मानव जीवन में मैं इसके दो पहलू देख रहा हूँ | एक है पोलिटिकल अथवा बाह्य व्यवहार और दूसरा आतंरिक या कहें पोलाइट - इकल , आध्यात्मिक | जैसे मैं अपना उदहारण दूँ , क्योंकि मैं अपने अनुभवों से ही अपनी नीतियाँ गढ़ता हूँ मेरे पास कोई किताबों की ताक़त तो है नहीं , | कि राजनीतिक रूप से बाहर बाहर तो मैं जातिवाद के पक्ष में हूँ कि हाँ , इनको आरक्षण मिलना चाहिए , सवर्णों को अपनी जाति घोषित करनी चाहिए जिससे वे आरक्षितों में घुसपैठ न करने पायें , भारत में हिन्दू या नॉन - इस्लामिक राज्य होना चाहिए , चीन पाकिस्तान से हमें सख्त होना चाहिए, इत्यादि | लेकिन अंदर अंदर तो सचमुच यही चाहता हूँ कि जातिवाद समाप्त हो , धार्मिक वैमनस्यता मिटे , देशों के बीच ' नो युद्ध ' समझौता हो |
अब गौर करने कि बात यह है कि क्या यह हमारा दोहरा आचरण नहीं है ? और यदि ऐसा ही है , तो क्या इस अंतर्विरोध के बगैर हम रह सकते हैं, जीवन जी सकते हैं ? अंदर बाहर सब एक हो जाय तो हम बुरे ही हो जायेंगे और हमारे सुधरने कि कोई गुंजाइश न बचेगी | यही है जीवन का द्वंद्व , इसी में से शायद कुछ निकलता है | लेकिन यही तो है छद्म भी | क्या इसी नाते पुराने लोग इस जग को झूठा कहते थे , हमारे इसी मिथ्याचरण के कारण ?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें