शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011

कश्मीर

मुसलमानों का जनमत संग्रह
* प्रशांत भूषण पर हमले से एक संकेत तो मिलता ही है कि अभी तो जनमत संग्रह [ Plebiscite] की बात है यदि कहीं कश्मीर इन लोगों की मूर्खता से सचमुच भारत से निकल गया तब हिंदुस्तान के मुसलमानों की क्या दशा होगी , और साथ ही , इन लोगों की भी ? राजनीति और देश का मामला इतना सीधा नहीं होता जैसा ये बयान कर देते हैं कि जो , जो कुछ मांग रहा है उसे वह दे दो | क्यों दे दें ? कौन हैं लोग जो अलगाव चाहते हैं ? उनके अलग होने से हमें , हमारे देश को क्या मिलेगा ? कहीं पड़ोस से स्थायी अशांति तो नहीं ? बंगला देश बनने से हमें क्या मिला ? उसे भारत में ही रखना था पूरी आज़ादी देते हुए | भले मुजीब या अब हसीना तब पूरे हिन्दुस्तान की प्रधान मंत्री होतीं | राष्ट्र का काम काज लुंज पुंज होने से नहीं चलता | डिमोक्रेसी में थोड़ा तानाशाही का रंग होता है तभी डेमोक्रेसी भी चलती है , अन्यथा वह अराजकता की स्थिति हो जाती है [जैसा अन्ना हजारे के आन्दोलन में किंचित निहित हुआ] | चाणक्य का उदाहरण दूंगा तो बुरा कहलाऊंगा , इसलिए चर्चिल को ही ले लीजिये | उसने अपने शासन काल में हिन्दुस्तान को आज़ाद नहीं ही होने दिया , क्योंकि वह इसे उचित नहीं समझता था | यह तो तब ,जब कि उसकी सीमायें हमसे नहीं मिलती थीं | वह एक राजनयिक [diplomat] का राजनय [diplomacy] था | इसकी हमारे नेताओं में बड़ी कमी है | ये ढीले पड़ते हैं वोट की दुहाई देकर , जब कि इन्हें वोट , जन समर्थन इनकी इसी ढिलाई के कारण नहीं मिलता , और इनकी हालत दो कौड़ी की हो गयी है | एटली ने भी , उग्र राष्ट्रवादी क्षमा करेंगे , भारत को आज़ादी कोई हिंसक - अहिंसक आंदोलनों , सुभाष -गाँधी- भगत सिंह से भयभीत होकर नहीं दी | उन्होंने भारत को आज़ादी तब दी जब उनका हित यहाँ नहीं रह गया था , और उनके लिए हिंदुस्तान पर राज्य करना खर्चीला लगने लगा था | तिस पर भी उन्होंने भारत को आज़ाद अपनी शर्तों पर किया | एक पाकिस्तान तो बनवा ही दिया | इसे आप बांटो और राज करो [divide and rule] कहकर टालना चाहें तो टाल दें , पर इसी को राजनीति कहते हैं | तो फिर कोई , किसी भी देश का राजनीति का साधारण सा छात्र बता दे कि हम अपने बगल में एक दुश्मन इस्लामी राज्य के रूप में एक स्थायी आस्तीन के सांप , कश्मीर को क्यों पालना चाहेंगे ? अब हमारे देश की ही सिविल सोसायटी इसके लिए भारत राज्य को विवश कर दे तो बात और है , पर ख़ुशी ख़ुशी तो हम अपने पैर पर कुल्हाड़ी नहीं मारेंगे | अभी पकिस्तान क्या कम सर दर्द है | ये बुद्धिजीवी , आखिर कोई सबक क्यों नहीं लेते | ये पकिस्तान से भी प्रेम करने को कहते हैं , जैसे अभी कश्मीर के लिए भूषण जी कह गए | पर कैसे रहे प्रेम के साथ , उसके साथ , जो निरंतर हर मुद्दे पर हमसे दुश्मनी रखता हो ? प्रेम से रहना होता तो वे अलग ही क्यों हुए होते ? वहां तो तानाशाही जैसा इस्लामी राज्य है , यह भूषणों - पद्म विभूषणों को समझना चाहिए | ऐसे राज्य से विश्व को विमुक्त करना भी उनके कर्तव्य की सीमा में है | और इधर हम घोषित रूप से सेकुलर , समाजवादी , प्रजातान्त्रिक देश हैं | तो जिसे हिंदुस्तान जैसे खुले मिजाज़ के देश में रहने में परेशानी हो , उसे लोकतंत्र क्या मनुष्यता का दुश्मन समझने में हमें कोई देर नहीं करनी चाहिए |
तो कहना यह था कि कश्मीर जाय , और अभी तो यह वह नामक सेना के तीन तेरह गुंडों ने मारपीट की , यदि कहीं पूरा देश गुंडई पर उतारू हो जायगा तो उसकी ज़िम्मेदारी किस पर होगी ? अतः बयान भी , हम यह तो नहीं कहेंगे कि उसे भी sedation , राष्ट्र द्रोह के दायरे में लाया जाय पर , तनिक सजीदगी से दिए जायं | मुसलमानों के प्रति एक बड़ी ज़िम्मेदारी राष्ट्र राज्य और इसके बुद्धिजीवियों पर है | यह समझते हुए कि उनकी जिंदगियां खतरे में पड़ जायंगी , पड़ सकती हैं , कश्मीर को और फिर महादेश की भलाई और तरक्की के लिए पाकिस्तान को भी वापस हिंदुस्तान में लाने की राजनयिक कोशिशें की जानी चाहिए | ये सीमायें स्थायी नहीं हैं , बनावटी हैं , खासकर हिंदुस्तान - पाकिस्तान की | अभी ६४ साल पहले जब यह लकीर नहीं थी तो क्या हम अमन चैन से नहीं थे ? या फिर किसी विदेशी शासन की ज़रूरत होगी इन्हें एक करने के लिए ? क्या हम में यह स्वतंत्र माद्दा नहीं बन सकती ? चलिए नहीं सही , पर जो बचा है उसमे विष के बीज तो न बोइये |
अभी मुसलमानों के तमाम संगठन जो बाबरी मस्जिद , पर्सनल ला , मदरसे और डेनमार्क के कार्टूनिस्ट के सर के लिए लड़ रहे हैं , वे ज़रा इधर भी ध्यान दें | कश्मीर से उनका भारत में भविष्य तय होना होगा | बल्कि यह समस्या सुलझाने के लिए क्यों न उन्ही से कह दिया जाय , जिससे यह स्वयं अपना भविष्य चुन लें ? जनमत संग्रह केवल कश्मीर के ही क्यों , पूरे भारत के मुसलमानों का क्यों न करा लिया जाय ? लेकिन तब , याद रहे , यदि कश्मीर को भारत से वे निकाल लेगे तो फिर शेष भारत में एक भी मुसलमान नहीं रहेगा | १९४७ की गलती बार बार भारत दुहराए यह ज़रूरी तो नहीं ? अब गाँधी सरीखा नेता भी नहीं कोई ! उस दशा में यदि जिन्ना उधर होंगे , तो जिन्ना ही इधर भी होंगे | ##

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