शनिवार, 25 अगस्त 2012

15-08-2012


* जैसे मरा मरा कहकर बाल्मीकि जी महाकवि संत हो गए , उसी प्रकार दलित जन मनु महाराज को गाली दे दे कर सरकारी नौकरियों में आरक्षण पा गए |

* ह्रदय तो है 
बुद्धि की ऐसी तैसी 
वह हो न हो |

* विचार  सिर्फ  
विचारक ही नहीं 
हम भी करें |

* शब्द लड़ेंगे 
मेरी बात लेकर 
मेरी बात पर |

* मैंने सोचा था मददगार बहुत से होंगे ,
जब कि पाया कि मददगार यहाँ कोई नहीं |

* अंधेरों में ओ रोशनी करने वालो !
बिना आग के रोशनी कैसे होगी ?

* जग में देखो वह उतना ही लम्बरदार हुआ ,
जग में छोडी जिसने जितनी बदबूदार हवा |

[ मुक्त शेर ]
* हम मच्छर को मार देते हैं 
कभी सोचते हैं , उनमे 
हमारा ही खून है ?

* उनको
बहुत दिन बीत गए 
देखा था ,
बहुत दिन हो गए 
नहीं देखा |

* आज़ादी का यह पेड़ 
मेरे ' बापू ' ने लगाया था 
तो फल ,
क्या तुम खाओगे ?

* अब रामदेव ही बचे हैं चैनलों के पास उनके हर बयान प्रसारित करने के लिए ?
* यह भी अच्छा चल रहा है | अभी तक अपराधी संरक्षण प्राप्त करने राजनीति में आते थे | अब अपने अपराधों को छिपाने के लिए लोग उसी अपराध के खिलाफ आन्दोलन करते हैं | वही अब यह भी तय करेंगे  कि उनकी जांच करने वाली CBI किस प्रकार की हो ?
* उन्हें कोई क्यों बताये कि यह सेकुलर हिंदुस्तान है और इस्लामी राष्ट्र नहीं ? क्योंकि वस्तुतः यह नान सेकुलर और इस्लामी देश भी तो है | यह जिसकी लाठी उसकी भैंस देश है | कोई कुछ बोले तो संघी कहाए | क्या ज़रूरी है हिंदुस्तान का पक्ष लेने के लिए हाफ पैंट पहनना | तो भाई चूड़ियाँ ही पहन लोएँ | एक पंथ दो काज | यह नर नारी समता का भी द्योतक है, और यदि इसका रंग लाल हो तो वाम पंथ का भी सौन्दर्य देगा | तो अब डेनमार्क के कार्टून पर भी भारत जलेगा और म्यांमार की हिंसा पर भी | सही बात है जब पूर्वोत्तर के आदिवासी ही अपने घर में नहीं रह पा रहे हैं , तो वहाँ के छात्र पूना में क्यों रहने पायें ? कुछ न कहिये यह देश विशिष्ट है , यहाँ का मुसलमान - " समुदाय विशेष है !"   
* माफ़ कीजियेगा , सोचने में देर हो गयी | करें भी क्या अभी कल ही तो एक खूंटा उखड़ा है | अब अगला पड़ाव है - कुछ पूंजीपतियों -उद्योगपतियों का परिसंघ अपने मजदूरों कर्मचारियों को एक माह का वेतन बोनस में देकर उन्हें आज़ाद मैदान आंबेडकर मैदान , जंतर मंतर पर उतार देगा और संसद को घेर लेगा | माँग के नाम पर कोई भी बात उठा लेंगे , उनकी कोई कमी तो है नहीं | मार्क्स माओ गाँधी आंबेडकर सब भौचक देखते रह जायेंगे = अरे यह तो हमने कभी सोचा न था  !

कभी , मान लीजिये , हिन्दुओं ने 
भारत राज्य मुगलों को दिया ,
फिर मुगलों ने उसे 
अंग्रेजों को सौंपा
अब कथित आज़ादी है 
जो कहीं होती नहीं |
तो मान लीजिये अब सत्ता 
दलित वंचितों पिछड़ों की आ जाय 
तो  कैसे कह सकते हैं 
कि घूम फिर कर 
फिर निजाम मुसलमानों को 
न मिल जाय
आखिर तब उन्हें आरक्षण तो 
देना ही पड़ेगा ! 
और कोई तय नहीं 
उसका प्रतिशत 
आबादी के हिसाब से तय होगा 
या अन्वाधी के 
फलस्वरूप  ?

* क्या आपने अभी , आज , 15 अगस्त को 
कोई  मजदूर मंडी देखी ?
इन्हें क्या पता , क्या मतलब इनको 
स्वतंत्रता दिवस से ?
आप भी इस दिन खुशियाँ न मानिए ,
अब किसी मूर्ति पर माला न चढ़ाइए ,
नदी समुद्र में प्रवाहित कर दीजिये 
सभी  देवी देवताओं की मूर्तियाँ -
ईश्वर  अल्ला भगवान
और  आज़ादी की लड़ाई के प्रतीक 
पुरुषों , नेताओं , शहीदों 
गाँधी नेहरु आंबेडकर पटेल 
जिन्ना , मौलाना आज़ाद सबके  
किसी के भी चित्र 
दीवालों पर मत टाँगों ,
छुट्टी   मनाओ 
गुलाम की तरह आज़ाद रहो 
किसी ऋषि मुनि की बात मत मानो 
कहीं बंधो मत 
स्वतंत्रता का पूरा उपभोग करो |

अभी जब पार्टी का नाम तय नहीं है तो किसी नाम से ग्रुप बनाना ठीक न था | जिसे जो नाम पसंद आये वह उस नाम से काम करे |

======================   15 / 8 / 2012   ===========================
* [ मुक्त शेर ]
आपने मुझसे मेरा नाम , पता पूछा है
अभी मैं उनसे पूछ करके बता देता हूँ |

* अटा पड़ा है 
देश विचारकों से 
बिलावजह |

* याद आई हो 
आँखें भर आई हैं 
रास्ता धुँधला |

* प्रकट नहीं 
पूछोगे तो जानोगे 
मेरी जात क्या ?   


* हमारी पार्टी के नेताओं का कोई एक संकुचित - सीमित चुनाव क्षेत्र नहीं होगा | भले अभी इस प्रणाली में वे कहीं से चुनाव लड़ें पर उनका कार्यक्षेत्र पूरा देश होगा |
* यदि कोई विदेशी पत्रकार मुझसे जानना चाहें कि देश में मुसलमानों की , हिन्दू ईसाइयों की क्या जनसँख्या है , तो मैं पार्टी के प्रतिनिधि और सरकार के मुखिया के रूप में उसे जवाब दूँगा - हमारे देश में कोई हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई ब्राह्मण दलित नहीं है | सब भारत के बराबर नागरिक हैं' | 
ऎसी जनगणना बंद करा कर मैं केवल गरीबी का सर्वेक्षण कराता |  
* हमारे सदस्यों से नैतिकता के उच्चतम मापदंडों की अपेक्षा की जायगी , विशेषकर आर्थिक रूप में सख्ती से | उन्हें गरीब होना होगा , गरीबी को धारण करना होगा यदि वे गरीब मुल्क के रहनुमा बनना चाहते हैं तो | अलबत्ता उनके निजी स्त्री पुरुष के व्यक्तिगत संबंधों को इसमें शामिल नहीं किया जायगा , वह उनका प्राइवेट मामला होगा | लेकिन वे अपने परिवार को कोई अनुचित लाभ नहीं दे / दिला सकेंगें | उनके परिवार से सम्बंधित होने के नाते किसी को कोई ख़ास दर्ज़ा , विशेष व्यवहार - अधिकार प्राप्त नहीं होगा |

* मनोविकार = मैं भारत में दलित राज्य की स्थापना के लिए कृतसंकल्प हूँ | लेकिन मुझे आशा नहीं दिखती | इनके विचारकों , लेखकों, नेताओं की संकुचित दुर्भावनापूर्ण सोच और मूर्खतापूर्ण बातें इनकी शासन क्षमता पर संदेह पैदा करती हैं | हमारी आशा के अनुसार इतने बड़े , विविध , विसंगति पूर्ण देश को चलाने के लिए बहुत बड़ा दिल दिमाग और समानता का जोश -उत्साह और संकल्प चाहिए , जिसका इनमे नितांत अभाव दिखता है | बस वही एक धुन रोना , एक स्वर में एक ही घिसी पिटी बात कहना, सदियों पुरानी ! ये नया क्या करेंगे , दलितोत्थान के अतिरिक्त ? और शायद वह भी नहीं कर पाएंगे क्योंकि इनका इस दिशा में कोई अजेंडा ही नहीं है | होता तो इन्होने शिक्षा , स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में कुछ कर दिखाया होता | जो भी काम दलित हितकारी हुए वे सरकारी ही हुए | मुसलमानों ईसाइयों की भाँति इनका संचालित कोई स्कूल , अस्पताल हास्टल कोलोनी कारखाना , उद्योग उद्यम आदि नहीं है | जो आगे बढ़े , ऊंचे चढ़े , वे अपने में मस्त हैं | दलित गरीब की उन्हें भी चिंता नहीं है | वे ब्राह्मण हो गए | तो ब्राह्मण को मात्र गाली देना तो कोई रचनात्मक काम हुआ नहीं न भविष्य निर्माण का कोई सपना न इरादा, जैसा आंबेडकर का था | आंबेडकर की मूर्तिपूजा हो रही है जब कि इन्हें स्वयं आंबेडकर , और आंबेडकर ही क्यों , उनसे भी आगे का बुद्धिशील नेता कार्यकर्त्ता बनना था - समय का सहचर और सारथी | ऐसे में लगता है कि इन्हें भी राज्य सौंपना खतरे से खाली नहीं है | और हाँ हिन्दू के अन्दर विभाजन की स्कीम तो इनके पास है पर मुस्लिम कट्टर पंथ , सीमा विवाद पर इनका कोई पक्ष सुदृढ़ नहीं है | तो कैसे होगा ? लेकिन निकालता हूँ दिमाग से यह फितूर और द्विविधा | हो सकता है यह मेरी सवर्ण मानसिकता हो ! करें ये जैसे भी करें , इन्हें करने तो दिया जाय जिसकी बड़ी शिकायत इन्हें है कि इन्हें यह नहीं करने दिया गया , वह नहीं करने दिया गया !   
* अन्ना बन्ना , रामदेव वामदेव , भ्रष्टाचार व्रष्टाचार  कुछ नहीं | आँख बंद करके बस एक उद्देश्य बनाना है कि भारत में दलितराज कैसे स्थापित हो | वे इन्हें संभाल लेंगे , और संभल लेंगे आज़ाद मैदान जैसे हिंसक वारदात | उनमे यदि कुछ मंत्री भ्रष्ट भी हुए , तो दलित वर्ग की माली हालत में  कुछ इजाफा भर हो जायगा , वे इजारेदार तो बन नहीं जायेंगे ?

* किस्सा बन्दर का = सुना होगा आपने ! एक बार चुनाव में बहुमत द्वारा एक बन्दर को जंगल का राजा बना दिया गया | एक दिन एक बकरी फरियाद लेकर आई - हे बन्दर राजा मेरे बच्चे को शेर पकड़ ले गया है , उसे बचाओ महाराज ! बन्दर बिना समय गँवाए वहाँ पहुँच गया जहाँ शेर बकरी के बच्चे को मुँह में दबाये बैठा था | उसने फ़ौरन शोर मचाना शुरू कर दिया और इस पेंड़ से उस पेंड़, इस डाल से उस डाल चें चें करता उछलता कूदता रहा | ज़ाहिर है जैसा होना था हुआ | शेर मेमने को खा गया | बकरी रो रो कर शिकायत करने लगी - तुम कैसे राजा हो , तुम्हारे सामने शेर मेरे बच्चे को खा गया ? इस पर बन्दर बोला - देखो बकरी बहन, दुःख मुझे भी बहुत है, लेकिन यह भी तो देखो मैंने अपने प्रयासों में कोई कमी नहीं रखी, कोशिशों में कोई कसर नहीं छोड़ी |
कुछ  ऐसा ही हाल मेरा है | मैं जातीय भेदभाव, धार्मिक जड़ता, साम्प्रदायिकता, अंधविश्वास, भ्रष्टाचार , अनैतिकता, स्वार्थपरकता, छल-छद्म की राजनीति, हिंसक प्रवृत्ति का कुछ बिगाड़ नहीं पाया, लेकिन मैंने अपनी कोशिशों में कोई कमी नहीं रखी |          

* काला धन वापस आना ही चाहिए | घर का पैसा कम पड़ रहा है |
[ मैं कहता था न पूजा जी कि आप अत्यंत सदाशय व्यक्ति हैं ! इसे लिखते समय मेरे मन मे वह आशय नहीं था जैसा आपने समझा कि घर के पैसे का समुचित प्रबंधन नहीं किया जा रहा है | ऐसा भी समझा गया और इतने मित्रों ने उस पर सुचिंतित टिप्पणियाँ कीं , इसके लिए मैं उन सभी मित्रो का और आप का आभार व्यक्त करता हूँ | लेकिन मेरा एक सीधा सा टेढ़ा व्यंग्य था कि इनके लूटने- खाने- उड़ाने के लिए घर का पैसा कम पड़ रहा है | आप सब ने इस छोटी सी उक्ति को एक गंभीर , व्यापक आयाम दिया, इसके लिए पुनि - पुनि धन्यवाद ]

* [मनोविषाद] मैं अपने वैचारिक मनोभूमि में एक घातक विकार होते देख रहा हूँ | जो व्यक्ति मुझे ' पर्सनल ' पसंद नहीं उसकी बातें भी अच्छी नहीं लगतीं | उसके प्रति एक प्रिजुडिस पैदा हो जाती है , जो एक निर्विकार - निष्पक्ष विचारना के लिए नुकसानदेह है | तिस पर भी मुझे यह भ्रमपूर्ण विश्वास रहता है कि मेरी स्थिति उचित और न्यायपूर्ण है | लेकिन क्या यह सत्य हो सकता है ? जैसे  योगेन्द्र यादव की बाडी लैंगुएज से मुझे एलर्जी है - मेहरा मेहरा कर बोलते हैं | तो उनकी विचारधारा का भी मैं कायल नहीं बल्कि विरोधी हूँ | वहीँ अभय दुबे के साथ यह बात नहीं है जबकि उनके भी विचारों से मैं प्रभावित नहीं| अन्ना, रामदेव, केजरीवाल को मैं देखना तक पसंद नहीं करता, इसलिए मुझे इनके आन्दोलनों में दोष ही दोष नज़र आता है | लेकिन विरोधाभास यह कि यह बात प्रशांत भूषण , किरण बेदी के साथ नहीं है जब कि वे भी बिल्कुल गलत बातें करते हैं | इधर आइये तो उस चूरन विक्रेता के चेहरे से ऐसी चिढ़ हो गयी है कि परदे पर उसके आते ही मैं चैनल बदल देता हूँ | शाहरुख़ - सलमान के साथ भी कुछ ऐसा है लेकिन आमिर इससे मुक्त हैं | मैं व्यक्ति को विचार से जोड़ कर क्यों देखता हूँ ? विचार अच्छे देखता हूँ तो चेहरा मन में खिल क्यों जाता है ?
[ यह अतिविशिष्ट टिप्पणी है , ऐसा कोई लेखक लिखने का साहस नहीं कर सकता ]    

* बड़ा बुरा लगता है जब कोई " तिरंगा " को " घंटा " की तरह हिलाता है !

टेढ़ी टिप्पणियाँ मैं समझना जानता हूँ और उसका टेढ़ा उत्तर देना भी , यदि मैं चाहूँ | तिरंगा झंडा आदर पूर्वक ' फहराया ' जाता है, उसे टेढ़ा नहीं किया जाता, उसे झुकने नहीं देते भारत के वीर देशभक्त जवान | इसे गिरने से बचने के लिए कितने युवा वृद्ध नर नारी शहीद हो गए | कभी एक अन्ना ने उसका खूब अपमान डिस्प्ले किया था तो उनका वैसा हश्र हुआ | अभी यह उस पवित्र तिरंगे के ही श्राप का फल है जो रामदेव का यह हाल हुआ
* तिरंगा झंडा और राज्य का शासन कोई बच्चों का खेल नहीं है जो कोई इससे खिलवाड़ करे !

* निश्चित समझ में आता है कि गांधी उतने रैडिकल नहीं थे | प्रश्न समक्ष है , तब से अब तक हम कितने रैडिकल हुए ?  [ हमारे सेनिटरी कमोड साफ़ करने सफाई वाली आती होगी ]

======================   14 / 8 2012      ==================================
* उपनाम छोड़ना कोई आकाश में तीर मारना नहीं है | इससे जातिवाद का भी कोई बाल बाँका नहीं होने वाला है | लेकिन इतनी छोटी सी बात समझ में क्यों नहीं आती कि यह अपनी खुद की "मानसिकता " को प्रकट करने का एक लघुत्तम साधन भर है, जिस 'मानसिकता' की बात बहुत बढ़ चढ़ कर टिप्पणियों में की जा रही है  | समाज को मारिये गोली , ज्यादा ज़िम्मेदारी न उठाइए, वह आपके वश का नहीं है | जो कर सकते हैं बस उतना तो कीजिये, कर के दिखाइए | वह कोई नहीं करेगा क्योंकि किसी को कुछ करना ही नहीं है | ऐसे विवादों को बार बार उठाने का उद्देश्य ही यही है कि कैसे यह विषय जिंदा रहे , जातिवाद की चर्चा चलती रहे और उस पर राजनीति | कैसे हम अपनी जाति का खुलासा कर सकें कि देखो मैं तो उच्च हूँ अथवा निम्न हूँ | गैर बराबरी का  प्रदर्शन होता रहे जन्म के आधार पर, जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है | वरना सामाजिक जीवन जीने वाले किस व्यक्ति को यह सत्य- ज्ञान- अनुभव नहीं है कि नाम सहित व्यक्ति भी सुदृढ़ समतावादी हो सकता है और बिना नाम वाला व्यक्ति भी घनघोर जातिवादी | नाम छोड़ना निस्संदेह एक दिखावा भर है , लेकिन अपने 'मन' का दिखावा | ज़रा अपना मन दिखाओ तो भाई, यदि वह साफ़ है ! नहीं दिखा सकते, नहीं दिखाना चाहते , चिड़िये की आँख कहीं और है तो वहीँ बने रहो, पर दुनिया को मूर्ख तो न बनाओ |     


*
संदीप ने बिल्कुल सत्य, तार्किक और सटीक, अंतिम निर्णायक बात कह दी | तो अब तो यह बात बिल्कुल स्पष्ट, निर्विवाद रूप से तय हो गई कि यह कार्यक्रम सिर्फ सवर्णों के लिए है, और इसे मानने में किसी को कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए | इसे हम संदीप की गहराई से नहीं सोच पा रहे थे क्योंकि हम जाति के ख्रान्चों में सोचने के वस्तुतः आदी नहीं थे | सचमुच दलितों के पास कौन सा नाम है छोड़ने के लिए, जिसे वे हटायें ?
फिर,
* नहीं संदीप जी , व्यक्तिगत आक्षेप कोई नहीं करता , और व्यक्तिगत तो हम जहाँ थे वहीँ हैं | लेकिन व्यक्ति का सन्दर्भ समाज से तो जुड़ता है | हम कोई टापू ,आइलैंड  तो नहीं है | फिर यह मुद्दा भी केवल व्यक्तिगत नहीं है ? इसलिए, जब पढ़ेलिखे परिवर्तनवादी समताकांक्षी समाज में जाति छोड़ो [जाति छोड़ो और जाति तोड़ो पर भी दिनोदिन चर्चा हुई थी ] मुहिम की खिल्ली उड़ाई जाती है, तो किंचित दुःख होता स्वाभाविक हो जाता है | हम भी इंसान है और अपशब्दों से प्रभावित होते हैं | लेकिन यह सच है कि हम भले भावुक संवेदनशील , कहें कि यूटोपिया एवं रोमांटिसिज्म से ग्रस्त थे,दुनियादारी के छल छद्म से परिचित नहीं थे, लेकिन हम अपने प्रति ईमानदार थे | किसी राजनीति या जोर ज़बरदस्ती से हम इसमें शामिल नहीं हुए थे | नफरत थी हमें जातिवाद से | हम वाकई अपनी जन्मना सामाजिक जातीय श्रेष्ठता पर शर्मिंदा थे , जो मानुषिक एकता में बाधक बनी हुई थी | हम बराबर मनुष्य होना चाहते थे | लेकिन हमसे भूल हुई | हम नहीं समझ पाए कि यह तो हो ही नहीं सकता | अब लगता है हमने तो पाप किया था |
गलती का एहसास होता है तो याद आता है पूरा का पूरा महीनों का कार्यक्रम जिसका समापन प्रेस क्लब में हुआ था | तब मैं किसी को नहीं जानता था सिवा राजीव , प्रमोद , अनूप , हमराही , ओमप्रकाश , हरजिंदर , अवधेश , जैनेन्द्र आदि लगभग हमउम्र लोगों के | उत्साह में तब ध्यान नहीं दिया - चन्द्र दत्त तिवारी जी ने बोला तो था गांधी के चित्र को इंगित करते हुए कि वह उपनाम के साथ भी जातिवाद से मुक्त थे | लेकिन बताइए क्या करता ? क्या अपने मनोभाव को प्रकट करने के लिए जातिनाम हटाने का अख़बार में विज्ञापन देने जैसा छोटा सा काम भी न करते हम लोग ? क्या बहुत बड़ा गुनाह कर दिया ? फिर भी त्रुटि तो थी | बाद में परिचय होने पर रूपरेखा जी ने भी इसे हिन्दू एकता का [ किंवा संघी ] काम बताया [ शायद इसीलिये वह इसमें सम्मिलित नहीं थीं ]  तो मैं आश्चर्यचकित रह गया, जैसे आज संदीप ने बताया कि यह सवर्ण का काम है | अब समझ में आया कि हाँ , हिन्दू तो मैं फिर भी रह गया , और वह भी एक अपराध है , जाति से ज्यादा | लेकिन कहा है न कि प्रेम अंधा होता है, मानवता के कथित प्रेम में हम यह जुर्म कर बैठे | अब माफी तो माँगी जा सकती है ,पर पीछे मुड़ना संभव नहीं दिखता | ह्रदय की मार से यदि हमने जाति छोड़ने का छद्म [ ही सही ] किया था , तो अब समय के दबाव में जाति का पुछल्ला लगाने का नाटक करने को फिर विवश भले कर दिए जायँ, पर सत्य तो अपनी जगह पर कायम रहेगा कि केवल जन्म के कारण मनुष्य मनुष्य में भेद हम नहीं मानेंगे तो नहीं मानेंगे | अन्य तमाम भेद कुछ कम नहीं हैं ढोने के लिए | हम उस मौलिक कार्यक्रम को विफल नहीं होने देंगे, चाहें इससे सवर्ण एकता कायम होती हो, चाहें हिन्दू साम्प्रदायिकता बढ़े , चाहें उग्र भारतीय राष्ट्रवाद का उदय हो | गलत ही सही , हमें भी हक है अपनी अवधारणा बनाने का |
प्रमोद [श्री हरीश] कुछ बोलते नहीं , राजीव [हेमकेशव] पता नहीं कहाँ हैं ? वे उन दिनों हमारे नेता हुआ करते थे | वे बोलें तो कुछ बात खुले | मैंने अपनी तो बता दी | फिर हम लोग रेशनलिस्ट भी तो हैं | समय सन्दर्भ के अनुसार अपने विचार बदलने वाले | यदि वातावरण, जैसा कि बन रहा है , और परिस्थितियों ने हन्टर लेकर हुक्म दिया तो अलगाववादी - जातिवादी भी फिर हो ही लेंगे कभी |   

*हम भी जानते हैं राजीव मिश्र को | पर उन्होंने अपना नाम अपने माता पिता के नाम को सम्मिलित कर हेमकेशव बनाया तो उसे स्वयं निभाया | मेरे कहने की बात नहीं है | उनके प्रमाणपत्रों में कुछ भी हो पर उनके बयान इसी नाम से आते हैं, उन्होंने अपने घर पर यही नाम लिखाया है | अब मिश्रा का भूत हमारे सर से न उतरे तो वह क्या करें ? संदीप जी, व्यक्तिगत कोई दुर्भावना ईमानदार वैचारिकता में आड़े नहीं आनी चाहिए | मैं देख रहा हूँ कि आप जातिवाद से कुछ ज्यादा ही आक्रांत हैं , मनुष्य में इसके अलावा आपको कुछ नज़र ही नहीं आता | निश्चय ही आप किसी के बारे में कोई राय कायम करने को स्वतंत्र हैं | हमसे [ मुझसे ] व्यक्तिगत जो हो सका वह किया या कहिये कुछ नहीं किया | शेष आप तो इतना कुछ , सब कुछ कर ही रहे हैं | हम आभारी हैं आपके |      

* हम शर्मिंदा 
मेरा बाप शर्मिंदा 
पूत शर्मिंदा |
* किसी विधा में 
किसी में तो नहीं 
मैं कहीं नहीं |
* शुद्र है हम 
दलित नहीं हम 
पिछड़े नहीं |
* हवा में तीर 
मारने से क्या होगा 
मारते रहो |
* सारा दिमाग 
क्या मेरे ही पास है 
सब मैं सोचूं ?

* बनाई होगी ईश्वर ने दुनिया ! लेकिन उसने मनुष्य को तो शर्तिया नहीं बनाया | वह मनुष्य को बना ही नहीं पाया | उलटे मनुष्य ने उसे ही जड़ बना कर खड़ा कर दिया | देखिये मनुष्य को , क्या लगता है  यह मनुष्य है ? इतना धूर्त , चालाक , स्वार्थी ?

* संदीप जी विचारक कोई बनाने से नहीं बनता | और धनंजय जी , आप की विचार प्रवणता पर क्या शक , लेकिन उसे इतना गूढ़ , Gibberish बना रहे हैं कि प्रथम तो वह मानव प्रजाति की समझ में ही आनी मुश्किल हो जाती है, उसके सर के उपरोक्त गुज़र जाती है | और दूसरे उसकी सामाजिक तो छोडिये, कोई जीवनीय उपयोगिता नहीं रह जाती | विचारक तो वह जो मनुष्य के जीवन की समस्याओं से जूझे , अपनी बुद्धि भर | आइये काफी हॉउस , अपना मोर्चा , स्पष्ट आवाज़ etc में , मुद्दों पर दिमाग दिखाइए | लेकिन आप तो फेस बुक से ही रिसियाने पड़े हैं ! या स्वयं कोई सार्थक प्रवचन अपने ही ग्रुप में दीजिये , हम सुनेंगे न ! अभी तो आपके विचार अपठनीय - अश्रवणीय हैं = ये वन डी, टू डी, थ्री डी / छोड़ना पकड़ना क्या है ? इतने क्लिष्ट तो कृष्णमूर्ति भी नहीं हैं | कोई मछली पकड़ कर घर लाइए |       

* साम्यवाद भी उसी तरह का अलग दर्शन और विचार है जैसा जिन्ना ने मुसलमानों के बारे में कहकर अलग देश बनाया था - हम सब मामलों में अलग हैं , आस्था में , संस्कृति- खान पान-  व्यवहार -भाषा  में , कानून में , इत्यादि | उसी तरह जीवन के बारे में, सभ्यता के उदय, उत्पादन - वितरण -संपत्ति के बारे में, संगठन और राज्य प्रणाली में, संस्कृति और उसके विकास के बारे में , नर -नारी संबंधों में - परिवार संस्था और नैतिकता के बारे में, यहाँ तक कि साहित्य लेखन और इतिहास अध्ययन के के बारे में साम्यवाद [मार्क्सवाद - लेनिनवाद - माओवाद] सबसे अलग और अनूठा है | ईश्वर के बारे में इनकी राय बिल्कुल अलग है , भले व्यवहार में नहीं लाते , इनकी लाल किताब भी सर्वथा भिन्न है | इसलिए यह भी एक धर्म - एक मज़हब के ही समान है , और इनके मानने वाले लोग हैं उसी तरह के " समुदाय विशेष "  हा  हा  हा  |

* राजनीति की एक खराबी यह भी है कि वह सड़कें बहुत जाम करती है | हमारी पार्टी की यह नीति होगी कि इसके आन्दोलनों से जनजीवन और कानून व्यवस्था कुप्रभावित  हो |
* दल के सदस्य आपस में मानुषिक सांस्कृतिक सम्बन्ध तो रखेंगे , लेकिन उनसे संघ की भाँति पारिवारिक नैकट्य - सम्बन्ध नहीं बनायेंगे [जब तक कि ऐसा कोई सम्बन्ध कायम न हो ] | इससे एकजुटता में कुछ ह्रास तो हो सकता है , लेकिन वैचारिक सान तेज होगी और वे आपसी आलोचना या अनुशासनिक कार्यवाही में कोई संकोच , लिहाज़ और भेदभाव नहीं कर पाएँगे | यह एक बड़ी उपलब्धि और ताक़त होगी पार्टी की |

जनमत पार्टी & धार्मिक विकल्प
एक वैकल्पिक दल और धर्म के नाम पर जनमत-जनसमर्थन जुटाने और उनकी रीति-नीति तय करने हेतु खुले विचार-विमर्श की पत्रिका="प्रिय सम्पादक"(RNI-46167 /84) | इसके अतिरिक्त इस 'मासिक' के मूल स्वभाव के अनुसार यह 'सम्पादक के नाम पाठकों के स्वतंत्र पत्रों का पत्र' भी होगा, जिसमे होंगी- नागरिकों  की व्यक्तिगत/सार्वजानिक जीवन की समस्याएँ और सामान्य जनमंत्रणा |     

* मैं नहीं जानता अन्ना और रामदेव के आन्दोलनों में कितना नैतिक साहस , कितना भीड़ का बल है | लेकिन मैं इनका समर्थन नहीं करता |


* त्रिया चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं, दैवो न जानामि कुतो मनुष्यः |
अर्थ = स्त्री का चरित्र और पुरुष का भाग्य , भगवन भी नहीं जानता मनुष्य तो कुत्ता है | [Nonsense

* आपको पूजा पाठ करने का पूरा हक है , तो हमें भी आपके मानसिक स्तर के बारे में कोई राय बनाने का थोडा हक है |]

* निंदक नियरे | जो प्रशंसा करता है वह मित्र नहीं हो सकता | जो ब्राह्मणों के गुण गाता है वह उनका हितकारी नहीं हो सकता | जो दलितों की सब हाँ में हाँ मिलाता है वह उनका हितैषी नहीं हो सकता | जो मुसलमानों की चाटुकारिता करता है वह उनका शुभ चिन्तक नहीं हो सकता |

* जब गडकरी और शरद यादव रामदेव के साथ हो ही गए हैं , तो हमारे लिए भी क्या उचित न होगा कि हम इन्हें छोड़ रामदेव के साथ ही हो लें ? अब भाजपा और जदयू अपने बिस्तर समेट लें | इन राजनीतिक दलों की क्या आवश्यकता है जब ढोंगी संत ही देश पर शासन करने आ रहे हैं ?

* यह जनता भी क्या तो चीज़  है , मानो गरीब की जोरू | रामदेव भी इसे अपने साथ बताते हैं | अन्ना इसे अपने साथ बताते बताते चले गए | हर पार्टी अपने को इसका असली प्रतिनिधि बताती है | आखिर इस जनता के कितने रूप हैं ? क्या कोई उसका अपना अन्य स्वरुप नहीं है ? और जब वह अपना असली व्यक्तित्व दिखाएगी , तब ये संत और ये नेता कहीं दिखाई पड़ेंगे क्या ?
कही ये नागरिक के एक एक बाल को पूरापूरा वोटर तो नहीं मान ले रहे हैं ?

* यह संत है 
या कोई मसखरा
या कुछ और ?

* आज पढ़ा ; - गाँधी तो गाँव में मौजूद उस परचून वाले की तरह है , जो आपकी ज़रुरत का हर समान बेचता है और लिफाफे के पीछे पूरा बिल ईमानदारी से आपको सौंपता है |  [गोपाल कृष्ण गांधी]

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