बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

किताबों में लिखने से

किताबों में लिखने से कुछ नहीं होता , ऐसा लगता है | सत्यं वद , अहिंसा परमो धर्मः आदि तमाम वचन लिखे तो हैं | कौन मानता है उन्हें ? इस्लाम में सम्पूर्ण समता के आलेख हैं पर व्यवहार में विषमता का अंत नहीं | मार्क्स और मार्क्स वादियों ने लिख लिख कर पुस्तकालय पाट दिए | क्या हासिल हुआ ? इसलिए मुझे तो इस पर भी संदेह होता है कि मनुस्मृति में लिख देने मात्र से ब्राह्मणवाद पोषित और फलित हुआ , और मनुष्य दलितावस्था में हुए | भंगी क्या मुसलमानों में नहीं होते ? शायद , समाज अपना नियमन स्वयं अपने तरीके से करता है और उसी का फल होता है सब | इसे मार्क्सवादी विवेचक अच्छी तरह व्याख्यायित कर सकते हैं | बस मुझे यह लगता है कि हम लोग किन्ही एकांगी चिंतन में लगे हैं , और समस्या के मूल में नहीं जा पा रहे हैं |  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें