चलिए अब बताता हूँ दलितों को सत्ता हस्तांतरण की ज़रुरत और उसका तरीका | यह सन्देश देश प्रेमियों के लिए है , जिन्हें जातिवादी , ब्राह्मणवादी , संघी , राष्ट्रवादी आदि क्या क्या भी कहा जाता है | लेकिन इसके लिए ईर्ष्या द्वेष घृणा उन्माद से दूर रहने की आवश्यकता है | कारण यह है कि यह सत्य है कि इस वर्ग ने अधिकांश शासन प्रक्रिया में भाग नहीं लिया , या परिस्थितियों वश नहीं ले पाए , किसी पर दोषारोपण न करते हुए भी | इसलिए भी कि यह राजनीति है , और राजनीति में यदि सवर्णों ने ही सही, इन्हें सत्ता में भागीदारी नहीं दी तो भी उस पर अब छाती नहीं पीता जा सकता | उन्हें गालियाँ देकर भड़ास निकालने से कुछ नहीं होगा | राजनीति में यही होता है और दलितों को भी यदि सत्ता लेनी है तो इसी चाणक्य नीति से काम लेना होगा | राजनीति में कोई स्थायी दुश्मन नहीं होता | और जिसे दुश्मन कहा भी जाता है उन्हें भी खुलकर दुश्मन नहीं कहा जाता | हँस कर उनके साथ हाथ मिलाते हुए तस्वीर खिंचाई जाती है | तो , अब दलितों को साम दाम दंड भेद में से साम और भेद से काम लेना होगा | तो, एक तो यही कहना होगा लोकतान्त्रिक तरीके से अपनी माँग औचित्यपूर्ण ढंग से उठानी होगी, कि उन्हें अब भारत की सत्ता मिलनी चाहिए | क्योंकि हिन्दुओं ने पांच हज़ार तो मुसलमानों ने एक हज़ार वर्ष शासन कर लिया | अब उनका नम्बर है | वे शासन अच्छा करेंगे या बुरा , पर उन्हें इस कार्य में सारे भारतवासियों का सहयोग चाहिए , मिलना चाहिए | तब निश्चय ही वे अच्छा कर पाएँगे | यह 'साम' , समझाने का तरीका है | न्याय का तकाजा है | दूसरे, सवर्णों से जो हम एक सवर्ण की हैसियत से कहना चाहते हैं वह यह है कि दलित हमारे भारत मूल के अविभाज्य अंग हैं | वे उत्तेजना में कितनी भी गालियाँ दे रहे हैं , वे हिन्दू ही हैं और हिन्दू संस्कृति के पालक - संरक्षक हैं | उनसे देश को कोई खतरा नहीं हो सकता | ज्यादा से ज्यादा यही तो होगा कि वे राष्ट्र के संसाधनों का ज्यादा हिस्सा ले जायेंगे ? तो ले जायँ | इससे देश की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में सुधार ही आएगा , विषमता में कमी आएगी | तो अच्छा ही होगा , देश का नाम ही होगा | पर यह तो नहीं होगा , जैसा मनमोहन सिंह कहते हैं, कि संसाधनों पर सबसे पहला हक मुसलमानों का है ? जो कि वस्तुतः , दलितों का कहना गलत नहीं है कि, पहला हक उनका है , जनसंख्या के आधार पर भी, और गरीबी के लिहाज़ से भी | तो यह है खतरा दलितों को सत्ता न देने में, और यह है लाभ दलितों को सत्ता सौंपने में | क्योंकि सवर्ण तो अपने स्वार्थ में अंधा है , उसमे देश भक्ति का लोप हो चुका है , वह एकताबद्ध नहीं हो सकता देश हित में | वह, दलितों की भाषा में कहें, तो अपने सामंती घमंड में चूर है | दूसरी तरफ बाह्य शक्तियाँ गिद्धों की तरह नज़र गड़ाये हैं | देखा आपने , अन्य देशों की घटनाओं की प्रतिक्रिया में किस प्रकार भारत देश में आग लगाया जा रहा हैं ? और वे सत्ता के लिए विकल ही नहीं , सचेत और अत्यंत सक्रिय भी हैं | ऐसे में यदि हमारा दलित अंग [ जैसा वे महसूस कर रहे हैं , हालाँकि हम तो जातिवाद मानते नहीं और उसे मिटाना चाहते हैं , फिर भी इसे गरीबी का ही एक मानक मानते हुए , जो कि सच भी है ], यदि सत्ता की माँग कर रहा है तो क्या गलत कर रहा है ? शब्दावली भले तीखी है,तो भी अपने देश के भले के लिए हमें सहिष्णु होना चाहिए | बल्कि इसे तो हमें स्वयं आगे बढ़ कर उन्हें सौंप देना चहिये | क्या हम सवर्ण , भारत के चिर हितैषी , सत्यनिष्ठ , आध्यात्मिक , धर्म का मर्म समझने वाले , जगतगुरु राष्ट्र के निवासी नागरिक भारत का हित किसमे है , इसे पहचानने में चूक जायेंगे ? और इसके लिए अपना कोई निहित हित , यदि हो भी , तो नहीं त्यागेंगे ? सच कहूँ तो यह एक प्रकार की शहादत ही है जो राष्ट्र हमसे माँग रहा है | क्या हम उसे यह नहीं देंगे | फिर तो चेतावनी है - राष्ट्र आपके हाथ से जाने वाला है | यह फिर गुलाम हो जायगा | इसलिए अच्छा है की हम अपने ही गुलाम बन जाएँ , अपनों के ही दो लात सह लें , किन्तु देश तो बचे | एक बिंदु और कथनीय है कि अभी गनीमत है कि अभी जाति व्यवस्था के कारण दलित अपनी पूरी इयत्ता के साथ सशक्त रूप से देश में उभार पर हैं | यही हैं जो देश को बचायेंगे ,विजय दिलाएँगे | अतः इनके हाथ में सत्ता दे देना ही समुचित राजनीतिक रणनीति है | इसके लिए कुछ कष्टकर करना भी नहीं है | केवल हमें यह संकल्प कर लेना है कि किसी भी चुनाव में हम अपना बहुमूल्य वोट किसी भी , केवल दलित उम्मीदवार को ही दें |
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