अध्यक्ष जी
की अनुमति से
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जैसे सभाओं का अध्यक्ष कुछ नहीं करता , केवल सभा की शोभा बढ़ाता है | उसके नाम पर उसकी बिना दी गयी
अनुमति से संचालक अपने मन से सभा को चलाता है | अध्यक्ष को तो सबसे अंत में बोलने कि
नौबत आती है , तब तक
सभागार लगभग खाली हो चुका होता है | उसे बोलने की ज्यादा स्वतंत्रता भी नहीं
होती , पिछले
वक्ताओं की बातों को समेटने के सिवा |
उसी प्रकार ईश्वर की अनुमति से इस संसार
रूपी सभागार को कुछ धूर्त संचालक अपनी मन मर्जी से चला रहे हैं , और उसके नाम पर सारा गुल - गपाड़ा , छल -छद्म कर रहे हैं | भोले श्रोतागण इस उम्मीद में बैठे इनके ठगी के शिकार हो रहे हैं कि
अंत में तो अध्यक्ष ईश्वर कुछ बोलेगा ! उन्हें क्या पता कि वह कुछ नहीं बोलेगा क्योंकि
वह गुस्से से सभागार छोड़ कर बाहर निकल गया है और अब वह वहां है ही नहीं | #
२ - हिन्दुओं में कथा सुनने की परंपरा
है | कोई भी
अवसर आया , पंडित
बुलाया , पंजीरी
-चरणामृत बनवाया और सत्य नरेन व्रत कथा सुन ली | सुनने वाले को आज तक यह पता नहीं चला कि
वह असली कथा कहानी क्या थी जिसे कन्या कलावती आदि ने सुना , या नहीं सनने पर दंड भोगा ?
आगे सोचें तो कथा तो साहित्य का अंग है | तो क्या हिन्दू स्वभावतः , संस्कार से इतना कथा/ साहित्य प्रेमी हैं ? असंभव नहीं , क्योंकि आज हिंदी कहानियाँ लिखी
तो वैसी ही जा रही हैं , जिनके बारे
में पता नहीं कि कन्या कलावती ने कौन सी कथा सुनी थी ? हम तो उसे न सुनने की सजा भुगत
रहे हैं | #
३ - जिसमे सबसे कम पैसा खर्च हो , मेरे ख्याल से वही शिक्षा पद्धति
सर्वोत्तम है | #
४ - मैं सोचता हूँ कि इतनी आजादी तो है
सबको हिंदुस्तान में ! फिर भी कुछ मुसलमान कश्मीर में क्यों नहीं रहना चाहते ?
५ - मेरे इस ख्याल में क्या खोट है कि
यदि कोई अँगरेज़ ईसाई अरब देश में जाय तो वह यह जान ले कि उसे इतवार को
छुट्टी नहीं मिलेगी ? और इसी
प्रकार मुसलमान को फ़्रांस में जुम्मा की छुट्टी नहीं मिलेगी ? हिंदुस्तान की बात और है और वह
निराली है | यहाँ तो
कोई भी आये अपने मन में ख्याल बना कर आये कि वह इस देश का मालिक और राजा है , वह जब , जैसा चाहें , कुछ भी कर सकता है | यहाँ से एक विश्व राजनीतिक
व्यवस्था की परिकल्पना करने का मन हो रहा है | वह यह कि तमाम देशों में भिन्न भिन्न प्रकार
के राज्य हों -सिख , ईसाई , इस्लामी , साम्यवादी , सेकुलर [हिन्दू और नास्तिक भी]
इत्यादि , और
नागरिकों को कहीं भी जाने रहने की आजादी हो | जिसको जैसा शासन पसंद हो वह उसी प्रकार
के देश में जाकर बसे और हार्दिक -मानसिक -आस्थिक रूप से खुशी खुर्रम से रहे | आज तो अजीब किस्म की तनातनी चल
रही है | एक कमज़ोर
सीधे सादे देश को कोई माओवादी बना रहा है , कोई इस्लामी बनाने के चक्कर में है तो
कोई सेकुलर , तो कोई राज
करेगा खालसा का उद्घोष कर रहा है, और हिन्दू तो यह खानदानी है | इससे वह कुछ नहीं बन पा रहा है , और जनता की एकनिष्ठता और प्रतिभा
का समग्र प्रयोग / उपयोग नहीं हो पा रहा है | इस प्रस्ताव को हवाई कहकर भले टाल दिया
जाय , पर यह
लोकतंत्र का शिखर हो सकता है | सचमुच क्यों रहें देश की सीमायें ? और कोई भी व्यवस्था अपने देश की सीमायें क्यों लांघे ? अनेकता का पालन विश्व स्तर पर हो
अपने अनुशासन के साथ |