धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा यह बताई जाती है कि धर्म और राज्य अलग रहें | प्रश्न यह है कि धर्म राज्य से कितनी भी दूरी पर रहे एक या सौ पचास मीटर दूर , पर वह है तो अपने पूरे वजूद के साथ , उपस्थित तो है अपने उरूज़ के साथ ? और वह अपना होना जब तब एक दुर्द्धर्ष समस्या बनकर सिद्ध भी करता रहता है | ऐसी दशा में राज्य उससे निरपेक्ष कैसे रह सकता है | तब क्या उसका अपनी जिम्मेदारियों से मुकरना नहीं होगा ? और यदि उसे धर्म से निस्पृह ही रहना है तो वह क्यों करे मेलों और यात्राओं का प्रबंध और उनकी व्यवस्था ? यह तो स्वीकार नहीं | फिर राज्य जैसी बड़ी संस्था देश और समाज के भीतर चल रहे धर्म के राज्य और समाज विरोधी कर्मों -कुकर्मों से उदासीन कैसे रह सकता है ?
अतः , मेरे विचार से राज्य तो धर्मों में दखल कर ही सकता है / सकना चाहिए सेक्युलरवाद की परिभाषा , सिद्धांत और कर्म में |
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