मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

" नया मनुष्य "


दुखद दृष्टव्य है कि नास्तिकता का नाम लेते ही नाक भौहें चढ़ने लगती हैं , और उसके आध्यात्मिक निहितार्थ को पकड़ना किनारे हो जाता है | किसका दोष दें , काई की इतनी परतें चढ़ी हैं कि हमारे पाँव उसमे उलझ ही जाते हैं | समझ नहीं पाते अस्तित्व का मंतव्य जो कि ज्ञान की जन ग्राह्यता और जन- जन में आध्यात्मिक श्रेष्ठता है | इस उद्देश्य से हम मिशन का नाम बदल रहे हैं | इससे भी यदि बात न बनी तो फिर फिर बदलेंगे , पर नज़र रखेंगे चिड़िए की आँख पर- मनुष्य की आत्मिक उत्कृष्टता |

भूमिका = " नया मनुष्य " , स्थित प्रज्ञावान श्रेष्ठतर / ( न हि मानुषात श्रेष्ठतरम हि किंचित )
[ Individually Spirited / Highly Spiritual / Spiritual Humanist ] |
नया मनुष्य बनाने की बात अनेक जागृत महापुरुषों ने की | कृष्णमूर्ति , ओशो ने नए मनुष्य के उभार की प्रत्याशा की | और पहले, प्रकारांतर से बुद्ध ने , सार्त्र ने सुकरात ने की - अनगिनत शिक्षकों ने | लेकिन क्या कुछ हुआ ? और क्या कुछ भी नहीं होगा ? क्या नया मनुष्य नहीं बनेगा या नहीं बन सकता ? गुरुजन कहने ,पुकारने , रास्ता बताने के अतिरिक्त और क्या कर सकते थे ? उन्होंने किया | लेकिन बनना तो मनुष्य को है ! यही तो नए मनुष्य की विशेषता है कि वह स्वयमेव होता है, उसे जो होना है वह स्वयं होगा, अन्यथा नहीं होगा ( जो हो रहा है ) | वह किसी के अधीन नहीं हो सकता (लेकिन स्वाधीन तो हो सकता है ) | यही कारण है कि बनाते तो रह गए सारे धर्म अपने -अपने अच्छे इंसान और सभी अपने मुँह की खा गए | अलबत्ता फिर भी वे किनारे नहीं हुए | उन्होंने मनुष्य के लिए रास्ता नहीं छोड़ा | यही विडम्बना है जिसे हम तोड़ना चाहते हैं |
तो प्रश्न मौलिक है , क्या हम कुछ नहीं बनेंगे , नवीन ? कैसे बनेंगे ? या महामानवों की संकल्पना सारी मिथ्या में / निरर्थक चली जायगी ?  

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