गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

अध्यक्षीय भाषण के बाद


* ईश्वर एक कविता है | स्वयं गढ़ों और गाओ |

* तुच्छ बातों से ईश्वर बनाया भी नहीं जा सकता , न कविता | ये सब श्रेष्ठ / उन्नत कलाएं हैं |

[ अध्यक्षीय भाषण के बाद , अर्थात वह टिपण्णी जो घटना - विवाद के बाद थोडा रुक कर की गयी हो ]
* यदि विचारकों का कोई department होता और मैं उसका अध्यक्ष, तो सच मानिये , सारे विचारकों/ विचार कर्मचारियों की और से ज़िम्मेदारी लेते हुए अब उस पद से इस्तीफ़ा देने का मेरा मन है | क्या फायदा हमारे होने से जब हमारे सारे विचार धडाधड ध्वस्त / धराशायी हो रहे हैं, झूठे साबित हो रहे हैं | श्वेत पत्र १९६० के दशक से जारी करता हूँ , जब मैं इस विभाग में कूदा | तब सिनेमा की खिलाफत पर विचारक कहते थे कि मनोरंजन के साधनों के अभाव में लोगों से बच्चे अधिक पैदा हो जा रहे हैं | लेकिन सिनेमा ने जनसँख्या नियंत्रण में तो कोई भूमिका नहीं निभाई | फिर आया कि पर्दा प्रथा मर्दों को औरतों की और अनावश्यक आकर्षित करता है | हमने पर्दा हटा दिया | फिर छींटाकशी क्यों होती है ? हमने स्त्री पुरुष संबंधों को खुला और आसान बनाने का विचार दिया | मुक्त यौन की वकालत कर यौनशुचिता के प्रति दकियानूसी अवधारणा का विरोध किया | पार्कों में युवाओं के मिलन को उचित कहा और उन पर सांस्कृतिक / पुलिसिया कार्यवाही का विरोध किया | वैलेंटाईन डे मनाया | जहाँ तक संभव हुआ स्त्री पुरुष संबंधों को सहज - सरल करने का प्रयास किया | इसके अतिरिक्त हम धारा ३७७ के भी पक्ष में रहे | हमने वेश्यावृत्ति को कानूनी बनाने का भी विचार दिया | वह संभव नहीं हुआ पर उसकी उपलब्धता तो है ही | फिर बलात्कार क्यों हो रहे हैं ? इसकी ज़रुरत क्यों है और गुंजाइश कहाँ है ? एक गलती मानी जा सकती है हमारी जिस पर अपराधियों के मनोबल बढ़ाने का दोष मढ़ा जा सकता है - वह है - हमने मृत्युदंड की अवश्य खिलाफत की और उसे अनावश्यक बताया | लेकिन वह तो बलात्कार हो जाने के बाद की सजा है | मेरा तो अपने विभाग के ऊपर आरोप यह है कि हम विचारकों के होते हुए बलात्कार की मानसिकता समाज में पनपने क्यों पायी ? बलात्कार होते क्यों हैं ? हम इसे रोकने का रास्ता क्यों नहीं बना पाए ? इसलिए मेरा त्यागपत्र |
मेरी सिफारिश है संदीप , नीलाक्षी , पूजा शुक्ला, रूपा राय, चंचल भू , उज्ज्वल जी एवं अपने तमाम अनुज - अग्रज मित्रों से कि वे इसे स्वीकार कर मुझे जलील करें , जूते मारें , मुझ पर थूकें | मैं आज बहुत शर्मिंदा हूँ |    

मनुस्मृति जलाकर एक प्रयास और करता हूँ , लेकिन अब तो अपने ऊपर यह भी विश्वास नहीं रहा कि इससे भी बलात्कार ख़त्म होगा |
क्या अब यही कहने का समय आ गया है कि - लडकियों अन्दर जाओ ?

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