बड़ी खेमे बंदी है भाई विचार जगत में , और वही अब साहित्य जगत भी हो गया है | ज़रा सा भी अलग सोच लो या कोई शाब्दिक क्रीड़ा करना चाहो तो डर बना रहता है कि कहीं उस टोले का न मान लिया जाऊँ ! अरे भाई मैं प्रगतिशील हूँ तो अपने मन से और दकियानूस हूँ तो स्वेच्छा से | इस पर किसी की क्या दबंगई ? लेकिन नहीं दादागिरी की इमरजेंसी लागू है , जब कि यहाँ न मार्कंडेय काटजू हैं न मीनाक्षी नटराजन | यह तो वैसा ही हुआ जैसे दो माफियाओं का झगड़ा हो | सरकारी प्रतिबंधों का विरोध इसलिए होता है जिससे इनका आधिपत्य कायम रहे | मैं कल्पना कर सकता हूँ कि इसी कारण लेखक जन इस या उस कस्बे में बस जाते हैं और फिर वहीँ के होकर रह जाते हैं क्योंकि इस धड़ेबाजी की स्थिति में इसके अलावा और कोई चारा नहीं है | उनकी कोई गति ही नहीं यदि वे इनमे शामिल न हों | सबके पास इतना बूता नहीं होता कि अकेले अपनी लडाई लड़ सकें , या फिर मेरी तरह अन्धकार की गर्त में जाने के लिए कटिबद्ध हों | सबको अपना भविष्य बनाना होता हैं , कुछ का तो कैरियर भी होता है | पर मौलिक प्रश्न तो शेष है कि यह कौन सी समता स्वतंत्रता भाईचारा का नमूना हम स्थापित कर रहे हैं कि किसी से बिना उसका प्रोफाइल पक्का जाने हम हाथ मिलाने या पास बैठने में संकोच करें ? क्या यह उसी प्रकार का छुआछूत नहीं है जिसके खिलाफ गाँधी जैसे परंपरावादी हिन्दू ने भी आन्दोलन चलाया ? कोई महान तरक्की पसंद बुद्धिजीवी बताये कि इसमें और ब्राह्मणवाद में क्या तनिक भी अंतर है जिसको कोसते ये कभी नहीं थकते ? यदि इसे ये उचित मानते हैं तो हमें भी पुनर्विचार करना पड़ेगा कि अपने विस्तृत मानववादी सोच को समय रहते हम भी संकुचित कर लें और अपने सामाजिक व्यवहार को तदनुसार रेशनलाइज [तर्कसंगत ? नहीं समयसंगत ] बना लें | स्वीकार करता हूँ कि उसी को दुनिया ब्राह्मणवाद के नाम से जानती है, और फिर जानेगी - शठे शाठ्यम समाचरेत |
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