रविवार, 2 दिसंबर 2012

धार्मिक नाम केवलम


Published in "Humanist Outlook", a journal of INDIAN HUMANIST UNION - Vol. 13 No. 4 - Summer 2012 . Pages 127-130
Hindi Column by - Ugranath Nagrik 
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                                                             धार्मिक नाम केवलम 

        इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत देश में धर्म की परिभाषा कर्म , कर्तव्य के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है | मूल्य [ value ] को भी यहाँ धर्म कहा जाता है | सामान्य जीवन में भी राष्ट्र धर्म, राजधर्म, आपद धर्म, पुत्र - पितृ - मातृ - भ्रातृ - पति -पत्नी - पड़ोसी धर्म, शिक्षक - गुरु धर्म आदि शब्द सब कर्तव्य चेतना के के रूप में ही प्रचलित हैं | यहाँ तक कि सबंध भी धर्म से जुड़े हैं | धर्मपत्नी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है | श्री कृष्ण का सिर्फ एक ही प्रसिद्ध उपदेश सम्पूर्ण गीता और भारतीय वांग्मय के परिचय का पर्याय बन गया है - ' कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ' | धर्म की परिभाषा का एक सूत्र भी है - धारयति इति धर्मः | इसकी व्याख्या कुछ अन्य भी है, पर मानववादी समझ के अनुसार -  हम जो आचरण, जो नैतिकता अपने दुनियावी ज़िन्दगी के लिए ' धारण ' करें या करते हैं, वह ' धर्म ' है | यहाँ तक कि हमारे सम्बन्ध भी धर्म से जुड़े हैं | धर्मपत्नी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है | यहाँ चैरिटी [ कल्याण, परोपकार ] को भी धर्म ही कहा जाता है | चैरिटेबुल हास्पिटल, यानी धर्मार्थ चिकित्सालय | भारतीय लोकधर्म है - परहित सरिस धर्म नहिं भाई | हाँ , यह भी एक परिभाषा है धर्म की - आग का धर्म है जलाना, फूल का धर्म है सुगंध बिखेरना, सूर्य का रौशनी, चन्द्र का शीतलता प्रदान करना | बोलिए, अब कहाँ जायँगे धर्म से भागकर भारतवर्ष की इस परिभाषा के अनुसार ? क्योंकि ' धारण ' तो करते हैं हम भी नैतिकता, समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व इत्यादि मूल्य ! इसलिए मैं स्वयं लोकतंत्र , डिमोक्रेसी को एक धर्म मानता हूँ, और इसे इसी रूप में लेने का आग्रह करता हूँ |
लेकिन मज़हब नहीं | क्योंकि निश्चित ही धर्म, मज़हब और रिलीजन से कुछ भिन्न अर्थ रखता है, और निस्संदेह किसी भी शब्द के अर्थ की आत्मा को उसकी अपनी ही भाषा में ठीक से समझा जा सकता है | लेकिन विकास के क्रम में संसार इतना सिकुड़ गया, भाषाएँ इतनी सम्मिश्रित और मनुष्य इतना बहुभाषी हो गया है कि शब्दों के अर्थों के सूक्ष्म विभेद समाप्त हो गए | अब गोंड, ईश्वर, अल्लाह एक हो गए और धर्म, मज़हब, रिलीजन एक दूसरे के समानार्थी - पर्यायवाची | अब इस विलाप से कोई लाभ नहीं कि हाय ! हमारा धर्म कोई रिलीजन, मज़हब नहीं है , वह तो एक जीवन शैली है | हो तो हो , पर अब वह अन्य अर्थों में भी जाना जायगा |
          फिर भी चलिए, कर्म पर ही थोड़ा ध्यान देकर इसकी विडम्बना देखते हैं | जब कोई व्यक्ति अपना परिचय किसी धर्म के साथ जोड़कर देता है तो क्या हम कह सकते हैं कि वह किसी कर्तव्य संहिता के प्रति प्रतिबद्ध है ?
[नरेंद्र मोदी को अटल जी ने राजधर्म निभाने की हिदायत दी थी,क्या मोदी जी ने उसे व्यवहृत किया ?] 

   यहाँ एक मनोरंजक विचार मस्तिष्क में आता है | क्यों न ऐसा किया जाय कि देश में प्रचलित धर्मों की आचार संहिताएँ बनवाकर उनका पंजीकरण कर लिया जाय और धार्मिक सदस्यों से तदनुसार उनके पालन की अपेक्षा की जाय | यदि वह उस पर खरा न उतरे तो उसे सम्बंधित समूह से बहिष्कृत कर दिया जाय | अनुमान किया जा सकता है भारत की आधे से अधिक जनसंख्या धर्मों से निकल कर सामान्य नागरिक की उपाधि धारण कर लेगी और तब कामन सिविल कोड सबको स्वीकार हो जायगा | लेकिन ऐसा होगा नहीं | इससे यह सिद्ध है कि धर्म का कोई रिश्ता कर्म से नहीं रहा | ये सब मात्र पहचान चिन्हों के रूप में है मनुष्यों में अंतर हेतु, बिल्कुल जातियों की तरह, जन्म से सुनिश्चित विभेद स्वरुप हैं | बिल्कुल प्रासंगिक है यहाँ यह मुद्दा उठाना कि व्यक्ति का धर्म उसके पैदा होने के साथ ही उसके माता-पिता क्यों तय कर दें ? अभी तो उसने न कुछ पढ़ा है, न जाना है | वयस्क होने पर वह अपना कोई धर्म चुने या न चुने ,यह उसकी स्वतंत्रता होनी चाहिए | महत्त्वपूर्ण है यह भी प्रश्न कि नागरिकों की व्यक्तिगत आस्था विश्वास और धर्म से सेकुलर राज्य को कोई मतलब क्यों हो ? वह जनगणना में धर्म का कालम रखे ही क्यों ?
    अलबत्ता इससे भी व्यक्तियों में उनके धार्मिक परिचय का राक्षस पीछा छोड़ने वाला नहीं है | यहाँ तो नाम ही बता देते हैं आप का धर्म क्या है ? अब माँ-बाप अपने बच्चों का नाम अपनी पसंद के अनुसार कुछ तो रखेंगे ही , यह उनका अधिकार है | इसलिए धर्म , जैसे भी हों , उनके आधार पर जनगणना सचमुच जटिल मामला है | अपने ही साथियों का मानना है कि इसकी डेमोग्राफी राज्य के पास होनी आवश्यक होती है | इससे सहमत हुआ जाय या नहीं पर जब तक यह प्रश्न हमसे पूछा जायगा , हमें कोई न कोई उत्तर देने के लिए तो तैयार ही होना होगा | इस उद्देश्य से विगत जनगणना के अवसर पर              लखनऊ में हम कुछ लोग सक्रिय हुए | [स्व के के जोशी जी के आवास पर] मीटिंग की गई कि धर्म के कालम में हम लोग क्या लिखायें ? कोई नहीं , अन्य , मानववादी , मानवतावादी, सेकुलर, सर्वधर्मी  आदि नामों पर इतनी चर्चा हुई कि तय कुछ नहीं हुआ | इसे खाली छोड़ना भी एक विकल्प था लेकिन फिर उसे जनगणना कर्मचारी के विवेकाधीन हो जाने का अंदेशा भी तो था |
        तय नहीं हुआ , लेकिन तय होना तो है मानववादियों की एक पहचान के साथ सर्वाइवल के लिए | 
 कोई मानववादी कर्त्तव्यविमुख अर्थात धर्महीन तो नहीं होगा, लेकिन इससे उस कागज़ के प्रपत्र [फार्म ] से क्या मतलब ? वह तो कहता है अपने धर्म का नाम बताओ, हमको तुम्हारे " गुण धर्म " से क्या मतलब ? बिल्कुल सही है उसका पूछना | क्या हम लोग ही सेकुलरवाद के तहत यह नहीं कहते रहे हैं कि धर्म एक निजी मामला, व्यक्तिगत आस्था का विषय है ? तो इसलिए नैतिक गुण तो हमारे आचरण   के लिए हैं | इस युग में अपने मूल्यों के अनुरूप या कोई तो शाब्दिक नाम भी होना चाहिए मानववादियों के परिचय के लिए ! 
वह नाम हमें कौन देगा ? हमारा कोई गुरु तो है नहीं , न कोई देवदूत , न कोई ईश्वर , न कोई किताब ! हमारी कोई परंपरा या लौकिक प्रतीक पुरुष [ ICON ] भी नहीं है | ऐसे में इसे तो हमें स्वयं तय करना पड़ेगा | चलिए , आरम्भ इस विचार से करते हैं कि हम सब दायित्वबोधयुक्त , कर्त्तव्यपरायण, सत्यनिष्ठ लोग हैं | तो यह तो हमारी नागरिकता के गुण समूह में ही अंकित हैं, हमारी संवैधानिक बाध्यता है | किसी भी देश के नागरिक का यह तो स्वाभाविक गुण है या होना चाहिए | हम किसी देश के अंश हैं , तो देश की नागरिकता हमसे कुछ मूलभूत कर्तव्यों की अपेक्षा रखती ही है , और हम उस पर खरा उतरने के लिए तैयार भी हैं | अतः हमारे धर्म का स्वाभाविक और अनिवार्य नाम हुआ - " नागरिक धर्म " | अलबत्ता , इसमें एक राष्ट्र - विशेष के प्रति निष्ठां हमारी अंतरराष्ट्रीय मानववादी चेतना के विपरीत है, लेकिन यह भी तो है, कि देश तो है | वह एक यथार्थ है, हमारी रिहाइश यहीं है, उसके राज्य के हम निर्माता हैं, हमारी संपत्ति इसी के सिक्के में है और इसके अलावा दुनिया में हमारा कोई ठौर नहीं | अंतरराष्ट्रीयता (Internationalism) के लिए भी एक राष्ट्रीयता (Nationalism) ज़रूरी है |
     इस बाधा को पार करने के बाद अब जो बाधा आती है वह यह है कि इस पर प्रबुद्धजनों की यह आपत्ति होती है कि - " यह भी एक धर्म बन जायगा " | यानी एक बुराई को ख़त्म करने के लिए दूसरी बुराई क्यों पालें ? ऐतिहासिक अनुभवों से गुज़रते हुए उनका यह भय वाजिब भी है | लेकिन करें क्या ? हमारे लिए तो हमारा नाम भी अनावश्यक है जो मनुष्यों में भेद कराता है | लेकिन क्या नाम के बगैर कोई रह सकता है | उसी तरह क्या धर्म के नाम के अभाव में हमारा परिचय पूरा होगा ? जाति तो यूँ ही जोंक की तरह चिपका हुआ है जिसे हम अपने शरीर से निकल नहीं पा रहे हैं , धर्म का क्या विनाश करेंगे ? अतः हमारा " युगधर्म " है धर्मों का विकल्प देना | मेरा तो मत है कि हम अपना काम करें और  इस विश्वास के साथ करें कि हम अपना कर्तव्य निभा रहे हैं | इतनी अनिश्चयता तो हमें कहीं नहीं ले जायगी | कहा भी है - संशयात्मा विनश्यते | इसलिए हम भरोसा करें अपनी आने वाली पीढ़ियों पर | सचमुच वे हमारे प्रयासों से इतने बुद्धिवादी, जागरूक और वैज्ञानिक चेतना में संस्कारित हो चुके होने चाहिए, कि वे चाहेंगे तो हमारे धर्म को मानेंगे, उसमें फेरबदल कर लेंगे, कोई नया बना लेंगे और हमारी निर्मिति को कूड़ेदान में फेंक देंगे |   
    अब  समस्या आती है व्यवहार की | हमारी बाधा यह है कि हम स्वतंत्रचेता मुक्तमानस जन किन्ही बंधनों में नहीं बंधना चाहते , भले वह नाम भर के धर्म का बंधन क्यों न हो | एक दृष्टि से यह उचित तो है, लेकिन लौकिक जीवन के यथार्थ हमें इतनी स्वतंत्रता लेने कहाँ देते हैं ? हम किसी न किसी धर्म के दायरे में रहने को विवश हैं | तो क्यों न ऐसे धर्म का अविष्कार करें जिसके अंतर्गत हम जितना चाहें उतना स्वतंत्र हो सकें ?  
      धर्म के रूप में ' मानववाद ' एक आदर्श सिद्धांत, और ' मानववादी ' एक सही शीर्षक हो सकता है | पर इस पर हक तो पहले ही धर्मों द्वारा जताया जा चुका है | इस शब्द के साथ मूल खामी यह है कि इसे मानवतावाद , इंसानियत के अर्थों में लिया जाता है , जो कि स्वाभाविक है | यदि वाद की गहराई में न जायँ तो दोनों में बहुत अंतर है भी नहीं | तब तो सारे धर्म कहेंगे तुम नाहक अलग हो रहे हो | हम इंसानियत ही तो सिखाते हैं ? यह देखो हमारी किताब , यहाँ समता है, भाईचारा है, सारी तो मानवता की बातें हैं | इसलिए उनसे कतई बच निकलने और उनका सही विकल्प बनने के लिए ऐसा रणनैतिक शब्द ढूँढने की ज़रुरत है जो उनकी हर तरह से काट भी कर सके और धार्मिक मूल्यों के लिए पराया भी न हो | 
        आखिर, वे किसी भी धर्म के हों , अपने को धार्मिक ही तो बताते हैं ? उन्होंने हमारे वार करने के लिए जगह यह बना रखी है कि धर्म के साथ हिन्दू - मुस्लिम नाम जोड़ रखा है , जो कि फालतू और अनावश्यक है | बस उसी को हम हटा दें और उनकी तुलना में एक लम्बी लकीर खींच कर कुछ बड़े हो जायँ | हम अपने धर्म का नाम केवल ' धर्म ' कर दें , विशुद्ध धर्म, स्पष्ट कर्तव्य, निष्कपट मानव मूल्य, ईमान से इंसानियत और जनगणना रजिस्टर या सामान्य सामाजिक परिचय में भी, ' धार्मिक ' हो जायँ |
देखिये, अब आपके सामने है एक पूरा खुला सारा आकाश | धर्मों के जगत में और अध्यात्म की दुनिया में खूब विचरण कीजिये | थोड़ी सी रणनैतिक दृष्टि से जीवन में कितना परिवर्तन, विस्तार आ गया ? पहले केवल पैदाइशी धर्म आपके पास था , अब सारे धर्म आपके हो गए | आपने सबको हथिया लिया अमरीका के आक्युपायी वाल स्ट्रीट आन्दोलन जैसे कार्यक्रम के फलस्वरूप ! अब सारे ईश्वर-अनीश्वर आपके, सारी किताबें आपकी, सारे धर्मगुरु और उपदेशक आपके | जो भी चुनना है चुनिए, स्वीकार कीजिये , खाइए - पचाइए | इनसे प्रचुर मात्रा में पोषक तत्व मिलेंगे, जो आपको मानवता की सेवा के मार्ग में प्रशस्त करेंगे, कभी थकने नहिं देंगे |
   अंततः , संदेह न करें | धर्म का कोई नाम नहिं होता | वह तो सनातन, शाश्वत होता है - आप ही कहते हो ! तो फिर प्यार को प्यार और धर्म को धर्म ही रहने क्यों नहिं देते , कोई नाम क्यों देते हो ?             
      निष्कर्षतः , हम अपने धर्म का नाम ' धार्मिक ' बतायें , और अपना आचरण एवं व्यवहार भी इसके अनुकूल बनायें | धार्मिक नाम केवलम , और कुछ नहीं | देखिये कौन हराता है आपको ? आप विजेता होते हैं या नहीं ?  
      किधर से बर्क चमकती है देखें ऐ वाइज़ ,
      मैं अपना जाम उठता हूँ तू किताब उठा |    
      [ ज़िगर मुरादाबादी ]    # 
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-- उग्रनाथ नागरिक  

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