शनिवार, 25 अगस्त 2012

02-07-12


*मैंने उन कपड़ों को सबसे ज्यादा प्रेम से पहना जो कीमत में निहायत सस्ते थे ||
-------------
[हाइकु व्याकरण -//- में कुछ कवितायेँ ]
* ज़िन्दगी भर
नाचना ही नाचना
नाचता तो हूँ !

* याद आ गया
उसने ही तो कहा था -
लहना सिंह -- !

* कहीं भी अब 
मिलने की जगह
असुरक्षित |

* प्यास बुझाता
पनघट तो प्यासा
किसको चिंता !

* माने ही नहीं
मेरे निवेदन को
वे चले गए ,
अब क्या करूँ
जब नहीं रुके तो
क्या जान दे दूँ ?

* एक रास्ता है
छूट निकलने का
बंधो ही मत |

* दृष्टि हमारी
चकाचौंध हो जाती
तुम्हे देखता |

* बिजली गिरी
चलो अच्छा ही हुआ
दर्प तो जला !

* नहीं बनना
बड़ा नहीं बनना
मुझे तुमसे |



* चकनाचूर
हो तो गया घमंड
मेरी जाति का !
--------------------
[कवितानुमा ] =

* मैंने कहा -
प्यार - -
उन्होंने
अच्छी है कविता
कहकर टाल दिया |

* तुमने कहा -
तुम चमार
मैंने कहा -
मैं नहीं चमार ,
तुम हो तो हो |
---------------------
[मैंने थोड़ा - थोड़ा अपशब्द लिखना शुरू कर दिया है - केवल प्रिय सम्पादक पर]
अपशब्द :=
*स्त्रीवादी समाज तब स्थापित होगा जब सेक्स में स्त्रियाँ पहल करेंगी और पुरुष उनकी बाट जोहेंगे | तब ' इज्ज़त ' पुरुष की जायगी | तब पुरुष दुष्चरित्र होगा |

* लड़के मनबढ़ हो रहे हैं , तो लड़कियों के भी दिमाग ख़राब हो रहे हैं | इसमें कोई आन्दोलन जोड़ने की ज़रुरत नहीं, समाज को देखने की बात है | और यह केवल बड़े घरों की बात नहीं है , उच्च - मध्य -निम्न घरों में भी लडकियाँ खूब मनमानी कर रही हैं , और अपने अलावा अन्य किसी के भी उपयुक्त नहीं बन रही हैं |   kwt

* जब तक आर्थिक स्थिति का तकाज़ा था तब तक आरक्षण ठीक था , अब उसमें सामाजिक स्थिति का भी हवाला आ गया तो मानो गुड़ में गोबर मिल गया | भाई ,एक ही लक्ष्य रखते तो वह प्राप्त भी हो जाता , और वह भी दो विरोधाभासी चीज़ें ---? खैर छोड़िए , लेकिन इससे और नुकसान दलितों का इस प्रकार हुआ कि देखा देखी छोटे बड़े भूमिधर ओ बी सी ने भी सामाजिक उत्थान के नाम पर आरक्षण की दावेदारी ठोंक दी | जबकि दरहकीकत न वे आर्थिक रूप से इतने कमज़ोर थे न उनकी सामाजिक दशा ही दलितों जैसी अछूत की थी | लेकिन मिल रहा है तो क्यों न लें , देने वाला ठाकुर राजा तो था ही ? देने वाला दबंग , लेने वाला दबंग | इससे यह तो शायद नहीं हुआ कि दलित का हिस्सा उन्होंने छीना , लेकिन यह ज़रूर हुआ कि वे ओबीसी को आरक्षण के खिलाफ उभरे असंतोष और सवर्ण गुस्से के स्वाभाविक रूप से परोक्षतः शिकार हो गए | उसे लगा कि यह तो एक सिलसिला शुरू हो गया है जो उसके गले तक आ जायगा | अब इसी प्रकार मुसलमानों को आरक्षण देने के खिलाफ फिज़ा भी अंततः दलितों को देय आरक्षण पर ही भारी पड़ेगा , यद्यपि प्रकटतः उनका कुछ काटा नहीं जा रहा है | यह सब आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाकर किया जायगा | लेकिन साधारण जनाकांक्षा यह हो सकती है कि अब सारे ही आरक्षण ख़त्म करो , जब उसे पचास फीसद से ऊपर जाना   ही है | वाकयी , यदि इसका क्षेत्र सीमित और सुनिश्चित सुपात्रों तक होता तो वह स्वीकार्य भी होता और प्रभावकारी भी | इसका क्षेत्र फैलने और फैलते जाने से इसकी  उपयोगिता अपना रंग खोती दिख रही है |  kwt
---------
अपशब्द :=  पाठकों मaapें aap me से जो कम्युनिस्ट हों वे कृपया डंडाधारी सपाइयों की आलोचना न करें | क्योंकि उन्ही के खानदान की एक नीति है कि सत्ता बन्दूक की नली से निकलती है | तो यदि देसी डंडे से कोई सत्ता का अभीष्ट प्राप्त कर रहा है तो उन्हें आपत्ति क्यों ?
-------------------
अभी गर्मी थी
किसान परेशान थे,
अब बरसात हुई
देखिएगा अब गावों पर
बिजली गिरेगी ,
महामारी फैलेगी |  6/7/12
-----------------------------------
ब्राह्मणवाद कितने सूक्ष्म तरीके से मनुष्य के भीतर काम करता है कि उसे कुछ पता ही नहीं चलता | उसको पकड़ पाना बहुत मुश्किल होता है | इसीलिये तो ब्राह्मणवाद के नाम में 'ब्रह्म' मिश्रित है ! इसे केवल तीब्र धार सतर्क मानववाद से ही काटा जा सकता है | देखें , यह भी ब्राह्मणवाद है, ये नैतिकता के कथित मूल्य उन्ही के दिए हुए हैं कि यदि किसी ने किसी से मित्रता कर ली तो वह व्यभिचारी हो गया[यी] , , किसी ने किसी को चूमकर अभिवादन कर लिया तो वह अपवित्र हो गया[यी] ,किसी ने चार विवाह कर लिया तो वह म्लेक्ष हो गया या  कोई किसी के साथ सो गया तो वह अगांधी हो गया, गाँधी नहीं रह गया | चिंतनीय विषय है कि किसी के sexual orientation [यौनिक अभिरुचि?] से उसके चरित्र का क्या वास्ता , यदि ब्राह्मणवादी व्यवस्था को सही न मान लिया जाय तो ? कोई स्त्री /पुरुष कितनी बार किस तरीके से सम्भोग द्वारा तुष्टि पाते हैं, इससे हमें क्या मतलब ?क्या लेना देना , यदि हम ब्राह्मण नहीं हैं तो ? और देखिएगा , ब्राह्मणवाद का पुख्ता सुबूत ,कि मेरी इस बात पर अभी मेरी आलोचनाओं की भरमार लग जायगी |      
-------
अभी तक बरसात नहीं हो रही थी , किसान परेशां थे | अब देखिएगा गावों  में बिजली गिरेगी | Shear  mismanagement  of  God . 
-----
उपरोक्त  को गाकर  पढ़िये , मज़ा आएगा | अरे नहीं , उपरोक्त  नहीं निम्नोक्त को | क्योंकि यहाँ होता यह  है कि जो ऊपर था वह नीचे हो जाता है | नोंसेंस कहीं का, बड़ा बनता है स्त्री - मुक्ति का पक्षधर !
[ Sorry , स्त्री-मुक्ति नहीं, स्त्री-सशक्तीकरण ]
------------
तुम तसल्ली न दो सिर्फ बैठे रहो ,
वक्त मरने का कुछ और टल जायगा |
देसी अंग्रेजी अनुवाद =
Don’t console me , only sit by me ;
The time of  my death will be shifted away |
------------------------
अरे !
बारिश हो रही है ,
छज्जे पर मैनें
तुम्हारे लिए
आँखें बिछा रखी थीं ,
देखो , कहीं
भीग तो नहीं गयीं !
{savan ki pahli barish mubaraq-5/7/12}
----------------------------
Diary – Notebook Dt – 4/7/12
शेर - फेर कर मुँह बैठते तो हो ,
         तुम्हारे सामने शीशा लगा है |

or - पीठ मेरी और करके बैठते तो हो ,
       ख्याल है कुछ,सामने शीशा लगा है |
or - पीठ करके मेरी जानिब बैठिये तो बैठिये ,
       जानिए भी एक शीशा आपके है सामने |,
-----
* ख्यालों में गुम
देख ही नहीं पाए
हम आपको !

* व्यंग्य को छोड़
लेखक के अधीन
बचा ही क्या है ?

* न कोई दर्द
न कहीं कोई पीड़ा
फिर भी कुछ !

* मतलब है
पढ़ने -लिखने का
बुद्धि खुलना |

* पैसा आएगा/            
तो बुराई आएगी/
विषमता भी |

* सोच रहे हैं
ज़िन्दगी के बारे में
जियेंगे कब ?
* जितनी खुशी
मिली है जीवन में
बहुत तो है !

* कोई सम्बन्ध
तोडा नहीं जा सका
अपुन से रे !

* चौबीस घंटे
कम पड़ जाते हैं
लिखने [के] लिए |

* लिख जाता है
मेरे हाथ से कुछ
[मुझसे कुछ कुछ]
लिखता नहीं |
---------
* मनुस्मृति की आलोचना तो होती है | गलत या सही मैं नहीं जानता , मैंने उसे पढ़ा ही नहीं | लेकिन यह तय है कि भारत में यदि दलित शासन स्थापित करना है और उसे कायम रखना हो तो उसे भी एक दलित - स्मृति बनानी पड़ेगी ,या ऐसा ही कुछ | और यदि उन्होंने उसे सारे "मनुष्यों" पर लागू करने योग्य समझा तो उसे साधारण मनुष्य मनुस्मृति की ही संज्ञा देंगे | जैसे  मनुस्मृति भी किसी एक की रचना नहीं बल्कि समय के साथ बनते रहने वाली नियमों की किताब रही है | तो दलित - स्मृति से  हिंदुस्तान को कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए |
* मैं सोच रहा हूँ कि इन विषयों पर नहीं बोलूं . तो एक अंतिम बात - | ऐसा नहीं कि लोग इसे समझते हैं होंगे लेकिन विचारों - आन्दोलनों की भीड़ में लोग भूल ज़रूर जाते हैं | वह यह कि हिंदुस्तान में सभ्यता की निजात हिन्दू में ही है , चाहे आप उसका कितना ही विरोध करें , चाहे बिलकुल उलट कर रख दें | चाहे आप धर्म विरोधी नास्तिक हों, या धर्मच्युत दलित ! नास्तिक और दलित आप तभी तक हैं जब तक आप हिन्दू हैं , हिन्दू में ही इसकी सम्भावना है | यदि आप हिन्दू नहीं हैं तो आप दलित नहीं हैं , हो ही नहीं सकते | किसी अन्य धर्म में दलित नहीं होते , नास्तिक तो कुछ दबे -छिपे मिल भी जायंगे | फिर आरक्षण कहाँ से पाएंगे , किस्से माँगेंगे ? और हाँ , किसको गलियाँ देकर अपना मन हल्का करेंगे ?

* मेरा ख्याल है , जो "फल" हमारे पूर्वज आदम और हव्वा ने खाया था , यदि वह सेव या गेहूँ था ,तो वह भी प्रतीकात्मक रूप से यौन अंगों - पेल्विस [ कटि प्रभाग ] तथा स्त्री जननांग का ही द्योतक रहा होगा | और , नहीं तो "फल/फ्रूट" का अर्थ रहा होगा - योनिक संसर्ग के 'फल'-स्वरुप प्राप्त "आनंद का "फल" |       
* स्त्री की स्वतंत्रता का असली मतलब है , उसका उसके शरीर पर अधिकार | इसलिए मैं अनामिका [ कवियत्री ] की इस प्रस्थापना को , कम से कम अपने लिए , फाइनल मानता हूँ कि प्रणय प्रस्ताव का अधिकार केवल स्त्री को होना चाहिए | सचमुच जबसे मैं इसका  पालन कर रहा हूँ , अपने अन्दर एक नयी मानुषिक सभ्यता का अहसास करने लगा हूँ | प्रणय कर्म में पुरुष का पहल बलात्कार ही होगा , यह तय है , और इसे आसानी से समझा जा सकता है |

* उमा भारती जी पूरे सेसन सदन में उपस्थित नहीं हुयीं , क्योंकि उनके ऊपर ऐसा कोई बंधन / प्रतिबन्ध नहीं है | इसीलिये मैं कहता हूँ कि चुनाव आयोग को इनका मानिटर होना चाहिए | कितने दिन इन्होने सभा अटेंड की ? नहीं की तो वेतन कटना चाहिए | इनके वेतन भत्ते  तय करने
अधिकार इन्हें स्वयं नहीं आयोग को होना चाहिए | इमके कारगुजारियों की वार्षिक रिपोर्ट , संपत्ति विवरण सहित आयोग को प्रकाशित करना चाहिए | चुनाव जीत लेने के बाद ये स्वच्छंद  न  रहने  पायें , इसकी व्यवस्था तो करनी पड़ेगी , वरना आज़ादी का सारा मतलब ये अपने ही हित में भुना लेंगे |      
  ------------------
-----------------
देखना है खर्च कितना हो गया इस माह ,
देखना है शेष कितना बैंक के खाते में है ?
---------------
[कविता]
वह औरत थी
ईंट के भट्ठे पर काम करती ,
वह थोड़ा सुस्ताने के लिए बैठी
और अपने पैर खुजलाने लगी ।
मैंने कहा - क्या भूतनी जैसा वेश बना रखा है
इतने गंदे नाखून ?
पैरों की सफाई का भी
ख्याल रखा करो ,
औरत की सुन्दरता
सिर्फ चेहरे से नहीं , उसके
पैरों से भी आँकी जाती है ,
और सुंदर लहराते बालों से भी
यह नहीं कि बस कड़वा तेल चुपड़ लिया ।
यह पकड़ो फेमिना , स्टारडस्ट
देखो और पढ़ो ।

उसने मेरे हाथ से पत्रिकाएँ ले लीं
फटे आँखों से पन्ने पलटती रही
फिर खिलखिला कर जोर से हँस दी
और मेरी किताबें
मेरी ओर फेंक दी ।--------
-------------------
डायरी नोटबुक 3/7/12
* [ कहानी ] - बाप का क़र्ज़
लड़का -लड़की दोनों एक दूसरे को पसंद करते थे | लड़का अच्छी नौकरी में था तो लडकी भी कुछ कम नहीं कमाती थी | लेकिन दहेज़ तो देना ही था | सो वांछित दहेज़ दिया गया और विवाह हो गया | अब लड़के के घर वालों ने गृह संचालन में लडकी की आमदनी से कुछ मदद की अपेक्षा की | लडकी ने कहा -क्षमा कीजियेगा मैंने अपनी शादी में दहेज़ के लिए अपने पिता से जो क़र्ज़ लिया था उसे मुझे दस वर्ष किश्तों में अदा करना है | उससे जो थोडा बहुत बचता है वह मेरे आने जाने और जेबखर्च भर को ही हो पाता है |

* कहानी = सफ़ेद चादर
लडकी वाले लड़के के घर शादी की बातचीत तय करने गए | सब बात तय भी हो गयी , बस शादी की तारीख तय होनी थी | तब तक लडकी के बाप की नज़र दीवान पर बिछे सफ़ेद चादर के लटकते कोने पर गयी | बेलौस उसने पूछा यह चादर आपके घर कैसे आई ? इस पर तो रेलवे का मुहर छपा है , और यह ए.सी. के मुसाफिरों को प्रयोग हेतु दिया जाता है , जिसे कुछ नीच और कमीने लोग अपने बैग में लेकर निकल भी आते हैं | मैं ऐसे घर में अपनी बेटी नहीं ब्याह सकता |
##
* [कविता ]
- ईश्वर एक कविता =
ईश्वर एक कविता तो है
लेकिन इतनी कठिन
कि मनुष्य इसे न समझ पाया ,
इतनी गहनायी की कविता
तुम क्यों बने प्रभु
कि उसमे मनुष्य उलझ गया
और तुम उसके मन में
उतर भी नहीं सके ?

- सेव का फल =
बड़े कमाल का फल है यह सेव भी
दुनिया , कहते हैं , इसी आकार की है ,
इसी को देखकर न्यूटन ने पृथ्वी के
खिंचाव को पहचाना था ,
और समझ लीजिये
ऐसा ही फल खाकर
आदम और हव्वा इस संसार में फेके गए थे
जिनसे हम मनुष्य बने , पैदा हुए
और आश्चर्य नहीं , जो डाक्टर
अब भी मनुष्यों से फरमाते हैं -
एन एप्पल अ डे - - - - |

- पड़ोस में जगरानी का मर्द
कल सीवर में घुस कर
सफाई करते समय
दम घुटने के कारण मर गया ,
आज जगरानी ने सातवें
मरियल बच्चे को जन्म दिया |
अब इस पर मुझसे
कोई कविता नहीं हो सकती |
##
* आप कहेंगे , और मैं भी सोचता हूँ कि यह क्या फितूर मेरे दिमाग में चला करता है , पर क्या करूँ ? आप बताइए कि हिन्दू धर्म के आलोचक तो सभी हैं | दलित भाई , कम्युनिस्ट लोग , ज्यादा पढ़े लिखे प्रगतिशील बुद्धिजीवी , मानवाधिकार कार्यकर्त्ता और सेकुलर राजनेता सभी | लेकिन क्या कभी आपने किसी छोटे - बड़े , पढ़े - अपढ़े , गवंई-शहरी , दरिद्र -दौलतमंद किसी भी मुसलमान को आप इस्लाम की आलोचना करते आप सुनते हैं ? मैं तो निष्पक्ष दर्शक की भाँति जो देख रहा हूँ , लिख रहा हूँ | अब यह तो नहीं हो सकता कि वहाँ कोई ज़रा भी विचलन न हो , यदि न भी होता तो आलोचना करने वाले उसे पाताल से खोज कर निकाल लाते | वही तो हिन्दू धर्मावलम्बी हिन्दू धर्म के साथ कर रहे हैं ? इनकी भी हर आलोचना वाजिब ही हो , ज़रूरी नहीं | जैसे उनका हर बात में इस्लाम का पिष्टपेषण तर्कसंगत नहीं |

* [व्यक्तिगत] :- मुझे इस बात का कोई दुःख नहीं है कि मैं कुछ प्रबंधित ढंग से नहीं लिख पाया | मुझे इस बात का कोई दर्प भी नहीं है कि मैंने इतना सारा छिटपुट लिख डाला |

* बताना चाहते हैं कि हम स्पष्तः प्रयोगात्मक रूप के किस तो ब्राह्मणवाद से बचना , उसका विरोध और आलोचना करना चाहते हैं ? उसके अंदर जो भरा है वह तो अपनी जगह पर है , लेकिन जब वह कहता है अंडा मांस मछली न खाओ खासकर मंगल बृहस्पति को , बिना नहाये पानी न पियो , सोम शनीचर पुरुब न चालू , उत्तर सिरहाना करके मत सोओ, इन इन दिनों दाढ़ी न बनाओ, देखो जेठ से छू न जाये, जूता उतार कर कमरे में आओ इत्यादि | तब बड़ी कोफ़्त होती है | ज़िन्दगी नर्क बना देते हैं ये |   

* अच्छे भले चार पढ़े लिखे लोग बातें कर रहे हों और बीच में आरक्षण का विषय आ जाय तो खटास आने लगती है | किसी को महसूस होने लगता है कि सामने वाला आरक्षित वर्ग का है और वह साला बिलावजह बाभन बन जाता है | ऐसे में यदि वह संपन्न है तो उसमे दया भाव का उदय होगा, लेकिन यदि गरीब हुआ तो द्वेष से घिर जायगा | कहना न होगा ये दोनों ही प्रवृत्तियाँ घातक हैं | कह सकते हैं ,यदि वे समझदार समतावादी हैं तो उन्हें आरक्षण का समर्थन करना ही चाहिए | ठीक है , यदि वे ऐसा करते भी हैं तो वे विश्वसनीय कहाँ होते हैं ? दलित सोचता है - देखो हरामजादा सहानुभूति में मुंहदेखी झूठ बोल रहा है | ऐसे में एक मीठा कार्यक्रम यह बनता है कि गोष्ठी में यदि लगे भी कि कोई ब्राह्मणवादी मानसिकता का है तो उसे वैसा घोषित करके गाली न दें , और यदि किसी को लगे कि कोई दलित भाषा बोल रहा है तो भी उसे दलित कहकर अपमानित न करें | कोशिश करें कि विषय ही बदल जाए , क्योंकि यह सीमित मात्र में नौकरियों के लिए दलितों और सरकारों के बीच का रिश्ता है | उसमे सवर्ण दखल न दें |बहस से कुछ होने- बदलने वाला नहीं है सिवा रिश्तों में खटास आने के | न भलमनसाहत दिखाने की ज़रुरत है न विरोध करने की | सांस्कारिक अभिव्यक्ति से ज़रूर बचने की ज़रुरत है |

* एक बहुत बड़ा छद्म बड़ी सफाई से फैलाया जा रहा है जो प्रियं ब्रूयात के हिसाब से तो ठीक है पर उसका पोल समझना ज़रूरी भी तो है | कहा जाता है कि अँगरेज़ तो हिंदुस्तान से धन दौलत लूट कर इंग्लैण्ड ले गए जबकि मुसलमान इसी मुल्क के होकर रह गए | कथन में सफाई और चालाकी कुछ भाँप रहे हैं आप ? एक चोर कुछ उठाकर ले जाने लायक सामान एकबार लेकर भाग जाता है उससे घर को ज्यादा नुकसान हुआ या उस मेहमान से जो घरजमाई बनकर बैठ गया ? फिर संपत्ति को उसे ले जाने की क्या ज़रुरत ? वह तो घर का समूचा मालिक ही हो गया

* आशा व्यर्थ है
बड़े लोग सच तो
नहीं बोलेंगे |

         सत्यवचन
         बड़े लोग कभी भी
         नहीं बोलते 
         लीपापोती करके     
         नाक बचाते |

सच बयानी
बड़े लोग करेंगे
सोचना मत |
---- - - - - - - - - - - - - - -- - - - - - - --  - -- - - - - - -

* दलितों के हाथ में सत्ता देने के मकसद के पीछे कोई दया भाव नहीं बल्कि हमारा और राष्ट्र का बड़ा स्वार्थ छिपा हुआ है |
एक तो यह कि यह सचमुच उनकी हकदारी की बात है ,और यदि किसी को उसका वाजिब हक दिलाने में हम किंचित भी सहायक होते हैं तो इससे बड़ा स्वान्तःसुखाय काम और क्या हो सकता है ?दूसरे यह की हमारे नास्तिकता  के आन्दोलन को यही वर्ग आगे ले जायगा | तीसरे  फिर उसके  प्रभाव में  व्यक्ति का प्रादुर्भाव और उत्थान होगा , जो कि हमारा अभीष्ट है | यदि व्यक्ति हमेशा जाति-पांति -संप्रदाय - धर्म- ईश्वर के चंगुल में फँसा रहा तो उसका वैयक्तिक स्वातंत्र्य कैसे फलेगा और मानुषिक  अस्मिता कैसे विकसित होगी ? इसीलिये हम दलितपन को भी एक धार्मिक संगठन बनने से बरजते हैं | छोडो भाई आदमी को ब्राह्मण तो उसे नहीं छोड़ेगा तो दलित को तो छोड़ दो | उसे लेकर हम नयी दुनिया बनायेंगे |

* समाज में स्वाभाविक रूप से यह होता है कि सब अपना अपना काम करते हैं | उसमें वे कुशल होते हैं , और उसे अंजाम देने में सफल होते हैं | लेकिन एक काम ऐसा है लोकतंत्र में राज्य बनाने का कि इसमें सबको शासन बनाने का काम करना होता है | अपना वोट देकर सब इसके पाप -पुण्य का भागीदार bante hain | ज़ाहिर है वे इस काम में पटु तो होते नहीं , सो उसे बिगाड़ कर अधिकतर पाप के ही भागी होते हैं और उन्ही के वोट के बल पर चतुर चालक लोग अपने लिए इसी दुनिया में स्वर्ग का निर्माण कर लेते हैं |
* यदि सिंचाई और सार्वजानिक निर्माण विभाग ईमानदार ही होते तो हर वरिष्ठ मंत्री इन विभागों को क्यों हथियाना चाहते ?

* अरविन्द केजरीवाल चहक कर कहते हैं देखो मैंने कहा न था कि वह मंत्री भ्रष्ट है ? इसी प्रकार और भी १५ मंत्री भ्रष्ट हैं | लेकिन क्या हमने यह नहीं देखा कि वह मंत्री पुराने कायदे कानूनों के मार्फ़त ही सजायाफ्ता हुआ , लोकपाल बिल से नहीं ?

* एक दर्शन उग्र राष्ट्रवाद के विरोध के नाम पर राष्ट्र को ही नकार रहा है , टब के पानी के साथ बच्चे को भी फेंके  दे रहा है , दूसरी तरफ एक नीति बड़ी सहजता से देश को  दारुल इस्लाम तक पहुँचाने की समझदारी और बुद्धिमत्ता से लैस है | कौन विजेता होगा , समझना कहाँ मुश्किल है ?

* जंगलों में कुछ विद्वान दार्शनिक अपने वसूलों का प्रैक्टिकल  ज़मीन पर उतारने के नाम पर भोले भाले आदिवासियों को बकरा बनाकर बलि पर चढ़ा रहे हैं , तब दलित आन्दोलन उनका कोई विरोध नहीं कर  रहा है | अच्छी गफलत में हैं वे |
जब कुछ महान सिद्धांत परस्त लोग अपने क्षेत्र के समस्त आदिवासियों को मरवा देंगे , तब वे किनके सहारे बचेंगे ?
सरकार को क्या है ? उसी के पास जवानों की कहाँ कमी है ? पुलिस में  और भर्तियाँ  कर लेगी | फिर पुलिस आदिवासियों को मारे , आदिवासी पुलिस को मारें उसके ऊपर क्या फर्क पड़ता है ? लेकिन सामाजिक आंदोलनों को तो इसका दुष्परिणाम सोचना था ? यह नहीं सोचते माओवादी , सरकार की तरह वह भी संवेदनहीन संस्था है | और यह तो भविष्य के गर्भ में है कि जब इनका शासन आएगा तब ये कौन सा स्वर्ग उतार लायेंगे ?
अभी तो सीमा आज़ाद भी बच जायेंगी और तमाम सिद्धात सहयोगी , जिनकी कोई कमी नहीं है | फिर उनके लिए अक्षम कोर्ट के दरवाजे खुले हैं | ये कोई माओवादी अदालतें तो हैं नहीं कि सुनवाई का कुछ नाटक हुआ और फिर  ठांय - ठांय | इतना परेशान होने कि ज़रुरत क्या है ? क्या इतनी बड़ी क्रान्ति की कोई कीमत नहीं अदा करेंगे ?
कोई दुःख इतना बड़ा नहीं होता कि सरकार से इस तरह का युद्ध छेड़ देते आदिवासी , यदि उन्हें बरगलाया - उकसाया न गया होता | क्या ये परेशानियाँ मुग़लों-अंग्रेजों के ज़माने में न थीं ? या सब लोकतान्त्रिक सरकारों को डावांडोल करने का इरादा है ? आदिवासी , आदिवासी तो थे अशिक्षित , वे इतना बड़ा दर्शन सीखकर माओवादी कैसे हो गए ? फिर जब तुम इस व्यवस्था को ही नहीं मानते ,तो इससे मानवाधिकार की आशा ही क्यों करते हो ? अपने वकील संगठनों से इसकी गुहार क्यों लगवाते हो ?
बड़े भोलेपन से कहा जाता है कि उनके झोले में तो बस कुछ किताबें थीं | क्या किताबें कुछ नहीं कहतीं ? किताबों को इतना नज़रअंदाज़ वाम संगठनों ने तो कभी नहीं किया , बल्कि कई तो किताबों के प्रकाशन और विपणन को ही अपना एकमात्र कार्य ही बनाये हुए हैं , इस प्रत्याशा में कि ये ही एक दिन क्रांति लायेंगीं | मेरा कोई ऐतराज़ नहीं है , पर इतना झूठ क्यों बोलते हैं लोग जो बर्दाश्त से बाहर हो जाय , आँखों में धुल झोंकने के समान ? ठीक है ताल ठोंक कर कहो कि हमारा संघर्ष है व्यवस्था के साथ | तो फिर व्यवस्था का अत्याचार भी झेलने का साहस रखो , रोते क्यों हो ? सुकरात ने क्या सच बोलकर सत्ता का विष पिया नहीं था ? 2/7/12
---------------

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें