शनिवार, 8 दिसंबर 2012

कविताओं के साथ

किसी एक को क्यों कहें ? कोई मंदिर / मस्जिद पर अपना दावा नहीं छोड़ता | कविताओं के साथ एक यही दिक्कत है | वे इतनी ऊंची होती हैं कि कोई उन्हें छू नहीं पाता , पालन नहीं करता | उनका कोई असर सामजिक जीवन पर दिखाई नहीं देता | ग़ालिब ने कहा -दिल के बहलाने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है | या जोश - किधर से बर्क चमकती है देखें ऐ वाइज़ / मैं अपना जाम उठाता हूँ तू किताब उठा | ईश्वर के खिलाफ अनगिनत तो अश आर हैं | कितने हिन्दू तो छोड़ दीजिये , मुसलमान नास्तिक हुए / बने | यह गनीमत ज़रूर रही कि इन पर कोई फतवा जारी नहीं हुआ [ सलमान रश्दी शायर नहीं हैं ] |

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