[ कविता ]
अकेला पेड़
* मैं एक पेड़ तो हूँ
पर इतना बड़ा नहीं
कि कोई मुझे छू न सके ,
न ही मैं कोई बरगद
जिसके नीचे
कोई पेड़ न उगे ,
फिर भी न जाने क्यों
मेरे आस पास के सारे पेड़
मुझसे अलग हो गए , या
मुझे अलग कर गए !
कुछ अपना क़द
छोटा करते करते
बौने हो गए |
कुछ तिनके बन गए
यहाँ तक कि भूल गए
तिनके का महत्त्व |
और जो बड़े बनते थे
मुझसे दूर छिटक कहीं
इकट्ठे खड़े हो गए |
मैं अकेला पड़ गया
जब कि मैं
अकेला नहीं रहना चाहता था |
चलो , ठीक हूँ अकेला ही भला
भूले भटके , थके, हारे- मांदे
राहगीरों को छाया- सुकून देता |
पेड़ों के घने जंगलों में तो
लोग जाने से डरते हैं |
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[ कविता ]
भेदभाव
* उन्होंने काला रंग देखकर
उनसे भेदभाव किया ,
अब ये गोरा रंग देखकर
भेदभाव करेंगे |
पहले उन्होंने जात देखकर
भेदभाव किया
अब ये जात देखकर
भेदभाव करेंगे |
रहेगा तो भेदभाव
चाहे वह मूलभाव हो
या हो बदले का भाव |
नहीं मिटना
भेदभाव का भाव |
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