शनिवार, 25 अगस्त 2012

28-06-12


विचार गुप्तचर [जासूस]
* अगर मानव नहीं बदला :-बलरामपुर के अग्र दार्शनिक कवि बाबू जगन्नाथ जी के कुछ अशआर जिन्होंने मेरी ज़िन्दगी में खड़मंडल डाल दिया , हंस की भाषा में कहें तो ' बिगाड़ा ' :-
       अगर मानव नहीं बदला , नयी दुनिया पुरानी है ;
       कहीं शैली बदलने से नयी होती कहानी है ?
प्रगति के हेतु कोई एक पागलपन ज़रूरी है ;
तुम्हारे मार्ग में बाधक तुम्हारी सावधानी है |
       जहाँ स्वाधीनता के दो पुजारी युद्ध करते हों ;
       वहां समझो अभी बाकी गुलामी की निशानी है |
[यह शेर सुभाष - गांधी विवाद को इंगित करता है ]
* किसी भी समाज में काम में कार्य कुशलता और कौशल का महत्त्व तो सर्वदा रहा है और सदा रहेगा | तात्कालिक भावना वश इससे हमेशा इनकार नहीं किया जा सकता , भले अभी इसे थोडा किनारे डालना औचित्यपूर्ण हो | कल्पना करें यदि पूरे देश या विश्व में दलित ही हो जाँय तब भी कोई दलित भी कुशल इंजिनियर - कारीगर , डाक्टर -सर्जन कि ही सेवाएँ प्राप्त करने की प्राथमिकता देगा |
* अब एक प्रश्न है दलित हितों में सवर्णों की भागीदारी का | निश्चय ही देना चाहिए और बहुत से समझदार -संवेदनशील बुद्धिजीवी ऐसा कर भी रहे हैं | लेकिन यदि सामान्य ठेठ बुद्धि से सोचा जाय तो सवर्णों से इसकी आशा क्यों की जाय ? अव्वल तो अविश्वास के कारण वः दलितों को स्वीकार ही नहीं है क्योंकि उनका दर्द स्वानुभूत नहीं , तो फिर सवर्ण इस आग में अपनी हथेली क्यों जलाये ? स्वाभाविक है ,जिसका हिस्सा कुछ जा रहा है , वह उसे स्वेच्छा  से तो स्वीकार नहीं करेगा , कानून के दबाव में भले कर रहा है | क्या दलित इसे ख़ुशी - ख़ुशी स्वीकार कर लेते यदि उन्हें कुछ त्यागना पड़ता ? सबूत है , अपने दलित भाइयों के लिए ही क्या वे मलाई छोड़ने को तैयार हुए ? तब सामाजिक न्याय का वितंडा उठा दिया गया | एक और बात है , जब आप उनके महापुरुषों , बाप दादाओं को अविरल गालियाँ देते फिर रहे हैं , उन्हें अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं , तो उनसे यह आशा करें ही क्यों कि वः आपको सचमुच आदर सम्मान दे दे ?
* आंबेडकर जी संविधान के निर्माता थे , यह उसी प्रकार का सच है जैसे - दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत तुने कर दिया कमाल " है | लेकिन विडम्बना है कि अब इनमे से किसी के खिलाफ कुछ नहीं कहा जा सकता | आजादी का पोल तो फिर भी खोल दिया जाता है , पर यह कोई नहीं बताता कि इस संविधान को आंबेडकर स्वयं अपना नहीं मानते ,न उसका श्रेयलेते हैं | उन्होंने जो ड्राफ्ट किया वह यह नहीं है | सभा में तमाम बहसों के बाद यह पास हुआ | खैर श्रेय देने में कोई हर्ज़ नहीं है लेकिन यह भी मन्ना चाहिए कि यह आंबेडकर की प्रतिभा के आगे  अत्यंत  सूक्ष्म काम था | उनकी महत्ता को एक किताब की ड्राफ्टिंग तक में सीमित कर देना मेरे ख्याल से उनका समुचित सम्मान नहीं है | लेकिन क्या किया जा सकता है ? जो हो रहा है वही  ठीक है |  कल को कहा ही जायगा -" अन्ना द्वारा लिखित लोकपाल विधेयक -----" |       

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डायरी -नोटबुक २//१२ 
* [व्यक्तिगत] :- आखिर मैं अपने मन का दर्द किससे कहूँ ?-------------------लेकिन सोचता हूँ किसी से न कहूँ |
* मुझे लगता है मैं अपने ऊपर आने वाले सपनों के कारण कहीं एक दिन इन  पर विश्वास न करने लग जाऊं
* यदि किसी ने मूर्ख बने रहने की बिलकुल ठान ही न रखी हो , तो ,वह कोई भी हो , बड़ी आसानी से बुद्धिमान  बन सकता है |
* अद्भुत बात है , संस्कृतियाँ अलग होते हुए भी फर्क नहीं होतीं | आज २ जुलाई है , कोई कहे अषाढ़ का अमुक तिथि है , कोई अपने कलेंडर से कुछ बताये तो क्या फर्क पड़ता है | है तो वह आज ही | कोई आइ लव यू कहे या प्रेम इश्क करे , क्या फर्क ?
* ज़िन्दगी आदर्श सिद्धांतों पर चलने में असफल है , और यह ऐसी ही सदैव रहेगी | बहुत जटिल है जीवन और कुटिल है समाज | इसलिए इसमें सुरक्षित जीने के लिए ऐसे व्यवहार करने पड़ते हैं कि उन्हें लिखकर देना भी अनुचित  होगा |
* कविता - 
एक सुबह सोकर उठता हूँ 
और देखता हूँ कि 
मेरी शादी हो गयी है ,
बाल बच्चेदार हो गया हूँ
मेरी नौकरी लग गयी है |
मुझे कुछ महसूस करने की 
ज़रुरत नहीं हुई 
कि औरत कैसी है , बच्चे 
कितने लड़के कितनी लडकियाँ हैं
मुझे भोजन मिल गया और 
मैं अपने काम पर निकल गया |
  
* उसकी कोई मूर्ति 
नहीं हो सकती ,
तो उसका कोई 
मस्जिद भी 
नहीं हो सकता |

* मुझे छूकर 
ईश्वर को प्रणाम करो 
मैं ही हूँ 
जो ब्रह्मा के पैर से पैदा 
ब्रह्मा का पैर हूँ |  

* लोग सलाह देते हैं - राजनीति में आओ | राजनीति में सभी तो सक्रिय हैं , क्या शिक्षक , क्या मिसाइल वैज्ञानिक , क्या लोकायुक्त , क्या सैन्य जनरल ! कहाँ कमी है राजनीतिकर्मियों की ? फिर उनमे हमारी क्या विसात ? तब भी हम राजनीति में तो हैं ही ! तभी तो कहता हूँ - अच्छा हुआ जनरल  का कार्यकाल समाप्त हो गया , अच्छा हुआ कलाम को दुबारा राष्ट्रपति के लिए उम्मीदवार नहीं बनाया गया , अच्छा हुआ लोकायुक्त को उनके द्वारा माँगी गयी अकूत शक्तियाँ नहीं दी गयीं |
 अब स्थिति यह हो गयी है कि किसी को बुरा भी कहने का मन नहीं होता [ यह संभवतः मेरे भीतर का ब्राह्मण था जो किसी को बुरा -भला बनाता था ] | अब मैं न अच्छाई ढूँढता हूँ न बुराई | बस आदमी को आदमी की तरह ही देखता हूँ - अच्छाई बुराई का पुंज या फिर इनसे हीन - मैं उनमें शून्य देखता हूँ , शून्य भाव से | सोचता हूँ , यही रास्ता है समता का और इंसानियत का ! 

* नागरिक जी 
तकलीफ में तो हैं 
पर क्या करें ?
*  हम चमार 
आपको श्रीमान जी 
क्या ऐतराज़ ?
* बड़े - बड़े हों 
अवगुण जिनमे 
वह ब्राह्मण |
* अच्छी -बुरी क्या ?
इसी का तो नाम है 
यह दुनिया !
* मैं कहता हूँ -
मैं दलित नहीं हूँ 
मैं ब्राह्मण हूँ 
मैं असली ब्राह्मण  
तुम क्या कर लोगे ?
मैं कहता हूँ 
तुम ब्राह्मण नहीं 
तुम दलित |
* हर धनिक 
पापी ही नहीं होता 
सही भी होता |
* हाँ , यह तो है 
बदलनी चाहिए 
जग की रीति |
* आज युवा का 
आदर्श कोई नहीं 
वह खुद हो |
* कह तो दिया 
कितना कह जाऊँ
जो तुम जागो ?
                     [ अभी इतना पोस्ट करता हूँ फिर रात में लिखूँगा ]
आज मेरा नाम है - अदृश्य शक्तियाँ | यह लिखना मेरा नहीं है |  
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यादें बहुत हैं , लिखनी हैं | पर अभी तिवारी  जी और इमरजेंसी पर लिखता हूँ जिसका विवाद शायद ' काफी हॉउस ' पर उठा था | विश्वास किया जाय कि मैं हूबहू वही लिख रहा हूँ जैसा उनसे सुना और उनको देखा , और इसमें अपना कोई विचार नहीं जोड़ रहा हूँ | वह इसकी प्रशंसा करते थे कि सरकारी  कार्यालय चुस्त हो गए थे और कर्मचारी समय से आने लगे थे | अनुचित वह संजय  गांधी के कारनामों को मानते थे | तिवारी जी संभवतः पूरी इमर्जेसी जेल में थे [ठीक स्मरण नहीं क्योंकि मैं  उस काल का  चश्मदीद नहीं था, हम बाद में उनके संपर्क में आये ] जहाँ वह चन्द्रशेखर जी के साथ थे | उनमें घनिष्ट्ता का प्रमाण हमें तब मिला जब लखनऊ के एक सम्मलेन में शेखर जी ने उन्हें देखते ही गले लगा लिया | तिस पर भी वह जय प्रकाश आन्दोलन का ख़ास कारण यह बताते थे कि इंदिरा गांधी ने जे पी को मिलने  के लिए घंटों बिठाये रखकर इंतज़ार कराया , और क्या ? और मेरी दल विहीन राजनीति के प्रति आसक्ति पर उनकी टिप्पणी नकारात्मक थी | उनका कहना था कि उन्होंने इसका कोई खाका नहीं दिया | अंततः , फिर पिछले किसी [ माया या मुलायम के ] शासन ने जब दूसरी आजादी के सेनानियों को कुछ पुरस्कार या पेंसन देना चाहा तो जैसा हम उम्मीद करते थे और उन्होंने ऐसा पहले     कहा भी कि वह नहीं लेंगे | लेकिन बाद में पता चला कि अत्यंत अस्वस्थता के बावजूद वे उसके लिए लाइन में लगे थे | एक घटना और यहाँ रोचक एवं उल्लेखनीय है कि जब शेखर जी पी एम बने तो उन्होंने मेरे सामने ही चार आने के पोस्ट कार्ड पर बधाई लिखी | बल्कि मैंने कहा भी कि यह उचित नहीं है , लिफाफे में रखकर कायदे से पत्र भेइए | लेकिन उनका जवाब था कि ' क्या करना है , थोडा ही तो लिखना है ' |   2/7/12
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डायरी नोटबुक अख़बार , दिनांक - १/७/२०१२
* दिल मेरा है /
खेत , उनका हल -
चल रहा है |

* अब आज़ादी और लोकतंत्र का मतलब है - सारांशतः -" दलितों का शासन , जिन्होंने कभी राज्य का मुंह नहीं देखा | "

* संविधान का निर्माण ही सही , चलिए आंबेडकर जी ने किया न ! आपने क्या किया ? क्या कर रहे हैं ? उनकी मार्किंग आपको तो मिलेगी नहीं !

* अंग्रेजों  ने राज किया , तो मुसलमानों ने भी किया ही है | अंग्रेजों ने तो कुछ रेलवे वगैरह भी दिया , मुसलमानों ने क्या दिया - कब्रें और इमारतें , बुर्ज़ और गुम्बदें ! इनसे पहले ब्राह्मणों ने भी बहुत राज कर लिया | अब दलितों की पारी है |

* हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई " जैसा एक नारा हिंदुस्तान के लिए और ज़रूरी है -" अवर्ण सवर्ण सिख अनुयायी , आपस में सब भाई भाई " | भले जैसे हिन्दू मुस्लिम एक नहीं हो सकते , अवर्ण सवर्ण भी एक नहीं होंगे | पर नारे तो दोनों चलेंगें , एक चल ही रहा है ,दूसरा भी चलना चाहिए | इस नारे का रूप यूँ भी हो सकता है कि - " अवर्ण  सवर्ण - भेद नगण्य " |

* यह लोकतंत्र / अब उनका है / जिन्हें नहीं मालूम कि / लोकतंत्र का / मतलब क्या है ? - [कविता ?]

* शासन का दकियानूसी  विचार कुछ इस प्रकार होगा -- ये अहीर गंडरिया चमार सियार लाला लूली , बनिया बक्काल भला शासन करना क्या जानें ? शासन वे करें जिन्हें शासन की कुछ तमीज हो !" लेकिन अब तो लोकतंत्र है और यह विचार किसी भी हिसाब से चलने वाला नहीं है | तो फिर चलने वाला क्या है ? क्या लोकतंत्र के नाम पर फिर उन्ही का शासन स्थापित हो जाय जिन्हें राज्य करने का कथित शऊर होना बताया जाता है - यानी क्षत्रिय राजा -रानियों और उनके गुरु ब्राह्मणों , कारिंदों -कारकुनों  कायस्थों का ? इस प्रकार तो वही दकियानूसी शासन घूम फिर कर फिर उतर आएगा [ ऐसा हो भी रहा है जिसे हम देख सकते हैं , अपने अकूत छल-बल -धन के बदौलत वही लोग फिर शासन में आ रहे हैं ] | फिर तो लोकतंत्र का कोई मतलब नहीं रह जायगा यदि वही बाबू भैया - नवाब सुलतान, हिन्दू मुसलमान लोग ही सत्ता में आ गए ! इसलिए समझदारी का लोकतंत्र यह होगा कि राज्य की हकदारी अब दलितों को प्राप्त हो जाये | अब यह जैसे भी हो , चुनाव -बेचुनाव द्वारा या समझदारी से न्याय के लिए समर्पण द्वारा | दलितों की कोई कमी है क्या ? उन्ही में से अपना विधायक -सांसद छांटिए | कोई सवर्ण, कोई अँगरेज़ , कोई मुसलमान किसी चुनाव में खड़ा न हो ऐसा प्रतिबन्ध- प्रावधान संविधान द्वारा कीजिये |  

* क्या औरत -मर्द में फर्क नहीं है ? क्या हम उस अंतर को पहले मिटाकर , उनको मर्द बनाकर या अपने को औरत बनाकर  फिर  उनके साथ जीने का कार्यक्रम बनाते हैं ?तब उनके साथ तो हम उस फर्क के  साथ  जीते मरते हैं, बल्कि उस फर्क के लिए ही जान देते हैं  | उसी प्रकार हम यह नहीं जानते कि जातियों में क्या अंतर है ? उसे किसने बनाया या यह कैसे बनी ? हमने उसे मिटाना चाहा पर वह नहीं मिटी, तो हो सकता है कोई फर्क होता ही हो औरतों मर्दों ज़नखों की तरह इनमे भी ! अंतरों का क्या कहा जाय , वह नित नए रूपों में दुनिया में आ रही हैं | तो यदि  दलित पैर से पैदा हुए तो क्या हम मोज़े धोते नहीं ? जूते चमकाते नहीं ? वे भी तो हमारे अंग - आभूषण हैं ? हम उनके साथ उनके अपने फ़र्कों के साथ भी रह सकते हैं और रहेंगे | मुझे लगता है यह झगड़ा हमारे किन्ही दुश्मनों का लगाया हुआ है , जिसे न सवर्ण समझ पा रहे हैं न दलित | समझ रहे हैं तो वे जो इस विभाजन का लाभ उठाकर  अवर्ण - सवर्ण सब पर शासन करने के स्वप्न पाले हुए हैं | वे सफल भी होंगे यदि हम नहीं समझे |

* वर्ण भेद का विनाश चेक एंड बैलेंस द्वारा भी तो किया  जा सकता है ! चलिए आप मानते हैं , या मैं खुद इस अहंकार में हूँ कि मैं आप से जन्म में श्रेष्ठ हूँ , तो आप विज्ञानं में मुझसे श्रेष्ठ हैं [ ज्ञान नहीं कहूँगा क्योंकि वह तो निरर्थक पंडिताऊ विषय है ] | मेरे विचार से दलितों का गणित और विज्ञानं के क्षेत्र की उच्चतम पढ़ाई , समुद्र की गहराई -अंतरिक्ष में उड़ान में महारत होने की कला उन्हें उच्च और श्रेष्ठ स्थान समाज में दिला सकती है , यदि वे प्रयास करें | यह सूत्र मैंने वहां से लिया है जहाँ आंबेडकर कहते हैं की गाँव छोड़कर भागो | पर दलित हैं की उसी गाँव के कीचड़ में पड़े हाय दलित हाय ब्राह्मण चिल्ला रहे हैं | इसे मैंने अमरीका के अश्वेतों से भी सीखा जो रंगभेद  के शिकार थे , पर उन्होंने हर क्षेत्र में अपनी योग्यता का झंडा गाड़ा | खेलों में , फिल्मों में यहाँ तक की सेक्स वीडियो में भी उन्होंने अपनी क्षमता के बल पर ख्याति और अनुशंसा हासिल की | यहाँ क्यों नहीं हो सकता यदि मुट्ठी भर नौकरियों  का लालच छोड़कर अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने का हौसला कर लिया जाय ?

* अब यह बात मैं सार्वजानिक रूप से नहीं कह सकता | इसलिए केवल नीलाक्षी जी से कहता हूँ | उन पर मुझे भरोसा है , भले वह मुझसे नाराज़ हो जायँ | पहला तो यह की मैंने उनके कुछ नाम विचारे हैं - "मीना मीनाक्षी " , " मीनाक्षी मीन " , और एक " अच्छी मीनाक्षी " भी तो खूब लयपूर्ण है , 'साक्षी' भी एक काफिया है ! दूसरे यह कि तनिक एकांत में वैचारिक गहनता से यह निष्पक्षता से [दलित -ब्राह्मण खाँचे से ऊपर उठकर {पता नहीं वे क्या हैं}] साक्षी भाव से सोचें कि इतने दिनों के आरक्षण से दलितों को सामाजिक सम्मान मिलने में बढ़ोत्तरी हुई है कि अवमानना और तिरस्कार का ? समाज की मानसिकता यदि अनुकूल नहीं हुई तो सरकारों  के कहने से तो वह सम्मान देने से रहा | वैसे यह मेरा ख्याल ही है जो गलत हो सकता है  , इस मुद्दे पर मैं आपकी समझ या सर्वेक्षण -अनुमान को ही ऊपर रखूँगा | फिर , यदि तनिक कुछ मिला भी हो तो क्या वह एक मानुषिक इयत्ता के लिए पर्याप्त है ? आधुनिक लौकिक सम्मान तो वाकई मिलता है सत्ता और सम्पदा से | राज्याश्रित होकर कोई सम्मान , सच्चा मान कैसे पा सकता है , यह मेरी समझ से बाहर है , वह भी तब, जब कि शेष समाज उसका विरोधी हो ? [May Skip it , and  forgive  me] 

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[ कविता ]

* नहीं , मैं
दलित नहीं हूँ ;
नहीं  जी ,
मैं सवर्ण नहीं हूँ |
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*अनुभव के आधार पर यह तो मान लेना पड़ेगा हमने , आपने , बहुतों ने कोशिश कर ली पर जात - पांत , छोटा बड़ा , गरीब -अमीर कहीं जाने वाले नहीं | अब सोचना यह है कि इनके साथ साथ आदमी की तरह कैसे जिया जाए ? ठीक है आप फलाँ हैं , तो है ; मैं अमुक हूँ तो हूँगा | भले जाति नाम न हटाइए , हालाँकि यह उम्मीद गैरवाजिब नहीं कि हम जितना कर सकते हैं उतना तो करते | उपनाम प्रमाणपत्रों में पड़े रहने देते और प्रचलन के लिए कोई तखल्लुस चुन लेते , उसे पूँछ की तरह हमेशा प्रदर्शित न करते ! अब इतने तो हम गुलाम नहीं ! चलिए वह भी नहीं तो घालमेल आन्दोलन शुरू कर दें -सिंह वर्मा शर्मा आगम निगम सब इतना घालमेल कर दें कि कोई यह जान ही न पाए कि सामने वाला किस जाति का है , कोई जाति है भी कि नहीं ! कुजात बन जाएँ सभी | यह भी न हो पाए तो जाति पड़ा रहने दें सुषुप्तावस्था में ,पर आपस का भेदभाव व्यवहारिक स्तर पर मिटायें | इतनी मात्रा में हम जाति में हैं पर इसके आगे नहीं | तब आंबेडकर केवल दलितों के नेता नहीं  होंगें और वह [ कोई नाम सोच लीजिये ] केवल ब्राह्मणों का आदरणीय नहीं होगा | आपके पिता मेरे सम्मान्य होंगे , आप भी मेरे पिता का आदर करेंगे [ऐसा ही क्या हम पढ़े लिखे साथियों के बीच होता नहीं है ? कहाँ देते हैं ब्राह्मण मित्र के पिता को गालियाँ, कम से कम उनके ठीक सामने ?] | आखिर समय के साथ हमारा निज का कुछ व्यवहार बदलेगा कि नहीं ? या हम यूँ ही हमेशा ढाल तलवार उठाये आमने -सामने रहेंगे ? क्या हम अम्बेडकर के सामने सर झुका कर , खिसियाकर मिमियाते हुए हमेशा यही कहते रहेंगे - माफ़ करना प्रभु तुम्हारे आगे हम कुछ भी नहीं कर पाए , एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाए, तुम्हारे मार्ग को तुम्ही तक सीमित , तुम्ही पर बंद कर दिया हमने ? सोचना होगा क्या यह उनका आदर होगा या निरादर ?   कुछ न हो पाए तब तो हमें अपनी " मजबूरी " स्वीकार कर लेनी चाहिए कि न हम जाति बदल सकते हैं , न अपना नाम बदल सकते हैं यहाँ तक कि अपना उपनाम भी नहीं बदल सकते | फिर जाति का भूत हम अपने सर से क्या खाक मिटायेंगे ? सचमुच यह केवल मान्यता का काल्पनिक भूत ही है , इसमें यथार्थ तत्त्व कुछ भी नहीं | यह नहीं मिट रहा है यह बात मुझे विचलित करती है जबकि जानता हूँ कि बस इसे एक बार सर से झटक कर हटाया जा सकता है | मुझे न कहिये , पर कितनों ने हटाया नहीं क्या ?
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यह भी भ्रामक है कि दलित और पिछड़े मानववादी समानता के लिए अन्धविश्वास के खिलाफ कोई लडाई लड़ रहे हैं | कोई बताये , बाबरी मस्जिद ढहाना क्या सवर्णों के बूते का काम था ? फिर ये मेले , तीर्थयात्राएँ , कावंरियों का हुजूम क्या ब्राह्मणों से परिपूर्ण होता है ? सवाल तो हैं , पर सवर्ण मैं , भले नास्तिक , बोल दूँ तो मारा जाऊँ | अपनी ज़िम्मेदारी समझ कहता फिर भी हूँ पर तब मेरा प्रश्न सवर्ण - अवर्ण सबसे होता है
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एक बाघ है एक हज़ार बकरियां हैं , कौन अल्पसंख्यक है ? एक माइक से दहाड़ रहा है दस टिटहरियाँ आवाज़ लगा रही हैं , कौन अल्पमत में है ? [संख्या प्रश्न ] kwt
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मैं यह मानने पर विवश  हो चुका हूँ कि मुसलमान भी दलितों के प्रति अत्यंत  भेदभाव की भावना रखते हैं | सवर्ण हिन्दू तो फिर भी उन्हें तनिक अपना ही मानता / मान सकता है | वह खुद भले उन पर अत्याचार करता कहा जाये पर दूसरों द्वारा उन पर अत्याचार सहन नहीं कर सकता, इसका समय अब आ गया है | जैसे बहुत से पुरुष अपनी पत्नियों को पीटते हैं , पर क्या वे चुपचाप खड़े देख सकते हैं कि  कोई उनकी पत्नी को अपवचन कह कर सुरक्षित निकल जाय ? इसलिए मेरा तो यह स्पष्ट निर्णय है कि मुसलमानों को यदि बाहरी और विदेशी न भी कहें तो भी उन्हें भारत में सवर्ण- शोषक की ही श्रेणी में रखा जाना कहिये | उनका व्यवहार भी हमें यही बताता है कि हर बात में वे अपनी दादागिरी चला रहे हैं ,यहाँ तक कि उन्हें निकाह का सरकारी पंजीकरण तक बर्दाश्त नहीं | सकारों की नाक में दम किये हुए हैं ये | जब कि जब ये बादशाहत में थे तो इन्होने भी दलितों को कोई आर्थिक -सामाजिक लाभ नहीं दिया | इतिविचिन्त्य , मेरा ख्याल है कि दलितों को भी इस साजिश से सावधान रहना चाहिए कि भारत में मुसलमानों का शासन या शासन में उनका वर्चस्व न बढ़ने पाए | संदेह वाजिब है की यह तो हिंदूवादी अजेंडा हो जायगा , लेकिन इसकी फिक्र करने की ज़रुरत नहीं है | यह भी दृढ़ता से ध्यान में रखने की बात है कि राजनीति में कोई स्थायी दुश्मन नहीं होता | यदि सवर्ण को वे शत्रु समझते हैं ,या वे ऐसे हैं , तो मुसलमान भी कुछ कम दुश्मन नहीं हैं | कितने दुश्मनों से एक साथ लड़ेंगे दलित ? फिर हिन्दू तो कुछ न कुछ सांस्कृतिक दृष्टि से उनकी एकता के क्षेत्र में है | उससे लड़ते रहेंगे , पहले उनसे निपटें जिनके बारे  में जिन्ना साहेब ऐलान कर गए कि वे हर मामले में भिन्न हैं , साथ नहीं रह सकते , और अलग देश ले लिया | अब उन्हें बताना होगा कि देश में रहने के लिए दलितों से व्यवहार करना सीखना होगा दलित ऐसा ताल ठोंक कर हिम्मत के साथ ऐसा कह सकें और अपने दुश्मनों को ललकार सकें ,इसीलिये मैं कहता हूँ देश दलितों का है , इसका शासन उन्ही को सौंप दो , चुनाव द्वारा या आरक्षण द्वारा | यही  एकमात्र विकल्प है हिंदुस्तान के पास फिर से सोने की चिड़िया बनने के लिए |       kwt
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दलितों के दुश्मन कोई एक नहीं हैं | सवर्ण हैं तो मुसलमान भी हैं , जिनके यहाँ भेदभाव न होना गया जाता है | और सबसे बड़े अपने दुश्मन तो वह खुद हैं | इसीलिये कहा जाता है कि दूसरों पर उँगली उठाते समय अपनी चार उँगलियों को भी देखो जो तुम्हारी और इशारा कर रहे हैं | मैं ब्राह्मणवाद का पक्ष नहीं ले रहा हूँ , न मेरा इरादा दलितों की आलोचना करने का ही है | यह तो दुनिया की रीति है और इसे इस तरह भी देखा जाय यह आग्रह अवश्य है | इसलिए कहता हूँ कि बाभन - ठाकुर तो छोड़ दीजिये -  [वे भी आपस में शादियाँ नहीं करते ] | पर क्या यादव भाई किसी दलित तो छोड़ दीजिये , किसी कुर्मी भाई के घर शादी करेंगे ? और कोई चमार क्या पासी से सम्बन्ध बनाएगा , और पासी क्या किसी भंगी बेटी को ब्याह कर घर लाने को तैयार है ? फिर यह सारा दोष दुबले पतले ब्राह्मण पर डाल कर समता के सुकर्म में अपनी जिम्मेदारियों से क्यों मुकर रहे हैं जब कि प्रकारांतर से ब्राह्मणवाद का अनुपालन स्वयं कर रहे हैं ? यह तो छद्म हो जायगा भाई ! ऐसा कब तक चलेगा ? इससे घृणा का बोलबाला भले हो जाय , बराबरी तो नहीं आयेगी ? या तो फिर बराबरी की बात ही मत कीजिये , कह दीजिये की ब्राह्मण निकृष्ट जाति का है और हम उसके घर खाना - पीना नहीं करेंगें - उससे न अपनी बेटी ब्याहेंगे ,न उसकी बेटी लायेंगे | हो गया बराबर |     kwt
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सवर्ण को भी यदि लड़ाई लड़नी है तो अपने आप से , अपनी श्रेष्टता के दंभ से | सबको अपने अपने 'ब्राह्मण' से लड़ना और उस पर विजय पाना है निर्विवाद नियम है कि हर लड़ाई [ क्रांति ] अपने भीतर से शुरू होती है | सवाल है क्या हम यह बीड़ा उठाने को तैयार हैं ? हम जो अपने आप को भारतीय , देशभक्त , राष्ट्रवादी बनने का सार्वजानिक नाटक तो बहुत करते हैं |    kwt
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जिससे लड़ाई लड़नी हो , उसी के हथियार से उसी का हथियार चलाना सीखो " | = नागरिक उवाच  [ब्राह्मणवाद  से लड़ाई , दलित और नारी मुक्ति के युद्ध में यह काम आएगा ]      kwt
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वे क्लास - कास्ट कुछ नहीं मानते | वे रेल में जनरल से लेकर स्लीपर , एसी-१, एसी-२ , एसी-३ किसी भी तरह के डिब्बे में निःसंकोच घुस जाते हैं और निर्द्वंद्व यात्रा करते हैं |
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फिर भी कविताएँ =
* यह न सोचो
वार खाली जायगा
तीर चलाओ |

* वह कोई है
इतना अपना कि
कुछ न पूछो !

* आँखों मन तुम
आँखें मुंदी जाती हैं
कब आओगे ?  

* भाव पूछता
सेव का , खरीदता
ग्यारह केले |

* शुद्ध मिठाई
बताशे , खाता हूँ मैं
बे मिलावट |
*इंसानियत
बेकार बात, बोलो
हिन्दू - मुस्लिम
*बाहर क्या है
पता नहीं चलता
घर में बैठे |
* रुपया - पैसा
बहुत बड़ी चीज़
सबसे बड़ी |

* निस्संग हूँ मैं
न कोई मेरे साथ
न मैं किसी के |

* पेड़ हरा है
पेड़ों से सटकर
नीड़ भरा है |

* रसगुल्ला हो
तो क्यों नहीं आएगा
मुँह में पानी ?  
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जाना सभी धर्मों को है | बस यह है कि कौन पहले जाय ? पहले पुराना , तब नया , या फिर रेलगाड़ी की तरह - बाद में आने वाली ट्रेन पहले जाय ?
Kwt
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[ हाइकु ]
- सब श्रेष्ठ हैं
फिर नीच कौन है ?
क्या केवल मैं ?

- इंसानियत ?
कहने की बात है
सब हैवान |

- कुछ भी कहे
कोई कुछ न कहे
होगा तो वही !
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दुर्योधन , दुशासन  , दुर लगे ते नाम पहले से तय थे , की ये दुष्कर्म में ही प्रवृत्त होंगे ? मुझे तो लगता है महाभारत एक काल्पनिक आख्यान है | complete  Fiction !      kwt
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[ हाइकु ]
- डोंट ' सी मोर '  [ Dont See  More ]
जितना दिखे पढ़ो  [ Read What it shows ]
लाइक करो  |         [ Like it ]    

-क्या सिखाओगे
सीखना न चाहें जो
हम कुछ भी !

- बस आ जाएँ
प्रिये जो एक बार
ज़िन्दगी पार |

- बुद्धि में बातें
आतीं कहाँ कहाँ से
अबूझ प्रश्न |

- दोस्ती निभाती
तो दुश्मनी भी खूब
देती ज़िन्दगी |

- पन्ने मुड़े हैं
तमाम किताबों के
आदमी सोया |
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अपने डी एम , सांसद को नहीं जानते मेधावी =
kwt २८//१२ | गोंडा के हाई स्कूल व् इंटरमिजिएट के मेरिट लिस्ट में टॉप टेन मेधावी अपने सांसद और जिलाधिकारी का नाम नहीं जानते |
क्या ज़रुरत है इन्हें जानने की ? क्या छात्रों का काम यही रह गया है कि जो आज हैं - कल नहीं हैं ' के नाम याद करते फिरें ? इससे तो इन्हें अनावश्यक तरजीह मिलेगी और इनके दिमाग ख़राब होगा | IAS की इस परीक्षा प्रणाली पर मेरा वाजिब प्रश्न चिन्ह है | क्या सूचनाओं का भंडार उन्हें इस सेवा के लायक बनायेगी या उनकी Creativity , त्वरित निर्णय क्षमता , मानवीय चेतना - संवेदना और जन / राष्ट्र सेवा की भावना मापने का कोई पैमाना ? आश्चर्य नहीं की इसी प्रकार चुने गए अधिकारी देश को चूना लगा रहे हैं , और अनुचित ख्याति प्राप्त करने अभिलाषी राजनीति में आ रहे हैं | इससे राज्य और शासन , व्यक्ति - नागरिक से ज्यादा प्रतिष्ठित होते है , जनता की गरिमा घटती है | यह बहुत बड़ा नुकसान है | यदि इसी प्रकार की जानकारी को आधार बनाया गया , तो यह जानना ज़रूरी क्यों न बनाया जाय कि जिले के नेताओं / अधिकारियों ने कितना भ्रष्टाचार - घोटाला किया | और पुलिस सेवा के लिए यह जानना क्यों न ज़रूरी हो कि जिले में कितने  दस नम्बरी हैं और उनके शुभनाम क्या हैं ?    kwt
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धार्मिक आधार पर खतना नुकसानदेह =
बर्लिन | पश्चिम जर्मनी में कोलोन की धार्मिक अदालत ने एक ऐतिहासिक फैसले में व्यवस्था दी है कि धार्मिक आधार पर छोटी उम्र के लड़कों का ख़तना उनके शरीर को गंभीर  नुकसान पहुँचाना है | अदालत के अनुसार " बच्चों की शारीरिक परिपूर्णता का बुनियादी अधिकार माता - पिता के बुनियादी अधिकारों से अधिक महत्त्व पूर्ण है " | यह फैसला कानूनी तौर पर अभूतपूर्व माना जा रहा है | यहूदी समुदाय ने इसे माता - पिता के धार्मिक अधिकारों को कुचलने के समान बताया है | कवत-२८//१२

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