[कविता ]
* सतह पर तों मैं
बस साँस लेने आता हूँ
फिर डूब जाने के लिए
अतल गहराइयों में |
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अब तों चमार बाभन हो गए / हो रहे हैं ! धन -संपत्ति सत्ता में , ज्ञान विज्ञानं में ! फिर वे अपना चमरपन क्यों नहीं छोड़ पा रहे हैं ?
प्रकृति की संरचना गृह नक्षत्र अग्नि वायु स्त्री -पुरुष शरीर लिंग योनि Labia majora / minora संतानोत्पत्ति की पूरी प्रक्रिया , पाचन -उत्सर्जन प्रणाली देखकर मनभावन आश्चर्य तो होता है, इनमें मग्न भी रहता हूँ, पर मैं " ईश्वर " का होना कदापि नहीं मानता, मान सकता | मैं तार्किक - वैज्ञानिक मानस से प्रकृति को तो मानता हूँ , पर कोई यह कैसे कह देता, कह सकता है कि उसका नाम ईश्वर है ? कैसे जान गए उसे , जब वह अग्गेय है | क्या खूब ? वह किताबें लिख सकता है , अरबी फारसी संस्कृत वगैरह भाषाएँ बोल सकता है ? मजाक बना रखा है , जिसको देखो वही एक ईश्वर लेकर चला आ रहा है , कहता है इसे मानो | फिर कोई दूसरा | और वे उसके नाम पर धर्मों के दुर्ग , किले , सेनाएँ बनाकर मनुष्यों को आपस में लडाते हैं | अतः मैं कुदरत को भगवानों से रिप्लेस करने के सख्त खिलाफ हूँ - ईश्वरों और धर्मों के विरुद्ध | एक मामूली एतराज़ से मैं उसका होना खारिज करता हूँ | यदि वह कुशल आर्किटेक्ट होता और जिंदा होता [ लगता है मर गया ] , तो मनुष्यों के शरीर पर इतने बाल तो न उगाता अनावश्यक , जिन्हें काटते छाँटते साफ़ करते आदमी और औरतों का बहुत सारा धन , शक्ति और समय निरर्थक व्यय होता है | ईश्वर ने कान के पास मोबाईल रखने के लिए थैली नहीं बनाई |
* सब्जी मंडी में ट्रैफिक नियम नहीं लागू होते |
* लडकियाँ जानें , लड़कियों का काम जाने ! उन्हें भी अपनी सुरक्षा का कोई प्रबंध करना चाहिए , ज़िम्मेदारी उठानी चाहिए |
* गाँधी ने दलितों को हरिजन क्या कह दिया कि वह आधी सदी से दलितों की गाली - फटकार - दुत्कार सह रहे हैं | अभी आधी शताब्दी और अपमानित किये जायेंगे वह | लेकिन जिन्होंने जनता को जनता जनार्दन कहा , उसे कोई नहीं पूछता | ईश्वर को दरिद्र नारायण किसने नाम दिया ? पकड़ो उसे , मारो |
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गीत -ग़ज़ल -कव्वाली
[इसे जो गाकर पढ़ेगा , मज़ा पायेगा ]
" औरतों की तरह "
ग्रुप बनाया जो तुमने सभी के लिए ,
HOST क्यों कर रही औरतों की तरह ?
यह गले में फँसा तुमने क्या भर दिया ,
TOAST में चूड़ियाँ औरतों की तरह ?
कुछ तो जलने की बू है किचन से उठी ,
Roast क्या कर रही औरतों की तरह ?
बात कुछ भी गले से उतरती नहीं ,
POST क्या कर रही औरतों की तरह ?
शक्ल से बद हूँ मैं फिर भी क्यों तुम मुझे '
LIKE MOST कर रही औरतों की तरह ?
GHOST बनकर तुम्हारे मैं पीछे पड़ा '
DOST कुछ तो करो औरतों की तरह ! :-) :=]
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मैं समझ नहीं पाया | इसमें क्या हर्ज़ था जो रमाबाई , महामाया के नाम पर जिलों के नाम रखे गए ? भले उन्होंने स्वयं कुछ नहीं किया , पर जो उनके पति या पुत्र ने किया , उसमे सचमुच उनका कोई हाथ नहीं था ? क्या उन्हें कोई श्रेय नहीं मिलना चाहिए ? क्या समस्त सम्मान के हकदार पुरुष ही हैं जो समाज में प्रत्यक्ष होतें हैं ? उन पुरुषों को बनाने वाली पृष्ठभूमिश्च, यवनिका के पीछे अपना जीवन होम करने वाली औरतों के सम्मान पर एतराज़ क्यों ?
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* मैं एक मनुष्य हूँ
जिसके पास
न शरीर है न अशरीर है
न भाव है न अभाव है
न विश्वास है न अविश्वास है
न धर्म है न अधर्म है
न ईश्वर है न अनीश्वर है
न लोक है न परलोक है
न शून्य है न कोष है
न शब्द है न निशब्द है
न स्वर है न तो मौन है
न आत्मा न परमात्मा
न व्यक्ति न व्यष्टि
न आस्था न अनास्था
न धैर्य है न अधैर्य है
न गति है न विराम है
न प्रकाश है न विभावरी
न तो देवता न तो दुष्ट है
है तो है ये जो मनुष्य है
क्या पता मनुष्य है ? ?
# # 26/7/12
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[ कविता ] ?
* कुछ बातें कहने के लिए नहीं होतीं
कही नहीं जा पातीं
उन्हें कहने से कोई फायदा नहीं होता
जैसे पाकिस्तान के बारे में
हिन्दुस्तान के बारे में
कश्मीर के बारे में
बंगला देश के बारे में
भारत में मुसलमान
और पाक में हिन्दुओं के बारे में
फिर ,
दलितों के आरक्षण
ब्राह्मण के अवशेष के बारे में
स्त्री स्वातंत्र्य पर
मानव अधिकारों , माओवाद पर
अन्ना आन्दोलन के विषय में
बूढ़े की जान लेते गुंडों के खिलाफ
उगती अट्टालिकाओं ,
बरक्स झोपड़पट्टीवासियों पर
अख़बारों में छपी ख़बरों , तस्वीरों पर
बुद्धिजीवियों की बहसों के बीच
कुछ भी बोलने से अच्छी है आत्महत्या
और हाँ , बिल्कुल नहीं बोला जा सकता
पार्क में चिपके लड़का लडकी
और डंडा फटकारते आ रहे सिपाही
के बारे में | तो फिर , आखिर
कहा क्या जा सकता है ?
किस के बारे में बोला जा सकता है ?
मैं बोल ही क्यों रहा हूँ
जब सारी बातें
मन में ही रखने की होती हैं ?
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यद्यपि यह ग्रुप के मिजाज़ के अनुरूप नहीं है , फिर भी क्षमा याचना सहित एक छोटी सी भाव- कविता - एडमिन इसे पढ़कर लुप्त कर दें |
* मैं वैज्ञानिक सोच
का आदमी हूँ,
और यकीन मानिये
अंधविश्वासी तो
मैं बिलकुल नहीं ,
लेकिन मेरी इच्छा है
कोई छोटी सी लड़की
मेरी कलाई पर
कच्चा धागा बाँध दे,
और मैं उसके लिए
अपनी जान दे दूँ | #
* जो अपंग न हों , और अपंगता का आरक्षण लाभ उठा रहे हों , उनका पैर तोड़कर उन्हें अपंग बना देने में क्या कोई बुराई है ?
* इस जातिविहीन युग में भी मैं कभी जाति देखकर आदमी का मूल्यांकन करता हूँ , वह प्रायः लगभग सही ही होता है | जैसे अपने कायस्थ भाइयों को अत्यंत स्वार्थलिप्त पाता हूँ | और डरपोक तो, लगता है मैं भी पर्याप्त हूँ | 25/7/12
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* बहुत से काम हैं जो ब्राह्मणों को करने चाहिए , पर वे नहीं करते | बहुत से काम हैं जो दलितों को नहीं करने चाहिए , पर वे करते हैं | हम क्या करें ? ब्राह्मणों का ब्राह्मणपन और दलितों का दलितपन उनके मार्ग में बाधक हो जाता है | अब इसे तो वे ही पार करेंगे !
मित्रों को धन्यवाद, बात पर ध्यान देना के लिए , जिसकी मुझे उम्मीद न थी | और इसीलिये मैं मूल विचार एक दो लाइनों में ,अस्पष्ट सही, लिख देता हूँ जिसे मेरे विद्वान् साथी विचारक अपनी ओर से समझ लेते हैं | लेकिन चूँकि नया हूँ , इसलिए एक पंक्ति और जोड़ दे रहा हूँ , जिसे मैंने केवल अपने समझने के लिए बचा रखा था | ब्राह्मणों को ईश्वर पर विश्वास / अन्धविश्वास से बचने , उसकी पूजा पाठ न करने, मंदिर न जाने / आने का उपदेश देना चाहिए | इसे वही करेगा तो प्रभावी होगा क्योंकि यह छल - छद्म उसी का फैलाया हुआ है | दलितों को ब्राह्मण की ब्रह्मा के पैर से पैदा होने वाली बात नहीं माननी/ स्वीकार करनी चाहिए , मनुस्मृति नहीं पढ़नी चाहिए | ब्राह्मण को गाली भी नहीं देनी चाहिए | - आगे ज्यादा स्पष्टीकरण असंभव है |24/7/12
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आप की बात मूलतः सही है और बिलकुल सही है | लेकिन बातों की शाखाएं भी तो होती हैं | अब नए सिरे से सोचें | इसे अपने पूर्वजों की गलती न मानें तो भी यह तो स्पष्ट है कि उनकी हालत खस्ताहाल तो है | उनके नेताओं के काम भी न देखें | तो हमें उन्हें पूर्ण मनुष्य का दर्ज़ा तो देना और दिलाने के लिए कृतसंकल्प होना पड़ेगा , भले उसमे अपना निजी या अपनी जाति का कुछ नुकसान भी हो | अतः वंचितों के लिए आरक्षण देने में कोई बुराई नहीं है , उनका कुछ ख़ास हिस्सा अलग कर देने में | जैसे हम एक ही घर में बच्चों के लिए , गर्भवती स्त्रियों के लिए , वृद्धों और बीमारों के लिए कुछ ख़ास खान- पान की व्यवस्था करते हैं , भले घर में कितनी तंगी और गरीबी हो | जैसे माँ अपना भूखी रहकर भी बच्चों को खाना दे देती है या नहीं ? इसी तरह भारत को अपने दलितों के लिए भारत को माँ की भूमिका निभानी है | इसमें दुसरे क्या कर रहे हैं क्या नहीं यह न देखकर इसमें हमें उनकी मदद करनी चाहिए | और शेष यदि मनुष्य और मनुष्यता के प्रति प्रेम के अंतर्गत सोचेंगे तो सारे संदेह दूर होते जायंगे और आप कोई रास्ता निकाल लेंगे | हाँ पीढ़ियों का बदला भी कुछ न कुछ चुकाना ही पड़ता है | मुसलमानों , अंग्रेजों से आज हम खफा हैं तो क्या सारे मुसलमान गुनहगार हैं? फिर क्या आप समझते हैं , यदि हम दलितों का पक्ष ले रहे हैं तो उनसे उनकी बातों , उनकी राजनीती से सहमत हैं ? नहीं ,| लेकिन हम तो ऋषि दधीच की तरह अपनी कुछ सुविधा , अधिकार उनकी भलाई के लिए छोड़ रहे हैं , स्वान्तः सुखाय | आपने प्रेम से पूछा तो मैंने कुछ लिखने की धृष्ट की , यदि कोई बात पसंद न आई हो तो क्षमा करेंगे | ये कोई अंतिम बात तो है नहीं , विचार चलते रहने चाहिए |
[ On the wall of Ravindra Mothsara 24/7/12]
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24/7/12 – “ पीट – पीट कर मार डाला ” - ऐसे समाचार आजकल लखनऊ में बहुत हैं | कभी बूढ़े को , कभी अकेली बुढ़िया को निर्दयता पूर्वक | बड़ा गुस्सा आता है | मन कहता है पुलिस वालों से कहूँ कि ऐसों को पकड़ कर , दौड़ा दौड़कर पीट - पीट कर मार डाले |
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मैं जिलों , सड़कों ,पार्कों , संस्थाओं के नामों की अदला बदली के सख्त खिलाफ हूँ | क्या मैं परिवर्तन विरोधी हूँ ? नहीं , मैं इसे परिवर्तन के काम में बाधा मानता हूँ | यह एक निरर्थक , नकारात्मकऔर फ़िज़ूल का काम है | कोई सार्थक काम तो है नहीं इनके पास और कुछ मेहनत का काम न करना पड़े तो इन नामलोभी नेताओं के लिए बहुत आसान होता है , कुछ नामपट बदल कर फ़ौरन ख्याति कमा लिया जाय | हर्रे लगी न फिटकिरी ,लो मैंने यह तीर मार लिया | लोग कहते हैं किंग जार्ज का नाम रहने देना गुलाम मानसिकता है | मैं उलट कहता हूँ कि जार्ज का नाम हटाना और इससे यह भ्रम पालनाकि हमारी गुलामी मिट गयी, हम आज़ाद हो गए और इस तरह की अन्य कवायदें करना ही वस्तुतः गुलामी की निशानी है | कवायद ही है , इसलिए कि इससे कुछ भी हासिल नहीं होता | ऐसा करके क्या इस तथ्य को इतिहास से मिटा सकते हैं, या सत्य को झुठला सकते हैं कि भारत पर कभी अंग्रेजों का शासन था ? नहीं | तो रहने दीजिये उनकी यादगार अवशेषों को , जिससे पीढ़ियाँ उन्हें देखकर सबक लें और गुलाम होने से अपने को बचाएँ, बचाए रहने की कोशिशें जारी रखें | कभी गाफिल न रहें | मैं तो यह भी कहने का दुस्साहस रखता हूँ कि आर्य - शक -हूण तमाम तो लोग हिंदुस्तान आये ,मिटाओगे उनकी निशानियाँ ? क्या मिटा सकोगे ? तब तो खुद ही मिट जाओगे | और सचमुच मिटना ही हो तो फिर मुग़लों के स्थापत्य - कुतुबमीनार , इमामबाड़े , ताजमहल को थोडा छू कर तो देखो | वे भी तो मूलतः बाहर से आये आक्रमणकारी थे | पर इन्हें तो सजाया- संवारा- संरक्षित किया जा रहा है | किंग जार्ज का नाम हटाया जा रहा है क्योंकि अंगेज़ यहाँ नहीं हैं | उन्हें जो कुछ करना कराना था कर के चले गए, कोई ज़मीन उठाकर नहीं ले गए | मुग़ल यादगारें इसलिए आदरणीय हैं क्योंकि मुसलमान यहाँ हैं और बाकायदा हैं | क्या यह सोच गुलामी की सोच नहीं है ? यह किसी तर्कशील , न्यायप्रिय , स्वतंत्रमना , लोकतान्त्रिक ,समतावादी समाज की नीति तो नहीं हो सकती | भाई , सबको सामान दृष्टि से देखो , और जो अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए उपस्थित नहीं है उस पर मौत का फरमान न जारी करो | और यदि मारने का ही निर्णय हो चूका है तो सबको मारो जो दोषी रहे हैं |
इसलिए मैं मायावती जी द्वारा जार्ज या पुराने जाने माने , उसी नाम से प्रतिष्ठित संस्थानों के नाम बदले जाने के खिलाफ था | सच थोड़ा कड़वा हो जायगा , लेकिन यह उनकी हीनभावना का द्योतक और नतीजा था | लेकिन फिर अब, जब उसका नाम बदला जा चुका था उसे फिर बदलने का कोई औचित्य नहीं है | कल और कल , कोई और कोई और आयेंगे और कोई रिक्शावाला भी मरीज को सही अस्पताल नहीं पंहुचा पायेगा | प्रश्न है ,यह सिलसिला कब तक चलेगा , कहीं विराम लगेगा या नहीं ? अरे भारत भाग्य विधाताओ, कुछ नया बनाओ तो उसका नया नाम कुछ भी रखो , पुराने से क्यों छेड़- छाड़ करते हो ? इस सम्बन्ध में कोई नए राष्ट्रीय नीति बननी चाहिए | नहीं तो ये देश -प्रदेश के भी नाम इतनी बार बदलेंगे कि उन्हें पहचाना ही न जा सकेगा | असंभव नहीं कि अपने माता पिता के भी | मेरी तो माँ निहायत साधारण गैर महत्व पूर्ण महिला थीं | मैं उनका वही नाम कायम और याद रखना चाहता हूँ जो देहातीपन , अनपढ़पन का शब्द है | गाँव पर मेरे स्कूल का नाम उसी के नाम है , और उस पर मैं अपनी गरिमा की पहचान टिकाने में गर्व महसूस करता हूँ | ऐसा बिलकुल भय नहीं लगता कि कहीं मैं दकियानूस न माना जाऊँ ? माना करे कोई | हाँ, यह भी हो रहा है कि कुछ नए प्रशासनिक अफसर अपनी देहाती पत्नी को गाँव छोड़ आये हैं और नयी आधुनिक शादी कर ली है | मुझे गर्व है कि मेरी अशिक्षित देहाती पत्नी मेरे साथ है | मैंने उसका नाम तक नहीं बदला , और कुछ लोग कहते हैं , मैं "कवितायेँ अच्छी कर लेता हूँ" |
मैं लोकतान्त्रिक मानस के स्थायित्व का पक्षधर हूँ | मेंढकों का कूद- फांद मुझे अच्छा नहीं लगता | स्वतंत्रता के छद्म मानकों और स्मारकों में मेरा मन नहीं लगता | सचमुच मैं अभिभूत हो जाता हूँ यह सोचकर कि यदि आप 10 , डाउनिंग स्ट्रीट के पते पर एक पोस्टकार्ड भेज दें तो वह श्रीमती मार्गरेट थैचर के पास नहीं ब्रिटेन के प्रधान मंत्री के पास पँहुचेगा | # #
- उग्रनाथ नागरिक - (अनीश्वर भारतीय) २४/७/१२
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