लम्बे समय तक जब तक
चन्द्र दत्त तिवारी जी D -10
/5 , पेपर मिल कॉलोनी में थे , तब तक वह एक स्थायी विचार केंद्र के सामान
रहा औपचारिक / अनौपचारिक रूप से | इसके अतिरिक्त उन दिनों जो केंद्र कार्य रहे थे मेरी स्मृति
के अनुसार एक तो था माह के दो शनिवार चलने वाला नवचेतना केंद्र , अशोक मार्ग पर गोष्ठी जिसमे तमाम रिटायर्ड
आई ए एस , आई पी एस , न्यायाधीश हैं , और जो अब भी नियमित चल रही है , जैसा कि अख़बार से पता चलता है , क्योंकि उसे हम लोगों ने पहले ही त्याग दिया
था , जब डॉ एम एम एस सिद्धू
से शिकायत करने के बाद भी बात नहीं बनी | एक हर्ष नरायन जी का था नरही में उनके अपने
घर पर , जिसका नाम लखनऊ अकादमी
जैसा कुछ था | विश्वविद्यालय में
कुछ थे / रहे होंगें क्योंकि वहाँ विचार केंद्र बनते बिगड़ते रहते है अकादमिक सेसन के
साथ जैसे कभी ' सोच - विचार ' भी कोई था | अम्बरीश का थिंकर्स फोरम था और ज्यादा याद
नहीं | हाँ जब तक राजा साहेब
कोटवारा [फिल्म निर्माता मुज़फ्फर अली के पिता] जिंदा थे उनकी ह्युमनिस्ट यूनियन में भी यदा - कदा गोष्ठी हुआ करती थी | और तो अन्य औपचारिक सभा- सेमिनार प्रेस क्लब
, इप्टा ऑफिस , जय शंकर सभागार आदि स्थानों पर हुआ ही करते
थे | पार्टियों और संस्थाओं
की भी अपनी सभाएँ थीं | एक महान पाठक और पत्र
लेखक स्व के.के .जोशी के घर भी हम लोग वक़्त ज़रुरत बैठक कर लिया करते थे | बाद में अनुराग बाल केंद्र , निराला नगर में चला | उधर लखनऊ मोंटेसरी में शिव वर्मा जी भी सक्रिय थे | फिर जितना मैं जानता हूँ, या मुझे याद आता है , या जिनमे मैं शरीक होता था उन्ही को तो बता
पाऊँगा | अन्य तमाम चलते रहे
होंगे , जो उन्हें जानते हों
वे जानें | #
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साइंटिफिक टेम्पर से
साइंटिफिक टेम्पर तक : Story
of Lucknow School of Young Thoughts
=
हुआ यूँ की जिस विभाग
में मैं नौकरी करता था ,फील्ड कर्मी होने के
नाते मुझे अपने अधिकारी के निवास पर जब -तब जाना पड़ता था , और वह महानगर में रहते थे | एक दिन वहां से लौटकर बहुत थका हुआ मैं पास
के फातिमा अस्पताल के सामने ढाबे पर चाय पी रहा था | बगल में ही तख्ते पर कुछ और लोग बैठे थे | मैंने सुना एक व्यक्ति अपने साथी से कह रहे थे कि हिंदुस्तान
में साइंटिफिक टेम्पर संभव ही नहीं है | मैं चौंक गया ,आलस्य फटाफट दूर हो गया , क्योंकि यह मेरा प्रिय चिंतन और कर्म का विषय
था | मैंने उनकी ओर परिचय
का हाथ बढ़ाया और चर्चा में शामिल हुआ | वे थे श्री कृष्ण मुरारी यादव , यादव भवन के सबसे अग्रज और उनके मित्र श्री
राय साहेब , कवि | इसी बीच संयोग से पता नहीं कहाँ से रिक्शे
से प्रमोद कुमार श्रीवास्तव उधर से गुज़र रहे थे | मैंने उन्हें फ़ौरन रोका और खुशखबरी बताई | शुभ मिलन प्रारंभ हुआ | हम यादव भवन गए |
यादव जी ने बंगाल के
शानिवारेर गोष्ठी की परंपरा का इतिहास बताया
और यह भी कि Lucknow School of Young Thoughts
उसी तरह से चलाने की उनकी मंशा थी | दोनों इतिहास के आदमी थे , सहमत हो गए = प्रत्येक शनिवार सायं ५ बजे
स्थान यादव भवन , महानगर में मिल बैठने
का सिलसिला शुरू हो गया | सदस्य बहुत नहीं थे
पर बढ़ते गए | कोई बंधन न था पर इसका
होना निश्चित होता था | उसके कुछ चेहरे थे
हरजिंदर , मुकेश त्यागी , पुनीत टंडन ,विपिन त्रिपाठी , आलोक, मैं और प्रमोद जी | हम पर तो उन दिनों इसका नशा सवार था | कभी कभी आने वालों में थे अवधेश खरे , भुवनेश मिश्र, राजीव हेमकेशव | अब इसके आगे हरजिंदर भले से बता सकते हैं
क्योंकि वे अत्यंत नियमित थे और विषयों के
समझदार भी | लेकिन शुरू में बिना
विषय के अनौपचारिक चर्चा ही होती थी पर होती गंभीर और दिमाग की भुजिया बनाने वाली थी
| ज्यादातर तो सूत्रधार होते यादव जी और प्रमोद जी पर बहस में सभी खुल कर भाग लेते थे, इसलिए हमें बहुत उपयोगी और रोचक लगती थी |
तभी एक दुर्घटना हो गयी | मेरी एक वन लाइनर पर क्रुद्ध होकर भुवनेश जी ने कह दिया कि मैं
इनके हाथ का छुआ पानी भी नहीं पियूँगा | सभा सन्न हो गयी , यह बात लोकतान्त्रिक
मूल्य के विपरीत थी | मैं तो खून के आँसू पी गया { अछूतों की दशा का मन में अनुमान -अनुभव करते }, लेकिन युवा -उत्साही प्रमोद जी को चैन कहाँ ? तब
उन्होंने तय किया विषय को लेकर चर्चा करने
की और लिखित परचा पढ़ने की , जिससे विषयांतर न होने पाए | नारी मुक्ति , धर्म निरपेक्षता -- आगे याद नहीं | इस पर प्रमोद जी प्रकाश डालें तो ही ठीक होगा | बहुत दिनों तक ऐसा चलता रहा , पर किसी दिन यादव भवन के पड़ोसी घोसियों से
रंजिश में स्कूल में व्यवधान पड़ गया [ इसके समर्थ गवाह अवधेश जी हैं , मैं उस दिन गाँव गया था ] |
लेकिन मैं मेंढक तोलने से कहाँ बाज़ आता ? यादव जी से मुलाकातें तो होती ही थीं , तो उनकी दुकान विनायक गैस सर्विस पर ही लोग
मिलने लगे , यद्यपि वह ऊर्जा अब
न थी | वहीँ पर प्रगतिशील
लेखक संघ के भी लोग आये | किसी से भी मिलना , वार्ता करनी होती तो उसके लिए हमारे पास यही
जगह थी , जिसे बौद्धिक कह सकते
थे | यहीं पर हैदराबाद एकता
के सेकुलर सामाजिक - राजनीतिक कार्यकर्त्ता कुद्दूस भाई भी आये | उनसे सबकी लम्बी चर्चा हुयी | प्रमोद जी वह सब अच्छी तरह समझते थे | मुझे राजनीतिक धर्मनिरपेक्षता में कोई रूचि
न थी, मैं उसका आध्यात्मिक
पक्षपाती था | सो मैंने नादानी में पूछ लिया -- " लेकिन
कुद्दूस भाई , साइंटिफिक टेम्पर का क्या होगा ?" और उन्होंने मुझे सेट
बैक दिया - " इसका अभी समय नहीं आया है " | अतः वह केंद्र भी बंद हो गया | तदन्तर मैंने तिवारी [सी डी] से उनके निवास
पर परमिशन चाहा |
उन्होंने पहले तो 'हाँ' कह दिया पर दुसरे दिन शर्त लगा दी की किसी उद्देश्य के तहत बैठो तो
बैठो , नहीं तो नहीं | तब सेकुलर सेंटर की भूमिका बनी और वह बना
भी , जिसमे मुख्य भूमिका निभाई के .के .जोशी ,रूपरेखा वर्मा , प्रमोद कुमार ,आलोक जोशी और कहना चाहिए जय प्रकाश ने जिन्होंने बड़ी मेहनत
की | प्रभात जी भी शायद तब तक मैदान में आ गए थे | थोड़ा अपने योगदान से भी इन्कार नहीं करूँगा
, क्योंकि मैं संयोजक चन्द्र दत्त तिवारी जी का एकमात्र सचिव था
| उसे विस्तार से आलोक
ही बता सकते हैं क्योंकि वह उस समय सबसे युवा -सक्रिय सदस्य थे , और वह और प्रमोद जी राष्ट्रीय सम्मलेन के
अवसर पर रात रात भर बिहार से आये और आयीं प्रतिभागियों
से बहस रत रहते थे, और अवसर मिलने पर मुंबई
से आई पत्रकार ज्योति पुनवानी के साथ | उसकी अलग कहानी है जो आडवानी की रथ यात्रा के साथ अंत को प्राप्त
हुई | आगे चलकर प्रमोद जी
यादव जी के साथ 'लखनऊ एकता रपट ' निकालने लगे और हम
रूपरेखा जी के साथ ' नागरिक -धर्म समाज
' में सक्रिय हुए | लेकिन मेरी फितरत समाज
कार्य में कम विचार कार्य में ज्यादा थी , जिसके लिए हमारे पास जगह न थी | सो , मैंने
फिर बाँध छेंक कर रूपरेखा जी और राकेश [ इप्टा] को यादव जी के निवास पर ले जा
कर गोष्ठी प्रारंभ करनी चाही | चौथे सहभागी के रूप में उपस्थित हुए प्रमोद जी | विषय साइंटिफिक टेम्पर ही था | अन्धविश्वास पर चर्चा छिड़ी तो पता नहीं क्यों
बात बिगड़ गयी | यादव पक्ष यह सिद्ध
करना चाह रहा था कि पोलियोड्रॉप भी तो अन्धविश्वास है , या ऐसा ही कुछ | फिर तो वहाँ दूसरी बैठक होने की नौबत नहीं
आई , मैं खिसिया कर रह गया
जो कि चाहता था कि एक जगह मिलने -बैठने की गुंजाइश बने | फिर तो मैं , निराश hibernation
period में आ गया | कभी- कभी यादव जी के घर चला जाता था , जो
तमाम शायरों को कलमकारान - ए - लखनऊ के नाम से हर माह के ग्यारह तारीख को नशिष्त-
दरबार चलाते थे , जो उनकी मृत्यु तक चला | 'नागरिक -धर्म समाज' [जिसमे मेरी जान थी] का कायाकल्प " साझी
दुनिया " में हो गया , जिसे वीसी पद से रिटायर होकर रूपरेखा जी यशपाल
जी के घर पर अवस्थित कार्यालय से अविराम चला रही हैं | वहाँ चल रही हर वृहस्पतिवार सायं चार बजे
की बैठकों में कभी जाना हो ही जाता है | पर अब कहीं कुछ नहीं बोलता, अनबोलता मशीन हो गया हूँ मैं | मैं समझ गया हूँ कि मैं अप्रासंगिक हो चूका हूँ , शायद सदा ही रहा था , और वही मेरी असफलता का कारण | अब
मैं कुछ फुटकर- स्वतंत्र मित्रों और कविता - कहानी - पत्र लेखन -ब्लॉग लेखन
और फेस बुक में अपना मनोवांछित लिख -पढ़ -कह कर
मस्त रहता हूँ | यादव जी स्वर्ग सिधार
गए [ वह उसे मानते न थे] , प्रमोद जी विश्वविद्यालय
में हेड हैं ,किताबें लिखने और अपने
अकैदमिक्स में मशगूल हैं , आलोक मुंबई गए , हरजिंदर दिल्ली | पुनीत की दर्दनाक मौत हो गयी सपत्नीक | एक दिल
के टुकड़े हज़ार हुए , कोई यहाँ गिरा कोई
वहाँ गिरा |
तो यह थी किस्सा - कोताह Lucknow School of Young Thoughts की कहानी, Scientific Temper से शुरू , Scientific Temper पर समाप्त | लेकिन
हाँ , यंग का अर्थ विचारकों
की जवानी से नहीं विचारों के जवानी से था | यह उसकी विशिष्टता भी थी और , मेरे ख्याल से यही उसकी कमजोरी भी साबित हुयी
| यादव जी तो नवीनता
की रेंड ही मार देते थे और कुछ अपने ख़ास बने - बनाये विचार इस तरह आगंतुक पर लाद देते
थे , कि वह फिर दोबारा आने
का नाम न लेता | और हम भी कुछ नया कहने
के उत्साह में कुछ ऐसा कह जाते जो लगभग निरर्थक और अग्राह्य होता | तिस पर भी दुःख इस बात का नहीं है कि स्कूल
बंद हो गया , शोक यह है कि सचमुच
नया, प्रिजुडिस विहीन , निर्वैयक्तिक , स्वार्थ रहित मानुषिक विचार प्रक्रिया शुरू ही नहीं हुई जैसा कि स्कूल
का स्वप्न था [ ऐसा मुझे लगता है ] |
यह सारी कथा अस्सी और कुछ नब्बे की दशक को छूते हुए
है | इतनी पुरानी यादें
लिखने में कोई त्रुटि हो गयी हो , कुछ छूट गया हो और मेरा
लेखन व्यक्तिगत होना तो निश्चित है , उसके लिए यह अकिंचन हमेशा क्षमा प्रार्थी रहेगा | # kwt
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