तिस पर भी
हमें अपने कवियों - कार्टूनिस्टों पर , पत्रकारों - पढ़ाने वाले मास्टरों - शिक्षाविदों पर, कोर्स की किताबें बनाने वालों पर, हवाई जहाज के पायलटों- बस के ड्राइवरों पर , आपरेशन करने वाले डाक्टरों - दवा देने वाली नर्स पर , इंजीनियरों [वगैरह -वगैरह] पर भरोसा करना ही चाहिए |
थोड़ा स्पष्ट हो लें कि यह मामला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का तो है ही नहीं | वह तो १९४९ से ही सुरक्षित है | प्रश्न है क्या -क्यों - कैसे पढ़ाया जाय ? किताबों, खासकर टेक्स्ट बुक्स में illustrations की ज़रुरत है या कार्टूनों की [यदि वह कार्टून की किताब नहीं है ] ? संभव है दोनो विद्वानों ने उन पर ध्यान न दिया हो क्योंकि उनके मन में कोई खोट नहीं होगा, और प्रौढ़ बुद्धि के लिए उसमें कुछ भी अनुचित नहीं है | और अनुचित नहीं है इस त्रुटि की ओर सांसदों द्वारा इंगित किया जाना [प्रो. के घर कुछ उत्पात को छोड़कर], और इसे सरकार द्वारा मान लिया भी उचित ही था | इतनी दकियानूसी उत्तेजना भी ज़रूरी नहीं है | न इस वर्ष से पर अगले एडिशन में करेक्शन कर लिया जाना चाहिए | देखना होगा कि २०१२ , १९४९ नहीं है |तब मंडल कमीशन - सच्चर कमेटी आदि नहीं थे, राम बिलास - मायावती नहीं थीं | उन नेताओं की बात और थी , उनमे बराबरी का भाव और रिश्ता था | अब भले नेहरु -पटेल -गाँधी के बीच कोई जातीय फैक्टर नहीं है , पर जैसे ही आंबेडकर का नाम जुड़ता है , समीकरण बदल जाता है | और यह यथार्थ है | इसलिए मानना होगा कि उस अस्पष्ट कार्टून को नासमझ अध्यापक prejudiced व्याख्या दे सकता है , और अशिक्षित छात्र उसका मजाक बना सकता है | हमारा निवेदन है ऐसी संभावित भ्रामक स्थितियों से बचना चाहिए | मुझे पक्का विश्वास है विद्वानों ने उस समय इसमें कोई बुराई नहीं देखी होगी , वस्तुतः है भी नहीं , वर्ना वे स्वयं उसे हटा देते | इसके लिए उन्हें सजा के लिए आरोपित करना तो निहायत बचकाना होगा | इन पर विश्वाश नहीं करेंगे तो कहाँ , किस देश से लायेंगे superhuman बुद्धिजीवी ? क्या जो नई कमेटी बनी है वह बिना विश्वास के चलेगी ? क्या उनका किया धरा हर किसी के आपत्ति से मुक्त होगा ? संवाद - विवाद अवश्य चलना चाहिए पर एक अनुशासन के साथ |
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