बुधवार, 16 मई 2012

अध्यक्ष जी की अनुमति से


अध्यक्ष जी की अनुमति से 
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जैसे सभाओं का अध्यक्ष कुछ नहीं करता , केवल सभा की शोभा बढ़ाता है | उसके नाम पर उसकी बिना दी गयी अनुमति से संचालक अपने मन से सभा को चलाता है | अध्यक्ष को तो सबसे अंत में बोलने कि नौबत आती है , तब तक सभागार लगभग खाली हो चुका होता है | उसे बोलने की ज्यादा स्वतंत्रता भी नहीं होती , पिछले वक्ताओं की बातों को समेटने के सिवा
उसी प्रकार ईश्वर की अनुमति से इस संसार रूपी सभागार को कुछ धूर्त संचालक अपनी मन मर्जी से चला रहे हैं , और उसके नाम पर  सारा गुल - गपाड़ा , छल -छद्म कर रहे हैं | भोले श्रोतागण इस उम्मीद में बैठे  इनके ठगी के शिकार हो रहे हैं कि अंत में तो अध्यक्ष ईश्वर कुछ बोलेगा ! उन्हें क्या पता कि वह कुछ नहीं बोलेगा क्योंकि वह गुस्से से सभागार छोड़ कर बाहर निकल गया है और अब वह वहां है ही नहीं  | #
२ - हिन्दुओं में कथा सुनने की परंपरा है | कोई भी अवसर आया , पंडित बुलाया , पंजीरी -चरणामृत बनवाया और सत्य नरेन व्रत कथा सुन ली | सुनने  वाले को आज तक यह पता नहीं चला कि वह असली कथा कहानी क्या थी जिसे कन्या कलावती आदि ने सुना , या नहीं सनने पर दंड भोगा ?
आगे सोचें तो कथा तो साहित्य का अंग है | तो क्या हिन्दू स्वभावतः , संस्कार से इतना  कथा/ साहित्य  प्रेमी हैं ? असंभव नहीं , क्योंकि आज हिंदी कहानियाँ लिखी तो वैसी ही जा रही हैं , जिनके बारे में पता नहीं कि कन्या कलावती ने कौन सी कथा सुनी थी ? हम तो उसे न सुनने की सजा भुगत रहे हैं | #
३ - जिसमे सबसे कम पैसा खर्च हो , मेरे ख्याल से वही शिक्षा पद्धति सर्वोत्तम है | #
४ - मैं सोचता हूँ कि इतनी आजादी तो है सबको हिंदुस्तान में ! फिर भी कुछ मुसलमान कश्मीर में क्यों नहीं रहना चाहते ?
५ - मेरे इस ख्याल में क्या खोट है कि यदि कोई अँगरेज़ ईसाई अरब देश में जाय तो वह यह जान ले कि उसे इतवार को  छुट्टी नहीं मिलेगी ? और इसी प्रकार मुसलमान को फ़्रांस में जुम्मा की छुट्टी नहीं मिलेगी ? हिंदुस्तान की बात और है और वह निराली है | यहाँ तो कोई भी आये अपने मन में ख्याल बना कर आये कि वह इस देश का मालिक और राजा है , वह जब , जैसा चाहें , कुछ भी कर सकता है | यहाँ से एक विश्व राजनीतिक व्यवस्था की परिकल्पना करने का मन हो रहा है | वह यह कि तमाम देशों में भिन्न भिन्न प्रकार के राज्य हों -सिख , ईसाई , इस्लामी , साम्यवादी , सेकुलर [हिन्दू और नास्तिक भी] इत्यादि , और नागरिकों को कहीं भी जाने रहने की आजादी हो | जिसको जैसा शासन पसंद हो वह उसी प्रकार के देश में जाकर बसे और हार्दिक -मानसिक -आस्थिक रूप से खुशी खुर्रम से रहे | आज तो अजीब किस्म की तनातनी चल रही है | एक कमज़ोर सीधे सादे देश को कोई माओवादी बना रहा है , कोई इस्लामी बनाने के चक्कर में है तो कोई सेकुलर , तो कोई राज करेगा खालसा का उद्घोष कर रहा है, और हिन्दू तो यह खानदानी है  | इससे वह कुछ नहीं बन पा रहा है , और जनता की एकनिष्ठता और प्रतिभा का समग्र प्रयोग / उपयोग नहीं हो पा रहा है | इस प्रस्ताव को हवाई कहकर भले टाल दिया जाय , पर यह लोकतंत्र का शिखर हो सकता है | सचमुच क्यों रहें देश की सीमायें ? और कोई भी व्यवस्था  अपने देश की सीमायें क्यों लांघे ? अनेकता का पालन विश्व स्तर पर हो अपने अनुशासन के साथ |

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