रविवार, 23 दिसंबर 2012

IHU - 2 , जय जगदीश हरे

   Published in " HUMANIST OUTLOOK " , a journal of Indian Humanist Union - Vol - 13  No. - 5 , Autumn 2012  as -
Hindi column  By - Ugranath Nagrik                                 
                                                                                 जय जगदीश हरे 
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  *   मित्र आये तो कुछ गुस्से में थे मुझसे बोले - हम तो यही समझते थे कि तुम नास्तिकता के अति पर हो जो हमें कुछ गलत लगता था | par तुम तो फिर भी अपने व्यवहार में सामाजिक नैतिकता का ध्यान रखते हो जो हमें प्रिय है लेकिन इधर तो लोग हैं जो आस्तिकता का इतना अति किये हुए हैं कि वे अनैतिक हुए जा रहे हैं |
- - क्या हुआ हो क्या गया ?
-  " मुझे आश्चर्य होता है गोमती पुल के हनुमान मंदिर पर देखता हूँ भीड़ बढ़ती जा रही है बड़े - बड़े अधिकारी सेठसामंत ,साहूकार  कारों से आते हैं मंदिर जाते हैं तमाम उच्च शिक्षित विज्ञान शिक्षित लोग भी निश्चित ही होते हैं इनमें आधुनिक पीढ़ी की युवा - युवतियाँ भी और तमाम राहगीर सड़क से गुज़रते शीश झुकाना नहीं भूलते गाड़ियों वाले यह भी नहीं सोचते कि सड़क पर जाम लग रहा है ऐसी पढ़ाई शिक्षा आधुनिकता और विकास से क्या फायदा देखता हूँ संपन्न घरों में अखंड रामायण का चौबीस घंटे पाठों की भरमार हो गई है भगवती जागरण देखते  हैं आपगणपति बप्पा का हुजूम और काँवरियों का कारवाँ यह सब क्या है क्या प्रगति की निशानी ? " 
- - ईश्वर पर आस्था है आस्तिकता है |
-  " लेकिन नैतिकता नहीं यही वे लोग हैं जो देश और समाज को बर्बाद करने में लगे हैं येन केन प्रकारेण पैसा कमाने भ्रष्टाचार - घोटाले करने में संलग्न हैं और इसमें इन्हें तनिक भी संकोच करने की प्रेरणा इनके प्रभु से नहीं मिलती तो ऐसी आस्तिकता - धार्मिकता से क्या लाभ इससे तो तुम्हारी नास्तिकता भली जो ईश्वर को पूजते नहीं पर ईश्वर की सच्ची पूजा इंसानियत के प्रति समझदारी - ज़िम्मेदारी तो पैदा करती है ! "

             सचमुच बड़ी चिंताजनक स्थिति है और विचारणीय विषय लोगों में इतनी कथित आस्तिकता क्यों बढ़ रही है जब कि उनकी आर्थिक -शैक्षिक- सामाजिक दशा में बहुत सुधार आया है  और भौतिक तरक्की हुई है धर्म और ईश्वर के प्रति भक्तिभाव समर्पण गरीबों की ज़िन्दगी का सहारा, तो समझ में आता हैपर यहाँ तो यह सब धन -संपत्ति का खेल धनिकों का व्यापार दिखाई पड़ रहा है अनाप - शनाप अनुचित ढंग से अर्जित धन का अमर्यादित प्रदर्शन और इसके ज़रिये समाज में प्रतिष्ठित कहलाने की झूठी ललक बढ़ती जा रही है जो इंसान और इंसानियत को अंततः गर्त में ही गिराएगी |
             सरकारी कर्मचारीअधिकारियों के बारे में तो यह लगता है कि इसका कारण उनकी नौकरी की अनिश्चितता है उन्हें यह भय लगा रहता है कि उनका यह पद रुतबा कहीं छिन न जाय ! और फिर इस चाह में कि इस दिशा में उनकी और प्रगति हो अब उनकी इस अस्थिर संशयग्रस्त मानसिकता का कारण एक तो उनमें आत्मविश्वास का अभाव होता है ऐसे लोग कमज़ोर और डरपोक होते हैं जीवन के मार्ग पर कठिन संघर्ष का साहस इनमे नहीं होता तनिक भी विषम या प्रतिकूल स्थिति में इनका मनोबल टूटने लगता है |

दूसरे इनमें लड़खड़ाहट  इसलिए होती है क्योंकि  वे जिस पद पर होते हैं उसके वे योग्य नहीं होते यदि योग्य होते हैं तो क्षमतापूर्वक  कार्य करने की प्रेरणा नहीं होती यदि क्षमता है तो कर्त्तव्यपरायणता  को  व्यवहार में उतारने का  कोई संस्कार नहीं होता और यदि वह भी है तो ऐसा करने वाले को उचित श्रेय -सम्मान - ईनाम  ( पारितोषिक ) नहीं मिलता वह देखता है कि लोग गुण नहीं धन दौलत की इज्ज़त करते हैं फिर कोई क्यों मेहनत और ईमानदारी की ओर प्रेरित हो और  सर उठा कर कहे - मैं अपना काम निष्ठां पूर्वक करता हूँ और मैं संतुष्ट हूँ मुझे किसी का भय नहीं कोई क्यों न करे "हराम " की कमाई जब इसके लिए एक ऊपरवाला संरक्षण देने के लिए सहज उपलब्ध है ? ]
       तब इसलिए वह  मूर्तियों मंदिरों पूजा -पाठ की ओर अग्रसर होता है इसीलिये हैं गली - कूचों सड़कों पर निरंतर अविराम बढ़ती जा रही देवी - देवताओं की कुटिया और महलों की संख्या इनके भक्तों की औकात के अनुसार ! और आदमी उनकी परिक्रमा में व्यस्त है  उसे यह सोचने की फुर्सत नहीं कोई चिंता नहीं कि वह तनिक  विचार , समीक्षा तो करे वह जीवन में वास्तव में क्या कर रहा है धर्म के नाम पर कितनी अनैतिकता धारण करता जा रहा है करे भी क्यों है न भगवान यह सब सोचने - करने के लिए ! यह उसकी ज़िम्मेदारी है हम तो वही कर रहे हैं जो सब कर रहें हैं सब तो फल फूल रहे हैं फिर हम ही क्यों माथा खपायें अपना सुख चैन गवाएँ जो हमें इस जन्म में प्राप्त हो रहा है क्या हर्ज़ है कुछ फल -फूल- लड्डू लेकर मंदिर हो आने में सब दोष समाप्त ! तो चलो तीर्थ यात्रा कर लें गंगा नहा लें सारे पाप मिट जाएँ ! समाज के नुकसान के क्या एक हम ही ज़िम्मेदार हैं और एक हमारे नैतिक - ईमानदार होने से अंतर ही क्या पड़ेगा जो दबे - कुचले गरीब और वंचित हैं वे अपने पिछले जन्म का फल भुगत रहें हैं , तो हम क्या करें हमको देखो जो कुछ कर रहे हैं वह ईश्वर को समर्पित भी तो कर दे रहे हैं ! तेरा तुझको अर्पित क्या लागे मेरा ॐ जय जगदीश हरे हे प्रभु, मेरी सुख -सुविधा पत्नी -बच्चे दुकान -नौकरी बँगला -गाड़ी सबकी रक्षा करना मेरे मालिक ! वह सर्व शक्तिमान मालिक भगवान तो क्या हुआ इनका नौकर- चौकीदार तो अवश्य हो गया वह भी कुछ फूल - बताशों के दैनिक वेतन पर ! या फिर अवैतनिक बोतल के जिन्न की तरह !
                       एक होड़ सी लगी है धनवान होने की तो साथ ही साथ धार्मिक होने की भी | फैशन की तरह हो गया है धार्मिक होना दिखने का नाटक करना माथे पर बड़ा सा टीका ज़रूरी है और उसका दिन भर वहाँ उपस्थित - विद्यमान रहना पता तो चले हमने सुबह नहाया धोया - पूजा पाठ किया था या मंदिर गए थे ! कार्यस्थल पर इष्ट देवी - देवता का चित्र अलमारी या मेज़ पर शीशे के नीचे होना अनिवार्य हैजिन्हें प्रणाम कर दिन की कार्यवाही का शुभारम्भ करें लेकिन बस उतना जिसमें कुछ ॐ शुभ लाभ प्राप्त होने की सम्भावना हो |
        शाम  को जल्दी जाना है सर ! फलाँ जगह से आये अमुक महाराज जी का प्रवचन है एक हज़ार  देकर स्थान बुक कराया है भला किस अधिकारी की मजाल जो ऐसे शुभकार्य के लिए मना कर दे और शामत मोल ले फिर उसे स्वयं भी तो कहीं जाना है मंदिर के अतिरिक्त उसे अपने बॉस  की और फिर बॉस को मंत्रालय की भी तो सेवा करनी होती है ! डबल ट्रिपिल काम का बोझ है तो फिर वह अपना निर्धारित कार्य एकनिष्ठ हो कैसे करे जब कि उसका सरवाईवल  इन्ही 'अतिरिक्त' कार्यों पर निर्भर है ?
              आध्यात्मिक जीवन के ये छद्म स्वरुप कैसे कँटीली झाड़ियों की तरह उग आये भारत के आँगन में ? कारण समझ में आता है कि ऐसा इसलिए है क्योंकि इसमें सब कुछ स्थूल है और सूक्ष्म कुछ भी नहीं स्थूल कार्य करके उसे दिखाना आसान होता है जबकि सूक्ष्म कहीं दिखता नहीं और उसका प्रभाव भी सूक्ष्म होता है प्रदर्शन के युग में इसलिए उसका कोई मूल्य नहीं | उसे बिरले पारखी ही समझ सकते हैं इसलिए बनावटी आचरण ने असली मनुष्य को रिप्लेस प्रतिस्थापित  कर दिया है वरना क्या बुद्ध- कबीर के जीवन - प्रवचन - आचरण में आस्था नहीं थी नास्तिकता आस्तिकता का विवाद यहाँ है ही नहीं वी. एम. तारकुंडे ने " लौकिक और धार्मिक नैतिकता " [Secular and Religious morality ] नामक लेख में गांधी की धार्मिक नैतिकता को किसी भी प्रकार कमतर नहीं आँका इसलिए सवाल मानव मूल्यों पर आस्था का है और उस मापदंड पर क्या इन्हें धार्मिक कहा जा सकता है या कहा जाना चाहिए जैसा कहलाने का इन्हें बड़ा शौक है 
            आश्चर्य होता है सोचकर  कि बौद्ध धर्म जिसकी वजह से ही विश्व में भारत को जाना जाता है संसार में इसकी प्रतिष्ठा है और चीन जापान कोरिया आदि देशों से बौद्ध श्रद्धालु यात्री भारत तीर्थाटन पर आते हैं उसे अपने ही देश ने किस तरह भुला दिया !
लेकिन विलाप करने छाती पीटने से क्या होगा मंदिर के लिए हर बँगले में एक भूभाग , घर का एक कमरा कमरे में एक कोना लकड़ी या पत्थर के बने ढाँचे में भगवान के बैठने के लिए स्थान सुरक्षित है या नहीं तो दीवालों पर ईश्वर के चित्र टाँगने के लिए आदमी ने जगह दिया हुआ है जगह यदि किसी चीज़ के लिए नहीं है तो वह है विवेक बुद्धि वैज्ञानिक सोच तार्किक चिंतन मानुषिक संवेदना और सार्वजानिक नैतिकता इन्हें कोई आश्रय कोई सहारा जनजीवन से प्राप्त नहीं है न धर्मों में न हृदय में न बुद्धि में धर्म में पाखंडों की भरमार , हृदय स्वार्थों का भंडारगृह और बुद्धि बस चालाकी का वृहद् कारखाना होकर रह गया है |
          तो भाइयो सुनो ! साहब अभी पूजा कर रहे हैं दरबान जब यह सूचना दे तो यह निश्चित समझ लीजिये कि साहब किसी भी दशा में इस लोक में रहने वाले किसी भी प्राणी से नहीं मिल सकते चाहें उसकी जान ही क्यों न चली जाय |

सुना नहीं आपने एक सेकुलर राज्य जिसका नाम भारतवर्ष हिंदुस्तान दैट इज इण्डिया है के एक प्रधान मंत्री तब तक पूजा करते रहे जब तक बाबरी मस्जिद ध्वंस का कारनामा  चलता रहा और पूजा पर से तभी उठे जब उन्हें सुनिश्चित सूचना मिल गयी कि श्रीमान ,यह धार्मिक शुभकार्य सफलता पूर्वक संपन्न हो गया है | 
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