रविवार, 9 दिसंबर 2012

खेल मान्यताओं का


*अपनी आस्तिकता की खोज , उसका निर्माण स्वयं कीजिये | इसके लिए पहले नास्तिकता पर तो आइये , उन विश्वासों के बरखिलाफ जो दुनिया में व्याप्त हैं ! तब तो बात बने !

* ईश्वर को मानने के पीछे मनोवैज्ञानिक कारण के अलावा बस साहित्यिक , सांस्कृतिक , कलाकृति भर जोड़े जा सकते हैं | अन्यथा वस्तुतः तो वह है नहीं , वैसा जैसा उसका होना बताया जाता है | आश्चर्य है जिसे हम अपने वैज्ञानिक औजारों से नहीं जान सकते, उसे हम ' जानते हैं ' कैसे मान सकते हैं ? कैसे किसी ने ईश्वर को जान लिया ? नहीं जान सकते इसीलिये ईश्वर के तमाम धर्मों और मान्यताओं में अलग अलग , परस्पर विरोधी स्वरुप हैं , और विवाद के कारण बनते हैं | तो खेल तो सब मान्यताओं का है , सच्चाई कुछ नहीं | हाँ , मानने में हर्ज़ क्या है , इस पर मैं भी सहमत हूँ | लेकिन पहले यह मान कर कि वह वस्तुतः है नहीं , हम उसे इस तरह मानते हैं अपने किन्ही मानवीय प्रयोजनों के लिए | और तब बात आएगी कि यदि हमारा शुभ प्रयोजन उस ईश्वर से सिद्ध न होता , तो ऐसे ईश्वर का फिर क्या काम ?


*आस्थावान लोग आपस में झगड़ते क्यों हैं , यदि आस्था बड़ी अच्छी और नेक चीज़ है ?

* लड़ाई मंदिर और मंदिर [मस्जिद] की नहीं हो सकती | हो तो हो मंदिर और अमंदिर के बीच |

 * हाँ रवीन्द्र जी , यकीनन ध्यान देने योग्य है यह बात | और इन्ही पर ध्यान हमें नास्तिकता पर ले जाता है , जो मेरी दृष्टि में अनुपम , श्रेष्ठ , सुपर आस्तिकता है / यद्यपि उन्हें अधर्मी कहकर लताड़ा जाता है , मानो वे स्वयं बड़े धर्म के काम में लगे हों |

* आस्
तिकता का शीर्ष शिखर होगा - नास्तिकता / अति विश्वास, सुपर आस्था | लेकिन कोई जल्दी न कीजिये / हम सभी लोग उसी रास्ते से गुज़रे हैं | ध्यानी तो मैं अभी भी हूँ , जो पहले नहीं था | बस पाखण्ड छूट गए , दूर जा गिरे |


* और आगे सोचिये | नास्तिक होकर आप अपनी आस्था ( इस आलोचना पर कान न दीजिये कि नास्तिकों की कोई आस्था नहीं होती | बड़े गहरे आस्थावान होता है  वह यदि सचमुच नास्तिक हैं तो ) को निष्पक्षता से, बराबरी से सभी धर्मों , सभी ईश्वरों में बाँट सकेंगे | अपना प्रेम सभी बंधुओं में समता पूर्वक , बिना भेदभाव ,without prejudice दे सकते हैं | आस्तिकता , देखते रहिये , आपको किसी एक खूँटे से ऐसा ले जाकर बाँध देगी कि आप जीवन भर कोल्हू के बैल की तरह एक घेरे में चक्कर लगाते रहेंगे | और अपना जीवन तो कदापि नहीं जी पाएंगे |

* नहीं | आधुनिक काल में शब्दार्थ इतने तो न बदलें | आस्तिकता / नास्तिकता दोनों ही आध्यात्मिक अभिप्राय हैं | और यह भारतीय वांग्मय में संभव हुआ इसका मुझे गर्व है | मुझे आश्चर्य होता है जब नास्तिकता पर कोई हिन्दू आश्चर्य या विरोध करता है | यह तो वह संपत्ति है जो केवल हिन्दू के पास है | जाबालिसमेत कितने ऋषि मुनि नास्तिक हैं , बौद्ध जैन सांख्य योग मीमांसा आदि अधिकांश दर्शन तो नास्तिक हैं | इसी से वह समृद्ध है | पता नहीं नास्तिकता से क्या आशय लेते है लोग | हमें एक तो लगता है की पढ़ने लिखने में रूचि समाप्त हुई है | न आध्यात्मिक उन्नति से किसी को कुछ लेना देना  रहा है | ढोल पीटने में आसक्ति बढ़ी है | दुसरे मौलिक चिंतन में आस्था सपाप्त हुई है | यहाँ मैंने आस्था शब्द का प्रयोग किया , जिसके बगैर कोई जीवन नहीं होता | यदि नई परिभाषा देनी हो तो कहें - आस्तिकता का प्रयोग साम्प्रदायिकता और नास्तिकता आध्यात्मिकता के सन्दर्भ में लिया जाय | और हाँ , यह कितनी झूठी बात प्रचलित है कि सेक्युलरवाद विदेशी अवधारणा है | क्या सत्यनिष्ठा, न्यायप्रियता , मानव सम्मान , चार्वाक ,बुद्ध आदि विदेशी हैं ?


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