उग्रनाथ'नागरिक'(1946, बस्ती) का संपूर्ण सृजनात्मक एवं संरचनात्मक संसार | अध्यात्म,धर्म और राज्य के संबंध में साहित्य,विचार,योजनाएँ एवं कार्यक्रम @
शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2011
इतिहास
* मेरा यह विचार बना है कि नया जैसा कुछ होता नहीं है । कुछ भी नवीन घटित नहीं होता । सब पुराने की पुनरावृत्ति होते है | मैं तो सरेआम कहता हूँ कि मैं जो कवितायेँ लिखता हूँ , वे पहले लिखी जा चुकी हैं और कई कई बार लिखी जा चुकी हैं । मैं भी दुहराता हूँ , जैसे इतिहास अपने को दुहराता है , भले बिल्कुल उसी रूप में नहीं । इसी को भले आप अपनी नवीनता का भ्रम बना लें । पर यह मूलतः हमारा आपका दोष ही होगा । इसलिए मैं समाज बनाने का स्वप्न नहीं ढोता । न मैं नया ईश्वर बनाना चाहता हूँ , न कोई नया धर्म । जब कि ये सब सड़ गल कर अनुपयोगी , निरर्थक हो चुके हैं । यह भी तो हो सकता है कि नया और भी अनर्थकारी हो ? तिस पर भी देखें , शायद यही कारण है कि तमाम सदाशयता पूर्ण प्रयासों के बावजूद मानववाद नामक घर्म वजूद में नहीं आ सका । हम कुछ भी बनाएँगे वह पुराने का ही प्रतिरूप हो जायगा । जनता यूँ भी नवीनता से बहुत भय खाती है । इसीलिये दुनिया के सारे मजदूर एक नहीं हो सके , न दुनिया में साम्यवाद स्थापित हो सका । जहाँ कुछ दिन के लिए आया ,वहां से वह कुछ दिन बाद विदा भी हो गया । मैं आश्वस्त हूँ कि मैं कुछ भी नया नहीं कर रहा हूँ , न कुछ नया करने का विचार रखता हूँ । बस पुराने को दुहराता जाता हूँ । वह मेरा कर्तव्य है । मैं मान चुका हूँ कि जितना कुछ बन चुका है वह पर्याप्त है मनुष्य को बिगाड़ने के लिए , वे ही पर्याप्त हैं फिर से मनुष्य को बनाने के लिए । ##
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