उग्रनाथ'नागरिक'(1946, बस्ती) का संपूर्ण सृजनात्मक एवं संरचनात्मक संसार | अध्यात्म,धर्म और राज्य के संबंध में साहित्य,विचार,योजनाएँ एवं कार्यक्रम @
शनिवार, 3 सितंबर 2011
योद्धाओं ने
योद्धाओं ने
बड़े मैदान जीते
सीखा है हारना
अब वीर लोगों को
कि जिससे
विजय-दुंदुभि शोर न हो
तभी सुन पाएगी दुनिया
पीड़ितों की आह को
जो चाहती है
युद्ध न हो
अब किसी से भी
प्रभावित होने का
मन नहीं करता
बहुत देखा, बहुतों को देखा
अन्दर के खोखले
बाहर से चमकदार
नक्काशी वाले बर्तन
मुझे नहीं सुहाते
मैं नज़र गड़ाता हूँ
कंकड़ों पर
वे मुझे सुन्दर लगते हैं
क्योंकि वे सुन्दरता का
भ्रम नहीं देते
कोई धोखा नहीं देते
उनका सपाट चरित्र
छूने देखने में
भले खुरदुरे होते हैं
हथेलियों में गुदगुदी होती है
और मैं उन्हें हाथ में लेकर
हँस देता हूँ
अचम्भा है विश्व
अचम्भा है सृजन
तुम्हारे इसी अचम्भे में
मैं भी शामिल हूँ
अचम्भा हूँ मैं
हमने ईश्वर की कल्पना की
और उससे डर गए
वह जैसा कहता रहा
हम करते रहे
अब वह हमारे बीच नहीं रहा
उसकी जगह पर
राज्य आ गया
सेकुलर स्टेट,
इसे भी हम बनाते हैं
तो अब हमें
उससे भी तो
डरना पड़ेगा
गाँधी जी अमर रहें
और जो अमर हैं
गाँधी हो जाएँ
सफलता जो
सक्रियता माँग रही थी
वह मुझमें नहीं थी
चोंचले बाजी, गुटबन्दी का गुण
मुझमें उसका अभाव था
प्रदर्शनबाजी,
अपना प्रचार
करने की कला
जब कोई कहता है
मेरा घर पूरा हिन्दुस्तान है
तब मैं समझ जाता हूँ
मेरी ही तरह
इसके पास
कोई घर नहीं है
बेघर है यह
फुटपाथ का आदमी
मुझे पूरी ख़बर है
ईश्वर मरना चाहता है
ये आदमी लोग
उसे मरने नहीं देते
ईश्वर बहुत दिनों से
मेरे कमरे में बैठा हुआ है
और मैं घर का कोई काम
नहीं कर पा रहा हूँ
पूछते हैं लोग
मैं क्या कर रहा हूँ
एक जीवन बस
निरर्थक कर रहा हूँ
मेरी पत्नी मुझसे प्यार करती है
मेरी प्रेमिका मुझसे प्यार करती है
मेरे बच्चे मुझसे प्यार करते हैं
और नाते-रिश्तेदार
दोस्त अहबाब भी
अभी मेरी जेब में
कुछ पैसे बचे हैं
होगा कोई प्रजातन्त्र
जनता का
जनता के लिए
जनता के द्वारा
मेरी कविता तो
मेरी
मेरे लिए
मेरे द्वारा है
मैं कैसे कहता माँ
तुझे प्यार करता हूँ
कभी नहीं कह पाया
मौक़ा ही नहीं मिला
या
ज़रूरत भी क्या थी
कहने की
मैं उसका आश्रय पाता रहा
उससे दूध-दही-भोजन माँगता रहा
क्या उसने समझा न होगा
कि मैं उससे प्यार करता था
काश! देश में
न कोई नेता होता
न कोई सन्त
न महापुरुष
सब केवल
आदमी होते
मेरा ख़्याल है ,
वह प्रेम चाहता था
उसे नहीं मिला
मुझे लगता है
वह सानिध्य चाहता है
वह उसे नहीं मिला
मुझे आभास है
वह आकाश छूना चाहता था
वह आकाश की ओर चढ़ा भी
किन्तु औंधे मुँह गिर पड़ा
हिन्दी के कितने शब्द
मुझे आते हैं पता नहीं
अंग्रेज़ी के कितने शब्दों की
वर्तनी मुझे ज्ञात है
उर्दू के कितने शब्दों का
सही उच्चारण मैं कर लेता हूँ
क्या गिनती...!
मैंने तुमको
कितनी शिद्दत से
याद किया
कोई सीमा नहीं!
एक चेहरा तुम्हारा
बहुत दिन बीत गए देखा था
बहुत दिन हो गए नहीं देखा
मुझसे नहीं
किसी से भी प्यार
करके तो दिखाओ
प्रमाण तो हो
तुम प्यार भी कर सकते हो
तुम्हारे लिए
पहले एक ज़िन्दगी जी
फिर दूसरा जीवन जिया
फिर तीसरा जन्म निपटाया
और अब चौथा जो है यह
जी पाना मगर...
बहुत मुश्किल हो रही है
यह ज़िन्दगी
दो कुत्ते सड़क पर
आपस में लड़ रहे थे
राहगीरों ने
कोई अदालत नहीं बैठाई
किसी का पक्ष नहीं सुना
दोनों पर बराबर से
पत्थर चलाए
चलती रहनी चाहिए
बातें
हालाँकि इनसे
कुछ भी होना नहीं है
ज़्यादा कुछ मैं
नहीं जानता
मैंने सिर्फ़
इंसानियत सीखी है
चाँद
बच्चे वही चाँद माँगते हैं
बच्चे समस्या हैं।
बच्चे समस्या हैं इसलिए
क्योंकि वे ऊँच-नीच, भेद-भाव
नहीं समझते नादान
बड़े होकर वे भी एक रोटी
एक कमीज़ में गुज़र करना सीख जाएंगे
पर अभी तो सभी बच्चे वही
एक ही चाँद माँगते हैं
आकाश का
क्या सबके साथ
ऐसा होता है
या
यह मेरी ही समस्या है
मुहब्बत में
बिल्ली को
ट्रेफ़िक नियम
मालूम न था
उसने मेरा
रास्ता काटा।
कुचली गई,
बेचारी!
वही कल्पनाएँ
वही चाहतें
वही कोशिशें
वही ख़ूबियाँ
वही ख़ामियाँ
नर नारियाँ
एक साधारण सी मौत
मेरे पास आकर
कितनी विशिष्ट बन गई
देखा तुमने!
तुम भी कुछ बातें
गोल कर जाया करो
ईश्वर ने तो
पूरी दुनिया ही
गोल कर रखी है
मुझे
सीढ़ी चढ़ती औरतों की
मुद्रा, भंगिमा, सम्पूर्ण दृश्य
बहुत मनभावन लगता है
मेरी कामना होती है
औरतें सीढ़ियाँ चढ़े
और मैं उन्हे देखूँ
ज़ंजीर
मेरे मकान के दरवाज़े पर
पुराने किस्म की कुण्डियाँ लगी हैं
कोई कुण्डी दाहिने से उठाकर
बाँए लगानी पड़ती है
तो कोई बाँए से उठाकर दाँए
और इसमें मुझसे ग़लती हो जाती है।
किसी ज़ंजीर को खोलने के लिए
दाहिने हाथ बढ़ाता हूँ
तो पता चलता है मुझे
बाँए टटोलना चाहिए
और किसी दरवाज़े पर
बाँए हाथ बढ़ाता हूँ
तो ज्ञात होता है
कि वह दाँए से बंद है
और हाँ, मुझे
उर्दू के इस ज़ंजीर शब्द की
वर्तनी ठीक से कभी नहीं आई
कई बार याद किया, अभ्यास किया
पर बार बार भूल जाता हूँ
कि मुझे किस ‘ज’ के नीचे
हिन्दी की बिन्दी लगानी है
बुलाया तो बुद्ध ने
कितने लोग आए
वह ख़ुद विदेश भाग गए
बुलाया तो कबीर ने
कितने लोग साथ हुए?
वह मगहर में मर गए
चेले खंजरी बजाने लगे
मैं ऐसी ग़लती नहीं करूँगा
मैं किसी को नहीं बुलाऊँगा
मेरे आँगन में
तेज धूप तो
उतर आई
मगर रोशनी है
कि उसका कुछ
पता ही नहीं
हम केवल
अपना नाम, अपना ही नाम
ऊपर या नीचे,
अग़ल या बग़ल
लिखते हैं,
दरअसल हम
कविता, कहानी-लेख
कुछ नहीं लिखते
अपना नाम
लिखने के पूर्व या पश्चात्
कुछ तो दिखाने के लिए
लिखना ही होता है
कितना बड़ा कितना छोटा
मैं सोचता हूँ
कि मैं महान् बनूँ
पर इतना महान्
मैं नहीं बनना चाहता
कि कोई कमज़ोर व्यक्ति
मुझ तक पहुँचने में हाँफ जाय
मैं सोचता हूँ मैं छोटा बनूँ
पर यह तो बहुत
छोटी बात हुई
मैं सोचता हूँ
कि मैं छोटा बनूँ
तो बस इतना
कि मेरे सामने
कोई अपने आप को
छोटा तो न महसूस करे
और बड़ा भी
बस उतना ही
कि कोई भी
मुझे सीढ़ी बना कर
ऊँचाइयों को
छू सके
मुझ पर पैर रख कर
अपने जूतों के
फीते बाँध ले
तुम्हारे आने का स्वागत
तुम अगले महीने
मुझसे मिलने
आ रहे हो न,
आओ,
स्वागत है तुम्हारा
लेकिन तुम्हें
कोई अचम्भा, अचरज
कोई दुख या हताशा न हो
इसलिए बताए देता हूँ-
तुम यह देखकर
निराश न होना
कि मेरी आँखें
धँसी हुई नहीं हैं
कपोल मे गड्ढे नहीं हुए
शरीर अस्थिपंजर नहीं बना
तुम्हारे वियोग में
मैंने बाल नहीं
बढ़ाए हुए हैं
शराब पीना भी
नहीं शुरू किया
पागल होना तो बहुत दूर
उल्टे और
चेतन्य हो गया हूँ
तुम यह जानकर
भौचक मत होना
कि मैं एक औरत का
एक आदर्श पति हूँ
एक बच्ची का स्नेही बाप
और एक लड़के का
जिम्मेदार पिता हूँ
मैं दोनो जून
खाना खाता हूँ
ढंग के कपड़े पहनता हूँ
और दफ्तर में
अपनी ड्यूटी
बखूबी बजाता हूँ
कहीं मेरी ज़िन्दगी में
तुम्हारा कोई हस्तक्षेप
तुम्हें नज़र नहीं आएगा
यह पाकर तुम
हताश मत हो जाना
अपने सौन्दर्य का
आत्मविश्वास
कहीं खो मत देना
हाँ तुम चाहो तो
यह अन्तर्कथा जानकर
खुश हो सकती हो
कि मेरे जीवन में
जो उत्साह और कर्मठता है
मेरी आँखों में जो
रौनक़ है
जो रोशनी है
वह उसी समय की
कौंधी हुई है
जो अभी तक विद्यमान है
जब मैंने तुम्हे
बहुत पहले
बिल्कुल पहल पहल देखा था
मेरे सामने पार्क में
बेल के पेड़ को
छिनगाया जा रहा है
बिल्व पत्रों के लिए
जिन्हें माली-व्यवसाइयों के जरिए
श्रद्धालुओं द्वारा खरीदा जाकर
शिव जी को चढ़ाया जाना है
अब इस के आगे
कविता को आगे बढ़ाना
कविता की बलि चढ़ाना है
कामरेड!
तुम्हारी राजनीति
तो देख ली
अब बताओ
तुम्हारा धर्म क्या है?
मैं मारा जाऊँ
तो यह मेरी
दुष्टता का परिणाम है
मैं मारूँ तो
यह मेरी दुष्टता है
कुछ निष्पक्ष हिन्दू
सेक्यूलर होते होते
मुसलमान हो गए
कुछ सेक्यूलर हिन्दू
निष्पक्ष होने की
कोशिश में
हिन्दू हो गए
लड़ाई जारी रही
हिन्दू मुसलमान की
तुम्हारा दुश्मन लकड़ी के डिब्बे में
सिर्फ़ कोकाकोला नहीं भेजेगा,
वह तश्तरी में सजाकर
कुछ मूर्तियाँ भी भेजेगा
ईश्वर बता कर
वह हर सू कोशिश करेदा
कि तुम उसे अपने मन्दिरों में प्रतिष्ठित करो
उसकी रक्षा के लिए
जान देने और लेने पर
आमादा रहो
और दाता के गुण गाओ
जिससे उसका कोकाकोला बिक सके
और वह ख़ाली बोतलों में
तुम्हारा ख़ून भरकर ले जाएँ
याद रखना
मूर्तियाँ देने वाले
मूर्तियाँ तोड़ने वालों से
ज़्यादा ख़तरनाक हैं
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