सोमवार, 24 दिसंबर 2012

निर्विवाद

* मूल प्रश्न - मैं मूरख तो यही नहीं समझ पाता कि प्रपत्रों में अपना ही नाम क्यों लिखना पड़ता है ? क्या वह सच होता है ? प्रज्ञा , संदीप , कामेश्वर , धीरेन्द्र , शिवानन्द क्या वाकयी ऐसे हैं ? क्या मैं उग्र हूँ जो मैं लिखता हूँ ? यह नाम तो बाप ने दिया | इसलिए अपनी ज़िम्मेदारी से बचने के लिए उनका भी नाम घसीट लेता हूँ | [ फिर जब बाप ने पति के हवाले कर दिया , तो उन्हें भी सेफ्टी पिन से टांक लेती हूँ ]

* दलितों को , ईमानदारी से , एकता की दृष्टि से , कम से कम यह तो करना ही चाहिए कि वे अपने परिवार का इलाज दलित डाक्टर [ ब्राह्मण डाक्टर से तो कतई नहीं ] और अपने बच्चों का दाखिला केवल दलित प्रबंधित स्कूल / कालेज में कराएँ , ट्यूशन केवल दलित शिक्षक से |

* चिंता की कोई गल नी है | देश , न तब आंबेडकर जी के अजेंडे पर था , न अब वह आंबेडकर वादियों की सूची में है | केवल अपना स्वार्थ सिद्ध होना चाहिए | देश पर इस्लाम की जकड कैसी कसती जा रही है , इससे किसी को क्या मतलब ? " दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल " , यह बात गांधी से ज्यादा आंबेडकर जी और कम्युनिस्टों पर खरी उतरती है | ले ली उन्होंने आज़ादी और भरपूर उसका फायदा , बिना आज़ादी की लडाई लड़े - केवल रार और तकरार के बल पर |


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें