शनिवार, 25 अगस्त 2012

16/7/12


* महिलाओं पर शारीरिक हिंसा की वर्तमान घटनाओं के समाचारों से समाज का नुकसान यह हुआ कि इसके भय से
[यह इज्ज़त का सवाल न भी हो तो भी 'अंगों' को कष्ट तो होता ही है , आखिर यह हमला उनके कान की बाली लूटने के लिए नहीं, उनकी जाँघों पर चढ़ने और स्तन मीचने , किंवा उनका ' उनके शरीर पर अधिकार','वैयक्तिक एवं सामाजिक स्वतंत्रता' छीनने के लिए ही होता है, जिसे सामान्यतः सरल भाषा में 'इज्ज़त पर हमला' कहा जाता है | इसका सरलीकरण उचित न होगा | हमारा आशय यह था कि सहमति से यौन -सम्बन्ध को प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाया जाय | वर्ना तो फिर बलात्कारियों को क्या भय होगा जब इस पर शोर शराबा, पकड़ धकड़,सजा जेल नहीं होगी ?]
एक तो लडकियाँ और औरतें स्वतंत्र विचरण तो दूर सामान्य आवागमन से भी कतारएँगी | और दूसरे, इन लफंगों ने पुरुष प्रजाति पर इतनी कालिख लगा दी है कि कोई सभ्य-सामान्य युवा भी किसी युवती के करीब , थोडा ज्यादा करीब आने में , प्रेम प्रस्ताव करने में संकोच करेगा कि पता नहीं कब क्या हो जाये ? कोई इसे क्या समझ ले ? या कहीं मैं भी उन बदमाशों वाला ही काम तो नहीं कर रहा हूँ ? अब पूरा युवा पुरुष नपुंसक तो हो नहीं जायगा , न प्राकृतिक भूख -प्यास की उत्तेजना से मुक्त !   

पुरुषवादी , यदि यह समाज है जैसा कि इसे कहा जाता है , तो पुरुषों को यह ज़िम्मेदारी लेनी होगी , ऐसा अहसास मानस में लाना होगा कि इसके ज़िम्मेदार वे ही हैं | अलबत्ता इन दुर्घटनाओं के पीछे कुछ तो औरतों का भी हाथ होता है, इसकी थोड़ी तो ज़िम्मेदारी उन्हें भी लेनी चाहिए | लेकिन स्थिति यह है कि न ये समझें न वो समझें | यदि मैं कह दूँ कि लखनऊ की सड़कें आजकल सीवर बिछाने के लिए खुदी हैं , बेटा ज़रा संभल कर जाना [ या आजकल सपा (या किसी के) के शासन में गुंडागर्दी बढ़ गयी है , बेटी ज्यादा रात न करना] तो मैं क्यों दकियानूसी बाप कहाऊँ ? क्या मैं समय को देख नहीं रहा हूँ / न देखूं ? नहीं मानते हो तो बाप कहेगा ही कि फिर जाओ और भुगतो | निजी तौर अतिप्रगतिशील होकर भी मैं किताबी बातें नहीं करता , न हवा में उड़ता हूँ | मैं बिलकुल ज़मीनी और व्यवहारिक चिंतन करने को वरीयता देता हूँ |

महिला की 'इज्ज़त' पर इतनी चर्चा हुई तो काम क्यों न उसके नाम से शुरू किया जाये ? और तो बात छोडिये , उसका नाम आ जाने से उसकी इज्ज़त क्यों चली जाये ? उसने कोई गलत काम ,कोई पाप तो नहीं किया ? यद्यपि उस [स्त्री पीडिता] का नाम , चित्र ,परिचय छुपाना विधिसम्मत और पत्रकारिता की नीति में शामिल है | पर एक न एक दिन उसे सामने खुलकर बहादुरी के साथ सामने आना तो है ? वे आ भी रही हैं जब उन्हें पुरुष पर आरोप लगाना होता है | अरे वह क्या नाम है उनका , जिन्होंने एन डी तिवारी पर मुकदमा किया हुआ है ? हाँ , श्रीमती उज्ज्वला शर्मा, शायद !  

लड़की तो पिट गयी | पर क्या समझते हैं , यदि पुरुष उसमे हस्तक्षेप करते तो क्या वे उन्हें छोड़ देते ? " कोई बचाने नहीं आया " कहकर हम प्रकारांतर से पुरुष को और उसकी सत्ता , शक्ति , और क्षमता को अनावश्यक महिमामंडित करते हैं | महिलाएँ भी तो बचाने नहीं आयीं ? क्या घटनास्थल उस - उतनी रात वीरांगना विहीन हो गया था ? यदि ऐसा था तो अकेली लड़की भेड़िया-बाज़ार में क्या कर रही थी ?

मैं कमीना हूँ , परले दरज़े का छिछोरा पुरुष जाति पापी है | यह तो समझ में आता है , महिलाओं के आरोप सुनकर ! तो ,शायद इसी नाते स्त्रियों को पुरुषों के विलोम " देवी " का दर्ज़ा दिया गया है ? तभी तो इन्हें पूज्य कहा गया होगा , क्योंकि ये पुरुषों की भाँति या उनके जितनी दुष्ट नहीं होतीं ? लेकिन फिर वे शुचि या देवी की संज्ञा भी तो स्वीकार नहीं रही हैं, तो ऐसा क्यों ? अब क्या किया जाए ? इसका मतलब पुरुष निर्बुद्धि भी होते हैं |

जिस यौन स्वतंत्रता की बात औरतें करती हैं , वे उसे कैसे पायेंगी ? इसके लिए उन्हें ढंग के पुरुष कहाँ मिलेंगे ? कहीं वे यह तो नहीं मान बैठी हैं कि पुरुष का क्या , वह तो सर्व, सर्वत्र -सुलभ है ? जी नहीं | देखिये न , जो स्वतः उपलब्ध हैं वे पुरुष नहीं कापुरुष बलात्कारी हैं |


Chastity बेल्ट लगाने की प्रथा प्राचीन अंग्रेज़ों में भी रही है, लेकिन तब वह अपेक्षाकृत कम पीड़ादायक होता रहा होगा अपने कुशल बनावट के कारण | क्योंकि ताला बेल्ट में लगता था, सीधे योनि छेदकर नहीं | इसलिए इंदौर की महिला की पीड़ा तो समझ में आती है कि ताला दिन भर लटकने से उसे परेशानी रही होगी ,और उसकी साईट ब्लाक होने से | तभी तो उसने आत्महत्या का प्रयास किया ?



मित्रो ! एक और बात समझ में आती है , कि चूँकि बलात्कार , अवांछित सम्भोग , अविवाहित यौनकर्म का दुष्फल स्त्री को गर्भधारण के रूप में मिल जाता है , जिसे , फिर , इज्ज़त न भी कहें तो शिशु पालन -जीवन निर्वाह स्त्री के लिए दुर्द्धर्ष तो हो ही जाता है | माता पिता भी इनका पालन करने से मुकर जाते हैं | इसलिए ऐसी घटनाएँ पुरुष के लिए मनोरंजन मात्र , पर स्त्री के लिए स्थायी दुखदाई हो जाते हैं | समाज में सामाजिक - मानसिक कारणों से तो है ही , आर्थिक कारणों से भी सुख - सुविधा -सम्मान से वंचित हो जाती है स्त्री | इन सब स्थितियों का पूर्वामान करके ही शायद "इज्ज़त चली गयी" जैसी भाषा या शब्द का इस्तेमाल किया जाता है | इससे इतना बिचकने कि क्या बात है ? कोई और शब्द दे दीजिये यदि भावार्थ वाही हो | Honour Killing शब्दयुग्म भी इसीतरह आलोचना का पात्र हुआ | लेकिन मौलिक प्रश्न अव्वल तो उठता नहीं , और यदि उठता है तो उसका उत्तर नहीं मिलता | प्रश्न है - आखिर इज्ज़त फिर होती क्या चीज़ है ? किस चीज़ से होती है ? रुपया पैसा , जाति धर्म , कार बँगला, ऊँचा पद, खानदान ? फिर प्रश्न चक्र का वही बिंदु वापस आ गया | खानदान कैसे ऊँचा होता है? क्या वही जाति , वंश ,वर्ण -- - - फिर , वंश कैसे  - -
अन्यथा न लीजियेगा | लगा कि आप लोगों से वैचारिक द्वंद्व बनता जा सकता है , सो कार लिया |    

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" Particle Matters " - article by  Steven Weinberg,a Nobel prize recipient in physics/ in New York Times/ available at p-11, Indian Express ,July,17-2012 : excerpt =
' So what ? Even if the particle is the Higgs boson, it is not going to be used to cure diseases or improve technology.This discovery simply fills a gap in our understanding of the laws of nature that govern all matter, and throws light on what was going on in the early universe . It's wonderful that many people do care about this sort of science , and regard it as a credit to our civilisation . - - - - - - - question is going to come up again , since our present Standard Model is certainly not the end of the story .- - - "   
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* ज़रूर सोचो
आन्दोलन बना लो
उस सोच को | [हाइकु]

 कविता =
* मैं क्या जानूँ
गाय भैंस  
शेर सियार
कूकुर बिलार
क्या होते हैं ,
मैं भी तो जानवर हूँ ?

* पिछले दिनों ह्यूमनिस्ट आउटलुक के संपादक वीर नरायन जी की चिट्ठी आयी तो मुझे अपने गुरु [ऐसा कहना चाहिए] एस एन मुंशी जी [एम एन रॉय के नव मानववादी , Radical  Humanist] की याद आयी | वह अग्रेज़ी के Science Today में कालम लिखते थे | सुधीर दर 'of the science ' कार्टून बनाते थे पूरे बायें इनर कवर पर, और मुंशी जी उस पर 'of the scientists ' टिप्पणी लिखते थे |

* मैं अब इतना मानववादी, समतावादी,धर्मनिरपेक्ष, स्त्रीवादी, दलितवादी इत्यादि हो गया हूँ कि मैं किसी से भी प्रेम कर सकता हूँ , किसी के भी साथ रह सकता हूँ [रह ही रहा हूँ ] | लेकिन मेरे मन में एक गुप्त अभिलाषा है कि गाँधी जी की तरह अपने विचार का परीक्षण करने के लिए जीवन के अंतिम दिनों में किसी दलित महिला के साथ रहूँ | सामाजिक - पारिवारिक रूप से शायद ऐसा संभव न हो , पर इच्छा व्यक्त करने में क्या हर्ज़ है ? क्या संकोच , किमाश्चर्यम ?  

* मेरा ईश्वर से [ नामज़द रूप से श्री शिवशंकर भगवान से ] दो टूक , कड़े शब्दों में प्रश्न है कि उनके रहते [?] अमरनाथ उनके दर्शन को जा रहे तीर्थयात्री क्यों दुर्घटनाग्रस्त हुए ? क्यों मृत्यु को प्राप्त हुए ? बस्ती में काँवरिये क्यों ट्रक से कुचले गए ? महराजगंज से नेपाल मंदिर जा रही श्रद्धालुओं की बस नहर में क्यों पल्टी और हमारे ३९ मनुष्य मारे गए ? बरेली के शिव मंदिर में दलितों को जाने से क्यों रोका गया ?

** दलितजनों ! ब्राह्मणों को क्यों दोष देते हो , वह भी तो बंधक - गुलाम है ? सीधे ईश्वर से क्यों प्रश्न नहीं करते ? जब तक उस पर आस्था रखोगे तुम्हारी यह हालत होती रहेगी | मुस्लिमों के सम्बन्ध में भी यही सच है |   

*** जैसे किसी की माँ मर जाती है तो कोई बेटा या बेटी मर नहीं जाते ! थोड़ी देर या कुछ दिन रो-पीट कर चुप हो जाते हैं | वे अपनी उम्र भर जिंदा रहते हैं फिर वे भी मर जाते हैं और उनके बच्चे जिंदा रहते हैं | यह क्रम चलता रहता है | इसी प्रकार यह समझ लो कि तुम्हारा ईश्वर मर गया | अब ईश्वर के बगैर अपना काम चलाओ | न चले तो कोई नया ईश्वर बनाओ | तुम्हारे बच्चे उसे मार देंगे |
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* धर्म को धर्म ही रहने दो कोई नाम न दो |

* विज्ञानवादी , तर्क - बुद्धिवादी , मानववादी , नास्तिकतावादी किताबें पढ़ो | तुम्हारे धर्म / घरवाले मना करते हों , तो चुपके से शौचालय में ले जाकर पढ़ो | जैसे तुम्हारे दादाजी वहां बैठकर पीली किताब पढ़ते हैं |
^ ^ ^ ^
एक संवाद =
-- भाई आपका धर्म ?
== हाँ , ' धार्मिक ' हूँ ,
--  बस ?
== हाँ , मेरे धर्म के साथ
     कोई suffix - prefix नहीं है |
   ^ ^ ^ ^
* आयडिया =
हम्मन पार्टी  [ Humman Party of India ]
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आधी रोटी खायेंगे शौचालय बनवायेंगे ?
-- तब शौचालय की ज़रुरत कहाँ रह जायगी ?
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[ उवाच ]

* धर्म को धर्म ही रहने दो कोई नाम न दो |
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* मैं तो व्यवहार करता हूँ | अब इसमें से आप कोई सिद्धांत निकालते हों तो निकालिए | वह आपके अकादमीय शोध में काम आएगी | उससे मुझे क्या ?

* अन्य कारणों के अलावा मैं पैर छूने का इसलिए भी विरोधी हूँ ,कि पैर छूने के बहाने ही गोडसे ने गाँधी को गोली मारी थी !

* अगर तुम्हे किसी ने बुरा नहीं कहा तो इसका मतलब तुम अच्छे आदमी नहीं हो ! 0r/
* अगर तुम्हे अभी तक किसी ने बुरा नहीं कहा तो इसका मतलब है तुमने कोई अच्छा काम किया ही नहीं !
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[ जापानी है ]

* तुम करते
क्रांति में व्यवधान
मित्र कहते |

* सीढ़ियों पर
चढ़ती है सभ्यता
मैं अनुगामी |

* यदि धर्म है
उसे रहना है , तो -
हम धार्मिक |

* जो मन आये
तुमसे जैसा बने
लिखते रहो |


* नेताजन के
पर कतरों , करो
निधि समाप्त |



* आम जो चूसो
तो फोटो खिंचवाओ
खून न चूसो |

* हाँड़ - मांस का
जीव है , जानवर
हो , या आदमी !

* चाहे जितना
जतन या उपाय
करो , मरोगे |

* कहता तो हूँ
तुम्हारे सपने में
आज आऊँगा |



* तैयारी पूरी
मुझे निकालने की
कभी न होगी |
* रहता हूँ मैं
तुम्हारे ह्रदय में
भले न देखो |


* सरकार का
सर्वर डाउन है
वह क्या करे ?

* आदमी हम
हो ही नहीं सकते
कृत्रिमता से |

* कभी देखा है
कुछ फायदा होते
निराशा से ?

*खायेंगे , अखबार पढ़ेंगे , लिक्खेंगे फिर सो जायेंगे ,
ऐसे ही बस करते करते , दुनिया छोड़ चले जायेंगे |

*वामांगी - अर्धांगी : -   ऐसा क्यों होता है कि फेसबुक पर किंचित पुरुष अपने कंधे पर अपनी पत्नी का सर रखवा कर प्रोफाइल चित्र डालते हैं , और किंचित स्त्री सदस्य भी अपनी प्रोफाइल में पुरुष [पति] के ही कंधे पर सर टिकाती हैं ? हर बार स्त्री  पति के बाएँ ही बैठी नज़र आई |   
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" Men and women with light minds get enlightenment . "
[sant faqir]
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कल बूढ़ापा और अर्थाभाव महसूस हुआ | ६५ से ऊपर और पेंसनर होने के नाते मुझे इनवर्टर के लिए दूकानदार ने फाईनैंस करने से मना कर दिया | 16/7/12

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