घड़ियाल बजने - पूजा पाठ करने - हनुमान चालीसा गाने लगते हैं | या फिर वे पारंपरिक ढोंग का ही पालन करते हैं बिना मन के , बिना सच्ची आस्था और विश्वास के | और यही हाल नास्तिकों का भी है | उन्हें भी विज्ञानंसम्मत ज्ञान तो है कि ईश्वर नहीं है , लेकिन एक संदेह बना रहता है - अरे यदि कहीं वह हो गया तो - - ? इसलिए वे इस दिशा में कोई कार्य नहीं करते जिसके कारण इसका प्रचार प्रसार तो नहीं हो रहा है, यह विचारधारा लुप्तप्राय हो रही है जो कभी अपने उत्कर्ष पर थी | कम से कम भारतवर्ष में तो , लेकिन उस पर अधिक चर्चा संभव नहीं |
किन्तु हम नास्तिकता पर निश्चायात्माओं की तलाश और उनके निर्माण / विकास में सहायक होना चाहते हैं | जो भी जन, स्त्री - पुरुष, इस सत्य पर अपनी अंतरात्मा से दृढ़मत हों कि ईश्वर नहीं है और जो है उसका नाम ईश्वर नहीं है , उनका स्वागत है | फिर उनकी कल्पनाशीलता और रचनात्मकता पर तो कोई प्रतिबन्ध हो ही नहीं सकता | वे चाहें तो अपना अपना ईश्वर अपने अपने लिए नया नया ईजाद करें और हमें (आपस में ) बताएँ |     

नया मनुष्य ( नया अध्यात्म )
  * नया अध्यात्म विवेकानन्द का धर्म होगा , खलील जिब्रान का वचन , सुकरात का किस्सा , मीरा - कबीर का भजन , और छाप तिलक सब छीनने वाले खुसरो का कलाम | और - - और - - कहना न होगा - नीत्शे का ऐलान |
* नया धर्म होगा हर व्यक्ति का व्यक्तिगत , उसकी स्वयं अपनाई गई नैतिकता | वरना दृष्टव्य हैं कि मनुष्य की इच्छा के बगैर आज तक उसे कोई भी धर्म नैतिक नहीं बना पाया |
* नया ईश्वर भी होगा मनुष्य का स्वनिर्मित | ऐसा वह हमेशा ही रहा है किन्तु कुछ परिस्थितियों वश मनुष्य का ईश्वर मनुष्य से दूर होता गया , कुछ गढ़ों में क़ैद हो गया , और मनुष्य भी अपने ईश्वर के सन्निकट आने से वंचित रह गया, वह पाखंडों में फँस गया | अब नया ईश्वर वस्तुतः काल्पनिक होगा , साहित्यिक - सांस्कृतिक , मानववादी और मनुष्य के वैज्ञानिक मन के अनुकूल - किंवा मनोवैज्ञानिक | वह सृष्टि का प्रकृति होगा अन्यथा शून्य तो शून्य - वह ' कुछ नहीं ' होगा | 

---------------------------------------------
* हाँ , इसी प्रकार वह दामिनी की भी परीक्षा ले रहा था | फेल हो गई बेचारी ? वह बाबरी मस्जिद गिरने और गुजरात के दंगों में ही परीक्षा ले रहा था | लेकिन इस पर तो कुछ लोग हाय तौबा मचा रहे हैं, और कुछ लोग प्रसन्नता मना रहे हैं | सब अल्लाह की मर्जी ? संकोच आना चाहिए ऐसे ईश्वर की तरफदारी में | लेकिन आये कैसे ? सबसे पहले तो वह विनाश काले सामान्य संवेदना , साधारण बुद्धि का ही विनाश जो कर देता है | और इस प्रकार अपना साम्राज्य कायम करता है | 

मटर का छिलका


* घर में फैला
मटर का छिलका
बकरी आयी |

* हर बात में
साला हिन्दू मुस्लिम
या हिंदी उर्दू |

* ब्राह्मणवादी ?
और इसके सिवा
कोई तो नहीं !


* और ऊपर
और ऊपर जाओ
वहाँ है फल |

* अंग प्रत्यंग
ढीले हो जाते हैं
वृद्धावस्था में |


तेरी रश्मियाँ



[गीत / ग़ज़ल ]
* जो ज़माने को बदले मेरे दरमियाँ,
ऐसी ताक़त है किसमें और वह है कहाँ ? [ मतला ]
* एकदा जो अँधेरे में मैं खो गया ,
मुझको ढूँढा करेंगी तेरी रश्मियाँ |  [ आमद का शेर ]




मुश्किल है कि नहीं

* मुश्किल है कि नहीं ? स्त्रियों को देवी कह दो तो आफत , भोग्या कह दो तो आपत्ति | फिर छोड़ दीजिये इस चक्कर को | वे नंगी घूमें या लड़के बलात्कार करें | सबको आज़ादी चाहिए तो लें आज़ादी और उसकी कीमत चुकाएँ |

* और यदि मानव जीवन के प्रति इतनी बेचैनी है तो जो पुलिस वाला प्रदर्शन के दौरान मर गया उसके लिए किसी के पास दो आंसू क्यों नहीं हैं ? इसीलिये मुझे यह सब छद्म लग रहा है | चलो एक मौका मिला है , हो जाय भीड़ भडक्कम | मोमबत्ती से अपना चेहरा रोशन | राज्य तो वह जो आन्दोलनों से नुकसान करने वालों को भी सजा दे | पुलिस वालों के हत्यारों को भी मृत्यु दंड दे | दामिनी तो अकेले थी , सिपाही के तो आश्रित बाल बच्चे भी होंगे | प्रदर्शन एक बात है और उसका हिंसक होना और बात है | कडाई हो तो इस पर रोक लगे | पर इसे तो लोकतंत्र की रीढ़ माना जाता है, जब कि है यह घातक | यही कारण है कि आज एक खबर में शराब पीने से मना करने वाले पुलिस कर्मियों की दबंगों ने पिटाई कर दी | जब पुलिस अशक्त होगी तो कड़े क़ानून क्या कर लेंगे ?


* कल पकिस्तान से आयी मोहतरमा आलिया जी का सु भाषण सुन रहा था | चुपचाप, मेहमान नवाजी में | अब इसे तंज समझिये या हकीकत, मुझे विश्वास हुआ किअब oratory या भाषण कला द्वारा दोनों देशों के संबंधों में सुधार आएगा | वरना मुझ जैसे मंदबुद्धि , mentally retarded की समझ में तो यही नहीं आता कि कोई हिन्दू मुसलमान क्यों हो जाता है ? फिर उसका देश क्यों बँट जाता है ? लेकिन यह बात ज़रूर समझ में आती है कि कश्मीर / बांगला देश आदि समस्याओं को समाप्त करने के जो उपाय हैं , वे हैं - कि भारत की राष्ट्र भाषा उर्दू कर दी जाय [ वे उर्दू पर भी उर्दू में बोलीं ] , और इसे पाकिस्तान की भाँति इस्लामी राज्य घोषित कर दिया जाय |    


बुधवार, 2 जनवरी 2013

मज़ा आता है


* वह रहता
मामूली आदमी सा
जो महान है |

* कोई इंसान
भूखा क्यों रह जाय
तुम्हारे होते ?

* करनी होगी
इतनी तो बेशर्मी
शर्म आ जाय |

* मज़ा आता है
अकेले जूझता हूँ
मैं अभिमन्यु |

* एक शादी की
अपने मनुआ ने
एक विवाह |

मर नहीं जायेंगे


* तुम रहो मेरे या हो जाओ गैर ,
मर नहीं जायेंगे हम तेरे बगैर |

* अब मेरी पत्नी बहुत बीमार रहती हैं ,
अब बड़ी मुश्किल से सड़कें पार होती हैं |

* गलतियों को माफ़ करना सीखिए ,
ह्रदय को शफ्फाफ करना सीखिए |

* प्ले तो प्ले था , असली वो था ,
जेब औरंग था , दारा शिको था |

* तेरे दीदार की ज़रा खातिर ,
मुसल्सल इंतज़ार तो मैं हूँ |
(To add to Gazal )

मंगलवार, 1 जनवरी 2013

कहाँ गए थे


* [ कुछ नए अशआर ]

* झूठ मूठ जीवन को झूठ मूठ जीना है ,
थोडा तो सीना और ज्यादा पिरोना है |

* शेष ज़िन्दगी काटनी है अब किसी की याद में ,
किसी शिकवे में नहीं , या किसी फ़रियाद में |

* कहाँ गए थे मुझे छोड़कर ,
अब मत जाना मुझे छोड़कर |
दो दिन से भूखे प्यासे हो ,
जी पाओगे मुझे छोड़कर ?

चार शादियाँ हिन्दुओं में


* नव वर्ष = कुछ लोगों को ऐतराज़ होता है इस नव वर्ष पर | असली नव वर्ष तो 'वह ' है | मेरे ख्याल से न यह असली न वह असली | ये तो हमारी मान्यताएँ हैं | ज़िन्दगी का कोई भी पल जहाँ से ज़िन्दगी शुरू करे सार्थक और सकारात्मक वही नए वर्ष का पहला दिन है | सामान्यतः मैं किसी को बधाई नहीं देता , न इस दिन न उस दिन | लेकिन जब भी किसी का आ जाता है , स्वीकार करके सामान्यतः शुक्रिया - धन्यवाद - थैंक्यू कह देता हूँ | शुभ का आदान प्रदान किसी भी अवसर पर हाथ से जाने क्यों दिया जाय ?

* [ खुराफात ] इस्लाम तो बिलावजह शोर मचाकर बदनाम हुआ | चार शादियाँ तो , सच पूछो तो , हिन्दुओं में जायज़ ही नहीं , आवश्यक होनी चाहिए | क्योंकि इसमें चार वर्ण हैं - ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र | हर वर्ण के सदस्यों को हर वर्ण में एक शादी अनिवार्य हो तो जातिप्रथा खटाखट टूट जाय और भाई संदीप वर्मा मोद पाएँ, प्रसन्न हो जाएँ | इसलिए इस शुभ कार्य का प्रथम पुरोहित उन्हें बनाया जाना चाहिए | अब इसमें एक दिक्कत दरपेश हो सकती है | क्योंकि हिन्दुस्तान में लड़कियों का अनुपात कम है और यहाँ तत्कालीन अरब देश जैसी हालत भी नहीं है, जहाँ युद्धों में तमाम पुरुषों के हत हो जाने से स्त्रियाँ अधिकाधिक बच गईं थीं | ऐसी स्थिति में पंडित वर संदीप जी यह मार्ग निकाल सकते हैं कि कुछ स्त्रियों की डबल डबल शादियाँ करवा दें | लेकिन संभव है कि पुरुष होने के नाते वह इसकी ज़िम्मेदारी न उठायें, यद्यपि वह पर्याप्त स्त्रीवादी भी हैं ? तब यह हो सकता है कि कुछ महिलायें लाल पीली नीली आँखें निकाल कर आन्दोलन पर उतर आयें कि हम औरतों के लिए भी चार विवाह सुसंगत करो | अंततः पंडित जी को मानना ही पड़ेगा , और इस प्रकार जातिगत विद्वेष टूटने के साथ साथ स्त्री पुरुष समानता भी स्थापित हो जायगी | भारत वर्ष के दिन फिर बहुर जायेंगे | नए वर्ष के पहले दिन का कितना बढ़िया आइडिया है यह !

‎* हिन्दू [सवर्ण ] बिलावजह रामायण गाकर अपना गला फाड़ रहे हैं और मोहल्ले की नींद उड़ा रहे हैं | जब कि उन्हें हिन्दू [ अवर्ण ] मनुस्मृति के आधार पर गालियों से अभिसिंचित कर रहा है | ऐसी दशा में बिलकुल सीधे और सहज ढंग से बुद्धिमानी तो इसमें है कि सवर्ण जन मनुस्मृति को अपनी पावन पुस्तक घोषित कर दें | उसी का पठन पाठन और पालन करें | जब आखिर गालियाँ खानी ही हैं तो - -

‎* प्रश्न है - दलित जनों को क्या मनुष्य , मनुज कहलाने पर भी ऐतराज़ है ? असंभव तो नहीं , क्योंकि इनके साथ ' मनु ' जो लगा है |


* नारा है - " आरक्षण विरोधी दलित प्रतिनिधियों का बहिष्कार करो " | अरे बबुआ , यही तो ब्राह्मण या ब्राह्मणवाद कहता है ! इसी नाते तो इसने तुमको अछूत मनाया | तुम ठीक कर रहे हो , ऐसा ही करना पड़ता है | अब बेचारे नेता , यूँ भी दलित, ऊपर से दलितों द्वारा बहिष्कृत ! डबल अछूत | कहाँ जाओगे ?
करो विरोध और दो गाली ब्राह्मण को |  लेकिन रास्ता उसी का गहना पड़ेगा अंततः | देखा नहीं मायावती को ?

* घर पर आने वाले plumber , electrician या अनजान आगंतुक को चाय पिला तो सकता है , चाहे कुल्हड़ में पिलाये या चुल्लू से | वह भले उसे न छुए या गले लगाये | लेकिन दलित तो दलित को भी पानी न पिलाये, ब्राह्मण को तो दूर से ही भगा देगा | काम करवाएगा और खिसका देगा | उनके संस्कार ही ऐसे हैं, और जहाँ से संस्कार मिल सकते हैं उससे उन्हें सख्त नफरत है | बस एक गालियों की संस्कृति है जिसे वे खूब सीख रहे हैं , उन्हें सिखाया जा रहा है |   

* बलात्कार का माहौल , भावभूमि बनाती हैं बिंदास फ़िल्मी कलाकारान, और परिणाम भुगतना पड़ता है साधारण कन्याओं को | बाजारवाद के सम्बन्ध में भी यही कहा जा सकता है कि इण्डिया की संस्कृति का फल भारतवर्ष को धोना पड़ता है |


* अभी तक भारतीय जातियों / जनजातियों की जीवन शैलियों / प्रथाओं का मजाक विदेशी मीडिया ही उड़ाता था | कि देखो , यहाँ वे नग्न रहता हैं , ऐसे विवाह करते हैं , यह - वह खाते पीते हैं | लेकिन अब देश की कुप्रथाओं को उछाल उछाल कर उनकी खिल्ली अब हमारे महान दलित चिन्तक भी करने लगे हैं | और इसमें उन्हें मज़ा आता है , क्योंकि उस संस्कृति में वे स्वयं को शामिल नहीं समझते | यह देखो यहाँ नारी पूजते हैं , सीता की परीक्षा लेते हैं , गाय खाते थे ,कन्या को दान करते हैं , सांप को दूध पिलाते , होली - दीवाली - दशहरा इस इस कारण से मानते हैं , संस्कृत पढ़ते हैं , पापी राम को भगवान् मानते हैं , ज्ञानी रावण को जलाते हैं , इत्यादि अनंत | चलिए आशा करें , इनकी आलोचना से हिन्दुस्तान कुछ सुधर जाए ! 
विदेशियों को जहाँ भारत का मजाक उड़ना अच्छा लगता है , वहाँ हमारे आलोचकों को हिन्दुओं को अपमानित करने में बड़ा मज़ा आता है | खुश रहो अहले चमन , हम तो सफ़र [ suffer ] करते हैं |  

* ये दलित और पिछड़े सारे के सारे मानते ईश्वर को हैं , और दोष देते हैं ब्राह्मणों का ! जातियां यदि ब्राह्मण की बनाई होतीं तो कब की ख़त्म हो गयी होतीं | यह सार्वकालिक सामाजिक जीवन के अनुभवों और व्यवहारिकता पर दृढ़ता से आधारित है | इसे ये दलित ख़त्म तो क्या करेंगे , उसका पालन पोषण करते हैं और खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे |

* आगे कभी , शीघ्र ही , पुलिस तो प्रदर्शन करेगी [ लाठी भांजने , अश्रु गैस छोड़ने , पानी की बौछार करने आदि का ] , और आन्दोलनकारी उसे पीट पीट कर लहू लुहान कर देंगें |

* देखिये, बात करनी चाहिए साफ़ और जो सच लगे , भले उससे बदनामी मिले | मुझे मोमबत्तियाँ बिलकुल अविश्वसनीय लग रही हैं |


* लगता है जाति प्रथा समाप्त करना आप लोगों के वश का काम नहीं है | अब यह काम मैं करूँगा |