शनिवार, 25 अगस्त 2012

11-08-2012


* १८५७ की दास्तान = १८५७ भारतीय परिप्रेक्ष्य , लेखिका : मीनाक्षी नटराजन, प्रकाशक : सामयिक प्रकाशन , नई दिल्ली -२ , मूल्य : १४९५ दो खंड |  - - पुस्तक की विशेषता है कि १९ वीं सदी और उससे कुछ पहले पूरे देश के राजनीतिक हालात और छोटे बड़े विद्रोहों के बारे में जानकारी है , जिसे जानना - - इतिहास प्रेमियों और विद्यार्थियों के लिए - - उपयोगी हो सकता है | [हिं, १२/८/12]
मीनाक्षी की छवि मेरे मस्तिष्क में एक सादे सत्यनिष्ठ कर्त्तव्यनिष्ठ सांसद के रूप में है | आज उनकी पुस्तक का परिचय मिला तो अच्छा लगा | विषय पर चर्चा चल रही है इसलिए यहाँ सूचना दे रहा हूँ |#

* हा हा हा! समुदाय विशेष |"असम व म्यांमार हिंसा के विरोध में मुंबई में शनिवार को 'समुदाय विशेष '
का प्रदर्शन हिंसक हो गया |" अखबार का यह समाचार मजेदार रहा | कोई नाम नहीं उस समुदाय विशेष  का | कितना अच्छा होता, यदि यही होता समुदाय का नाम, सचमुच ही विशिष्ट है वह समुदाय,भारत के दुलरुआ पूत, जिसका पुराना नाम जानता कौन नहीं है  ? 

*नहीं , यह मुझसे नहीं होगा | मैं अनाधिकार चेष्टा कभी नहीं करता , आपने एडमिन बनाकर मुझे अपना विश्वास मुझे दिया, आभारी हूँ | लेकिन मैं उसका नाजायज़ फायदा नहीं उठा सकता, मेरी प्रवृत्ति ही नहीं है ऐसी कि कोई उँगली पकड़ने दे और मैं पहुँचा पकड़ लूँ | मैंने देखा था, मैं कोई भी परिवर्तन कर सकता हूँ , लेकिन ग्रुप आपका है | जिस रूप में आप उचित समझें रखें | मैंने तो केवल सलाह दिया था, आपने सब मुझे सौंप दिया | मेरी सलाह में तो यह था कि कोई कुछ भी पोस्ट करे, किसी को उसे किसी भी रूप में ग्रहण करने कि आज़ादी थी उस कथित ग्रुप में कोई एडमिन रहे न रहे कोई फर्क नहीं पड़ता, वहाँ तो सबका मजाक बन जाना है, लिखा था न आपने एक बार - हर बात को धुएँ में - -  निवेदन इसलिए भी किया था कि मुझे बहुत हल्के मजाक पसंद नहीं,भले कितना भी छिछला आदमी हूँ मैं अन्दर से | अलबत्ता मैं बड़ी से बड़ी बात का मजाक बनाने में पटु हूँ जैसा आप मेरे कल के ही पोस्ट [जिसकी आपने तारीफ की] से अनुमान कर सकती हैं | एक बार वह मेसेज फिर से ध्यान से पढ़ लें , फिर सोचें अपनी इच्छा से | मेरा लिहाज़ न करें, मेरा कोई दबाव नहीं है | आप न चाहें तो न करें, ऐसे ही रहने दें | मेरे साथ दोस्ती में आपको दृढ़ संकल्पवान बनना होगा, मेरे प्रस्तावों को नकारने की इच्छाशक्ति सहित |  नया नाम , उसका विवरण तो हर हाल में आप ही तय करेंगीं, या नहीं करेंगी | यदि उसका अधिकार आपने मुझे दिया भी मान लिया जाय, तो मैं यह टास्क, कार्यभार आपको साधिकार सौंपता हूँ | to , Nilakshi  on Absolute Nonsense group

* जनरल वी के सिंह ने फौजी जीवन का अंत गलतियों से किया | लेकिन अब वह इस काम में विलम्ब नहीं करना चाहते | राजनीतिक जीवन की शुरुआत में ही सारी गलतियाँ कर ले रहे हैं |

* अन्ना का आन्दोलन बंद क्यों हुआ, इसका मैं राजनीतिक विश्लेषण नहीं कर सकता | मनोसामाजिक अनुमान यह है कि वस्तुतः भारत देश ही भ्रष्टाचार के विरुद्ध नहीं था , न है | वह केवल भीड़ थी , मेले वाली भीड़ , वह जनता नहीं थी | जनता जब भ्रष्टाचार के खिलाफ होगी, तब भ्रष्टाचार को सर छुपाने की भी जगह नहीं मिलेगी | और इसका नेतृत्व अन्ना ने नहीं किया |

* आरक्षण को कभी न कभी तो जाना ही है , इसे अच्छी तरह समझ लेना है | और वह दिन ज्यादा दूर भी नहीं है | तब तक पर्याप्त सामाजिक समानता स्थापित हो जायगी | बल्कि कहना चाहिए कि जो कुछ थोड़ी बहुत असमानता रह भी जायगी , वह भी अनारक्षण से ही जायगी |[ Join Janmat Party ]

* गाँधी को गाली सिर्फ इसलिए नहीं दी जा रही है कि वह और उनके काम गलत थे | बल्कि इसलिए कि अपराधी आश्वस्त हैं -गाँधीवादी उनकी कुटम्मस नहीं करेंगे , अहिंसा मन्त्र के चलते | गाली देने वालों को कहीं कोई खतरा है ही नहीं , इसलिए भरपूर गालियाँ दे रहे हैं [ आक्रांत भी हैं वे गाँधी से ]
| और कोई मार्क्स , माओ , आंबेडकर को एक भी अपशब्द नहीं कहता क्योंकि उसे डर होता है कि उसका मुँह नोच लिया जायगा | मैं यह नहीं कहता कि किसी को भी गाली दे , कहना यह है कि ऐसा तो नहीं हो सकता कि इन महापुरुषों से कभी कोई त्रुटि हुई ही न हो ?

* ऐसा तो नहीं होगा कि लखनऊ में विचारक नहीं होंगे| लेकिन अभी मेरा सपर्क उनसे नहीं हो पाया है |

* जातियों के बारे में लोगों की अच्छी धारणा लोगों के अपने संपर्क के अनुभवों और फिर उसे अन्य लोगों के बीच बाँटने से बनती है | इस प्रक्रिया में मज़े की बात यह है कि कुछ व्यक्तियों के व्यवहारों पर पूरे समुदाय के बारे में राय बना ली जाती है | जैसे किसी जाति के किसी व्यक्ति से धोखा मिला या कोई कटु अनुभव हुआ तो वह पूरी जाती ही उसकी नज़र में धोखेबाज़ हो जाती है और इसी का प्रचार वह सामान्य बातचीत में कहकर करेगा | यह भी है की यदि किसी से अच्छा व्यवहार मिला तो उसके आधार पर उसकी जाति का गुणगान करना भी शुरू कर देगा | इसी तरह की जातिगत अवधारणाओं से व्यक्ति और उसकी जाति गुत्थमगुत्था है | जातियों का उदय हुआ होगा किन्ही कारणों से , लेकिन उनके बारे में मत निर्माण व्यक्तियों के अनुभवों और उनके कु या सु प्रचार द्वारा ही होता है | इसके लिए कोई मनुस्मृति का सहारा नहीं लेता | मैंने तो किसी हिन्दू घर में मनुस्मृति रखा या उसे पढ़ा जाता नहीं देखा | उसके बारे में मेरा भी जो कुछ परिचय हुआ वह दलित लेखन के ज़रिये हुआ | दलित लेखक चिन्तक ही उसका अधिकांश पाठ करते होंगे, संभवतः |   


* देख लिया आपने ? यह मुद्दा बहस से नहीं हल होगा | जाति आपकी, नाम आपका, तो आप भी आपकी ही होंगी / होनी चाहिए | अतः यह आपका निजी मामला है | यदि आपको इन तीन अपनों के बीच कोई अवैध अंतर्संबंध दिखे और आप की इच्छा बने कि इसे टूटना चाहिए, तो तोड़िए | तिस पर भी यदि आपको लगता है कि उपनाम हटाने से यह नहीं टूटेगा तो मत हटाइए | लेकिन यदि लगे कि अरे जातिवाद भले इससे समाप्त होने नहीं जा रहा है और लोग आप की जाति तो जान ही लेंगे , आपसे ही पूछकर, यदि चाहेंगे तो जान ही लेंगे [ बिना पूछे या इधर उधर से ज्ञात करके स्पष्ट आपके उपनाम भर से तो वे जान नहीं पाएँगे ] , तिस पर भी यह तो बड़ा आसान काम है तिनका भर का | क्या मैं इतना भी नहीं कर सकती ? तो हटा दीजिये | नाम में क्या रखा है यह शायद उतना सत्य न हो , पर उपनाम में क्या रखा है , यह उससे ज्यादा सत्य है | हम लोगों से नहीं, पहले अपने आप से पूछिए क्या आपकी आकांछा सचमुच इसे तोड़ने की है , और इसके लिए एक ज़र्रा भर प्रयास करना चाहती हैं ? सरकारी तरीका मत अपनाइए कि जिस मुद्दे को टालना हो उस पर एक आयोग बैठा दें , और उसके रिपोर्ट की चिर प्रतीक्षा करें |     
यदि जाति सूचक उपनाम से जातिवाद कुछ ख़त्म भी होता हो तो भी प्रश्न यह है व् आप जातिवाद मिटाना ही क्यों चाहती हैं , जब यह मिटने वाली नहीं है | क्यों मुश्किल में डालती हैं सामने वाले को कि वह दुबारा सरनेम या जाति पूछे तब वह आपका पूरा परिचय जान सके | बिलकुल स्पष्ट जानने दीजिये लोगो को आप क्या हैं | हिंदुस्तान में बिना जाति के, बिना ब्राह्मणवाद के जीवन का निस्तार असंभव है | फिर आपको क्या कोई जातिगत आन्दोलन चलाना नहीं है ? रहने दीजिये पूरा नाम , बना रहने दीजिये |
सरनेम न बताने से यदि कोई स्वाभाविक रूप से नीच समझ ही लेता है तो इसमें क्या बुराई है ? यहीं से तो हम ब्राह्मणवाद की खाई में गिरते हैं | इसीलिये हर आदमी ब्राह्मण ही बनना चाहता है | अदलित भी दलित दिखना चाहे,तो ब्राह्मणवाद क्यों टिकना चाहेगा ?
आपका उद्देश्य पूरा हुआ , बहस सफल रही , जातियों और उनकी मानसिकता पर भी चर्चा हो गई , जो आप चाहती थीं | वरना किस मुए या मुई के अजेंडे पर है जातिवाद उन्मूलन , भले उसके लिए एक अदना सा ही काम हो उपनाम हटाना ? राय मशविरे का बहाना बहुत अच्छा रहा | जिन्हें कुछ करना होता है वे ज्यादा रास्ते नहीं तिखाड़ा करते |

* मेरा पक्का मन बन रहा है कि मैं कम्युनिस्टों और दलितों के कार्यक्रमों में न जाऊँ , बिला वजह दाल भात में मूसल चंद | इस पर अभी फ़ौरन एक मित्र ज़रूर पूछेंगे - ' और संघियों के ? ' | तो भाई जिससे मेरा कभी कोई रिश्ता नहीं रहा , न वहाँ गया, न बुलाया जाता हूँ तो उसका नाम क्या लूँ ?

 * कोई भी नीति- नियम- नैतिकता हो, उसका पालन तो मनुष्य को ही करना है न ? इसलिए मानव आधारित वाद - मानववाद व्यक्ति को अधिकाधिक उत्तम बनाने में सक्षम है , अपेक्षाकृत ईश्वर आधारित नैतिकता के , जिसमे मनुष्य कुछ फूल -पत्ती चढ़ा कर अपने कर्तव्यों का इतिश्री समझ लेता है | यह निश्चित रूप से जान और मान लिया जाना चाहिए कि यदि ईश्वर नहीं होगा तो व्यक्ति अधिक और अधिकतर नैतिक होगा |

* बराबरी हो नहीं सकती | यह दुनिया , यह प्रकृति गैरबराबरी के अनुसार ही ठीक से चलेगी | कोई छोटा होगा कोई बड़ा , कोई ऊँचा कोई नीचा, कोई हरा लाल पीला तो कोई काला नीला बैंगनी | औरतों के साथ भी गैर बराबरी निभानी पड़ेगी | उनका आदर करने की यदि पुरूषों ने एकतरफा दृढ़ निश्चय नीति नहीं बनाई, और इस नियम का पालन नहीं किया तो वे अपमानित ही होंगी , इसमें दो राय नहीं है | वे श्रेष्ठ मानी जायँ तभी ठीक होगा | इसी प्रकार शूद्रों को भी त्याज्य और ताड़न का अधिकारी मानना होगा | राजा मांडा श्रेष्ठ , तो राजा टू जी और कांडा जी अधम |

* सवर्ण को तो फिर भी सरनेम की ज़रुरत है , ब्राह्मण तो बार बार कमीज़ हटा कर जनेऊ दिखायेगा | दलित को यह सब प्रदर्शन करने की ज़रुरत नहीं | वह दो वाक्य बोल देगा { एक वाक्य फेसबुक पर कमेन्ट लिख देगा } और पता चल जायगा वह दलित है |

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" बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना , तेरी जुल्फों का पेचोख़म नहीं है |"  
चन्द्र दत्त तिवारी जी इस शेर का हवाला जब तब देते | पता नहीं हम लोगों को उकसाने या डराने के लिए | लेकिन अब लगता है यह उनकी अपनी बेबसी का इज़हार था | तब यह नहीं पता था , न उन्हें न मुझे , कि यह किसका शेर है | अब बन्ने भाई जब महफ़िलों में पूरी ग़ज़ल सुनाते हैं तो बताते हैं - यह मजाज़ का है |   
यह बात तो अलग , मजेदार बात यह है कि तिवारी जी इसका अर्थ गलत लगाते थे | उनका आशय होता कि जैसे महबूब की जुल्फों का सँवरना आसान नहीं होता , उसी तरह दुनिया का सँवरना बहुत मुश्किल है | मेरा अब भी यह मानना है कि कविता यह कहती है दुनिया की मुश्किलें तेरी जुल्फों की उलझन नहीं है जो आसानी से सुलझ सँवर जाय | क्या हमारे झगड़े का निपटारा यह ग्रुप करेगा ?   
* मित्र धनञ्जय ने बताया है कि वह शेर [तेरी जुल्फों का पेचोखम नहीं है] ग़ालिब की दीवान में भी है , जिसे मैंने मजाज़ का होना लिखा है | इसे पता तो करना होगा, क्योंकि मुझसे ऐसी चूक अक्सर होती है | एक बार तो मैंने प्रमोद जी के सही सन्दर्भ पर भी मैंने अपना गलत ज्ञान ठोंक दिया था | प्रमोद जी जोशी इस बार भी मेरी गलती को सुधार सकते हैं |

* मैं अमूमन प्रातःकाल टहलने नहीं जा पाता , जी मेल और फेसबुक फँसा लेते हैं सुबह उठते ही लेकिन जब भी टहलने निकलना हो पाता है , मन को बहुत आनंद आता है और फिर घर लौटने का मन नहीं होता | #

*सिर्फ लाइक कर देना पर्याप्त है, बहस बढ़ाने से कोई फायदा नहीं | जिन्हें समझना है वे चंचल जी की पोस्ट से कुछ सार्थक सबक ले सकते हैं चुपचाप , और जिन्हें नहीं समझना है वे बहस में उन्नीस नहीं हैं | इतना मैं समझता हूँ कि हर आदमी आखिर तो आदमी है / था | कोई आदमी दूध का धुला नहीं होता , कोई देवदूत नहीं होता | लेकिन इंसानियत के सूत्र हर जगह से तलाशे और कायम रखे जाने चाहिए, भविष्य के लिए | यह कहूँ कि व्यक्तिपूजा उचित नहीं तो यह आदर्श वाक्य हो जायगा | चलिए " व्यक्ति " का आदर करना सीखते हैं | आपके पिता का मैं चरणस्पर्श करता हूँ , आप भी मेरे बाहर बरामदे में बैठे नालायक बूढ़े बाबा को दूर से ही सलाम ठोंक दीजिये , दिखाने के लिए ही सही | अपने इस मित्र की ख़ुशी के लिए क्या इतना भी सांस्कृतिक नाटक नहीं करेंगे आप ? फिर भी यदि किसी को कोई राष्ट्रीय लाभ मिलता हो तो खुशी से थूक दीजिये मेरे ऊपर, मेरी माँ- मेरे बाप दादों पर | पर यह प्रश्न तो मुझे आप के मन में छोड़ना ही है, कि चलिए उन नेताओं ने कुछ नहीं किया , हम जो आज यह सब विवाद कर रहे हैं क्या इससे देश के जुड़ने और बनने की सभावना है ? उनकी छोडिये , क्या हम कोई सामूहिक स्वतंत्रता संग्राम , समता की लड़ाई लड़ रहे हैं ? कालिख पोतिये उनके इतिहास पर, हम इतिहास में अपनी कौन सी जगह बनाने जा रहे हैं ? आखिर हम आप भी तो कुछ हैं उसी तरह के हांड -मांस दिल - दिमाग वाले लोग ? तो यह सोचिये कि हमारी अपनी अपनी क्या भूमिका है इनके बीच ? [इति]   

निर्विवाद रखें, व्यक्ति केन्द्रित न बनायें मानव मूल्यों को | बात अहिंसा की है, भले संदीप ने इसे गाँधी के हवाले से उठाया पर अहिंसा कोई गाँधी की बपौती नहीं है | इसे मैं बुद्ध और ईसा को भी नहीं सौंपूंगा | क्या यह हमारे अन्दर की बात, सोच और चाह नहीं है ? क्या हम हमेशा तलवार भांजने के हिमायती है ? या शांति के ? अलबत्ता यह मानने में कोई संकोच मुझे नहीं है कि आदर्श मन तो अहिंसा का ही पालन करने को कहता है , लेकिन है यह बहुत कठिन काम | सबके वश का नहीं | साधारण मनुष्य का मन तो कभी कभी लड़ लेने को कहता है | अब गाँधी इसका पालन कर ले गए तो निश्चय ही वह , इसके पालन में असमर्थ हम लोगों से श्रेष्ठ ही तो हुए | इसीलिये गाँधी प्रणम्य हैं |  
सुनील जी सब स्वीकार है आप की बात ! इण्डिया नहीं तो पूरा भारत मानता है जो आपने कहा | लेकिन यह " हमारे आदमी " ? क्या हम आपके नहीं हैं ? ऐसा मत बोलो भाई , दुःख होता है , एक पेट के जाए भले नहीं हैं तो भी |

" दलित वोट बैंक " भी हमारे राजनीतिक कार्यक्रम का सीधे - सटीक नाम हो सकता है | राजकिशोर का भी कहना है कि दलित पक्षीय कोई सवर्ण आन्दोलन नहीं चल रहा है | इसी सब के मद्दे नज़र मैं बहुत दिन से यह बात उठाता रहा हूँ कि दलितों को भारत का राज्य दे दिया जाय , आंबेडकर की चाह से भी ज्यादा की चीज़,जिसे पूना पैक्ट ने छीन लिया था | दलितेतर कोई उम्मीदवार चुनाव में खड़ा ही न हो | पर यदि किसी अदलित को अपने लोकतान्त्रिक अधिकार पर बड़ा घमंड हो और वह चुनाव लड़े तो हमारा आन्दोलन उन्हें वोट न दे | मैं सूक्ष्मतः देख रहा हूँ कि यदि ऐसा न हुआ तो ये मूल्यविहीन नवपठित दलित चिन्तक लेखक और अधकचरे नेता , राजकिशोर जी की ही आशंका के अनुसार [यद्यपि उनका आरोप दलितों पर नहीं , आन्दोलन के अभाव पर है ] " अलगाववाद का उदय और उनका मजबूतीकरण " करके देश को विभाजन के कगार पर पहुंचा देंगें | मैं सभी अनारक्षित वर्ग , और आरक्षितों में पिछड़ों से भी, यह विनम्र निवेदन करता हूँ कि चुपचाप अहिंसात्मक तरीके से सौंप दें इन्हें शासन और देश के साथ साथ अपनी भी अस्मिता बचाएँ | इन्हें भी पता चलने दीजिये शासन करना किसे कहते हैं , और वह शासन कैसे किया जाता है जिसमे सारी जनता , समस्त रियाया का भला हो | इसी उद्देश्य से मायावती राज का मैंने पूर्ण समर्थन किया , भले उनके कार्यों से कितना भी असहमत रहा | उन्हें हक था जो उन्होंने किया | दलितों को हक है हिंदुस्तान पर राज्य करने का | बहुत कर लिया बाह्मणों मुस्लिमों अंग्रेजों ने इन पर राज्य और अत्याचार |   

* नीलाक्षी जी ने यह पोस्ट लगाकर मेरे ऊपर अनजाने में ही बड़ी कृपा कर दी और मैं स्वतंत्र लेख लिखने से बच गया जो २००७ से ही लंबित है | अब मैं उन सन्दर्भ निबंधों के पुलिंदे बड़े आराम से कूड़े दान के हवाले कर सकता हूँ | मित्र विभूति नारायन राय भी इसी मत के थे | तभी मैंने उनसे कहा था कि मैं आपके खिलाफ लिखूँगा और उन्होंने अनुमति दे दी थी
मुझे कोई शर्म नहीं कि मैं इतिहास नहीं जानता, कोई संकोच नहीं कि मुझे इसमें रूचि भी नहीं है | फिर इतिहासकारों के रवैये से  तो मुझे इससे घृणा सी हो गयी है , जबकि मूलतः मैं ज्ञान का पक्षधर ही हूँ | इसलिए मैं उस कथित इतिहास दृष्टि के अनुसार कुछ भी कहने का अधिकारी नहीं जिसके लिए खासकर वाम इतिहासकार अपनी पीठें बड़ी जोर से ठोंकते और ठुन्कवाते है | कहना होगा कि मैं एक " मनो सामाजिक " [क्या नया शब्द ?] विश्लेषण ही कर सकूँगा अपनी बुद्धि भर
तो मैं जानना चाहता हूँ कि पुरातन काल से ही जितनी लड़ाईयाँ हुई हैं उनमे से कितनी निःस्वार्थ थीं ? भक्त प्रह्लाद , होलिका दहन ? प्रसिद्ध राम रावण युद्ध जिसके विजय का त्यौहार आज दशहरा के रूप में बड़े उत्सव के साथ मानते हैं , सिर्फ सीता के लिए हुआ, बहाने कुछ भी बना लें - असत्य पर सत्य के विजय के नाम पर ! और महाभारत का युद्ध भी इसी विजय के रूप में महिमामंडित है | पर सत्य तो यही है कि वह ' सुई की नोक बराबर ज़मीन के लिए लड़ा गया ' | और उदाहरण याद नहीं आते और मैं विवाद नहीं करता | मैं इतिहास नहीं भूगोल बनाने की चिंता और प्रयास में ही अपनी सीमित क्षमता लगाता हूँ | लेकिन हाँ , एक उदाहरण न दूँगा तो मुस्लिम सांप्रदायिक घोषित हो जाऊँगा , लेकिन मजबूरी भी तो है | हिंदुस्तान में ज़्यादातर तो उदाहरण इन्ही के हैं ? आल्हा ऊदल की लड़ाई भला काहे के लिए हुई थी , जिनका गायन लोक मानस में व्याप्त है ? जयचंद - मीरजाफर की गद्दारी एक कहावत क्यों बन गई ? और वह मुसलमानों वाली बात ! हसन हुसैन किस बात पर लड़े थे, जिनके शहादत की याद में आज भी मुस्लिम पुरुष और महिलाएँ बड़ी श्रद्धा से मुहर्रम के माह में मातम मानते हैं , छातियाँ पीटकर लहूलुहान करते हैं , अंगारों पर चलते हैं | ज़रा इसी प्रकार उनसे भी कुछ सत्य वचन करके देखिये, नई इतिहास दृष्टि से ! कह सकते हैं कि वह वरासत की लडाई थी ? और क्या वह युद्ध भी सत्य के लिए संघर्ष के रूप में नहीं विख्यात और महाभारत की भाँति ही नहीं मान्यता प्राप्त है
     और कुछ आधुनिक उदाहरण देखेंगे क्या ? आप सबको सब पता है, इसलिए मुझे दुःख है कि मुझे लिखना पड़ रहा है कि सारा ही तो झूठ भरा हुआ है हमारे इर्द गिर्द जिन्हें हम सत्य मानकर जीने को विवश है | मानों झूठ ही सत्य हो गया हो जीवन की खातिर ! तो हम उस झूठ को सहर्ष सकारात्मक रूप में क्यों न स्वीकार करें ? ' दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल ', ' सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा ' ,जैसे छद्म को कितने प्रेम से हम स्वीकारते हैं , लेकिन क्या यह सच है ? बोलें इतिहासकार ! किसे नहीं पता ' जन गण मन ' किसके लिए लिखा गया था | लेकिन इसकी धुन बजते ही कोई खड़ा न हो और अपनी कुर्सी पर बैठा रह जाय तो मैं मानूँ कि वह सच्चा ऐतिहासिक दृष्टि वाला क्रांतिकारी है, और अपने प्रति ईमानदार
      मैं थोड़ा क्रोध का अनुभव का रहा हूँ इसलिए बात को समेटना चाहूँगा , एक छोटी सी चुनौती के साथ | तथ्य ऐतिहासिक रूप से [विश्वस्त इतिहासकारों के हवाले से] पुष्ट है कि काकोरी कांड के अभियुक्तों की पैरवी करने पन्त जी ने इन्कार कर दिया था क्योंकि सरकारी फीस बहुत कम थी | लेकिन जीपीओ पार्क में पत्थर के स्तम्भ पर बड़े शान से अंकित हैं - गोविन्द बल्लभ पन्त | लखनऊ के किसी क्रांतिकारी इतिहासकार ने क्या इसका विरोध किया ? नहीं किया जा सकता , इसलिए मेरी बात मानिये - कोई भी सत्य शाश्वत नहीं होता , समय सापेक्ष होता है और वह हर ' काल ' के मत्थे नहीं मढ़ा जा सकता |
  कोई किसी के लिए नहीं लड़ता | सभी लड़ाईयाँ स्वार्थ के लिए होती हैं | वह स्वार्थ कैसा भी हो, और कालांतर में वह किसी भी रूप में बदल जाये या जाना जाये | स्वतंत्रता संग्रामों के मूल में भी स्वार्थ ही होता है क्योंकि उसमे व्यक्ति की स्वतंत्रता और हित लाभ जुड़ा होता है | १८५७ कारतूस में चर्बी के ऊपर हुआ था , निजी आस्था अथवा अन्धविश्वास का प्रतिफल | लेकिन उसने कुछ तो गजब ढाया , चाहें इतना  ही बताया कि अंग्रेजों से भी लड़ा जा सकता है | मोहन दास को गठरी समेट यदि ट्रेन से न फेंका गया होता , मोतीलाल को शिमला का अंग्रेजों के लिए आरक्षित अतिथिगृह यदि मिल गया होता [इत्यादि] , तो क्या यह लूली लंगडी- आधी अधूरी आजादी की लड़ाई जिसको गाली देते हमारी जुबानें नहीं थकतीं [ और यह दम दृष्टि भला कहाँ कि उसे पूरा करने का बीड़ा उठायें ? ] ,शुरू हो सकी होती ? क्या वे मामले नितांत निजी नहीं थे ? कारगिल समेत तमाम युद्धों के शहीदों को हम नमन करते हैं | क्या हम कहें कि इसके लिए उनको वेतन मिलता था ? और क्या मिलता नहीं था ? हम तो लोटा चोरी के आरोप में जेल गए स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का भी सम्मान करते हैं और असली बात मन में छिपा ले जाते हैं
  और इस लेख का अंतिम शब्द है " देश " | इस पर मुझे सिर्फ एक वाक्य कहना है | यदि आप मुझे विश्वास दिला ले जायँ कि अमुक लड़ाई सचमुच देश के लिए हुई थी , तो मैं आप से पूछूँगा - क्या देश एक संकुचित अवधारणा नहीं है ?  [उग्र nonsense]  11/8/12

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