* प्रश्न है - दलित जनों को क्या मनुष्य , मनुज कहलाने पर भी ऐतराज़ है ? असंभव तो नहीं , क्योंकि इनके साथ ' मनु ' जो लगा है |
उग्रनाथ'नागरिक'(1946, बस्ती) का संपूर्ण सृजनात्मक एवं संरचनात्मक संसार | अध्यात्म,धर्म और राज्य के संबंध में साहित्य,विचार,योजनाएँ एवं कार्यक्रम @
सोमवार, 31 दिसंबर 2012
सुबह का अखबार
[ग़ज़ल ]
* सुबह का अखबार तो मैं हूँ ,
अब इतना गुनहगार तो मैं हूँ |
कुछ बुरी ख़बरें ले आया हूँ ,
अपशकुन इश्तहार तो मैं हूँ |
और कुछ चिट्ठियाँ लिख रखी हैं ,
डाकिये की गुहार तो मैं हूँ |
छपी हैं नग्नतम कुछ तस्वीरें ,
आपके मन की बात तो मैं हूँ |
खरीदो , बेच लो अब जो कुछ भी
अब तो एक व्यापार तो मैं हूँ |
# # #
* सुबह का अखबार तो मैं हूँ ,
अब इतना गुनहगार तो मैं हूँ |
कुछ बुरी ख़बरें ले आया हूँ ,
अपशकुन इश्तहार तो मैं हूँ |
और कुछ चिट्ठियाँ लिख रखी हैं ,
डाकिये की गुहार तो मैं हूँ |
छपी हैं नग्नतम कुछ तस्वीरें ,
आपके मन की बात तो मैं हूँ |
खरीदो , बेच लो अब जो कुछ भी
अब तो एक व्यापार तो मैं हूँ |
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गुरुवार, 27 दिसंबर 2012
मनुष्यों से घृणा
* [ नयी बात ]
आज सुबह दो विचार मन में आते हैं | उन्हें सु और कु में विभाजित करना निरर्थक है | विचार सिर्फ विचार होते हैं | दुनिया का आधा नाश इन्ही सुविचारों से हुआ है | इसलिए इसे कुविचार ही माना जाय तो बड़ी कृपा होगी |
एक तो यह कि प्रकृति अब मनुष्य को मिटाना, बरबाद करना चाहती है | हो सकता है बदला लेना चाहती हो | या, कारण जो भी हो, मंशा कुछ भी हो | मैं उसकी विवेचना में नहीं जाऊँगा | उसे मैं जानता भी नहीं |
दूसरा यह कि अब मनुष्यों से घृणा किया जाना चाहिए | ऐसा ही दुष्ट और नालायक है यह | घृणा का ही पात्र है यह | बहुत हो गयी प्रेम की बातें, बहुत धोखे खाये पीढ़ियों ने | सारे धर्म - मज़हब प्यार मोहब्बत के नाम पर ही उगे और कहर ढाए | प्रेम ने बहुत छला | परस्पर घृणा के संतुलन से ही जीवन सही होगा | तो, मैं तो शुरू करता हूँ सर्वप्रथम अपने आप से, अपने प्रियजनों - परिवार से घृणा करने से | फिर आता है क्रम उसका जिसे सुंदर कहा जाता है और आधी दुनिया उस आधी दुनिया पर मरी जाती है | मैं औरतों से घृणा करता हूँ | फिर तो ईश्वर, देवी -देवताओं से नफरत करनी ही पड़ेगी | #
[20/2/13]
प्यार का चक्कर
* जब से मैंने माना कि प्यार जैसी कोई चीज़ नहीं होती , तब से मनस्क्लेश का एक नया चक्कर शुरू हो गया | कि हाय ! तब तो मुझे भी कोई प्यार नहीं करेगा , अब क्या करूँ , मेरी जीवन नैया कैसे पार होगी ? क्या यह ऐसे ही नीरस और शुष्क रह जायगी ?
लेकिन आगे का ध्यान किया तो पाया कि प्यार का जो जल तुम्हे दिखाई दे रहा है , वह तो विज्ञानं के टोटल रिफ्लेक्सन का खेल है | वहाँ पानी नहीं है | इसी फेनामेना को मृग तृष्णा कहा जाता है | तब मन को समझाया - रे मन , जब प्यार जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं तो तुझे कोई प्यार क्यों करेगा ? कर ही कैसे सकता है ? तो सच्चाई तो यही है , इसे सहर्ष स्वीकार करो | ऐसे में तो यदि कोई तुमसे कहे कि " मैं तुमसे प्यार करती हूँ " तो उसे केवल तन की भूख समझो | उसे मन से मत जोड़ो वर्ना भ्रम और मृग मरीचिका में पड़ोगे तथा दुःख और संताप झेलोगे | अच्छा ही तो है और सही भी जो मुझसे कोई प्यार नहीं करता | इसकी आशा ही मत करो क्योंकि वस्तुतः ऐसी कोई चीज़ नहीं होती | निश्चिन्त - निष्काम चैन की नींद लो ,और अपना जीवन सार्थक सार्वजानिक कार्यों में लगाओ | शरीर की आवश्यकता को, शरीर की आवश्यकता की ecrrrfffffffsssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssssपूरी करो | प्यार के चक्कर में मन और आत्मा का सत्यानाश मत करो | इससे एक लाभ यह भी है की तुमसे कोई यह नहीं कहेगा की तुम उसे प्यार करो | न तुम किसी को प्यार करो , न कोई तुमसे प्यार करे तो जीवन में न लाभ हो न घाटा , न इनकी बिलावजह चिंता , न कोई फ़िल्मी उपन्यास कथा का निर्माण , जिनसे प्रोत्साहित होकर तमाम युवा ज़िंदगियाँ बरबादी की और कदम बढ़ाती हैं | आमीन | 20/2/13
* " CULTURE IS POLITICS OF SOCIAL LIFE "
इस विचार को सोचते जायंगे तो इसे क्रमशः सत्य ही पाएंगे | यह तो हम एक दूसरे से शिष्ट सभी - प्रेम व्यवहार करते, सलाम दुआ, खान पान करते, तीज त्यौहार मानते / शरीक होते हैं, सब ज़िन्दगी की राजनीति है | राजनीति का मतलब जिसमे बनावट और झूठ ज्यादा हो और सच्चाई की मात्रा कम | इस प्रकार हम अपने सुख और शक्ति को बढ़ाते हैं | अन्यथा हम अकेले , अलग थलग न पड़ जायं ? इसीलिए जो सीधे सादे लोग सामाजिक कम होते हैं वे कमज़ोर पड़ जाते हैं | और जो समाज Social Life को सक्षम राजनीतिक रूप से जीता है वह अधिक शक्तिशाली हो जाता है | यहाँ तक की वह राज / शासन करने की स्थिति में आ जाते हैं | 21/2/13
अध्यक्षीय भाषण के बाद
* ईश्वर एक कविता है | स्वयं गढ़ों और गाओ |
* तुच्छ बातों से ईश्वर बनाया भी नहीं जा सकता , न कविता | ये सब श्रेष्ठ / उन्नत कलाएं हैं |
[ अध्यक्षीय भाषण के बाद , अर्थात वह टिपण्णी जो घटना - विवाद के बाद थोडा रुक कर की गयी हो ]
* यदि विचारकों का कोई department होता और मैं उसका अध्यक्ष, तो सच मानिये , सारे विचारकों/ विचार कर्मचारियों की और से ज़िम्मेदारी लेते हुए अब उस पद से इस्तीफ़ा देने का मेरा मन है | क्या फायदा हमारे होने से जब हमारे सारे विचार धडाधड ध्वस्त / धराशायी हो रहे हैं, झूठे साबित हो रहे हैं | श्वेत पत्र १९६० के दशक से जारी करता हूँ , जब मैं इस विभाग में कूदा | तब सिनेमा की खिलाफत पर विचारक कहते थे कि मनोरंजन के साधनों के अभाव में लोगों से बच्चे अधिक पैदा हो जा रहे हैं | लेकिन सिनेमा ने जनसँख्या नियंत्रण में तो कोई भूमिका नहीं निभाई | फिर आया कि पर्दा प्रथा मर्दों को औरतों की और अनावश्यक आकर्षित करता है | हमने पर्दा हटा दिया | फिर छींटाकशी क्यों होती है ? हमने स्त्री पुरुष संबंधों को खुला और आसान बनाने का विचार दिया | मुक्त यौन की वकालत कर यौनशुचिता के प्रति दकियानूसी अवधारणा का विरोध किया | पार्कों में युवाओं के मिलन को उचित कहा और उन पर सांस्कृतिक / पुलिसिया कार्यवाही का विरोध किया | वैलेंटाईन डे मनाया | जहाँ तक संभव हुआ स्त्री पुरुष संबंधों को सहज - सरल करने का प्रयास किया | इसके अतिरिक्त हम धारा ३७७ के भी पक्ष में रहे | हमने वेश्यावृत्ति को कानूनी बनाने का भी विचार दिया | वह संभव नहीं हुआ पर उसकी उपलब्धता तो है ही | फिर बलात्कार क्यों हो रहे हैं ? इसकी ज़रुरत क्यों है और गुंजाइश कहाँ है ? एक गलती मानी जा सकती है हमारी जिस पर अपराधियों के मनोबल बढ़ाने का दोष मढ़ा जा सकता है - वह है - हमने मृत्युदंड की अवश्य खिलाफत की और उसे अनावश्यक बताया | लेकिन वह तो बलात्कार हो जाने के बाद की सजा है | मेरा तो अपने विभाग के ऊपर आरोप यह है कि हम विचारकों के होते हुए बलात्कार की मानसिकता समाज में पनपने क्यों पायी ? बलात्कार होते क्यों हैं ? हम इसे रोकने का रास्ता क्यों नहीं बना पाए ? इसलिए मेरा त्यागपत्र |
मेरी सिफारिश है संदीप , नीलाक्षी , पूजा शुक्ला, रूपा राय, चंचल भू , उज्ज्वल जी एवं अपने तमाम अनुज - अग्रज मित्रों से कि वे इसे स्वीकार कर मुझे जलील करें , जूते मारें , मुझ पर थूकें | मैं आज बहुत शर्मिंदा हूँ |
मनुस्मृति जलाकर एक प्रयास और करता हूँ , लेकिन अब तो अपने ऊपर यह भी विश्वास नहीं रहा कि इससे भी बलात्कार ख़त्म होगा |
क्या अब यही कहने का समय आ गया है कि - लडकियों अन्दर जाओ ?
बुधवार, 26 दिसंबर 2012
मेरी क्रिसमस
[व्यक्तिगत ]
* मुझे दूसरों के गलतियों की सजा भुगतने में बड़ा आनंद आता है | भुगता ही जीवन भर भाई , बेटा - बेटी अधिकारी - मातहत की गलतियों की सजा | अब समझ में आया आज मुझे ईसा मसीह क्यों ज्यादा याद आये ! आज मेरी क्रिसमस के दिन अपने परिवार द्वारा किये गए वाहन दुर्घटना की सजा मुझे भुगतनी पड़ी | लेकिन मैं मनुष्य हूँ न ? ईश्वर की औलाद नहीं | इसलिए दुखी हूँ थोडा |
परम आस्तिक
* परम आस्तिक = नास्तिक |
* सदुपयोग
धन - धान्य का करूँ
ईश्वर का भी |
* Just now I thought that Ishwar is an asset of human race . Is not it ? Human civilization has devoted a lot of time to invent , reinvent and revive it [ should I write 'HIM' ?] . We, rationalists-atheists should not let it be spoiled and go all in vain . I don't find any wisdom to kill him . Many did try . We should take lesson from what happened and what we gained . Just now , I am in an utilitarian mood . And above all , we can not go too much far away from our beloved common human beings , ordinary people , who finds solace in his presence . So , let him remain as much he is useful to be . Don't throw the baby along with the bath water . This much I can say today at the instant .
लड़ लो
[ कहानी ]
" लड़ लो "
* - माँ का दूध पिया है तो आओ लड़ लो |
= माँ का दूध ? वह तो मैंने पिया नहीं |
- क्यों ? क्या माँ नहीं थी ?
= नहीं , वह तो थी | अब भी है , पर मैंने उसका दूध पिया नहीं |
- माँ थी ! तब कैसे नहीं पिया ?
= उसने कभी अपना दूध मुझे पिलाया नहीं |
- फिर कैसे पले , बढ़े /
= माँ बताती है , उसने मुझे डिब्बे का दूध पिलाया |
- तो चलो यही चैलेन्ज रहा कि पिया हो असली डिब्बे का दूध तो आओ लड़ लो |
= अब यह भी मैं नहीं कह सकता कि डिब्बे का दूध असली था या नकली ?
- तो फिर तुमसे क्या लड़ना | चलो भागो यहाँ से |
# # #
तुम्हारा सत्य
[बड़ी पुरानी कविता ]
* तुम्हारा सत्य
काला है ,
हमारा झूठ -
सफ़ेद है |
# #
[ कविता ]
* मुसीबत हमेशा
मेरे पीछे चलते हैं ,
पीछे लगे रहते हैं ,
मेरा पीछा नहीं छोड़ते |
अर्थात, मैं
उनके आगे चलने वाला,
उनका सर्वमान्य
नेता हो गया हूँ |
# # #
* जिनसे उम्मीद थी कुछ देंगे, वह लूट गए ,
जिन पर संदेह था कि लूटेंगे , दे कर गए |
मंगलवार, 25 दिसंबर 2012
औरतों से डरो
* मैं वामपंथी केवल इस तरीके से माना जा सकता हूँ कि मेरी पत्नी का स्थान बायीं और है , और मैं पत्नी के पक्ष में हूँ |
* बहरहाल यह तो तय हुआ मालूम होता है कि भारत देश में बलात्कारियों की संख्या बस वही आठ- दस ही है जिन्होंने दिल्ली में काण्ड किया | और इतने सारे आन्दोलनकारियों में कोई वैसी पुरुष मानसिकता का हो इसका सवाल ही नहीं उठता | तो स्थिति संतोषजनक ही मानी जायगी | सवा अरब की जनसँख्या में एक दर्जन अपराधी कोई मायने नहीं रखते |
* औरतों से डरो -
आजकल हमारी औरतों को यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, यानी अपनी पूजा कराने से सख्त ऐतराज़ है | उन्हें भाई -बाप -पति से अपनी रक्षा कराना भी नामंजूर है | ऐसी दशा में पुरुषों के लिए हमारा क्या सन्देश हो सकता है ? यही तो, कि यदि अपनी सलामती और खैर चाहते हो तो औरतों से डरो |
* कोई न देगा
बच्चू , साथ तुम्हारा
देखते रहो |
* आँख गड्ढे में
धँसती जा रही हैं
बुड्ढा घूरता |
* जात बताता
आप का व्यवहार
नाम थोड़े ना ?
* हमारा सार ही कुछ बकवास है | and so, members with fake ID are no problem with us .
* स्वर्ग - नर्क मानिए या नहीं , पर स्वर्गवासी होने से कहाँ बच पायेंगे, और बैकुंठधाम जाने से ?
सोमवार, 24 दिसंबर 2012
अकेला पेड़
[ कविता ]
अकेला पेड़
* मैं एक पेड़ तो हूँ
पर इतना बड़ा नहीं
कि कोई मुझे छू न सके ,
न ही मैं कोई बरगद
जिसके नीचे
कोई पेड़ न उगे ,
फिर भी न जाने क्यों
मेरे आस पास के सारे पेड़
मुझसे अलग हो गए , या
मुझे अलग कर गए !
कुछ अपना क़द
छोटा करते करते
बौने हो गए |
कुछ तिनके बन गए
यहाँ तक कि भूल गए
तिनके का महत्त्व |
और जो बड़े बनते थे
मुझसे दूर छिटक कहीं
इकट्ठे खड़े हो गए |
मैं अकेला पड़ गया
जब कि मैं
अकेला नहीं रहना चाहता था |
चलो , ठीक हूँ अकेला ही भला
भूले भटके , थके, हारे- मांदे
राहगीरों को छाया- सुकून देता |
पेड़ों के घने जंगलों में तो
लोग जाने से डरते हैं |
# #
[ कविता ]
भेदभाव
* उन्होंने काला रंग देखकर
उनसे भेदभाव किया ,
अब ये गोरा रंग देखकर
भेदभाव करेंगे |
पहले उन्होंने जात देखकर
भेदभाव किया
अब ये जात देखकर
भेदभाव करेंगे |
रहेगा तो भेदभाव
चाहे वह मूलभाव हो
या हो बदले का भाव |
नहीं मिटना
भेदभाव का भाव |
# #
निर्विवाद
* मूल प्रश्न - मैं मूरख तो यही नहीं समझ पाता कि प्रपत्रों में अपना ही नाम क्यों लिखना पड़ता है ? क्या वह सच होता है ? प्रज्ञा , संदीप , कामेश्वर , धीरेन्द्र , शिवानन्द क्या वाकयी ऐसे हैं ? क्या मैं उग्र हूँ जो मैं लिखता हूँ ? यह नाम तो बाप ने दिया | इसलिए अपनी ज़िम्मेदारी से बचने के लिए उनका भी नाम घसीट लेता हूँ | [ फिर जब बाप ने पति के हवाले कर दिया , तो उन्हें भी सेफ्टी पिन से टांक लेती हूँ ]
* दलितों को , ईमानदारी से , एकता की दृष्टि से , कम से कम यह तो करना ही चाहिए कि वे अपने परिवार का इलाज दलित डाक्टर [ ब्राह्मण डाक्टर से तो कतई नहीं ] और अपने बच्चों का दाखिला केवल दलित प्रबंधित स्कूल / कालेज में कराएँ , ट्यूशन केवल दलित शिक्षक से |
* चिंता की कोई गल नी है | देश , न तब आंबेडकर जी के अजेंडे पर था , न अब वह आंबेडकर वादियों की सूची में है | केवल अपना स्वार्थ सिद्ध होना चाहिए | देश पर इस्लाम की जकड कैसी कसती जा रही है , इससे किसी को क्या मतलब ? " दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल " , यह बात गांधी से ज्यादा आंबेडकर जी और कम्युनिस्टों पर खरी उतरती है | ले ली उन्होंने आज़ादी और भरपूर उसका फायदा , बिना आज़ादी की लडाई लड़े - केवल रार और तकरार के बल पर |
* दलितों को , ईमानदारी से , एकता की दृष्टि से , कम से कम यह तो करना ही चाहिए कि वे अपने परिवार का इलाज दलित डाक्टर [ ब्राह्मण डाक्टर से तो कतई नहीं ] और अपने बच्चों का दाखिला केवल दलित प्रबंधित स्कूल / कालेज में कराएँ , ट्यूशन केवल दलित शिक्षक से |
* चिंता की कोई गल नी है | देश , न तब आंबेडकर जी के अजेंडे पर था , न अब वह आंबेडकर वादियों की सूची में है | केवल अपना स्वार्थ सिद्ध होना चाहिए | देश पर इस्लाम की जकड कैसी कसती जा रही है , इससे किसी को क्या मतलब ? " दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल " , यह बात गांधी से ज्यादा आंबेडकर जी और कम्युनिस्टों पर खरी उतरती है | ले ली उन्होंने आज़ादी और भरपूर उसका फायदा , बिना आज़ादी की लडाई लड़े - केवल रार और तकरार के बल पर |
खिलवाड़ खिलवाड़
" दबंग " के खिलाफ आन्दोलन क्यों नहीं ? जड़ों में खाद पानी डालते रहने से क्या पत्तियाँ सूख पायेंगी ?
God is not responsible for any evil of the world . He can not be made accountable for anything happening in the world . Because , as a matter of fact , he is non- existent . He is nowhere in this world .
[ डायरी ]
-धीरे धीरे संस्कार मन में बैठ जाते हैं और वे अपने हो जाते हैं | हमें प्रिय लगने लगते हैं | फिर हम ब्राह्मण हो जाते हैं , हिन्दू हो जाते हैं | तब राम - कृष्ण - सीता - गीता - रामायण हमारे हो जाते हैं | हम उनके विरोध या अपमान , चाहे वह कितना ही उचित हो , सह नहीं पाते | इसी इसी प्रकार रहते रहते हम किसी देश के हो जाते हैं, उसके लिए लड़ने लगते हैं |
खिलवाड़ खिलवाड़ | इसे यूँ लें जैसे कूड़ा - कबाड़ |
THOUGHT PLAYERS : खेलत में को काको गुसैयाँ | इसे खिलंदड़ी स्वभाव में स्वीकार करें और माहौल को अनावश्यक रूप से बिगाड़ें नहीं | यद्यपि हम गंभीर विचारों से लैस हैं तथापि विचारों का बोझ लेकर नहीं चलते | बस आये विचार , गए विचार | उन्हें जहां जितना रहना होगा रहेंगे अन्यथा गुम हो जायेंगे | कोई चिंता फिकिर की बात नहीं है |
* आप चाहे कितने भी बुद्धिमान हों , विद्वान् या दार्शनिक | आपको कोई प्रणाम करेगा तो उसका उत्तर आपको देना ही पड़ेगा | आप अपनी दुनिया में खोये नहीं रह सकते | इसका हक भी नहीं है आपको
* मेरी एक ख़राब आदत है , जो मेरी परेशानी का कारण है और , संभवतः , मेरी सफलता का राज़ भी | वह यह कि मैं जो ठान लेता हूँ उस करके ही रहता हूँ | मतलब यह नहीं कि मैं हिमालय उठा लेता हूँ , बल्कि यह कि यदि मैंने सोच लिया कि यह चारपाई आज मैं बुन डालूँगा , तो उसे मैं बुन ही डालता हूँ |
रविवार, 23 दिसंबर 2012
Some Slogans =
Some Slogans =
* धर्म ही है धर्म हमारा - ऐसा क्यों न कहें ? इसमें हिन्दू - मुसलमान - सिख - ईसाई जोड़ने की क्या ज़रुरत है ?
* धर्म के स्थान पर लोग भारतीय , भारतीयता आदि लिखते हैं | उनकी भावना सराहनीय है | पर यह तो राष्ट्रीयता का नाम हैं | धर्म का तो सर्वभौमिक Universal नाम 'धार्मिक/ Religious' ही उपयुक्त है | जब तक हमसे हमारा धर्म पूछा जाता है |
* भगवान ने तो हमें जानवर के रूप में बनाया और पृथ्वी पर भेज दिया | आदमी बनना तो अब हमारा काम है , हमारे जिम्मे !
* मेरे विचार से HUMANISM का हिंदी में सही अनुवाद = " मानव पंथ " और HUMANIST का मानव पंथी होगा , मनुष्य आधारित नैतिकता को जीने वाला संप्रदाय |
* अब दो धर्म बनते हैं मनुष्य के | जैसा वी एम तारकुंडे ने महात्मा गाँधी पर लिखते हुए उसका शीर्षक दिया था = SECULAR AND RELIGIOUS MORALITY | उसी तरह दो धर्म मनुष्यों द्वारा धारण किये जायेंगे | सारे किताबी , ईश्वरवादी , परलोकवादी धार्मिक नैतिकतावादी होंगे , और नास्तिक इहलोक वादी , बुद्धिवादी , विज्ञानवादी , लोग सेक्युलर होंगे |
IHU - 2 , जय जगदीश हरे
Published in " HUMANIST OUTLOOK " , a journal of Indian Humanist Union - Vol - 13 No. - 5 , Autumn 2012 as -
Hindi column By - Ugranath Nagrik
जय जगदीश हरे
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* मित्र आये तो कुछ गुस्से में थे | मुझसे बोले - हम तो यही समझते थे कि तुम नास्तिकता के अति पर हो जो हमें कुछ गलत लगता था | par तुम तो फिर भी अपने व्यवहार में सामाजिक नैतिकता का ध्यान रखते हो जो हमें प्रिय है | लेकिन इधर तो लोग हैं जो आस्तिकता का इतना अति किये हुए हैं कि वे अनैतिक हुए जा रहे हैं |
- - क्या हुआ , हो क्या गया ?
- " मुझे आश्चर्य होता है | गोमती पुल के हनुमान मंदिर पर देखता हूँ भीड़ बढ़ती जा रही है | बड़े - बड़े अधिकारी , सेठ, सामंत ,साहूकार कारों से आते हैं , मंदिर जाते हैं | तमाम उच्च शिक्षित , विज्ञान शिक्षित लोग भी निश्चित ही होते हैं इनमें | आधुनिक पीढ़ी की युवा - युवतियाँ भी और तमाम राहगीर सड़क से गुज़रते शीश झुकाना नहीं भूलते | गाड़ियों वाले यह भी नहीं सोचते कि सड़क पर जाम लग रहा है ? ऐसी पढ़ाई , शिक्षा , आधुनिकता और विकास से क्या फायदा ? देखता हूँ संपन्न घरों में अखंड रामायण का चौबीस घंटे पाठों की भरमार हो गई है | भगवती जागरण देखते हैं आप, गणपति बप्पा का हुजूम और काँवरियों का कारवाँ ? यह सब क्या है ? क्या प्रगति की निशानी ? "
- - ईश्वर पर आस्था है , आस्तिकता है |
- " लेकिन नैतिकता नहीं | यही वे लोग हैं जो देश और समाज को बर्बाद करने में लगे हैं | येन केन प्रकारेण पैसा कमाने , भ्रष्टाचार - घोटाले करने में संलग्न हैं और इसमें इन्हें तनिक भी संकोच करने की प्रेरणा इनके प्रभु से नहीं मिलती | तो ऐसी आस्तिकता - धार्मिकता से क्या लाभ ? इससे तो तुम्हारी नास्तिकता भली जो ईश्वर को पूजते नहीं पर ईश्वर की सच्ची पूजा , इंसानियत के प्रति समझदारी - ज़िम्मेदारी तो पैदा करती है ! "
सचमुच बड़ी चिंताजनक स्थिति है और विचारणीय विषय | लोगों में इतनी कथित आस्तिकता क्यों बढ़ रही है जब कि उनकी आर्थिक -शैक्षिक- सामाजिक दशा में बहुत सुधार आया है और भौतिक तरक्की हुई है ? धर्म और ईश्वर के प्रति भक्तिभाव , समर्पण गरीबों की ज़िन्दगी का सहारा, तो समझ में आता है, पर यहाँ तो यह सब धन -संपत्ति का खेल , धनिकों का व्यापार दिखाई पड़ रहा है | अनाप - शनाप , अनुचित ढंग से अर्जित धन का अमर्यादित प्रदर्शन और इसके ज़रिये समाज में प्रतिष्ठित कहलाने की झूठी ललक बढ़ती जा रही है , जो इंसान और इंसानियत को अंततः गर्त में ही गिराएगी |
सरकारी कर्मचारी, अधिकारियों के बारे में तो यह लगता है कि इसका कारण उनकी नौकरी की अनिश्चितता है | उन्हें यह भय लगा रहता है कि उनका यह पद , रुतबा कहीं छिन न जाय ! और फिर इस चाह में कि इस दिशा में उनकी और प्रगति हो | अब उनकी इस अस्थिर , संशयग्रस्त मानसिकता का कारण , एक तो उनमें आत्मविश्वास का अभाव होता है | ऐसे लोग कमज़ोर और डरपोक होते हैं , जीवन के मार्ग पर कठिन संघर्ष का साहस इनमे नहीं होता | तनिक भी विषम या प्रतिकूल स्थिति में इनका मनोबल टूटने लगता है |
[ दूसरे , इनमें लड़खड़ाहट इसलिए होती है क्योंकि वे जिस पद पर होते हैं , उसके वे योग्य नहीं होते | यदि योग्य होते हैं तो क्षमतापूर्वक कार्य करने की प्रेरणा नहीं होती | यदि क्षमता है तो कर्त्तव्यपरायणता को व्यवहार में उतारने का कोई संस्कार नहीं होता | और यदि वह भी है तो ऐसा करने वाले को उचित श्रेय -सम्मान - ईनाम ( पारितोषिक ) नहीं मिलता | वह देखता है कि लोग गुण नहीं , धन दौलत की इज्ज़त करते हैं | फिर कोई क्यों मेहनत और ईमानदारी की ओर प्रेरित हो , और सर उठा कर कहे - मैं अपना काम निष्ठां पूर्वक करता हूँ , और मैं संतुष्ट हूँ | मुझे किसी का भय नहीं | कोई क्यों न करे "हराम " की कमाई जब इसके लिए एक ऊपरवाला संरक्षण देने के लिए सहज उपलब्ध है ? ]
तब , इसलिए वह मूर्तियों , मंदिरों , पूजा -पाठ की ओर अग्रसर होता है | इसीलिये हैं गली - कूचों , सड़कों पर निरंतर , अविराम बढ़ती जा रही देवी - देवताओं की कुटिया और महलों की संख्या , इनके भक्तों की औकात के अनुसार ! और आदमी उनकी परिक्रमा में व्यस्त है | उसे यह सोचने की फुर्सत नहीं , कोई चिंता नहीं कि वह तनिक विचार , समीक्षा तो करे वह जीवन में वास्तव में क्या कर रहा है ? धर्म के नाम पर कितनी अनैतिकता ' धारण ' करता जा रहा है ? करे भी क्यों ? है न भगवान यह सब सोचने - करने के लिए ! यह उसकी ज़िम्मेदारी है | हम तो वही कर रहे हैं जो सब कर रहें हैं | सब तो फल फूल रहे हैं , फिर हम ही क्यों माथा खपायें , अपना सुख चैन गवाएँ , जो हमें इस जन्म में प्राप्त हो रहा है ? क्या हर्ज़ है कुछ फल -फूल- लड्डू लेकर मंदिर हो आने में ? सब दोष समाप्त ! तो चलो तीर्थ यात्रा कर लें , गंगा नहा लें , सारे पाप मिट जाएँ ! समाज के नुकसान के क्या एक हम ही ज़िम्मेदार हैं ? और एक हमारे नैतिक - ईमानदार होने से अंतर ही क्या पड़ेगा ? जो दबे - कुचले , गरीब और वंचित हैं , वे अपने पिछले जन्म का फल भुगत रहें हैं , तो हम क्या करें ? हमको देखो , जो कुछ कर रहे हैं वह ईश्वर को समर्पित भी तो कर दे रहे हैं ! तेरा तुझको अर्पित , क्या लागे मेरा ? ॐ जय जगदीश हरे | हे प्रभु, मेरी सुख -सुविधा , पत्नी -बच्चे , दुकान -नौकरी , बँगला -गाड़ी सबकी रक्षा करना मेरे मालिक ! वह सर्व शक्तिमान मालिक भगवान तो क्या हुआ , इनका नौकर- चौकीदार तो अवश्य हो गया , वह भी कुछ फूल - बताशों के दैनिक वेतन पर ! या फिर अवैतनिक बोतल के जिन्न की तरह !
एक होड़ सी लगी है धनवान होने की , तो साथ ही साथ धार्मिक होने की भी | फैशन की तरह हो गया है धार्मिक होना , दिखने का नाटक करना | माथे पर बड़ा सा टीका ज़रूरी है और उसका दिन भर वहाँ उपस्थित - विद्यमान रहना | पता तो चले , हमने सुबह नहाया धोया - पूजा पाठ किया था या मंदिर गए थे ! कार्यस्थल पर इष्ट देवी - देवता का चित्र अलमारी या मेज़ पर शीशे के नीचे होना अनिवार्य है, जिन्हें प्रणाम कर दिन की कार्यवाही का शुभारम्भ करें | लेकिन , बस उतना जिसमें कुछ ॐ शुभ लाभ प्राप्त होने की सम्भावना हो |
शाम को जल्दी जाना है सर ! फलाँ जगह से आये अमुक महाराज जी का प्रवचन है | एक हज़ार देकर स्थान बुक कराया है | भला किस अधिकारी की मजाल जो ऐसे शुभकार्य के लिए मना कर दे और शामत मोल ले ? फिर उसे स्वयं भी तो कहीं जाना है ? मंदिर के अतिरिक्त उसे अपने बॉस की और फिर बॉस को मंत्रालय की भी तो सेवा करनी होती है ! डबल , ट्रिपिल काम का बोझ है तो फिर वह अपना निर्धारित कार्य एकनिष्ठ हो कैसे करे , जब कि उसका सरवाईवल इन्ही 'अतिरिक्त' कार्यों पर निर्भर है ?
आध्यात्मिक जीवन के ये छद्म स्वरुप कैसे कँटीली झाड़ियों की तरह उग आये भारत के आँगन में ? कारण समझ में आता है कि ऐसा इसलिए है क्योंकि इसमें सब कुछ स्थूल है , और सूक्ष्म कुछ भी नहीं | स्थूल कार्य करके उसे दिखाना आसान होता है , जबकि सूक्ष्म कहीं दिखता नहीं और उसका प्रभाव भी सूक्ष्म होता है | प्रदर्शन के युग में , इसलिए , उसका कोई मूल्य नहीं | उसे बिरले पारखी ही समझ सकते हैं | इसलिए बनावटी आचरण ने असली मनुष्य को रिप्लेस , प्रतिस्थापित कर दिया है | वरना क्या बुद्ध- कबीर के जीवन - प्रवचन - आचरण में आस्था नहीं थी ? नास्तिकता आस्तिकता का विवाद यहाँ है ही नहीं | वी. एम. तारकुंडे ने " लौकिक और धार्मिक नैतिकता " [Secular and Religious morality ] नामक लेख में गांधी की धार्मिक नैतिकता को किसी भी प्रकार कमतर नहीं आँका | इसलिए सवाल मानव मूल्यों पर आस्था का है | और उस मापदंड पर क्या इन्हें धार्मिक कहा जा सकता है या कहा जाना चाहिए , जैसा कहलाने का इन्हें बड़ा शौक है ?
आश्चर्य होता है सोचकर कि बौद्ध धर्म , जिसकी वजह से ही विश्व में भारत को जाना जाता है , संसार में इसकी प्रतिष्ठा है और चीन जापान कोरिया आदि देशों से बौद्ध श्रद्धालु यात्री भारत तीर्थाटन पर आते हैं , उसे अपने ही देश ने किस तरह भुला दिया !
लेकिन विलाप करने , छाती पीटने से क्या होगा ? मंदिर के लिए हर बँगले में एक भूभाग , घर का एक कमरा , कमरे में एक कोना लकड़ी या पत्थर के बने ढाँचे में भगवान के बैठने के लिए स्थान सुरक्षित है | या नहीं तो दीवालों पर ईश्वर के चित्र टाँगने के लिए आदमी ने जगह दिया हुआ है | जगह यदि किसी चीज़ के लिए नहीं है तो वह है विवेक बुद्धि , वैज्ञानिक सोच , तार्किक चिंतन , मानुषिक संवेदना और सार्वजानिक नैतिकता | इन्हें कोई आश्रय , कोई सहारा जनजीवन से प्राप्त नहीं है | न धर्मों में , न हृदय में , न बुद्धि में | धर्म में पाखंडों की भरमार , हृदय स्वार्थों का भंडारगृह , और बुद्धि बस चालाकी का वृहद् कारखाना होकर रह गया है |
तो भाइयो सुनो ! साहब अभी पूजा कर रहे हैं | दरबान जब यह सूचना दे तो यह निश्चित समझ लीजिये कि साहब किसी भी दशा में इस लोक में रहने वाले किसी भी प्राणी से नहीं मिल सकते , चाहें उसकी जान ही क्यों न चली जाय |
सुना नहीं आपने ? एक सेकुलर राज्य , जिसका नाम भारतवर्ष , हिंदुस्तान दैट इज इण्डिया है , के एक प्रधान मंत्री तब तक पूजा करते रहे जब तक बाबरी मस्जिद ध्वंस का कारनामा चलता रहा , और पूजा पर से तभी उठे जब उन्हें सुनिश्चित सूचना मिल गयी कि श्रीमान ,यह धार्मिक शुभकार्य सफलता पूर्वक संपन्न हो गया है |
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शनिवार, 22 दिसंबर 2012
अनुवांशिकी
[ अनुवांशिकी ]
* मैं सोचता हूँ , यदि कोई वैज्ञानिक सचमुच पूरी निष्पक्षता से , निरपेक्ष ढंग से खोज करके यह पाए कि अनुवांशिकी का प्रभाव व्यक्ति के गुण और व्यवहार पर होता है , तो क्या जातिवादी लेखक - विचारक उसे हिन्दुस्तान में जीने देंगे ? लेकिन मैं यह अनुभव करता हूँ कि व्यक्ति अपने कमरों / घर को किस रंग से पुतवाता है , या बाथरूम के टाइल्स की क्या डिज़ाइन और कलर चुनता है , यह तय करने में उसकी अनुवांशिकी का पर्याप्त हाथ होता है |
[ सवर्ण कथा ]
१ - - पापा फेस बुक पर एक किताब की बड़ी चर्चा होती है | मनुस्मृति नाम है उसका | आप ब्राह्मण हैं तो आप के पास वह ज़रूर होनी चाहिए | मुझे भी पढ़ने को दीजिये न !
= नहीं बेटा, मेरे पास तो गीता रामायण भर है | महाभारत भी घर में नहीं रखता | हाँ पड़ोस के अंकल जी से माँग लो | उनके पास ज़रूर होगी | वे आरक्षण समर्थक हैं | आजकल वही लोग मनुस्मृति ज्यादा पढ़ते हैं |
* पचास वर्षों तक प्रेम में आकंठ मुब्तिला रहने के बाद अब मुझे अनुभव हो रहा है कि प्रेम सचमुच एक रोग ही है | इसमें आनंद बहुत आता है , मीठा मीठा दर्द होता है और महसूस होता है कि हम हवा में उड़ रहे हैं | लेकिन है यह एक बीमारी ही |
* दर्शन का काम है तो 'जानना' | लेकिन जानकर वह क्या करेगा ? क्या करता वह जानकारियाँ इकठ्ठा करके ? इसलिए उसका काम हो गया है - आदमी का जीवन कैसे सुखी हो , इसके बारे में सोचना और उसका मार्ग बताना | मनुष्य कैसे प्रसन्न रहे , यह ज़िम्मेदारी है अब दर्शन शास्त्र की | मेरी परिभाषा के अनुसार मानव मात्र को खुश और प्रसन्न देखना ही " दर्शन " है |
* आप चाहें , न चाहें सर्वदलीय , सर्व धर्मी , सर्व देशीय , सर्व समावेशी सरकार | लेकिन सड़क समाज तो ऐसा होता जा रहा है | अस्पताल डफरिन भी है , झलकारी बाई , श्यामा प्रसाद मुखर्जी , और राम मनोहर लोहिया के भी हैं | इसी प्रकार सड़कें , गलियाँ और पार्क - मोहल्ले भी हैं | कुछ नाम ज़रूर आने शेष हैं पर वे घरों - जलसों में तो प्रतिष्ठा पा ही गए हैं , देर सवेर बाहर भी आ ही जायेंगे | आश्चर्य नहीं कि घरों से निकल कर कब मार्क्स , लेनिन , माओ , हिटलर , नाथू राम गोडसे भी सार्वजनिक स्थलों पर स्थापित हो जायँ !
शायद धूप
* बलात्कारों के विषय में मेरी अक्ल कुछ काम नहीं कर रही है |
* बलात्कारी को फाँसी , और हत्यारे को प्रधान मंत्री की गद्दी ?
* अप्रामाणिक विचार =
मेरा ख्याल या विचार था कि लडकियाँ पुरुष मित्र बनाने से सुरक्षित होती हैं , उसी प्रकार जैसे पति करने से | दोनों ही बातें गलत साबित हुयीं | पति और पुरुष मित्र के समक्ष भी बलात्कार हो जाते हैं |
* सोचता हूँ , शिव सेना या माओ सेना का आतंक क्या दिल्ली में नहीं होना चाहिए ?
* नैतिकता जिद से आती है | पुरुषों को यह गाँठ बाँधना होगा कि उन्हें औरतों का आदर करना है , माँ समझकर - बहन समझकर या देवी समझकर | या यही समझकर कि वे हमारी रक्षिता हैं | इसमें कोई बुराई नहीं है , भले असमानता का कुछ अंश है | मानना पड़ेगा कि व्यवहारों में विसंगति के कारणों में एक छोटा सा हिस्सा बराबरी और समतावाद का भी है | बराबर हो तो भुगतो | लो करो बराबरी | इसमें तो ताक़तवरों की चाँदी होती है | औरत यदि थोड़ी कमज़ोर दिख जायगी तो उसका कुछ नुक्सान नहीं हो जायगा | लेकिन नहीं , वे न बाप की मानेंगी , न बूढ़ों की सुनेगी | तो जवान भी उनकी नहीं सुनने वाले |
* तथापि , दिन दूर नहीं जब लडकियाँ बलात्कार से बचने में सक्षम और समर्थ हो जायेंगी |
* नवाब लोग पान खाते थे तो उनके बगल में पीक दान भी रहता था | अब के नवाब तो पूरी सड़क को पीकदान बनाये हुए हैं |
* शायद धूप
कुछ निकल आये
कविता लिखूँ |
[ 'शायद धूप' नाम से मेरी कविता / हाइकू की कोई किताब हो सकती है ]
* थोडा ओंकार
ज्यादा सा अहंकार
मेरी ज़िन्दगी |
* लाभकारी है
निरुद्देश्य घूमना भी
यह जानिए |
* शांत चित्त हो
बैठो हमारे पास
उपासन में |
* शून्य में जाओ
जब भी मौक़ा मिले
ध्यान प्रणाली |
* अच्छा होता है
शून्य में विचरण
शांति समग्र |
* मिलेगा उसे
जो उसका देय है
निश्चित मानो |
* समतावादी
अपने बराबर
किसी को नहीं |
* पड़ता ही है
चाहना को रोकना
कुछ न कुछ |
* चाहें न चाहें
कोई लड़कियों को
मारता नहीं |
* यही तो हुआ
कि तुम बूढ़ी हुई
मैं बूढ़ा हुआ !
* बहुत आये
तुम्हारे जैसे बली
बहुत गए |
* कहा तो मैंने
मुझे प्यार चाहिए
सुनो तब न !
* कोई इंतज़ार
बढ़ा देता है उम्र
अनेक बार |
* नो प्राबलम
बहुत बड़ा मन्त्र
जीवनाधार |
* एक उम्मीद
हज़ार नेमत है
जीवन दायी |
* अन्याय होता
अन्याय लगता भी
कुछ ज्यादा है |
* लिखता जाऊँ
ख़त्म ही नहीं होतीं
बातें , क्या करूँ ?
* Do you know God ? If you know God , send him a friend request .:-)
* देखिये , अन्याय होता तो है | लेकिन इसके साथ यह भी है कि कौन किस बात को और कहाँ तक किसी बात को अन्याय समझता है, इससे भी फर्क पड़ता है | वह उदाहरण लिख दूँ, जिससे यह विचार आया | मान लीजिये आप के किसी अवैध कब्ज़े को पालिका कर्मियों ने उजाड़ दिया , या ट्रैफिक वाले ने आपका चालान कर दिया | ज़ाहिर है , आप ने उन्हें देख -पहचान लिया | आप इज्ज़तदार -रसूखदार हैं | आपने इसे अपनी बेईज्ज़ती समझी और अवसर पाकर उन्हें पीट दिया बिना यह सोचे कि वे तो अपना कर्तव्य निभा रहे थे | [ यही आजकल अधिकाँश हो ही रहा है ] | इसलिए मेरी स्थापना यह है कि इस तरह का अपमान हो या सचमुच का , अन्याय हो या अन्याय होता लगे , किसी भी दशा में बल अथवा शस्त्र का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए |
* [ उवाच ]
# आत्मसंयम का नाम है संस्कृति - संस्कार | बलात संयम को कहते हैं राजनीति- सरकार |
# हास्य आदमी के अहंकार को मिटाने में मदद करता है | वह किसी के मजाक का बुरा जो नहीं मानता !
# यदि मैं जानता और मानता हूँ कि ' भय बिनु होय न प्रीत ' , तो मुझे इस्लाम की कथित कड़ाई का समर्थन करना चाहिए |
# आप ने किसी से उसकी जात पूछ ली , तो यकीन मानिए आपने तो अपनी जात बता दी |
# मुझे कुछ शब्दों से आपत्ति है , जिसे मैं शब्दों के द्वारा व्यक्त करता हूँ | OR =
मेरे कुछ शब्दों का , शब्दों के लिए , शब्दों के द्वारा विरोध है | [अस्पष्ट?]
# कनेक्टिकट विद्यालय में हुए संहार की घटना को सन्दर्भ में लें | अब समय आ गया है कि अस्त्रों का सम्पूर्ण समापन करें और " किसी का भी किसी भी दशा में वध नहीं का मन्त्र अपनाएँ " |
* [ अमानव वाद ]
# मत बंद कीजिये /
अपने जानवर का दरबा /
वरना जानवर अन्दर /
बंद हो जायगा /
तुम्हे ज्यादा जानवर बना देगा | $
# [ अमानव वादी ]
आप होंगे मनुष्य /
यह नाम तो आपने दिया /
मुझको गलत , जैसे /
किसी का नाम आपने /
ईश्वर दे दिया /
वरना मै तो जानवर हैं /
यह नाम मैं अपने लिए /
स्वीकार करता /
धारण करता हूँ /
अपने पशु बंधुओं के साथ /
भाईचारे में | $
# मनुष्य बनने , या कहें , महज़ कहलाने के चक्कर में हम कई असहज -अस्वाभाविक -अप्राकृतिक और गैर ज़रूरी किंवा , आप की भाषा में अमानवीय हरकतें कर जाते हैं कि हम जानवरों को शर्म आती है | क्योंकि वे साधारण जैविक आचरण के विरुद्ध होती हैं |
* बीड़ी पिया था उसने
उसने मुझे चूमा
सर अभी तक
चकरा रहा है |
$
* ऐसा करेंगे
वह मिलें तो हम
वैसा करेंगे
सोचता रह गया
क्या क्या करेंगे ?
$
[ BADMESH ]
* उर्दू और हिंदी में वही फर्क है जो मुशायरे / कवि सम्मलेन के दौरान नीरज और बशीर बद्र में है |
[सुना है जहाँ नीरज जाते हैं वहां बशीर बद्र नहीं जाते, और जहाँ बशीर बद्र होते हैं वहां नीरज नहीं होते]
* वेश्या वृत्ति कानूनी होनी चाहिए या नहीं , यह उसी तरह का प्रश्न है जैसे F D I आनी चाहिए या नहीं ?
[बदमाश चिंतन]
* यदि किसी को सपने बहुत आते हैं , तो उसे स्वप्न दोष का रोगी नहीं माना जा सकता |
* मुझे बूढ़ों का व्यक्तित्व बहुत जमता है | इरफ़ान हबीब , हबीब तनवीर , रजनी कोठारी को मैंने देखा और सराहा है | अब मुझे बूढ़ा होना अच्छा लगने लगा है |
* मुझसे कोई व्यापार करा ले , और मेरा दिवाला निकलने से बच जाए तो मैं अपनी जाति और पूरी जाति प्रथा के खिलाफ हो जाऊँगा |
[ शेरो शायरी ]
* जेहि विधि मिले खूब विज्ञापन ,
समझो पत्रकारिता आपन |
* खुद के घर तो बहुत हैं , उनमें वह रहता नहीं है ,
कभी वह घर पर हो, तो सोचता हूँ मिल आऊँ |
* हर आदमी चालाक बहुत है , अपनी अपनी पारी में ,
हर मनई बुरबक है भारी , अपनी अपनी पारी में |
मुँह बाये हर लोग यहाँ पर अमृत घट पी जाने को ,
हर मनाई गू खोद रहा है अपनी अपनी पारी में ||
* न हिंदी से मेरा नाता , न उर्दू से मेरा मतलब ,
जसमे बातें मेरी आ जायँ, वही भाषा मकतब |
* एक शायर का यह मिसरा बहुत प्रभाव शाली है =
" तुम्हारे क़दमों को रोक पाए , किसी में इतनी मजाल क्या है "
बुधवार, 19 दिसंबर 2012
हरिजन का अर्थ
हरिजन का अर्थ तो चलो, गड़बड़ है -' ईश्वर के लोग ', और ईश्वर इनके लिए, इनके फायदे के लिए,इनके पक्ष में नहीं है | लेकिन दलित के मायने भला क्या होते हैं ? क्या यह कोई बहुत अच्छा शुभनाम है जिस पर नाज़ किये फिरे हैं ?
ईश्वर होता तो
ईश्वर होता तो क्या हम उसे न मानते ? क्यों न मानते ? कैसे न मानते ? क्या मजाल थी हमारी ? वह नहीं है तो इसमें हमारा क्या दोष ? बनाया तो भरसक उसे हमने वह नहीं बना तो हम क्या करें ? और आदमी ने जितना उसे बनाया उतना तो उसे मानते ही हैं !
गुरुवार, 13 दिसंबर 2012
प्यार से ' तू '
मैं सोचता हूँ = मैं सोचने का ' कर्म ' करता हूँ | तब वह वस्तुतः सोचना / विचारना नहीं होता | सोच तो बिना ' सोचकर्म ' किये ही आता है | सही है आप का कहना | यह उक्ति दरअसल , संभवतः , उन्हें सोचने के लिए प्रेरणा निमित्त है , जो सोचते नहीं , जबकि वे मुझसे ज्यादा सही और सटीक सोच सकते हैं | क्या नहीं ?
* नागरिक उवाच को ओपन करने की सोच रहा हूँ | कुछ खिलवाड़ करने के लिए , अपने नाम को मिटाने ,तिरोहित करने के लिए | अभी यह सिर्फ मेरे लिखने के निमित्त है |
* तो रहने दीजिये न Rp भाई यह व्यवस्था ! भारत के इतिहास में कुछ तो बचा रहे ! :-)
* मित्र Zia खान सानेट कवितायेँ पोस्ट कर रहे हैं | बहुत अच्छी और पठनीय | उन्हें मैं वास्तविक कविता की श्रेणी में रखता हूँ | जो दिल को छू जाएँ | मेरा भी मन ऐसा लिखने का होता है | कभी कभी बात बन भी जाती है |
* आनंद देती
आनंद की कल्पना
भी सुखदायी |
* खूब सजतीं
भव्य रंगशालाएँ
शादियाँ होतीं |
* आज़ादी , कौन
बचाना चाहता है
आप हों तो हों !
* फर्क तो होंगे
लड़ते भी रहेंगे
संग रहेंगे |
* सच कहूँ तो
समय विषाक्त है
हम विषैले |
* अपने बच्चों की ख़ुशी के लिए खेल खेल में हम पहले घोडा , हाथी , बिल्ली , गदहा बने | अब बच्चे बड़े हो गए | अब उनकी नज़र में हम उल्लू बने खड़े हैं |
* प्रिय सम्पादक व्यक्तिगत पत्रकारिता के आयाम प्रदर्शित करने का मंच है |
* कविता एक शिल्प है | इसमें अपने भाव सुगठित रूप से ढालने की श्रम साधना और प्रोफेसनल योग्यता की ज़रुरत होती है , जो मैं न करता हूँ न करने की कोशिश करता हूँ | इसलिए मैं अपने को कवि नहीं मानता, न ऐसा कहे जाने की अपेक्षा करता हूँ |
* प्यार से ' तू ' ] कल तेरह दिसम्बर को वि.वि के मालवीय सभागार में द्वारिका प्रसाद जी " उफ़ुक़ " की 150 वीं जयन्ती मनाई गयी | संगोष्ठी में राज्यपाल महोदय आये , और पश्चात शेरी नशिश्त [ काव्य गोष्ठी ] हुआ | उफ़ुक़ जी की पोती कोमल भटनागर ने इसे आयोजित किया था | उनके श्रम और अपने दादा जी के प्रति उनका स्मरण भाव की सराहना की जानी चाहिए | उफ़ुक़ क्षितिज को कहते हैं | सत्तर के दशक में ही मैं उनकी एक रचना पर मुग्ध हो गया था , और मैं उसे जब तब हर जगह उद्धृत करता रहता हूँ |
वह मुझे प्यार से ' तू ' कहता है ,
मैं खिताब लेकर क्या करूँगा ?
मैं ' हुज़ूर ' लेकर क्या करूँगा ,
मैं ' जनाब ' लेकर क्या करूँगा ?
* जिन्ना का भारत = मैं पूरी सत्यता से कहना चाहता हूँ कि हम जिन्ना के भारत हैं | धर्म के लिहाज़ से नहीं बल्कि सेक्युलर राजनीति की दृष्टि से | याद कीजिये पाकिस्तानी संसद में अपने प्रथम संभाषण में उन्होंने क्या कहा था ? कि इस मुल्क में सबको अपने धर्म पालन की पूरी आज़ादी होगी , अल्पसंख्यकों के साथ कोई भेदभाव नहीं होगा इत्यादि | इस सन्देश को ही तो भारत ने अपनाया ? तो हम जिन्ना के भारत हुए या नहीं ? इससे हमें क्या मतलब जो पाकिस्तान ने इसे भुला दिया ? अर्थात भारत सिर्फ गाँधी - नेहरु - आंबेडकर का ही नहीं , जिन्ना का भी उतना ही अनुयायी है |
* राजनीतिक विचारक इस्लामी कट्टरवाद के विरोध से तो सहमत होते हैं पर साथ ही मुसलमानों को भारत के संसाधनों पर पहला हक भी देना चाहते हैं | जब कि दूसरी और उन्ही का दलित विंग [ और वे भी ] केवल ब्राह्मणवाद से घृणा करने को नहीं कहता , न अपने अन्दर पनप रहे ब्राह्मणवाद से ही परहेज़ करता है बल्कि सम्पूर्ण ब्राह्मण समुदाय, प्रत्येक ब्राह्मण को कटघरे में रखकर उनके खिलाफ विषवमन करता है लतियाता - गरियाता रहता है | ' मासूम ' मुसलामानों के पक्ष में खड़े सेकुलर- प्रगतिशील आंदोलनकारी ' मासूम ' ब्राह्मणों के पक्ष में कुछ बोलने से कतराते हैं | ऐसी दो - अन्खियाही , यह वैचारिक गैर ईमानदारी राजनीतिक समाज में क्यों व्याप्त है ?
* [ अस्पष्ट ]
जो चीज़ गुम हो गई है , लोक आस्था कहती है , उसे थोड़ी देर के लिए भूल जाओ | फिर ढूँढो | मिल जायगी |
* [ डोर इतना न खींचो ]
यह बात दलित अति- आन्दोलन के पार्थ सारथियों - नील मंडल से संबोधित है | इस पर बशीर बद्र का एक अति प्रचलित शेर भी है - " दुश्मनी जमकर करो लेकिन यह गुंजाइश रहे / कि जब कभी हम दोस्त बन जाएँ तो शर्मिंदा न हों | " इसलिए डोर उतनी ही खींचो जिससे वह टूटने न पाए , थोड़ी थोड़ी जुडी रहे | क्योंकि हमारे नाम तो राम लक्ष्मण सीता सावित्री जैसे ही होने हैं | ऐसा न करो कि फिर मुँह दिखाने के काबिल न रहो | सत्ता के दंभ में [ हाँ आरक्षण भी सत्ता कि एक सशक्त शाखा है ] इतना न खो जाओ कि पागल हो जाओ | और सबसे बड़ी बात , हमारा और कहीं ठिकाना भी नहीं है, हिन्दू के अलावा , हिन्दुस्तान के अतिरिक्त | यूँ हिन्दू तो हम तमाम सवर्ण भी नहीं हैं , आप की ही तरह और आप के साथ ही एक मनुष्य की भाँति हैं | लेकिन क्या करें ? नाम के लिए तो हिन्दू होना ही है | विवशता ही समझ लें | लोग जो कहते हैं यह संस्कृति है , तो सारी संस्कृति तो दलितों के पास रक्षति रक्षितः है | ग्राम्य शिल्प , लोक गायन - नर्तन ब्राह्मणों के पास कहाँ ? फिर हिन्दू होने से क्यों डरते हो ? छीन लो ब्राह्मणों से ज्ञान - विज्ञान - तत्व ज्ञान - वेद पुराण | बन जाओ ब्राह्मण | कौन रोकता है अब ? दिनकर की बात आप के लिए भी तो है - सिंहासन खाली करो कि जनता [ दलिता ] आती है |
* " दुश्मनी जमकर करो लेकिन यह गुंजाइश रहे /
कि जब कभी हम दोस्त बन जाएँ तो शर्मिंदा न हों | "
[ बशीर बद्र ]
तिल का ताड़
* घर तो बहुतेरे हैं , पर उनमें वह रहता नहीं है ;
कभी वह घर में हो , तो सोचता हूँ मिल आऊँ |
[ ईश्वर ]
* तिल का ताड़ बना दे कोई ,
इतना प्यार जता दे कोई |
* मैं सोचता हूँ किन्तु गलत सोचता हूँ मैं ;
तुम ठीक सोचते हो मगर सोचते नहीं |
* आपने मुझसे मेरा नाम पता पूछा है ?
अभी मैं डायरी से देख कर बताता हूँ ।
* शादी भले न करें , पर शादी जैसा कुछ तो ज़रूर करना चाहिए आदमियों और औरतों को |
[ यह शादी करने वाले तय करेंगें | हर बात में मेरी तानाशाही नहीं चलेगी | बस कुछ करना चाहिए , मैंने ख्याल दे दिया , यह क्या कम है ? मैं बता दूंगा तो वे बिना मुझे भी बताये भाग लेंगे और मेरी दावत मारी जायगी | ]
* यह भला लाबीइंग होती क्या है | वही तो नहीं जो साहित्यकार लोग पद या पुरस्कार पाने के लिए पहुँच वाले लोगों से समर्थन जुटाने के लिए करते हैं ?
* जनम से नहीं अकल से भी दलित बनो तो मानें ! आसान काम करके पर्वतारोहण का पुरस्कार जीतना चाहते हो ?
[ बाल गीत ] - बन सकता है ]
* अगड़म बगड़म सारी चीज़ें ,
कुछ उपयोगी न्यारी चीज़ें ;
लेकर आये बन्दर मामा
बच्चों की सब प्यारी चीज़ें |
- - - -
# #
बुधवार, 12 दिसंबर 2012
रौशनी को देखकर
[ कवितानुमा ]
* रौशनी को देखकर
मैं सरपट भागा
मैं आगे आगे
रौशनी पीछे पीछे |
रौशनी रास्ता दिखाती रही
मैं चलता रहा |
और पीछे रौशनी ?
उसके पीछे कोई
रौशनी तो थी नहीं
वह औंधे मुँह
गिरी धडाम |
# #
मंगलवार, 11 दिसंबर 2012
मेरे ख्यालों में
[Badmesh]
* अब चाहे नैतिकता रहे चाहे जाय , चाहे बुराइयों का पहाड़ ही टूट पड़े , अब औरतें पुनः परदे में नहीं डाली जा सकतीं |
* औरतें कुतिया होती हैं या नहीं , पुरुष तो सारे कुत्ते ही होते हैं |
* जब तक आप बुर्क़ा नहीं लगायेंगे , दुनिया की असलियत नहीं जान पायेंगे |
* जहां तक आपका सवाल है ,
मेरे ख्यालों में एक ख़याल है |
* उधर देश बदमाशों से परेशान रहा इधर पूरे जाड़े भर मैं अपनी पत्नी से त्रस्त रहा | इसे बलात्कार तो कह नहीं सकता क्योंकि मैं सिद्ध नहीं कर पाऊँगा | उन्होंने खूब बनाया अपनी पसंद का मटर का निमोना और बथुए का सगपहिता दाल | ये दोनों पकवान मुझे पसंद नहीं | यह तो कहिये कभी कभी साग और गोभी , कभी आलू मटर टमाटर की रसेदार सब्जी भी बन जाती थी जिसे खाकर मैं यह लिखने के लिए जिंदा हूँ | कृपया मेरी एफ आई आर दर्ज कर ली जाय |
सोचते तो हैं
* एक दिल है
तुम्हे देखकर ही
धड़कता है |
* भरा जाता है
मनों में , बैठता है
नक्सलवाद |
* क्या कभी रहा
लोक में लोकतंत्र
जो अब होगा ?
* बात , उनके
कान में डालकर
मैं चला आया |
* नागरिक जी
सोच नहीं पाते हैं
सोचते तो हैं !
* स्वीकार नहीं
आपकी सारी बातें
शिरोधार्य हैं |
* सदुपयोग
धन - धान्य का करूँ
ईश्वर का भी |
आस्थाएँ बनायें
* आस्थाएँ बनायें /
नयी आस्थाएं बनायें
क्यों पुरानी आस्थाओं के
ढोल पीटें, लकीर ढोयें ?
# #
[ हमारी मनुष्यता ]
* हमारी मनुष्यता में यदि कोई खोट या कमी हो तो हमें बताएँ | हम सुधार लेंगे , पाश्चाताप कर लेंगे , शर्मिंदा हो लेंगे , माफी माँग लेंगे | आप बताएं तो !
" नया मनुष्य "
दुखद दृष्टव्य है कि नास्तिकता का नाम लेते ही नाक भौहें चढ़ने लगती हैं , और उसके आध्यात्मिक निहितार्थ को पकड़ना किनारे हो जाता है | किसका दोष दें , काई की इतनी परतें चढ़ी हैं कि हमारे पाँव उसमे उलझ ही जाते हैं | समझ नहीं पाते अस्तित्व का मंतव्य जो कि ज्ञान की जन ग्राह्यता और जन- जन में आध्यात्मिक श्रेष्ठता है | इस उद्देश्य से हम मिशन का नाम बदल रहे हैं | इससे भी यदि बात न बनी तो फिर फिर बदलेंगे , पर नज़र रखेंगे चिड़िए की आँख पर- मनुष्य की आत्मिक उत्कृष्टता |
भूमिका = " नया मनुष्य " , स्थित प्रज्ञावान श्रेष्ठतर / ( न हि मानुषात श्रेष्ठतरम हि किंचित )
[ Individually Spirited / Highly Spiritual / Spiritual Humanist ] |
नया मनुष्य बनाने की बात अनेक जागृत महापुरुषों ने की | कृष्णमूर्ति , ओशो ने नए मनुष्य के उभार की प्रत्याशा की | और पहले, प्रकारांतर से बुद्ध ने , सार्त्र ने सुकरात ने की - अनगिनत शिक्षकों ने | लेकिन क्या कुछ हुआ ? और क्या कुछ भी नहीं होगा ? क्या नया मनुष्य नहीं बनेगा या नहीं बन सकता ? गुरुजन कहने ,पुकारने , रास्ता बताने के अतिरिक्त और क्या कर सकते थे ? उन्होंने किया | लेकिन बनना तो मनुष्य को है ! यही तो नए मनुष्य की विशेषता है कि वह स्वयमेव होता है, उसे जो होना है वह स्वयं होगा, अन्यथा नहीं होगा ( जो हो रहा है ) | वह किसी के अधीन नहीं हो सकता (लेकिन स्वाधीन तो हो सकता है ) | यही कारण है कि बनाते तो रह गए सारे धर्म अपने -अपने अच्छे इंसान और सभी अपने मुँह की खा गए | अलबत्ता फिर भी वे किनारे नहीं हुए | उन्होंने मनुष्य के लिए रास्ता नहीं छोड़ा | यही विडम्बना है जिसे हम तोड़ना चाहते हैं |
तो प्रश्न मौलिक है , क्या हम कुछ नहीं बनेंगे , नवीन ? कैसे बनेंगे ? या महामानवों की संकल्पना सारी मिथ्या में / निरर्थक चली जायगी ?
ईश्वर अदालत में
* ईश्वर कभी अदालत में
पेश नहीं होता
कभी मैदान में
सामने नहीं आता ,
वह अपना वकील
भेज देता है ,
मनुष्यों को ही पेशकार
बनाया हुआ है उसने
जो कि दरअसल
उसके मुद्दई होने थे |
और यह वकील
ईश्वर को बचाता रहता है
तारिख पर तारीख
लेता चला जाता है |
ईश्वर सजायाफ्ता
हो ही नहीं सकता क्योंकि
उसका साइयाँ है मनुष्य ,
खुद उसका वकील / जज |
# #
दुआओं के लिए
* कहीं कुछ गोटी फिट हो जाय , किसी से प्रेम के आदान - प्रदान की स्थिति बन जाय , तो जीने का आनंद बढ़ जाता है |
* दवाओं का असर होते न देखा ,
दुआओं के लिए दर - बदर भटका |
* हमको उम्मीद नहीं है कोई ,
फिर भी तो काम किये जाते हैं |
* कौन सी आफत पडी , मत जाइए ,
आज का दिन शुभ नहीं , कल जाइये |
* भूल गया मैं सारा दुखड़ा ,
देख लिया जब उनका मुखड़ा |
* आपका , मित्र ! घर है कहाँ ?
घर में पेशाब घर है कहाँ ?
* [ ग़ज़ल पूरी करो ]
सड़कें वही हैं ,
गाड़ियाँ बढ़ी हैं |
Kunal Gauraw ना पूछो किस क़दर
दुश्वारियाँ बढ़ी हैं ।
बैठी है उनमे ,
कैसी नकचढ़ी है ![ugranath]
कितने कुचले गए ,
कहाँ किसको पड़ी है ![ugranath]
कैसी नकचढ़ी है ![ugranath]
कितने कुचले गए ,
कहाँ किसको पड़ी है ![ugranath]
रविवार, 9 दिसंबर 2012
सुनीता सुनील का तलाक़
[ story] I LOVE YOU
सुनीता सुनील का तलाक़ संपन्न हो चुका था | सुनील ने हस्ताक्षरित सरे कागजात सुनीता को सौंप दिए , और वह उन्हें संभाल कर घर ले आई | फुर्सत से उन्हें एक एक करके ध्यान से चेक करना चाहा, कहीं कोई दस्तावेज़ छूट तो नहीं गया या कम तो नहीं रह गया | सब दुरुस्त थे | अब अंतिम पृष्ठ की बारी थी | पूरे फुलस्केप कागज़ पर लिखा था - Nevertheless , I love you , Sunita - Sunil
एक तरफ़ा राह है
* एक तरफ़ा राह है मत जाइये ,
घूम कर उस रोड से घर आइये |
[ घूम फिर कर लौटकर घर आइये ]
* सब लोग परेशान हैं इस ख्याति के लिए ,
कैसे बजा दें तालियाँ दो चार आदमी !
* बहुत आसान है तलवार लेखनी के भाँजना ,
कभी देखा है किसी कवि का सिर कलम होते ?
OR =
* बहुत आसान है शमशीर-ए-कलम भाँजते रहना ,
कभी देखा किसी शायर का सिर कलम होते ?
खेल मान्यताओं का
*अपनी आस्तिकता की खोज , उसका निर्माण स्वयं कीजिये | इसके लिए पहले नास्तिकता पर तो आइये , उन विश्वासों के बरखिलाफ जो दुनिया में व्याप्त हैं ! तब तो बात बने !
* ईश्वर को मानने के पीछे मनोवैज्ञानिक कारण के अलावा बस साहित्यिक , सांस्कृतिक , कलाकृति भर जोड़े जा सकते हैं | अन्यथा वस्तुतः तो वह है नहीं , वैसा जैसा उसका होना बताया जाता है | आश्चर्य है जिसे हम अपने वैज्ञानिक औजारों से नहीं जान सकते, उसे हम ' जानते हैं ' कैसे मान सकते हैं ? कैसे किसी ने ईश्वर को जान लिया ? नहीं जान सकते इसीलिये ईश्वर के तमाम धर्मों और मान्यताओं में अलग अलग , परस्पर विरोधी स्वरुप हैं , और विवाद के कारण बनते हैं | तो खेल तो सब मान्यताओं का है , सच्चाई कुछ नहीं | हाँ , मानने में हर्ज़ क्या है , इस पर मैं भी सहमत हूँ | लेकिन पहले यह मान कर कि वह वस्तुतः है नहीं , हम उसे इस तरह मानते हैं अपने किन्ही मानवीय प्रयोजनों के लिए | और तब बात आएगी कि यदि हमारा शुभ प्रयोजन उस ईश्वर से सिद्ध न होता , तो ऐसे ईश्वर का फिर क्या काम ?
*आस्थावान लोग आपस में झगड़ते क्यों हैं , यदि आस्था बड़ी अच्छी और नेक चीज़ है ?
* लड़ाई मंदिर और मंदिर [मस्जिद] की नहीं हो सकती | हो तो हो मंदिर और अमंदिर के बीच |
* हाँ रवीन्द्र जी , यकीनन ध्यान देने योग्य है यह बात | और इन्ही पर ध्यान हमें नास्तिकता पर ले जाता है , जो मेरी दृष्टि में अनुपम , श्रेष्ठ , सुपर आस्तिकता है / यद्यपि उन्हें अधर्मी कहकर लताड़ा जाता है , मानो वे स्वयं बड़े धर्म के काम में लगे हों |
* आस्तिकता का शीर्ष शिखर होगा - नास्तिकता / अति विश्वास, सुपर आस्था | लेकिन कोई जल्दी न कीजिये / हम सभी लोग उसी रास्ते से गुज़रे हैं | ध्यानी तो मैं अभी भी हूँ , जो पहले नहीं था | बस पाखण्ड छूट गए , दूर जा गिरे |
* और आगे सोचिये | नास्तिक होकर आप अपनी आस्था ( इस आलोचना पर कान न दीजिये कि नास्तिकों की कोई आस्था नहीं होती | बड़े गहरे आस्थावान होता है वह यदि सचमुच नास्तिक हैं तो ) को निष्पक्षता से, बराबरी से सभी धर्मों , सभी ईश्वरों में बाँट सकेंगे | अपना प्रेम सभी बंधुओं में समता पूर्वक , बिना भेदभाव ,without prejudice दे सकते हैं | आस्तिकता , देखते रहिये , आपको किसी एक खूँटे से ऐसा ले जाकर बाँध देगी कि आप जीवन भर कोल्हू के बैल की तरह एक घेरे में चक्कर लगाते रहेंगे | और अपना जीवन तो कदापि नहीं जी पाएंगे |
* नहीं | आधुनिक काल में शब्दार्थ इतने तो न बदलें | आस्तिकता / नास्तिकता दोनों ही आध्यात्मिक अभिप्राय हैं | और यह भारतीय वांग्मय में संभव हुआ इसका मुझे गर्व है | मुझे आश्चर्य होता है जब नास्तिकता पर कोई हिन्दू आश्चर्य या विरोध करता है | यह तो वह संपत्ति है जो केवल हिन्दू के पास है | जाबालिसमेत कितने ऋषि मुनि नास्तिक हैं , बौद्ध जैन सांख्य योग मीमांसा आदि अधिकांश दर्शन तो नास्तिक हैं | इसी से वह समृद्ध है | पता नहीं नास्तिकता से क्या आशय लेते है लोग | हमें एक तो लगता है की पढ़ने लिखने में रूचि समाप्त हुई है | न आध्यात्मिक उन्नति से किसी को कुछ लेना देना रहा है | ढोल पीटने में आसक्ति बढ़ी है | दुसरे मौलिक चिंतन में आस्था सपाप्त हुई है | यहाँ मैंने आस्था शब्द का प्रयोग किया , जिसके बगैर कोई जीवन नहीं होता | यदि नई परिभाषा देनी हो तो कहें - आस्तिकता का प्रयोग साम्प्रदायिकता और नास्तिकता आध्यात्मिकता के सन्दर्भ में लिया जाय | और हाँ , यह कितनी झूठी बात प्रचलित है कि सेक्युलरवाद विदेशी अवधारणा है | क्या सत्यनिष्ठा, न्यायप्रियता , मानव सम्मान , चार्वाक ,बुद्ध आदि विदेशी हैं ?
मुर्गा पकेगा
* कुछ न कुछ
लिखते रहते हैं
अभ्यास होता |
* फुरसत है
नेतागिरी के लिए
लोगों के पास |
* कहाँ जाओगे
यार आज तो रुको
मुर्गा पकेगा |
* सहमति है
मना नहीं करते
यदि छूने से |
* जीव जंतु है
मानव प्रजाति भी
नर व नारी |
* देखा तो मैंने
घर फूँक तमाशा
और क्या करूँ ?
* बताओ मत
मैं सब जानता हूँ
छिपाते रहो |
* बस थोडा सा
दिमाग लगाइए
समस्या हल !
* हर हाल में
प्यार तो करना है
मुझे सबसे !
* मैंने क्या पढ़ा ?
न वेद न पुराण
कुछ तो नहीं |
[ बस आदमी की आँखें ]
* बिना चिंता के
कहाँ निकलता है
कोई विचार !
* सोचिए नहीं
सोचते ही रहिए
निशि वासर |
* उन सबका
नाम मुझे याद है
एक आदमी |
* दिल होता है
धनिकों के पास भी
बुद्धि होती है
गरीबों के पास भी
वंचितों में भी
होती समझदारी
संवेदनाएँ |
शनिवार, 8 दिसंबर 2012
बिलावजह क्यों बोलें
मौर्या जी कि टिपण्णी हंसी मज़ाक के लिए अच्छा / अच्छी शैली में है , और इसे इसी प्रकार लिया भी जाना चाहिए | क्योंकि हिंदुत्व कोई इसलाम नहीं है , न वेद कोई किसी की संपत्ति | वह सारी मानवता का ज्ञान कोष है , और उस पर हर मनुष्य का अधिकार है | मैं यह नहीं समझ पाता कि कोई यह कैसे कहता है कि अमुक ने हमारे पैगम्बर / देवता / ईश्वर / किताब कि अवमानना की है | क्या हम ईश्वर से ज्यादा ताक़तवर हैं ? जो जैसा करेगा वैसा भुगतेगा | लेकिन यदि गंभीरता से देखा जाय तो जो वेद पढ़ते हैं / कुरआन पढ़ते हैं वे उस पर कुछ कहें | जिन्हें उनसे मतलब नहीं है , वे बिलावजह क्यों बोलें , बगैर जन भावना का ख्याल किये ?
इतनी गहराई से देखा
[ अशआर ]
* मुखौटे इतने हम पर पुरअसर हैं
हम उनकी साजिशों से बेखबर हैं |
* घोडा बने, गदहा बने, बिल्ली बने
अपने बच्चों के लिए उल्लू बने |
* नहीं लगता इसमें मेरा मन ,
मुझे जैसे काटता है धन |
* इतनी गहराई से देखा ,
मन की ऊँचाई से देखा |
कविता के अलावा ईश्वर
कविता के अलावा ईश्वर को और कुछ मन्ना तो गलत ही है । और हाँ , कविता क्या कम पावरफुल है और मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक ?
मंत्री पद दो
* मंत्री पद दो
तो पार्टी में रहेंगे
नहीं तो नहीं |
* सब एक हैं
देखने में लगते
सब अलग |
* संत भी तो हूँ
फटकने न देता
पास किसी को |
* उन्होंने पूछा
और क्या करते हैं ?
आपकी याद |
कविताओं के साथ
किसी एक को क्यों कहें ? कोई मंदिर / मस्जिद पर अपना दावा नहीं छोड़ता | कविताओं के साथ एक यही दिक्कत है | वे इतनी ऊंची होती हैं कि कोई उन्हें छू नहीं पाता , पालन नहीं करता | उनका कोई असर सामजिक जीवन पर दिखाई नहीं देता | ग़ालिब ने कहा -दिल के बहलाने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है | या जोश - किधर से बर्क चमकती है देखें ऐ वाइज़ / मैं अपना जाम उठाता हूँ तू किताब उठा | ईश्वर के खिलाफ अनगिनत तो अश आर हैं | कितने हिन्दू तो छोड़ दीजिये , मुसलमान नास्तिक हुए / बने | यह गनीमत ज़रूर रही कि इन पर कोई फतवा जारी नहीं हुआ [ सलमान रश्दी शायर नहीं हैं ] |
माँ की याद ही
* दवा है मेरी
तुम्हारा इंतज़ार
युग जी लेता |
* कम्युनिस्ट हूँ
लेकिन मार्क्सवादी
संशय में हूँ |
* भेदभाव था
भेदभाव रहेगा
भेदभाव है |
* माँ की याद ही
माँ का आशीर्वाद है
करो तो पाओ |
* आप ग्रस्त हैं
अतिरिक्त मोह से
तो विचार क्या |
* कथ्य में डूबा
तथ्य कहाँ जानूँ मैं
क्या लिखूँ लेख |
* क्या करता हूँ
लिखता पढ़ता हूँ
खाक काम है |
* मन तो सही
मन में कुछ नहीं
ध्यान का फल |
* बस ध्यान ही
बेड़ा पार लगाएगा
मानवता का |
* चाहे हम हों
सबकी ज़िन्दगी है
चाहे आप हों |
शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012
छुट्टियाँ कम से कम
६ दिस / ' जय भीम ' तो सर्वथा उचित है | वरेण्य हैं आंबेडकर जी निश्चित ही | लेकिन यह सार्वजनिक अवकाश का मामला क्या है ? क्या हम एक नई संस्कृति का विकल्प नहीं दे सकते आंबेडकर की याद या उनके सम्मान में ? हमारा आन्दोलन होना चाहिए कि सरकारी छुट्टियाँ कम से कम करके उनकी संख्या दो या तीन करो राष्ट्रीय दिवसों पर | शेष कुछ छुट्टियाँव्यक्तियों के हवाले कर दो , जिन्हें वे अपनी आवश्यकता / सुविधानुसार उपयोग कर सकें |
" प्रिय मनुष्य " ( Godless Humanity )
अनुमान से हमने कुछ लोगों को अपनी तरफ से इस ग्रुप " प्रिय मनुष्य " ( Godless Humanity ) में शामिल किया है | तथापि, जिन्हें इस दुनिया के ईश्वरविहीन होने में कोई संदेह हो, वे कृपया अपना नाम इस समूह से हटा लें | कृपा होगी | और जिन्हें इसमें कोई संदेह नहीं है और इस समूह से अभी बाहर हैं , वे कृपया अन्दर आ जाएँ |
राम नाम सत्य
[ कवितानुमा ]
* सबसे बड़ा सत्य है -
" भ्रम " |
हर व्यक्ति भ्रम में है ,
पूरी दुनिया भ्रम पर जीवित है |
सत्य है -
वह मुझे प्यार करती है
सत्य है -
मैं उसे प्रेम करता हूँ |
सत्य है राम का नाम ,
राम नाम सत्य है |
सबसे बड़ा सत्य है भ्रम
[ उवाच ]
* सबसे बड़ा सत्य है = " भ्रम " | हर व्यक्ति भ्रम में है , पूरी दुनिया भ्रम पर जीवित है |
* मुझे किताबों से बाहर पढ़ना भाई ! नहीं तो मुझे समझ नहीं पाओगे |
* सबसे बड़ा सत्य है = " भ्रम " | हर व्यक्ति भ्रम में है , पूरी दुनिया भ्रम पर जीवित है |
* मुझे किताबों से बाहर पढ़ना भाई ! नहीं तो मुझे समझ नहीं पाओगे |
कामता नाथ जी
* भीड़ तंत्र के विरोध में
है तो एक छोटी सी भीड़ ,
लेकिन किसी की मृत्यु पर
भीड़ ही बताती है
उसकी लोकप्रियता |
अभी मैं कामता नाथ जी के
घर जा रहा हूँ
कल रात उनका देहांत हो गया |
कहानीकार थे ,
मुझसे बारह साल बड़े ,
उन्हें मैं सारिका के ज़माने से ही
जानता था , फिर लखनऊ आने पर
उन्हें देखा | वह वरिष्ठ थे,
मैं उनके निकट नहीं था |
उन्हें श्रद्धांजलि |
गुरुवार, 6 दिसंबर 2012
अंगूर हो जाना
[ कविता नुमा ]
* आम आदमी को अब
अंगूर हो जाना चाहिए ,
खट्टे अंगूर ;
राजनीतिक दलों की
पहुँच से बाहर
बहुत दूर |
बुधवार, 5 दिसंबर 2012
अच्छा ही तो है
* विचार में हो
सोच में प्रगति हो
संस्कार में हो |
* जन्म से नहीं
अक्ल से दलित हों
तब तो सच्चे |
* हमारी बात
कोई भी दुहराए
अच्छा ही तो है |
अमौसी
[ बदमाश चिंतन ]
* रेडीमेड कपडे खरीदने में एक दिक्कत बहुत आती है | यदि थोडा ओवरसाइज़ लो तो कंधे लटकने लगते हैं | और यदि बिल्कुलसाइज़ के लो तो गले का बटन बंद नहीं होता |
* अमौसी | मैं इस चिंतन में था कि लखनऊ का हवाई अड्डा अमौसी में क्यों है ? और मैंने इसका कारण ढूँढ निकाला | क्योंकि मेरी मौसी का घर बालागंज में है, और उसके विपरीत शहर से दूर दूसरे छोर पर हवाई अड्डा है जहाँ मेरी मौसी नहीं रहतीं | इसलिए उसका नाम अमौसी पड़ा |
* पैदल चलना एक भी किलोमीटर नहीं है, और खरीदेंगे खूब बड़े मजबूत तली के वज़नदार ब्रांडेड जूते | नाम नहीं बताऊंगा नहीं तो उसका प्रचार हो जायगा और मुझे कोई पैसा तो मिलना नहीं है !
* दलितों से तो भेदभाव करता ही हूँ , उनमे भी औरतों और मर्दों में फर्क करता हूँ | दलित नर मित्रों के फ़ोन आते हैं तो दो चार बार बजने पर स्वीकार करता हूँ , जब कि दलित नारी मित्रो के फ़ोन घंटी बजने से पहले ही उठा लेता हूँ |
* पुरुषों को चाहे गोली मार दो , सूली पर चढ़ा दो , या उनके अंग - अंग काट कर ज़मीन में गाड़ दो , वह कुत्ते की पूँछ हैं | वह हर हाल में नारी शरीर और आकृति पर आकर्षित होता रहेगा | उनके लिए वह अपनी जान गवाँता रहेगा |
* बुढ़ापे में यह ज़रूर हो जाता है कि हवा खिसकाने में शर्म हया कुछ कम हो जाती है |
मंगलवार, 4 दिसंबर 2012
ढाई आखर
* कुछ हो न हो
तुम सुंदर तो हो
यही बहुत |
* तरस गए
मेरे होंठ , बोलना
ढाई आखर |
* वह अंधी थी
मैंने आँखें चूमीं तो
खिले कमल |
* लोकतंत्र की
दूरी ज्यादा नहीं है
भीड़तंत्र से |
* क्या घुस जाए
कब मेरे सिर में
नहीं जानता |
* सरकार हो
अव्यवस्था न हो तो
सूना लगता |
बिल्ली नि रास्ता जो काटा
[ उवाच ]
* बिल्ली नि रास्ता जो काटा था / मैं सही मुकाम पर पहुँच गया |
* एक एक पैसा दाँतों के बीच फँसाकर बचाने वाले शादी विवाहों में किस तरह पैसा पानी की तरह बचाते हैं कि आश्चर्य होता है |
* वैसे तो कहने को हर व्यक्ति संवैधानिक अधिकार प्राप्त स्वतंत्र इकाई है , लेकिन संपत्ति पर हक ज़माने के लिए सब बेटवा - बिटिया - ससुर -दमाद रिश्तेदार बन जाते हैं !
* वैसे ही बहुत वज़नदार है यह धरती , मनुष्य इसे अपने विचार - व्यवहार से और भारी तो न बनाये !
* जो ज्यादा सफल होना चाहते हैं , वे जल्दी असफल भी हो जाते हैं | हो ही जाना चाहिए |
* जाति या धर्म केवल पैदाइशी तक क्षम्य है | उसके बाद यदि व्यक्ति अपनी तरफ से हिन्दू - मुसलमान बनता है तो वह जाने | उसका फल - कुफल उसे भुगतना पड़ेगा |
* बाबा रामदेव योग करते करते राजनीति करने लगे | उसी प्रकार क्या केजरीवाल को राजनीति करते करते योग गुरु नहीं हो जाना चाहिए ?
* जो साधारण आदमी हो उसे सहर्ष सम्मान दो | जो विशिष्टता की ऐंठ में हो उसे साक्रोश उपेक्षा , लानत - लताड़ दो |
* सहालग है | उनके बहन की शादी है अगले सप्ताह | मुझसे मिलने कहाँ आ पायेंगे !
कन्या दान
कन्या दान अश्लील है , बुरा लगता है ? तो मत दीजिये ऐसा दान | कन्या धन को घर में ही रखिये | अरे भाई , ये सब रस्में हैं पाखण्ड हैं विवाह के | ये गाजे - बाजे, नाच गाना , जयमाल [?], अंतर मंतर, वर के पाँव पूजना, माड़व - कोहबर, कलेवा, भात, वगैरह | पुराने लोगों को इन सब छ्छंदों में मज़ा आता था तो वे करते थे, आप को उनका उपहास करने में मज़ा आता है तो आप मज़ाक उड़ाने में लगे हैं | और कुछ तो कर नहीं सकते , विवाह की कोई नई विधि ईजाद नहीं कर सकते , तो करने दीजिये उन्हें | कुछ नया करते तो हम भी उसका अनुसरण करते | लेकिन आप को यह तो ज्ञात होना चाहिए कि कन्या दान करके कोई कन्या से छुटकारा नहीं ले लेता | पैर पूजने को लेकर एक घटना है कि कहीं पुत्री से दामाद ने कोई दुर्व्यवहार कर दिया | कन्या के बाप ने चेतावनी दी कि तुम्हारा पैर ही तो पूजा है गर्दन नहीं , उसे काट कर अलग कर दूँगा | निश्चय ही बहुत कुछ आलोच्य हैं पुराने रस्मों में, और इसका पूरा हक है आपको, क्योंकि आप उसके निर्णायक सदस्य हैं | लेकिन ज़रा ज़िम्मेदारी से, केवल मजाहिया लहजे में नहीं, न उन्हें अपमानित करके |
मन में भाव कैसे भी हों , जो भी हिन्दू रीति से विवाह संपन्न किये जाते हैं उनमे यही पाखण्ड निभाए जाते हैं | वही अग्नि के फेरे , वही कसमें | क्या कोई अर्थ होता है उनका ? नहीं तो कोई दूसरा रास्ता बताइए जिसे व्यवहृत किया जाय, जो व्यवहार में लाने योग्य हो , सर्वदोषमुक्त | अन्यथा दिल के बहलाने को ग़ालिब ये ख्याल से क्या फायदा ? किससे कह रहे हैं आप ?
अच्छा हाँ , बात ही तो कर रहे हैं , और बात ही करने के लिए तो है फेस बुक ?
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