[ उवाच ] -
* सारी इच्छित वस्तुएँ तो स्वर्ग में ही प्राप्त हो सकती हैं - मनमर्जी का
दूल्हा या दुल्हन अथवा अन्य सुख -सुविधा और उपभोक्ता सामग्री | इस दुनिया में चयन
की असीम सुविधा नहीं है | जी, मजबूरी का नाम है -' ज़िन्दगी ' |
* मूर्तियों , मंदिरों -मस्जिदों की संख्या जितनी कम होगी , आध्यात्मिकता उतनी बढ़ेगी |
[ कविता जैसी ] -
* प्रश्न चिन्ह
नहीं अकुलाते
उत्तर
कैसे मिलेंगे ?
- - - - - -
यूँ तो भेद -विभेद
व्यक्तियों , संगठनों ,जातियों ,सरकारों में भी होते हैं , पर धार्मिक सम्प्रदायों का मामला कुछ अलग है | वहाँ
काल्पनिक दुनिया के प्रति रूढ़ समर्पण है | इसलिए धर्म हैं तो कटुता सुनिश्चित है | क्या कहें इसे ईश्वर का कमाल ? तो ईश्वर के प्रति आस्था को जटिल नहीं poetic - काव्यात्मक बनाना होगा | धर्मों को जाना होगा | मेरे प्रस्ताव के अनुसार यह सब नास्तिक
-व्यक्तिवादी मानव चेतना के उभार से ही संभव है | मेरा अच्छा तुम्हारा बुरा , या मेरा बुरा उनका अच्छा से तो यह जाने से रहा | किसी भी आध्यात्मिक विचार का भी [ जैसे कि यही
मेरा ही ] संगठन बनना घातक होगा |
आज़ादी तो ६० साल
की औरत को भी नहीं है , न शायद मर्द को ही
| होनी चाहिए - मेरा
आशय था | मेरी अल्प बुद्धि
से यह काम ऊपर से शुरू होना चाहिए , फिर नीचे वह नक़ल हो जायगी | अभी यह कम उम्र वालों में लुके छिपे व्यवहृत हो
रही है , जो हम बड़े बूढ़ों
की आँखों में खटकता है | तो , प्रौढ़, प्रबुद्ध , उच्च शैक्षिक -सामाजिक स्तरीय , शीर्ष स्वतंत्रता प्रेमियों को एक वृहद् मैत्री
अभियान बेहिचक चलाना चाहिए , तभी शुचिता का दुर्ग ढहना संभव है | ऐसा होगा , मुमकिन नहीं दिखता , क्योंकि ये लोग भी तो उन्ही संस्कारिक
पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हैं - औरत उपभोग की वस्तु है उससे दोस्ती कैसी, उसके प्रति वफादारी क्यों ? और यह लो , हम पुरुष को मित्र कैसे बनायें जो हमें 'बदनामी' देता है , संबंधों के प्रति गंभीर नहीं होता , केवल शोषण करता है ? ऐसे तो नहीं चलेगा | " पक्का है विश्वास " परिवर्तन लता है | " किसी के चरित्र पर कीचड़ न उछालें , किसी के चरित्र को उसकी यौनिक सक्रियता [ Sexual
Orientation } से न आँकें " - यह मेरे दृढ़ सिद्धांतों
में है , और मैं इसका
प्रचार करता हूँ |
हाँ , लिखना भूल गया कि मैत्री ७० साल के बूढ़ों में
तो सम्प्रति , अविलम्ब संभव है , जिनमे यौनिक "अपराध" संभव ही नहीं ? आखिर समाज का नजरिया किसी प्रकार धीरे धीरे
बदलना शुरू तो हो ? स्वतंत्र संबंधों
को स्वीकार करना सीखे तो !
अभी विचार =
* कर्मठ व्यक्ति से
कोई सैद्धांतिक झगड़ा करके जीत पाना मुश्किल है |
* आदमी अच्छा होना
चाहता है , लेकिन वह क्या करे
? अच्छाई की भी तो
एक सीमा है ? उससे ज्यादा अच्छा
बन जाय तो क्या वह जी पाए ?
From th urdu Press , Indian Express July,20 /
2012. GOD PARTICLE
- - - Veteran journalist Ahtesham Qureshy in
Jadeed Khabar [July15] , writes that " the secret of creation of the
universe is still a puzzle for scientists . - - a clue to the creation is
contained in the Quran ." He quotes from Islamic scholar Maulana Abdul
Majid Daryabadi's that " before
creation , the land and the sky were joined together > Allah, with his hand
of nature created plurality in singularity and separated the sky from the land ".
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* प्रगतिशील
हों , न हों हम
बनना तो है !
* पुलिस क्या -क्या करे ? बार और वेश्यालयों पर छापे मारे, या सड़क पर महिलाओं
को सुरक्षा दे ?
* (स्मरण) : मुनि श्री रूपचन्द्र =
वाणी प्रकाशन
समाचार के जुलाई अंक में जैन मुनि आचार्य रूपचन्द्र के जीवन पर आधारित विनीता
गुप्ता के उपन्यास " हंस अकेला " पर चित्रा मुदगल का समीक्षात्मक लेख
आया तो एक पुरानी याद , जिसे मैं भूल चूका था , एकाएक बड़ी शिद्दत
से उभर आई | यह १९७३ से १९७७ के बीच का संस्मरण है , जब मैं बलरामपुर जिला गोंडा में नियुक्त था और
कविताओं एवं कवियों के वातावरण में आनंदमग्न था | तभी रूपचंद जी बलरामपुर आये थे | अब यह याद नहीं आ
रहा है कि उन्होंने कोई गोष्ठी की थी या कैसे , पर मैंने उन्हें देखा ज़रूर था | श्वेत वस्त्र में , छरहरी आकृति , गोरा छोटा सा
चेहरा और मुनि की आभा | उनके जाने के बाद कवि मित्र सुरेन्द्र वर्मा 'विमल' (स्व) ने मुझे उनके
द्वारा लिखित कविताओं की एक किताब दी | ठीक से अच्छी छपी हुई , हार्ड बाउंड | मैं उसे अविलम्ब
पूरा पढ़ गया ,क्योंकि उन दिनों पढ़ना ही मेरा काम होता था | छंद मुक्त , लयात्मक , मानवतावादी अंतर के गीत सरीखी रचनाओं ने मुझे
प्रभावित किया | ऐसा ,एक तो इसलिए कि उन दिनों कविता का मतलब छंद गढ़ना ही होता था जिससे मैं मेल
नहीं बिठा पाता था और मैं तब भी अधिकतर छंद मुक्त ही लिखता था | मेरी 'कफ़न' कविता छंद मुक्त
होकर भी अत्यधिक सराहना को प्राप्त हुई थी | दूसरे इसलिए कि मैं साहित्य और भक्ति दोनों का
सम्मिश्र था इसलिए रूप जी की छोटी छोटी भावपूर्ण , गहराई लिए हुए,कवितायेँ मेरे ह्रदय को सुग्रहीत हो गयीं | मैं उनसे अदृश्य
रूप से प्रभावित हुआ जिससे मैं अपनी जैसी कवितायेँ आत्मविश्वास के साथ लिख सका और
लिख रहा हूँ | सर्वेश्वर दयाल सक्सेना तो बाद में आये , जिनसे मैंने कविता को कविता बनाना सीखा | हाँ , याद आया -मुनि के
काव्य संग्रह का नाम था " भूमा " |
इस स्मरण -अर्पण
के साथ उम्मीद है आज का दिन अच्छा जायगा |
पर मैं आगे फेसबुक
पर कम रहकर किसी अन्य सार्थक कार्य में व्यस्त रहूँगा | 20/7/12 – 7 A.M
*इसके पहले जीवन में केवल एक और कविता किताब मिलने की याद आती है | तब बहुत छोटा था, लगभग १९६० के आस पास की बात है यह | बप्पा सायकिल पर बिठाकर फूफा के यहाँ शादी में
ले गए थे | वहाँ रिश्तेदारों
में एक कवि भी थे | उनसे उनकी किताब
लेकर पिता ने मुझे दी | पतली सी छंद बद्ध | उसकी एक कविता का एक अंश मुझे अब भी याद है और
उसे जीवन में कभी भूल नहीं सकता | सोचकर ताज्जुब होता है कि किस प्रकार बाल्यकाल
में कोमल मन पर कोई बात कितना असर कर जाती है कि वह उसकी जीवन दृष्टि बन जाती है | वह पंक्ति थी
= " गुण के ग्राहक कम न गुणी से " | और तब की बात अब मुझे इतना आक्रांत -आविष्ट
किये हुए है कि मैं लेखक से ज्यादा आलोचक - पाठक को महत्व देता हूँ | इस हद तक कि मैंने पाठकों के लिखने के लिए ही ' संपादक के नाम पाठकों के पत्रों ' की पत्रिका { प्रिय संपादक } की परिकल्पना की और तन -मन -धन से चलाया | वह कितनी सफल हुई यह और बात है ,पर इसके माध्यम से मैं अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता और अनन्य लोकतांत्रिक - सामाजिक मूल्यों में खूब शिक्षित - प्रशिक्षित
और दीक्षित हुआ | एक पुरानी कविता
के एक अधूरी पंक्ति ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई | उन सबका आभार |
*सुरक्षा , खूब मिल तो रही है फेस बुक पर महिलाओं को ! किसी लाइक ठोंकने वाली का प्रोफाइल
खोलो तो एक नवीन आश्चर्यजनक सूचना प्राप्त होती है : सेक्स- फीमेल | सही जन्म तिथि का
सवाल नहीं , ज्यादातर के चित्र भी छद्म या वह भी नहीं |
*होगा कुछ नहीं पर समानांतर बातें तो होंगी ? तो यह बात क्यों न
जोड़ दी जाए कि कारीगरों की उँगलियाँ काट
ली गयीं थीं , जिससे वे दूसरा ताजमहल न तामीर कर सकें | संदीप ने यह अच्छा सूत्र दे दिया मुझे झगड़ा लगाने ( और फिर भाग खड़े होने ) का
| पता नहीं कितने साल पहले गुरु -शिष्य के बीच
कुछ आदान - प्रदान हुआ था , उसके लिए
द्रोणाचार्य को तो इतनी गालियाँ ! जब कि उन्होंने तो कहा ही नहीं था कि उन्होंने
कुछ सिखाया , पर एकलव्य की जिद थी उन्हें अपना गुरु मानने की
| तब उन्होंने गुरु दक्षिणा माँग ली अंगूठे की | उन्होंने तब भी उसका अंगूठा नहीं काटा न किसी अन्य से कटवाया , एकलव्य ने उसे स्वयं सहर्ष काट कर दे दिया | ठीक है गुरु द्रोण
की राजनीति थी , तो उसके लिए वे लताड़े गरियाये जायँ कोई बात
नहीं | लेकिन तब अभी हज़ार वर्ष के भीतर की घटना के लिए
शाहजहाँ की निंदा में एक शब्द भी नहीं ? बल्कि उलटे उस पर
गर्व किया जाता है | ऐसा क्यों ? दलित ब्राह्मण को
तो भगाने या काट कूट कर फेंकने के लिए तो बड़े उत्साह से उद्धत हैं (इनके पोस्ट
पढ़िये ) , लेकिन इस ओर उनका ध्यान नहीं है | ये विद्रोही और प्रगतिशील क्रांतिकारी आखिर यह
क्यों नहीं सोचते कि हिंदुस्तान पर केवल ब्राह्मण ही नहीं मुस्लिम शासन भी हज़ार
वर्ष रहा है | इतिहास में उन्हें जोड़े बिना बात पूरी नहीं
होगी क्योंकि मुस्लिम जनता अभी भी
हिंदुस्तान में अपनी पूरी भूमिका के साथ
हैं | उन्हें नज़र से ओझल कर देना और ब्राह्मण जन को
हिंद महासागर में फेंक देना नाइंसाफी होगी
| यदि माना
जाये कि दलित भारत के मूल निवासी हैं और आर्य [ ब्राह्मण ] बाहर से आये , तो फ़ौरन ही गौर करना होगा कि मुसलमान तो उनसे भी बाद , बहुत बाद भारत 'किसी तरह ' आये | तो क्या समझा जाये कि दलित भी सेकुलरों की भाँति हिन्दू विरोधी और मुसलमानों
के समर्थक हो गए हैं ?अपनों पे सितम गैरों पे करम ? तो बात तो ज़रूर है मानसिकता की |
बालकीय-
ऐसे ही और भी
बातें हैं खयालाती | गुवाहाटी में कुछ लफंगों ने क्या कुछ कर दिया
कि उस बहाने सारे मर्दों पर छींटाकशी का अम्बार लग गया , इन्दोर में किसी पागल ने कहीं ताला लगा दिया तो उसका दोष सारे पुरुष समुदाय पर
| स्त्रियों द्वारा ही नहीं पुरुषों ने भी इसमें
पूरी मानवीय भूमिका निभाई | पर अगर किसी बूढ़े ने कुछ समर्थन में भी कह दिया
तो औरतें पिल पडीं - बूढ़े तो सबसे ज्यादा छिछोरे होते हैं , औरतों को फ्लर्ट करने के लिए इनका पक्ष लेते हैं | इसी तरह दलित आन्दोलन भी किसी सवर्ण को गालियों से अछूता नहीं छोड़ता भले वह
उनका अभिन्न मित्र हो | मानो यदि ये ब्राह्मण कुल में पैदा होते तो उसे
छोड़कर स्वर्ग सिधार जाते | जब कि अपने ऊपर
ब्राह्मणों द्वारा चस्पा किया गया निम्न जाति नाम स्वयं छोड़ नहीं पा रहे हैं | इसलिए हमने अब दलितों को ही सत्ता सौंपने का प्रस्ताव किया जिससे ये पूर्ण
ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो सकें |
स्त्री मुद्दे पर
भी मेरा एक मजबूत ड्राफ्ट बिल है | वह यह कि महिला के हर आरोप को सत्य और सम्पूर्ण सत्य मान लिया जाये | उन्हें कोर्ट -कचहरी -वकीलों- गवाही -सहादत से बहुत अपमानजनक स्थितियों से
गुज़ारना पड़ता है और उन्हें न्याय नहीं मिल पाता | अतः एक तो उनकी FIR को न केवल फ़ौरन दर्ज किया जाय बल्कि उसे स्वयं
सिद्ध मान लिया जाय | और भी कि उनसे यह भी निर्णय लिखा लिया जाय कि
वह दोषी के लिए क्या सजा निर्धारित करती हैं ? फिर उस निर्णय को
हस्ताक्षरित करने की बाध्यता जजों को होनी चाहिए , ठीक उसी प्रकार
जैसे भारत का राष्ट्रपति मंत्रिमंडल के निर्णयों पर करता है | और आरोपित को जुर्माना , उम्रक़ैद , फाँसी या जैसा वे कहें , दे दिया जाय | इससे कम के विधान से तो संभव नहीं है उनके सम्मान का सुरक्षित हो पाना |
तो बात तो ज़रूर
है सब मानसिकता की , जैसा संदीप जी ने कहा | और इसी से इतिहास दृष्टि बनती है |
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* मैं विचारों का
विशाल वितान
फैलाता हूँ
भावनाओं के
बादल
आसमान में उड़ाता
हूँ
और फिर ,उसमें से
एक बूँद कागज़
पर
टपका लेता हूँ |
( कविता)
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पहले मैं प्रिय
संपादक छापता [ निकालता ] था , मासिक या कुछ
मासिक | अब वह उसी प्रकार , जैसा मैं चाहता था , हर घड़ी छप -छपकर क्षण -क्षण मेरे पास आती रहती
है फेस बुक पर | मैं बहुत प्रसन्न हूँ | 20/7/12
* मानें न मानें
मैं अच्छा लिखता
हूँ
गौर तो करें !
* अच्छा आदमी
मुझे नहीं लगता
किंचित मैं हूँ |
* जा रहे लोग
दुनिया बदलने
मैं कहाँ जाऊँ ?
* किसी के पास
अपने विचार हों
दिखता नहीं |
* बाप गरीब
तो उसका साथ दो
माँ बीमार |
* अब इसमें
मेरी क्या
गलती
जो कुछ हुआ ?
* वैसा नहीं है
कविता बताती है
जैसा आदमी |
* किसे फिक्र है
निज सुख के आगे
पीर पराई?
* मिलती जाए
लेती जाओ आज़ादी
धैर्य न खोओ |
* सुख में सुखी
अतिशय न होना
दुःख में दुखी |
* बहस नहीं
बस हाँ हूँ कहना
वहाँ जाकर |
* करो कुछ भी
आगा - पीछा तो सोच
ज़रूर लेना |
* लिखते तो हैं
पर नागरिक जी
पढ़ते नहीं |
* लिख चुका हूँ
जो तुम कहते हो
यह पढ़ लो |
* हिंदुस्तान जो
आध्यात्मिक देश है
अब नहीं है |
* पैसा लगाओ
तथापि अनुचित
लाभ न लेना |
* गुनहगार हैं
धुआँ उड़ाने वाले
पापी नहीं हैं |
* आयु में छोटे
मुझे प्रणाम करें
अग्रज , वन्दे !
* पत्रकारिता
कौन कर रहा है
नेतागिरी है |
* मामला क्या है
यह तो पता चले
तब न सोचें !
* मुफ्त चिकित्सा
किसकी तो होनी थी
किसकी होती !
* रोटी बनाना
जानना तो पड़ेगा
नहीं तो जाओ |
* खुश नहीं हूँ
खुशियाँ छीनता हूँ
आसपास से |
* नहीं चाहिए
चक्कर में पड़ना
ज्यादा किसी के | 19/7/12
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To , Prathak Batohi , Shivanand Dwivedi ‘sahar’ cc to सैन्नी अशेष
आप लोगों की बातें
वाजिब हैं, लेकिन क्रोध न कीजिये | एक असम्बद्ध बात मन -दर्शन में आयी - ' सजधज ' की बात पर , अलबत्ता मैं उस विचार -बौद्धिकता से सहमत बहुत
थोडा ही हूँ | वह है मौत का उत्सव मनाना , ज़िन्दगी की एक हकीकत के रूप में | इस पर ओशो का
व्याख्यान है , सैन्नी अशेष ठीक से बता सकते हैं | कहीं, शायद सारिका में , कथा पढ़ी थी = परिवार के पास सिनेमा का टिकट था | इतने में घर का कोई बुज़ुर्ग मर गया | वे संभवतः बुद्ध
के शिष्य थे | उन्होंने लाश को कमरे में छोड़कर सिनेमा का आनंद
लिया , फिर लौटकर अंतिम संस्कार की कार्यवाही की | भले यह कुछ ज्यादा हो गया हो, लेकिन मौत , यदि वह असामयिक नहीं हुई , तो एक सच्चाई तो
है | इसे स्वीकार करना होगा / करना चाहिए | इसमें कोई बुरे नहीं है | और इतना तो आप
मानेंगे ही कि बनावटी बहुत ज्यादा मुँह लटकाना, सियापा करना, जैसा कि होता है , भी तो झूठ ही होता है | यद्यपि माना जाता है कि ऐसा करने से मृतात्मा को शांति मिलती है | (मेरी बात को राजेश खन्ना के दायरे से न लें ) |19/7/2012
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मजदूरों का पक्ष =
मजदूर को यदि रोज़गार चाहिए , जो कि उन्हें
चाहिए ही , तो प्रकटतः वे उद्योगों - उद्योगपतियों से वे
शत्रुता नहीं करना चाहेंगे , क्योंकि इनसे उनकी
दो वक्त की रोटी तो नसीब होती है |
( जैसे 'युद्धरत आम आदमी ' की संपादक रजनी ने आदिवासी औरतों पर बलात्कार का ज़िक्र करते लिखा कि - ' मेरे साथ कुछ भी कर लो , मुझे काम पर जाने
दो ' | इसी प्रकार - "ठीक है तुम पैसा बनाते हो
पर मुझे काम दो " | लेकिन मजदूर तो उनसे दोस्ती रखते हैं जो उनसे
हड़तालें करवाते हैं और उनके रोज़गार में खलल पैदा करते हैं |19/7/12
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