सोमवार, 22 अक्टूबर 2012

स्वान्तःसुखाय


स्वान्तःसुखाय न भी लिखो , तो भी वह स्वान्तःसुखाय हो जाता है |
बहुलांश लेखक कहते हैं कि वे तुलसीदास की तरह स्वान्तःसुखाय लेखन में विश्वास नहीं करते , और वे तो समाज के लिए लिखते हैं , कुछ बदलाव के लिए लिखते हैं | स्वागत है , अभिनन्दन है | लेकिन यदि आपके लेखन को कोई पढ़े ही नहीं , उससे कोई प्रभाव ग्रहण न करे , तो वह तो अपने आप ही आप के लिए तो स्वान्तःसुखाय ही हो गया न ? ऐसा ही होता है मित्र | इसीलिये लोग अपनी पुस्तक को स्वान्तःसुखाय कह देते है , जब कि वह भी सामाजिक परिवर्तन के विचारों से शून्य तो नहीं होता |

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