* दर्शन हिन्दू - दर्शन मुस्लिम
उसने तो मूर्तियाँ बना दीं
हमारी , पृथ्वी की ,
चाँद -सितारों की .
अब हमसे कहता है
मूर्तियाँ मत बनाओ
हम समझ सकते हैं
उसकी मजबूरी
क्योंकि वह स्वयं
न धरती है ,न आसमान
न पहाड़ ,न नदी
न जंगल न रेगिस्तान
न हवा, न पानी
वह जो है लगभग
ना के बराबर है
बल्कि ना ही है
वह नहीं है कोई
इसे नास्तिक जानता है
लेकिन , कुछ न होना भी
होना ही है
इसलिए वह है ,
इसलिए वह नहीं भी है
इस बात पर आस्तिकों को भी
सहमत हो जाना चाहिए
अब , जो उसकी मूर्ति बनायें
तो वह मूर्ति
उसकी नहीं होगी
'ना' की होगी
और ना की , दर असल
कोई तस्वीर नहीं बन सकती ;
इसे इस्लाम न जाने कब से
जाने बैठा है
किन्तु उसे मूर्ति पूजकों की भी
मजबूरी समझनी चाहिए
और ईश्वर की भी लीला पर
ग़ौर करना चाहिए
कि जब ईश्वर ने निराकार होकर भी
आकृतियों को जन्म दिया
तो आकृतियाँ साकार होकर
निराकार को आकर
क्यों नहीं दे सकतीं ?
या ,यदि देना चाहें तो
उनकी क्या गलती ?
दोनों दर्शनों के बीच
यही समझदारी है ,
यही एकता है
कि दोनों सामान रूप से
एक दूसरे को नहीं समझते
अतः , ईश्वर के बारे में
बराबर से नासमझ हैं ##
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें