अच्छा लगा चंचल जी ने दिनमान के अंदर की खबर दी
| मैं
तो बाहर का एक विनम्र पाठक था |
मुझे याद है १९६३ में जब डिप्लोमा पढ़ने लखनऊ आया तब दिनमान
५० पैसे की थी | हर हफ्ते लेता था | तब संपादक अग्गेय जी थे, शीघ्र ही रघबीर सहाय जी आ गए | पर उससे मुझे क्या मतलब था | मेरी आयु थी १७ वर्ष
| उसमे
मेरे स्वभाव के अनुकूल गंभीर जानकारी और सोचने की सामग्री मिल जाती थी | मुझे आता जाता कुछ न
था तब भी कला रंगमंच साहित्य आदि सब पर प्रयाग शुक्ल , नेत्र सिंह रावत , के एन कक्कड़ भी , के सारे आलेख निर्विकार
भाव से पढ़ जाता | बाद में कुछ प्राथमिकता
भी बनी | सबसे पहले तो मत -सम्मत फिर फ़ौरन सर्वेश्वर का चरचे और चरखे , और अंत में कोई विश्व
कविता | जाना
कि लिखना कहते किसे हैं | फिर हॉस्टल के पते से लिखने भी लगा , सोचने / लिखने के अभ्यास के रूप में | आज चंचल जी के मापदंड
पर कहूँ तो मैं "धन्य " था जो उसमे छपा और बराबर छपा |लिखने का अभ्यास यूँ
हुआ कि अब सिर्फ कलम हाथ से पकड़ता हूँ , लिखता कोई और है | मुझे उसे पलट कर पढ़ने
का समय नहीं होता | ज्यादा गलतियाँ भी नहीं होतीं , लिंग भेद न मानने के कारण कुछ लिंग -दोष अवश्य हो जाता है | अतः आज की खेमेबंदी के
बरक्स उन निष्पक्ष संपादकों को नमन करता हूँ |
२० साल की उम्र में नौकरी लग गयी तो १५ साल की उम्र में जो शादी हो गयी थी उसकी
ज़िम्मेदारियाँ लिए शहर शहर रहा |
अब मेरी नियमित पत्रिका की सूची में थे दिनमान के अतिरिक्त कादम्बिनी, धर्मयुग , साप्ताहिक हिंदुस्तान, सरिता -मुक्ता, नीहारिका - सारिका [
इन नामों पर दो भतीजियों का नामकरण किया] | कहूँ कि मेरी पूरी पढ़ाई
या संस्कार- निर्मिति ही इन्ही से हुई , वरना मैं कुछ पढ़ा लिखा
तो था नहीं - इण्टर था , वह भी विज्ञानं से | जो आज हालत यह है कि रूप रेखा जी , प्रमोद , नीलाक्षी और आप लोगों जैसे विश्वविद्यालय - पठित
शिक्षक विद्वत-जन मुझे अपने वार्ता कक्ष में बैठने देते हैं, सब उन्ही पत्रकों की
देन और वरदान है |और हाँ , नवनीत तो बताया ही नहीं , जिसने मुझे सांस्कृतिक - दार्शनिक दृष्टि दी , अहा! ज़िन्दगी की तरह मनोरंजक , और जिसके आधार पर अपने
पुत्र का नाम ' नवनीत कुमार ' रखा |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें