लोकतंत्र बनाम सीमा तंत्र :-
उ . प्र. मंत्रिमंडल से पंडित की बर्खास्तगी कोई उपाय नहीं है | इसका स्थायी हल निकलना चाहिए | मैं सोचता हूँ कि गोंडा , या कहीं का भी विधायक और राजस्व राज्य मंत्री अपने जिले के मुख्य चिकित्सा अधिकारी या किसी भी अधिकारी को हड़काने जाये ही क्यों ? कोई कथित जन प्रतिनिधि थाने जाकर अपने पद और प्रभाव का इस्तेमाल क्यों करे ? यह थोडा टिपिकल विचार है इसलिए समझना मुश्किल होगा , पर समझना तो पड़ेगा | कोई प्रतिनिधि है तो उसके प्रतिनिधित्व का कोई स्थान भी होगा | जैसे विधायक विधान सभा में अपने क्षेत्र का प्रतिनिधि है [ हालांकि यह बात भी विवादस्पद है, क्योंकि उसका महज़ एक खास इलाके का नुमाइन्दा मानना भी एक संकुचित विचार है , फिर भी ] | तो वहथाना , अस्पताल , तहसील परगना जिला के हर छोटे बड़े अधिकारी के पास जाकर अपना काम निकलवाने क्यों पंहुच जाये ? हमने नेताओं की शक्तियों को प्रतिबंधित न करके बड़ी भूल की है , और अब चिल्लाते हैं कि हाय , नेता बेईमान हो गए हैं | जब उन्हें इतनी आज़ादी होगी और वे इस प्रकार काम करवाने में समर्थ होंगे तो भ्रष्ट तो हो ही जायेंगे | हम जनता स्वयं अपने स्वार्थ पूर्ण काम करवाने के लिए उनका इस्तेमाल करेंगे और उन्हें भ्रष्ट बनायेंगे | वे इससे इन्कार भी नहीं कर पाएँगे, जब उनके कहने मात्र से उचित -अनुचित काम हो जाया करेंगे | विधायक को जो कुछ कहना हो वह विधान सभा में कहे , और सांसद संसद में | इतनी बड़ी जगहों में उसकी पहुँच होने के बाद उसे कोई आवह्स्यकता नहीं होनी चाहिए छोटे छोटे प्रशासनिक स्थलों पर जाने की | क्या इससे उन्हें सम्मान हानि नहीं महसूस होती ? नहीं होती तो क्यों नहीं होती ? इसमें क्या उनकी छुद्रता , छुटपन छिछोरापन नहीं है कि वे एक अपराधी को छुड़ाने थानेदार के पास पहुँच जाते हैं ?
यह बहुत ज़रूरी कार्यभार है राजनीतिक शुचिता के कार्य कर्ताओं के लिए | अन्ना अरविन्द लोकप्रियता की लालच में इस बिंदु पर ईमानदारी से नहीं सोच नहीं सकते | सुब्रमनियम स्वामी भी नहीं | मुझे इस प्रचलित अवधारणा पर ही संदेह है कि भ्रष्टाचार ऊपर से समाप्त किया जा सकता है | लोग ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि उच्च स्तर पर काम करने से ख्याति बहुत जल्दी और ज्यादा मिल जाती है | फिर यदि उसे ही सत्य मान लें तो भी निष्पक्ष विचारकों को यह तो सोचना ही है कि बड़ी जगहों पर भी भ्रष्टाचार का मूल उत्स कहाँ है ? वह नीचे कहाँ तक गयी है ? इसीलिये हम कहते हैं कि विधायक - सांसद नीचे के स्तर पर क्या करते हैं उसे देखिये और उनके पर काटिए | उन्हें सदनों के अलावा कहीं कोई अधिकार नहीं प्राप्त होना चाहिए | सामान्य स्थानों पर वे साधारण मनुष्य बनकर रहें | तभी वे मनुष्य बनेंगे |
इस विचार को थोरो के उस विचार से भी जोड़कर देखें [ जिनसे अपने गाँधी जी बहुत प्रभावित थे ] कि सर्वोत्तम शासन वह है जो न्यूनतम शासन करे | तो सांसद - विधायक को , जो शासन के प्रतिनिधि हैं वे प्रशासन के सामान्य काम काज में न्यूनतम हस्तक्षेप करें , ऐसा प्रबंध होना चाहिए | वरना ये दीमक की तरह लोकतंत्र को चट कर जायेंगे | और यदि लोकतंत्र में यही सब होना है तो मैं कहूँगा कि हमें लोकतंत्र की नहीं , एक सीमातंत्र की ज़रुरत है | जहाँ हर व्यक्ति , हर संस्था संगठन की एक निश्चित सीमा हो | वे उस सीमा के अन्दर रहें और उससे बाहर न जाएँ | इसे लोकतंत्र का ही विकास समझें , क्योंकि वहां भी स्वतंत्रता की सीमा किसी की नाक तक ही है | सारांशतः , यदि कुछ प्रतिनिधियों को असीम अधिकार दिए गए उन्हें सीमा उल्लंघन से वर्जित न किया गया तो देश का बड़ा नुकसान होगा | फिर कहना है कि पंडित राजस्व राज्य मंत्री को अपने कार्यालय में उन्हें उनको सौंपे गए काम को निष्पादित करना चाहिए | अपने जिले के किसी विभाग या अधिकारी कि कोई शिकायत उन्हें विधान सचिवालय में ही उठाना श्री होगा , अन्यत्र नहीं | और कानून को अपने हाथ में लेना तो निश्चय ही अक्षम्य होना चाहिए इन नेताओं के लिए भी खासकर |
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