गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

प्यार से ' तू '


मैं सोचता हूँ = मैं सोचने का ' कर्म ' करता हूँ | तब वह वस्तुतः सोचना / विचारना नहीं होता | सोच तो बिना ' सोचकर्म ' किये ही आता है | सही है आप का कहना | यह उक्ति दरअसल , संभवतः , उन्हें सोचने के लिए प्रेरणा निमित्त है , जो सोचते नहीं , जबकि वे मुझसे ज्यादा सही और सटीक सोच सकते हैं | क्या नहीं ?

* नागरिक उवाच को ओपन करने की सोच रहा हूँ | कुछ खिलवाड़ करने के लिए , अपने नाम को मिटाने ,तिरोहित करने के लिए | अभी यह सिर्फ मेरे लिखने के निमित्त है |

* तो रहने दीजिये न Rp भाई यह व्यवस्था ! भारत के इतिहास में कुछ तो बचा रहे ! :-)

* मित्र Zia खान सानेट कवितायेँ पोस्ट कर रहे हैं | बहुत अच्छी और पठनीय | उन्हें मैं वास्तविक कविता की श्रेणी में रखता हूँ | जो दिल को छू जाएँ | मेरा भी मन ऐसा लिखने का होता है | कभी कभी बात बन भी जाती है |

* आनंद देती
आनंद की कल्पना
भी सुखदायी |

* खूब सजतीं
भव्य रंगशालाएँ
शादियाँ होतीं |

* आज़ादी , कौन
बचाना चाहता है
आप हों तो हों !

* फर्क तो होंगे
लड़ते भी रहेंगे
संग रहेंगे |

* सच कहूँ तो
समय विषाक्त है
हम विषैले |

* अपने बच्चों की ख़ुशी के लिए खेल खेल में हम पहले घोडा , हाथी , बिल्ली , गदहा बने | अब बच्चे बड़े हो गए | अब उनकी नज़र में हम उल्लू बने खड़े हैं |

* प्रिय सम्पादक व्यक्तिगत पत्रकारिता के आयाम प्रदर्शित करने का मंच है |

* कविता एक शिल्प है | इसमें अपने भाव सुगठित रूप से ढालने की श्रम साधना और प्रोफेसनल योग्यता की ज़रुरत होती है , जो मैं न करता हूँ न करने की कोशिश करता हूँ | इसलिए मैं अपने को कवि नहीं मानता, न ऐसा कहे जाने की अपेक्षा करता हूँ |

* प्यार से ' तू ' ]  कल तेरह दिसम्बर को वि.वि के मालवीय सभागार में द्वारिका प्रसाद जी " उफ़ुक़ " की 150 वीं जयन्ती मनाई गयी | संगोष्ठी में राज्यपाल महोदय आये , और पश्चात शेरी नशिश्त [ काव्य गोष्ठी ] हुआ  | उफ़ुक़ जी की पोती कोमल भटनागर ने इसे आयोजित किया था | उनके श्रम और अपने दादा जी के प्रति उनका स्मरण भाव की सराहना की जानी चाहिए | उफ़ुक़ क्षितिज को कहते हैं | सत्तर के दशक में ही मैं उनकी एक रचना पर मुग्ध हो गया था , और मैं उसे जब तब हर जगह उद्धृत करता रहता हूँ |
वह मुझे प्यार से ' तू ' कहता है ,
मैं खिताब  लेकर क्या करूँगा ?
मैं ' हुज़ूर ' लेकर क्या करूँगा ,
मैं ' जनाब ' लेकर क्या करूँगा ?

* जिन्ना का भारत = मैं पूरी सत्यता से कहना चाहता हूँ कि हम जिन्ना के भारत हैं | धर्म के लिहाज़ से नहीं बल्कि सेक्युलर राजनीति की दृष्टि से | याद कीजिये पाकिस्तानी संसद में अपने प्रथम संभाषण में उन्होंने क्या कहा था ? कि इस मुल्क में सबको अपने धर्म पालन की पूरी आज़ादी होगी , अल्पसंख्यकों के साथ कोई भेदभाव नहीं होगा इत्यादि | इस सन्देश को ही तो भारत ने अपनाया ? तो हम जिन्ना के भारत हुए या नहीं ? इससे हमें क्या मतलब जो पाकिस्तान ने इसे भुला दिया ? अर्थात भारत सिर्फ गाँधी - नेहरु - आंबेडकर का ही नहीं , जिन्ना का भी उतना ही अनुयायी है |

* राजनीतिक विचारक इस्लामी कट्टरवाद के विरोध से तो सहमत होते हैं पर साथ ही मुसलमानों को भारत के संसाधनों पर पहला हक भी देना चाहते हैं | जब कि दूसरी और उन्ही का दलित विंग [ और वे भी ] केवल ब्राह्मणवाद से घृणा करने को नहीं कहता , न अपने अन्दर पनप रहे ब्राह्मणवाद से ही परहेज़ करता है बल्कि सम्पूर्ण ब्राह्मण समुदाय, प्रत्येक ब्राह्मण को कटघरे में रखकर उनके खिलाफ विषवमन करता है लतियाता - गरियाता रहता है | ' मासूम ' मुसलामानों के पक्ष में खड़े सेकुलर- प्रगतिशील आंदोलनकारी ' मासूम ' ब्राह्मणों के पक्ष में कुछ बोलने से कतराते हैं | ऐसी दो - अन्खियाही , यह वैचारिक गैर ईमानदारी राजनीतिक समाज में क्यों व्याप्त है ?

* [ अस्पष्ट ]
जो चीज़ गुम हो गई है , लोक आस्था कहती है , उसे थोड़ी देर के लिए भूल जाओ | फिर ढूँढो | मिल जायगी |

* [ डोर इतना न खींचो ]
यह बात दलित अति- आन्दोलन के पार्थ सारथियों - नील मंडल से संबोधित है | इस पर बशीर बद्र का एक अति प्रचलित शेर भी है - " दुश्मनी जमकर करो लेकिन यह गुंजाइश रहे / कि जब कभी हम दोस्त बन जाएँ तो शर्मिंदा न हों | " इसलिए डोर उतनी ही खींचो जिससे वह टूटने न पाए , थोड़ी थोड़ी जुडी रहे | क्योंकि हमारे नाम तो राम लक्ष्मण सीता सावित्री जैसे ही होने हैं | ऐसा न करो कि फिर मुँह दिखाने के काबिल न रहो | सत्ता के दंभ में [ हाँ आरक्षण भी सत्ता कि एक सशक्त शाखा है ] इतना न खो जाओ कि पागल हो जाओ | और सबसे बड़ी बात , हमारा और कहीं ठिकाना भी नहीं है, हिन्दू के अलावा , हिन्दुस्तान के अतिरिक्त | यूँ हिन्दू तो हम तमाम सवर्ण भी नहीं हैं , आप की ही तरह और आप के साथ ही एक मनुष्य की भाँति हैं |  लेकिन क्या करें ? नाम के लिए तो हिन्दू होना ही है | विवशता ही समझ लें | लोग जो कहते हैं यह संस्कृति है , तो सारी संस्कृति तो दलितों के पास रक्षति रक्षितः है | ग्राम्य शिल्प , लोक गायन - नर्तन ब्राह्मणों के पास कहाँ ? फिर हिन्दू होने से क्यों डरते हो ? छीन लो ब्राह्मणों से ज्ञान - विज्ञान - तत्व ज्ञान - वेद पुराण | बन जाओ ब्राह्मण | कौन रोकता है अब ? दिनकर की बात आप के लिए भी तो है - सिंहासन खाली करो कि जनता [ दलिता ] आती है |

*  " दुश्मनी जमकर करो लेकिन यह गुंजाइश रहे /
कि जब कभी हम दोस्त बन जाएँ तो शर्मिंदा न हों | "
[ बशीर बद्र ]

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