रविवार, 21 अक्तूबर 2012

मार्क्सवाद की महानता

 Badmesh - Ravana  , a  राइजिंग :-  On  मार्क्सवाद की महानता ।
कम्युनिज्म को मैं तदर्थ राम के समान सर्वव्यापी , सर्वसमर्थ और हर बात का समाधान - उत्तर मानकर , जैसा कि माना जाता है , मान कर यह लिख रहा हूँ ।
मैं इस बारे में प्रयासरत था , चिंतित होने की हद तक , कि आखिर ऐसा क्या कारण है , क्या बात है  इसमें , जो मार्क्सवाद लगभग सभी पढ़े - लिखे को पागल बनाये हुए है , या नहीं तो इतना प्रभावित किये है कि भले उसका वजूद कहीं नहीं है , भले कोई उसका एक तिनका भी नहीं पालन करता , न संपत्ति छोड़ता है न पत्नी , न समूह में रहने के आवश्यक त्याग करता है , फिर भी इस दर्शन के पीछे , कम से कम सार्वजानिक वोकल रूप से तो दीवाना है ही ? मित्र तो तमाम ऐसे हैं जिनसे जानकारियां मिलती रहती हैं और वे अपना हर काम व्यवस्था परिवर्तन होने तक स्थगित किये हुए हैं [वहाँ व्यक्ति के व्यक्तिगत की कोई गुंजाइश नहीं है] , लेकिन एक मित्र की सलाह पर माओ के पांच निबंधों वाली किताब भी ले आया । एक ही अध्याय के बाद इस नवरात्रि में मेरे भीतर रावण का उदय होने लगा और कुछ सूत्र हाथ आने लगे । 
मुझे अहसास होता है कि यदि हर छोटे बड़े विचार को किसी वाद का नाम दे दिया जाय , और यह कह दिया जाय कि इससे पहले इसे किसी ने नहीं सोचा . नहीं कहा , तो भला किस माई के लाल में साहस है जो उस वाद को नकार दे , या उसे मान न ले ? जैसे यदि मैं कहूँ कि गरीबी अभिशाप है , संपत्ति सारी बुराई  की जड़ , शोषण का माध्यम है , या ज्ञान के लिए आदमी का विनम्र और निर - अहंकारी होना आवश्यक है , या पहले हमारे परदादा हुए फिर दादा फिर पिता जी पैदा हुए फिर उनसे हम जन्मे और हमारे बाद हमारा पुत्र और फिर पोता -पोती पैदा होंगें , तो भला इससे कौन इनकार कर देगा ? और यदि मैं यह सार्वजानिक रूप से ऐलान कर दूँ कि " जीवन एक सतत संघर्ष , एक युद्ध है " तो इसे कौन नहीं मानेगा ? भले मैं कह दूँ कि यह नागरिक द्वंद्व वाद है , [ ठीक उसी प्रकार जैसे कोई वस्तु ऊपर से गिराने पर नीचे धरती की ओर गिरेगी ' को न्यूटन वाद कहा जाय ] तो क्यों नहीं मानेंगे लोग ? लेकिन मैं आप को निराश करना चाहता हूँ । मैं आपको यह कहकर नहीं देने वाला कि  इसके पहले इस बात को किसी ने नहीं कहा। कितने आये कहने वाले , कितने आये सुनने वाले ! जो ऐसा कहते हैं वे बड़े नाम हैं । और विचार एवं साहित्य जगत से परिचित लोग जानते हैं कि वहाँ नाम चलता है । मैं माओ की विनम्रता से ही कहता हूँ कि ये विचार मुझसे पहले कई लोग दे चुके हैं । मेरे विचारों में कुछ भी नया नहीं है । जीवन प्राचीन काल से चल रहा है । किसी ने कुछ कहा हो या नहीं बिना इन्हें जाने तो सभ्यता आगे बढ़ी न होगी ? और यह भी कि विचारों का इतिहास भी अपने आप को दुहराता है । यही चक्र प्रणाली है । इसका आदि भी अंत है और हर अंत एक आदि । इसीलिये मैं विचारधारा के अंत का कभी समर्थक न हुआ , मार्क्सवादी न होते हुए भी । 
लेकिन मार्क्सवाद यही कहता है । वह प्रत्येक ज्ञान को अपने वाद से जोड़ता है और कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं जो इस वाद से अछूता हो । इसलिए यह विशिष्ट है कि  साधारण बात को भी यह इतनी दम ख़म से जटिल बनाकर कहता है कि बुद्धि चकरा जाय । फिर तो अपने को ज्ञानी बताने के लिए मेरे लिए यह कहना  आवश्यक हो जाता है कि हाँ मैंने मार्क्सवाद को समझ लिया है , उसे जान लिया है और मैं मार्क्सवादी हूँ । भला ज्ञान विज्ञानं के क्षेत्र में मैं पीछे रहना अथवा दिखना क्योंकर चाहूँगा ? यह मेरा छद्म है और छद्म के सिवा कुछ नहीं , क्योंकि मैं वस्तुतः कुछ नहीं जानता , मार्क्सवाद तो बहुत ऊँची बात है इसलिए दूर की  । 
या देवी सर्वभूतेषु मार्क्सवाद रूपेण संस्थिता ,
नमस्त्स्ते नमस्त्स्ते नमस्त्स्ते नमो नमः ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें