शनिवार, 19 मई 2012

सवर्ण समालोचना :-

सवर्ण समालोचना :-
प्रथमतः हम यह स्पष्ट कर दें कि एक सवर्ण के तौर पर हम यह मान सकते हैं कि आंबेडकर कार्टून पर आपत्ति नहीं की जानी चाहिए | यदि वह कार्टून कोर्स में होता ही तो भी उसे सहन किया जाना चाहिए था जैसा कि दलित अन्य विसंगति सह रहे  हैं | लेकिन जब उन्होंने इसे आपत्तिजनक मानकर मामले को उठा ही दिया है तो हमारा यह कर्तव्य बनता है कि आपत्ति के औचित्य- अनौचित्य  पर पुनर्विचार करें | पहले तो हम यह मान  लें कि कोई भी कलाकार त्रुटियों से परे कोई पराप्राकृतिक प्राणी  नहीं होता | यदि आंबेडकर की व्यक्ति पूजा नहीं की जानी चाहिए तो निश्चय ही शंकर पिल्लई की भी आराधना नहीं की जानी चाहिए | दूसरे यह कि यदि किसी की कविता -कहानी -लेख -कार्टून कोर्स की किताब में  शामिल न हो पाए तो इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए घातक नहीं  कहा जा सकता | तीसरे , किसी भी कला का श्रोता - दर्शक -समीक्षक सम्बंधित कलाकार से कम कलाकार नहीं होता | इसलिए हम एक जनता-पाठक की हैसियत कार्टून [की प्रासंगिकता] की चीर फाड़ साधिकार कर सकते हैं |
घोंघा [स्नेल] एक जीव है जिसका सहारा धीमी गति के प्रतीक रूप में कार्टूनिस्ट ने किया | ज़ाहिर है उस पर आंबेडकर कोड़े चला सकते थे , और नेहरु भी | उस समय के लिए तो बात आई गयी ख़त्म हो गयी | लेकिन संविधान हमेशा धीमे चलने वाला जंतु तो है नहीं , वह तो एक निर्जीव [ किन्तु पूर्ण जन समर्पित एवं देश पर लागू ] पुस्तक के रूप में हमारे सामने है और उसके निर्माता के रूप में अम्बेडकर का नाम सर्व विदित है | तो अम्बेडकर अपनी किताब को तो पीट पीट कर दौड़ा नहीं सकते थे ? अतः यह निष्कर्ष निकालने में किसी छात्र और शिक्षक को कोई  कठिनाई  नहीं होगी कि नेहरु का हंटर आंबेडकर के लिए है | और यही है उस कार्टून पर दलितों के आपत्ति का मुख्य कारण , जो पूरी तरह से वाजिब है | 
और देखें , तो क्या संविधान का धीरे या तेज बनना आज कोई महत्त्व रखता है ? या यह बताना कि संविधान निर्माण कमेटी  में कितने सदस्य , कौन - कौन थे और उन्होंने इसकी ड्राफ्टिंग में कुल कितने घंटे का समय दिया ? सारा भार अम्बेडकर पर था , और इसीलिये लगभग  अकेले संविधान के निर्माता के रूप में दलितों में जो  उनकी ख्याति है ,वह वस्तुतः तो  गलत तो नहीं है श्रेय भले कितने ही लोग लें | तो , हम भले सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त हों , पर अम्बेडकर के प्रति हमें  इतना कृतघ्न तो नहीं होना चाहिए कि उनके सम्मान को एक कार्टून की बलि वेदी पर चढ़ा दें , या उनके असम्मान की कोई भी गुंजाईश किताबों में छोड़ें | यदि मान लें कि वह हमारे पूज्य या पूर्वज नहीं हैं , तो भी हमें मानना होगा कि किसी के भी पुरखों का अपमान करके हम अपने पुरखों का सम्मान बचा नहीं पाएंगे | और अंततः पुनः इस तथ्य पर ध्यान देना बहुत ज़रूरी है , और यह गलती व्यापक रूप से मीडिया में व्याप्त है | कि हमारी समस्या/ हमारा काम सम्प्रति  छात्रों के लिए उपयुक्त पठन सामग्री चुनने की है , न कि अख़बार चलाने की | यहाँ यह भी प्रश्न नहीं है कि अम्बेडकर का चित्र नहीं छपा जा सकता |

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