Published in " HUMANIST OUTLOOK " , a journal of Indian Humanist Union - Vol - 13 No. - 5 , Autumn 2012 as -
Hindi column By - Ugranath Nagrik
जय जगदीश हरे
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* मित्र आये तो कुछ गुस्से में थे | मुझसे बोले - हम तो यही समझते थे कि तुम नास्तिकता के अति पर हो जो हमें कुछ गलत लगता था | par तुम तो फिर भी अपने व्यवहार में सामाजिक नैतिकता का ध्यान रखते हो जो हमें प्रिय है | लेकिन इधर तो लोग हैं जो आस्तिकता का इतना अति किये हुए हैं कि वे अनैतिक हुए जा रहे हैं |
- - क्या हुआ , हो क्या गया ?
- " मुझे आश्चर्य होता है | गोमती पुल के हनुमान मंदिर पर देखता हूँ भीड़ बढ़ती जा रही है | बड़े - बड़े अधिकारी , सेठ, सामंत ,साहूकार कारों से आते हैं , मंदिर जाते हैं | तमाम उच्च शिक्षित , विज्ञान शिक्षित लोग भी निश्चित ही होते हैं इनमें | आधुनिक पीढ़ी की युवा - युवतियाँ भी और तमाम राहगीर सड़क से गुज़रते शीश झुकाना नहीं भूलते | गाड़ियों वाले यह भी नहीं सोचते कि सड़क पर जाम लग रहा है ? ऐसी पढ़ाई , शिक्षा , आधुनिकता और विकास से क्या फायदा ? देखता हूँ संपन्न घरों में अखंड रामायण का चौबीस घंटे पाठों की भरमार हो गई है | भगवती जागरण देखते हैं आप, गणपति बप्पा का हुजूम और काँवरियों का कारवाँ ? यह सब क्या है ? क्या प्रगति की निशानी ? "
- - ईश्वर पर आस्था है , आस्तिकता है |
- " लेकिन नैतिकता नहीं | यही वे लोग हैं जो देश और समाज को बर्बाद करने में लगे हैं | येन केन प्रकारेण पैसा कमाने , भ्रष्टाचार - घोटाले करने में संलग्न हैं और इसमें इन्हें तनिक भी संकोच करने की प्रेरणा इनके प्रभु से नहीं मिलती | तो ऐसी आस्तिकता - धार्मिकता से क्या लाभ ? इससे तो तुम्हारी नास्तिकता भली जो ईश्वर को पूजते नहीं पर ईश्वर की सच्ची पूजा , इंसानियत के प्रति समझदारी - ज़िम्मेदारी तो पैदा करती है ! "
सचमुच बड़ी चिंताजनक स्थिति है और विचारणीय विषय | लोगों में इतनी कथित आस्तिकता क्यों बढ़ रही है जब कि उनकी आर्थिक -शैक्षिक- सामाजिक दशा में बहुत सुधार आया है और भौतिक तरक्की हुई है ? धर्म और ईश्वर के प्रति भक्तिभाव , समर्पण गरीबों की ज़िन्दगी का सहारा, तो समझ में आता है, पर यहाँ तो यह सब धन -संपत्ति का खेल , धनिकों का व्यापार दिखाई पड़ रहा है | अनाप - शनाप , अनुचित ढंग से अर्जित धन का अमर्यादित प्रदर्शन और इसके ज़रिये समाज में प्रतिष्ठित कहलाने की झूठी ललक बढ़ती जा रही है , जो इंसान और इंसानियत को अंततः गर्त में ही गिराएगी |
सरकारी कर्मचारी, अधिकारियों के बारे में तो यह लगता है कि इसका कारण उनकी नौकरी की अनिश्चितता है | उन्हें यह भय लगा रहता है कि उनका यह पद , रुतबा कहीं छिन न जाय ! और फिर इस चाह में कि इस दिशा में उनकी और प्रगति हो | अब उनकी इस अस्थिर , संशयग्रस्त मानसिकता का कारण , एक तो उनमें आत्मविश्वास का अभाव होता है | ऐसे लोग कमज़ोर और डरपोक होते हैं , जीवन के मार्ग पर कठिन संघर्ष का साहस इनमे नहीं होता | तनिक भी विषम या प्रतिकूल स्थिति में इनका मनोबल टूटने लगता है |
[ दूसरे , इनमें लड़खड़ाहट इसलिए होती है क्योंकि वे जिस पद पर होते हैं , उसके वे योग्य नहीं होते | यदि योग्य होते हैं तो क्षमतापूर्वक कार्य करने की प्रेरणा नहीं होती | यदि क्षमता है तो कर्त्तव्यपरायणता को व्यवहार में उतारने का कोई संस्कार नहीं होता | और यदि वह भी है तो ऐसा करने वाले को उचित श्रेय -सम्मान - ईनाम ( पारितोषिक ) नहीं मिलता | वह देखता है कि लोग गुण नहीं , धन दौलत की इज्ज़त करते हैं | फिर कोई क्यों मेहनत और ईमानदारी की ओर प्रेरित हो , और सर उठा कर कहे - मैं अपना काम निष्ठां पूर्वक करता हूँ , और मैं संतुष्ट हूँ | मुझे किसी का भय नहीं | कोई क्यों न करे "हराम " की कमाई जब इसके लिए एक ऊपरवाला संरक्षण देने के लिए सहज उपलब्ध है ? ]
तब , इसलिए वह मूर्तियों , मंदिरों , पूजा -पाठ की ओर अग्रसर होता है | इसीलिये हैं गली - कूचों , सड़कों पर निरंतर , अविराम बढ़ती जा रही देवी - देवताओं की कुटिया और महलों की संख्या , इनके भक्तों की औकात के अनुसार ! और आदमी उनकी परिक्रमा में व्यस्त है | उसे यह सोचने की फुर्सत नहीं , कोई चिंता नहीं कि वह तनिक विचार , समीक्षा तो करे वह जीवन में वास्तव में क्या कर रहा है ? धर्म के नाम पर कितनी अनैतिकता ' धारण ' करता जा रहा है ? करे भी क्यों ? है न भगवान यह सब सोचने - करने के लिए ! यह उसकी ज़िम्मेदारी है | हम तो वही कर रहे हैं जो सब कर रहें हैं | सब तो फल फूल रहे हैं , फिर हम ही क्यों माथा खपायें , अपना सुख चैन गवाएँ , जो हमें इस जन्म में प्राप्त हो रहा है ? क्या हर्ज़ है कुछ फल -फूल- लड्डू लेकर मंदिर हो आने में ? सब दोष समाप्त ! तो चलो तीर्थ यात्रा कर लें , गंगा नहा लें , सारे पाप मिट जाएँ ! समाज के नुकसान के क्या एक हम ही ज़िम्मेदार हैं ? और एक हमारे नैतिक - ईमानदार होने से अंतर ही क्या पड़ेगा ? जो दबे - कुचले , गरीब और वंचित हैं , वे अपने पिछले जन्म का फल भुगत रहें हैं , तो हम क्या करें ? हमको देखो , जो कुछ कर रहे हैं वह ईश्वर को समर्पित भी तो कर दे रहे हैं ! तेरा तुझको अर्पित , क्या लागे मेरा ? ॐ जय जगदीश हरे | हे प्रभु, मेरी सुख -सुविधा , पत्नी -बच्चे , दुकान -नौकरी , बँगला -गाड़ी सबकी रक्षा करना मेरे मालिक ! वह सर्व शक्तिमान मालिक भगवान तो क्या हुआ , इनका नौकर- चौकीदार तो अवश्य हो गया , वह भी कुछ फूल - बताशों के दैनिक वेतन पर ! या फिर अवैतनिक बोतल के जिन्न की तरह !
एक होड़ सी लगी है धनवान होने की , तो साथ ही साथ धार्मिक होने की भी | फैशन की तरह हो गया है धार्मिक होना , दिखने का नाटक करना | माथे पर बड़ा सा टीका ज़रूरी है और उसका दिन भर वहाँ उपस्थित - विद्यमान रहना | पता तो चले , हमने सुबह नहाया धोया - पूजा पाठ किया था या मंदिर गए थे ! कार्यस्थल पर इष्ट देवी - देवता का चित्र अलमारी या मेज़ पर शीशे के नीचे होना अनिवार्य है, जिन्हें प्रणाम कर दिन की कार्यवाही का शुभारम्भ करें | लेकिन , बस उतना जिसमें कुछ ॐ शुभ लाभ प्राप्त होने की सम्भावना हो |
शाम को जल्दी जाना है सर ! फलाँ जगह से आये अमुक महाराज जी का प्रवचन है | एक हज़ार देकर स्थान बुक कराया है | भला किस अधिकारी की मजाल जो ऐसे शुभकार्य के लिए मना कर दे और शामत मोल ले ? फिर उसे स्वयं भी तो कहीं जाना है ? मंदिर के अतिरिक्त उसे अपने बॉस की और फिर बॉस को मंत्रालय की भी तो सेवा करनी होती है ! डबल , ट्रिपिल काम का बोझ है तो फिर वह अपना निर्धारित कार्य एकनिष्ठ हो कैसे करे , जब कि उसका सरवाईवल इन्ही 'अतिरिक्त' कार्यों पर निर्भर है ?
आध्यात्मिक जीवन के ये छद्म स्वरुप कैसे कँटीली झाड़ियों की तरह उग आये भारत के आँगन में ? कारण समझ में आता है कि ऐसा इसलिए है क्योंकि इसमें सब कुछ स्थूल है , और सूक्ष्म कुछ भी नहीं | स्थूल कार्य करके उसे दिखाना आसान होता है , जबकि सूक्ष्म कहीं दिखता नहीं और उसका प्रभाव भी सूक्ष्म होता है | प्रदर्शन के युग में , इसलिए , उसका कोई मूल्य नहीं | उसे बिरले पारखी ही समझ सकते हैं | इसलिए बनावटी आचरण ने असली मनुष्य को रिप्लेस , प्रतिस्थापित कर दिया है | वरना क्या बुद्ध- कबीर के जीवन - प्रवचन - आचरण में आस्था नहीं थी ? नास्तिकता आस्तिकता का विवाद यहाँ है ही नहीं | वी. एम. तारकुंडे ने " लौकिक और धार्मिक नैतिकता " [Secular and Religious morality ] नामक लेख में गांधी की धार्मिक नैतिकता को किसी भी प्रकार कमतर नहीं आँका | इसलिए सवाल मानव मूल्यों पर आस्था का है | और उस मापदंड पर क्या इन्हें धार्मिक कहा जा सकता है या कहा जाना चाहिए , जैसा कहलाने का इन्हें बड़ा शौक है ?
आश्चर्य होता है सोचकर कि बौद्ध धर्म , जिसकी वजह से ही विश्व में भारत को जाना जाता है , संसार में इसकी प्रतिष्ठा है और चीन जापान कोरिया आदि देशों से बौद्ध श्रद्धालु यात्री भारत तीर्थाटन पर आते हैं , उसे अपने ही देश ने किस तरह भुला दिया !
लेकिन विलाप करने , छाती पीटने से क्या होगा ? मंदिर के लिए हर बँगले में एक भूभाग , घर का एक कमरा , कमरे में एक कोना लकड़ी या पत्थर के बने ढाँचे में भगवान के बैठने के लिए स्थान सुरक्षित है | या नहीं तो दीवालों पर ईश्वर के चित्र टाँगने के लिए आदमी ने जगह दिया हुआ है | जगह यदि किसी चीज़ के लिए नहीं है तो वह है विवेक बुद्धि , वैज्ञानिक सोच , तार्किक चिंतन , मानुषिक संवेदना और सार्वजानिक नैतिकता | इन्हें कोई आश्रय , कोई सहारा जनजीवन से प्राप्त नहीं है | न धर्मों में , न हृदय में , न बुद्धि में | धर्म में पाखंडों की भरमार , हृदय स्वार्थों का भंडारगृह , और बुद्धि बस चालाकी का वृहद् कारखाना होकर रह गया है |
तो भाइयो सुनो ! साहब अभी पूजा कर रहे हैं | दरबान जब यह सूचना दे तो यह निश्चित समझ लीजिये कि साहब किसी भी दशा में इस लोक में रहने वाले किसी भी प्राणी से नहीं मिल सकते , चाहें उसकी जान ही क्यों न चली जाय |
सुना नहीं आपने ? एक सेकुलर राज्य , जिसका नाम भारतवर्ष , हिंदुस्तान दैट इज इण्डिया है , के एक प्रधान मंत्री तब तक पूजा करते रहे जब तक बाबरी मस्जिद ध्वंस का कारनामा चलता रहा , और पूजा पर से तभी उठे जब उन्हें सुनिश्चित सूचना मिल गयी कि श्रीमान ,यह धार्मिक शुभकार्य सफलता पूर्वक संपन्न हो गया है |
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