[ उद्गार - कविता ]
* कुछ पाना तो है
कुछ पाने की इच्छा तो है ,
लेकिन किसी के मुँह से
निवाला छीन कर नहीं |
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राजनीति का मतलब = चुनाव का
चक्कर और चकचक | इसी में न पड़ने के
कारण अन्ना अपने आन्दोलन को अराजनीतिक बताते हैं | दूसरी ओर एक मैं
हूँ जो संपादक के नाम एक पत्र लिख कर भी ताल ठोंक कर कहता हूँ कि मैं 'राजनीति' कर रहा हूँ |
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उफ़ ! आये दिन के ये
चुनाव | आज नगर निगम का
चुनाव है , कल विधान सभा का चुनाव था , परसों लोक सभा का चुनाव होगा | कितने चुनावों में
हम अपना अमूल्य वोट का अपव्यय करें ? एक देश , एक राष्ट्र , एक राष्ट्रपति का
चुनाव हो जाता तो ----- [ जैसा कि लोग
कह रहे हैं कि एक देश एक पढ़ाई , एक परीक्षा --] 23/6/12
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Be it known to all
यह सर्वविदित हो कि देश में कुछ लोग ऐसे
पैदा हो चुके हैं जो गेरुआ वस्त्र देखकर ही भड़क जाते हैं |
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* मैं ब्राह्मणवाद पर अनायास ही सोचने लगा जब कि मैं ब्राह्मण नहीं संभवतः शूद्र
की श्रेणी में आता हूँ | फिर जब जन्मना श्रेष्टता न्यूनता नहीं मानता तो नहीं मानता | यह जिद है हमारी | भले
संस्कारगत या पालन पोषण , शिक्षा दीक्षा में विविधता के
कारण अंतर , अथवा यूँ हर व्यक्ति की पृथक इयत्ता और प्राकृतिक विशिष्टता को स्वीकार करता
हूँ | लेकिन यह भी मानने में हमें परेशानी है कि मुसलमान - दलित -ब्राह्मण के बारे
में सोचने से पहले स्वयं मुसलमान - दलित -ब्राह्मण हो लिया जाय | यह तो लोकतान्त्रिक
विचारशीलता के ही विपरीत हो जायगा | तो अब सोचना है कि ब्राह्मण को पूज्य
मानने का क्या कारण हो सकता है ? एक तो यह समझ में आता है कि उसने अपने जिम्मे
केवल पढ़ने- पढ़ाने का
काम रखा , और ऐसे लोग
स्वभावतः परजीवी होते ही हैं | जैसे आज भी
विद्यालयों - विश्व
विद्यालयों के अध्यापक , कवि -कलाकार क्या करते हैं ? दूसरे यह कि वह कभी राजा नहीं नहीं बना | परोक्षतः उसने
अपने ज्ञान -विज्ञान से
राज्य शासन को प्रभावित , किंवा संचालित भले
किया , पर राजा तो क्षत्रिय ही रहा | चाणक्य का उदाहरण ज्वलंत है | तीसरे उसने कभी धन
नहीं बटोरा | पुरानी किसी भी कहानी में धनी बाभन का उल्लेख नहीं मिलता | धनाढ्य सेठ वणिक-बनिया ही होता है पर " किसी गाँव में एक
गरीब ब्राह्मण "
ही रहता
मिलेगा | प्रहार कटु हो जायगा यदि कोई कह दे कि वह दलित का पैर छूने को तैयार है यदि
दलित यह घोषणा कर दे कि " दलितों का
धन केवल भिक्षा "
| यह मामूली
बात नहीं थी कि उसने अपने लिए भिक्षावृत्ति सुनिश्चित की , न उसने एन जी ओ
बनाकर या संतई का ट्रस्ट बनाकर करोडो की संपत्ति जमा की | उस ब्राह्मण की आज
के ब्राह्मण से तुलना अनावश्यक है | अब ब्राह्मण भी
मुख्य धारा में आ गए हैं , और तबसे धनी- मानी बनने
लगे हैं जबसे सर्वजन प्रयोग करके उन्हें सत्ता , शासन और राज्य में सीधे बिठाया गया | निस्संदेह सामान्य
ब्राह्मण अब भी कुछ सनातन संस्कार के वशीभूत अपने को थोड़ा अनुचित गुमान
में रखता है , पर यह एक सामान्य मानुषिक दोष है जिसका परिमार्जन समय के साथ होना ही है | उसे तो मिटना ही
है और सामान्य नागरिकता की श्रेणी में आना ही है | लेकिन यदि कोई
वर्ग या समुदाय अपनी श्रेष्ठता की सीढ़ी विशेष तौर पर बुलंद करना चाहता
है तो क्या उसके लिए उचित न होगा वह इसका सूक्ष्म
अध्ययन और अनुकरण करे कि आखिर गरीब , दीन- हीन ब्राह्मण किस तरह , एक- दो , दस -बीस साल
नहीं सदियों तक समाज का सिरमौर बना रहा ? उससे कुछ सीखें तो आप भी वैसा बन सकते हैं , आप भी अब वेद पढ़
सकते हैं कोई नया मनुस्मृति गढ़ सकते हैं [ गढ़ा ही है
संविधान ] | आप विशिष्ट
ब्राह्मण नहीं बनना कहते तो आप भी सामान्य नागरिकता के पायदान पर आइये , सबको समान समझिये | वर्ना ब्राह्मण और
आधुनिक लोक -मानव के बीच
क्या अंतर रह जायगा ? इस लक्ष्य के लिए
अब केवल उसे गाली देने या चिढ़ाने से तो कुछ हासिल होने वाला नहीं | मायावती जी ने उसका साथ लेकर
शासन करना सत्य सिद्ध कर ही दिया , और आश्चर्य क्या कि महान
आंबेडकर ने अपने आह्वान में ' शिक्षित बनो ' को सर्वोच्च स्थान
दिया ?
अंत में एक महाप्रश्न
अपने आप से है - " यदि
ब्राह्मण हमको अपने बराबर नहीं समझता था , तो क्या हम ब्राह्मण को अपने बराबर समझते हैं ? "
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एक साहित्यिक बदमाशी जैसा कुछ सूझ रहा है | मैं ब्राह्मणों की
उपमा मुग़ल बादशाह औरंगजेब से देना चाहता
हूँ | औरंगजेब भी
टोपियाँ सिलकर और कुरान का हस्तलेख करके अपनी आजीविका चलाता था , पर अपने शासन में
बहुत कठोर था | उसी प्रकार ब्राह्मण भी अपने लिए धन केवल भिक्षा रखता था , पर सामाजिक नियमों
में बहुत कठोर था | वैसे भी यह इसके बारे में प्रसिद्ध है कि
हिन्दू दूसरों के लिए दयावान पर अपने लोगों , मसलन दलितों के
प्रति बहुत निर्मम है |
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*यदि हिंदुस्तान -पाकिस्तान को एक करने की बात न करें तो क्या
हिंदुस्तान में सिर्फ मंडल - कमंडल , अगड़े - पिछड़े , दलित -ब्राह्मण , भाजपा - कांग्रेस की ही राजनीति चलेगी ? इससे देश कहाँ जायगा ? यह तो ' दूसरी -तीसरी गुलामी " की ओर जाने जैसी
बात होगी , यदि हम केवल अपने
देश में नई - नई समस्याएँ
जन्म देकर उसमे उलझते रहे और अपने आगे -पीछे , दायें -बाएँ , ऊपर -नीचे , अडोस - पड़ोस कुछ
दीन -दुनिया की
ओर नहीं देखेंगे ? आखिर देश भी कोई
चीज़ है या नहीं ? देश रहेगा तभी आरक्षण - संरक्षण , आर्टी-पार्टी
रहेगी | जिन्ना गलत थे तो
भी उनके पीछे खड़े होकर तमाम मुसलमान विभाजन के पक्ष में डायरेक्ट एक्सन तक पर उतारू हो गए और
जिन्ना के सिद्धांत को व्यवहृत करके पाकिस्तान बनाया | अब , जब हम उसी जिन्ना
को आधार बनाकर भारत में नॉन -इस्लामिक
स्टेट चाहते हैं तो हिन्दू बगलें झाँकने लगता है क्योंकि उसे नपुंसक न भी कहें तो
नैतिक रूप से नासमझ और कमज़ोर तो कहा ही
जायगा | और हम जानते हैं कि अंदरूनी विभाजन उसका कारण है, और वह सच है | लेकिन आश्चर्य है कि वह
और किसी न किसी प्रकार का विभाजन हर धर्म में है पर उसका रोना वे हर समय नहीं गाया
करते | मौक़ा पड़ने पर वे एक हो जाते हैं | और यह ध्यान देने
और याद रखने वाली बात है कि भारत हिन्दू है तभी उसमे आरक्षण है | और यह उन वर्गों
तक पहुँचने जा रहा है जो हमेशा शासक वर्ग रहा है | यदि यह हिन्दू नहीं
रहा तो यह सब कुछ नहीं रहेगा | क्या पाकिस्तान -अरब -ईरान -ईराक में आरक्षण
है , इसका पता लगाना पड़ेगा | अलबत्ता यहाँ आज दलित - मुस्लिम एकता की
मुहिम और राजनीति भारत राज्य पर फिर से कब्ज़ा करने के तहत
चलायी जा रही रणनीति है | जब कि ज़मीन का थोड़ा सा भी अनुभव रखने वाला जन यह यथार्थ जानता है कि शहर का
उच्च वर्ग छोड़ दीजिये , गाँव का गरीब मुसलमान भी हमारे दलितों के प्रति
वही हेयभाव रखता है , जैसा कि ब्राह्मणों के दिलों में होता बताया जाता है , या मान लें कि
होता है | फिर भी यह कोई कैसे भूल जाता है कि भारत के सभी
वर्ण किसी भी तरह एक साथ रहते तो आये थे , और उसमे बाह्य
जातियाँ - मुस्लिम -ईसाई- पारसी भी शामिल होते रहे | लेकिन मुसलमान
आज़ादी की भनक मिलते ही भारत से छटक कर अलग हो गाया जहाँ उसे इस्लामी संप्रभुता मिलनी
थी ? नहीं रह सके वह अपनी हनक , अपनी अलग संस्कृति और सत्ता के बगैर
लोकतान्त्रिक भारत में | ठीक है उस समय नेहरु का दबदबा था , पर गुंजाइश तो थी
लोकतंत्र में उनके शासन के बारी की या उसमें हिस्सेदारी की , जिसे उन्होंने
गवाँ दिया | # 23/6/2012 kwt
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