शनिवार, 25 अगस्त 2012

28-05-2012


गीत का मुखड़ा : - 
सोने की तरह तपना , तपकर सोना बनना ,-
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 शठे शाठ्यम समाचरेत
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 *बड़ी खेमे बंदी है भाई विचार जगत में , और वही अब साहित्य जगत भी हो गया है | ज़रा सा भी अलग सोच लो या कोई शाब्दिक क्रीड़ा करना चाहो तो डर बना रहता है कि कहीं उस टोले का न मान लिया जाऊँ ! अरे भाई मैं प्रगतिशील हूँ तो अपने मन से और दकियानूस हूँ तो स्वेच्छा  से | इस पर किसी की क्या दबंगई ? लेकिन नहीं दादागिरी की इमरजेंसी लागू है , जब कि यहाँ न मार्कंडेय काटजू हैं न मीनाक्षी नटराजन | यह तो वैसा ही हुआ जैसे दो माफियाओं का झगड़ा हो | सरकारी प्रतिबंधों का विरोध इसलिए होता है जिससे इनका आधिपत्य कायम रहे | मैं कल्पना कर सकता हूँ कि इसी कारण लेखक जन इस या उस कस्बे में बस जाते हैं और फिर वहीँ के होकर रह जाते हैं क्योंकि इस धड़ेबाजी की स्थिति में इसके अलावा और कोई चारा नहीं है | उनकी कोई गति ही नहीं  यदि वे इनमे शामिल न हों | सबके पास इतना बूता नहीं होता कि अकेले अपनी लडाई लड़ सकें , या फिर मेरी तरह अन्धकार की गर्त में जाने के लिए कटिबद्ध हों | सबको अपना  भविष्य  बनाना होता हैं , कुछ  का तो कैरियर  भी होता है पर मौलिक प्रश्न तो शेष है कि यह कौन सी समता स्वतंत्रता भाईचारा का नमूना हम स्थापित कर रहे हैं कि किसी से बिना उसका प्रोफाइल पक्का जाने हम हाथ मिलाने या पास बैठने में संकोच करें ? क्या यह उसी प्रकार का छुआछूत नहीं है जिसके खिलाफ गाँधी जैसे परंपरावादी हिन्दू ने भी आन्दोलन चलाया ? कोई महान तरक्की पसंद बुद्धिजीवी बताये कि इसमें और ब्राह्मणवाद में क्या तनिक भी अंतर है जिसको कोसते ये कभी नहीं थकते ? यदि इसे ये उचित मानते हैं तो हमें भी पुनर्विचार करना पड़ेगा कि अपने विस्तृत मानववादी सोच को समय रहते हम भी संकुचित कर लें और अपने सामाजिक व्यवहार को तदनुसार रेशनलाइज [तर्कसंगत ? नहीं समयसंगत ] बना लें | स्वीकार करता हूँ कि उसी को दुनिया ब्राह्मणवाद के नाम से जानती है, और फिर जानेगी  - शठे शाठ्यम समाचरेत | 27/5/12 kwt
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Quote :- “बौद्धिक एवं व्यक्तिगत जीवन में ईमानदारी , प्रतिबद्धता और मूल्यों के प्रति निष्ठां यदि नहीं है तो चाहे आप जिस भी विचारधारा के हों और जिस भी अख़बार में स्तंभकार हों या पुस्तकों को छापने का कारखाना चलाते हों या जितने भी मंचों पर मुख्य अतिथि बनते हों , आप इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिए जायँगे | सच्चरित्रता और जनप्रतिबद्धता बौद्धिकता को स्थायीभाव प्रदान करते हैं | वामपंथ हो या दक्षिणपंथ दोनों को इस आईने में अपनी - अपनी स्थिति का मूल्यांकन करना चाहिए |” - [ राकेश सिन्हा ]  
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* ईश्वर नहीं है , यह तो तय है और ठीक ही है | लेकिन अब मुझे कहना पड़ेगा कि आदमी भी नहीं है | क्या आदमी के अस्तित्व का कोई प्रमाण दिखता है ? क्या यह  जो आदमी है , इसी को आदमी कहते हैं ? होने न होने के बराबर - जब इसका कोई योगदान ही जग के उत्थान में नहीं है ? इस प्रकार , तब तो ईश्वर का होना भी हमें मान लेना चाहिए - उसी प्रकार निरर्थक , अपने नाम का भार ढोता हुआ | तब पूरा वचन होगा - कि इस दुनिया में न आदमी है , न ईश्वर |     kwt
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अभारतीय समाज  [ कोई गर्व / गर्भ नहीं ] Non Indian Society  [गैर-हिन्दुतानी ज़मात]
   कुछ दिन पूर्व हम पति पत्नी के के अस्पताल लखनऊ एक सुदूर सम्बन्धी के नवजात पुत्र को देखने गए थे  | वहां नर्सों ने हमें नेग के लिए परेशान कर डाला | और ५०-५० रुपयों में उनका काम कहाँ चलता है ? अब यहाँ कोलकाता हम अपने पुत्र को देखने आये हैं | वह ओप्रेसन से कार्पोरेट अस्पताल कोलंबिया एसिया में पैदा हुआ है | मैंने पूछा तो पता चला एक पैसा किसी को नहीं देना पड़ा , न देने की इजाज़त थी | अस्पताल वालों ने जो भी लिया , तो वह तो वहां भी खूब लेते हैं | यह फर्क है भारतीय और विदेशी तरीके में  | पुत्री जन्म पर तो वे भी नहीं माँगते , यह एक और लैंगिक विभेद का कारण है | इसी प्रकार जो लोग गर्व से हिंदी हिन्दू हिन्दुस्तानी कहते हैं वे देश का गर्भ - नाश करते हैं | अंग्रेज़ी और उस संस्कृति का विरोध करते हैं इसलिए उनके समय की पाबंदी कर्तव्य निष्ठां, अनुशासन प्रियता  की भी नक़ल नहीं करते | इंडियन टाइम तो मशहूर है , और उस पर वे शर्म नहीं खाते | ऐसे थोड़े हिंदुस्तान गर्त में गया है और आज़ादी का कोई लाभ इसे नहीं मिला , हाँ दुरूपयोग अवश्य हुआ | तिस पर भी पता नहीं क्या है जिस पर ये गर्व करते हैं और हमारे जैसे गर्व रहित लोगों को देश द्रोही बताते हैं | इसलिए , भले हमारा काम कुछ अतिशयोक्ति हो जाता है पर हमें अभारतीय समाज बनना चाहिए - अपनी कमियों का सूक्ष्म विश्लेष्ण और त्याग करना  चाहिए न की उस पर गर्व | और इसके लिए आलोचना सहने को तैयार रहना चाहिए |      kwt
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*जहाँ मैं बैठा था वहां से दस फिट की दूरी पर वह शौच करने बैठ गया नालायक | क्या करता हमारा शौचालय हमसे इतनी ही दूरी पर है !  [ ललित ]
उवाच:-
मेरी जेब खाली है , लेकिन मेरा सिक्का किसी की जेब में नहीं समाता |
[ambiguous]
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कविता :-
दलितों के दोस्त
दलित ही हैं
और कोई नहीं हो सकता ,
उन्हें किसी की हमदर्दी नहीं चाहिए
सवर्णों की सहानुभूति
उन्हें दरकार नहीं
वे छलिये , शोषक , धोखेबाज हैं |
तो दलितों के हितैषी
दलित ही हो सकते हैं -
वह भी दलित पुरुष
स्त्रियाँ भी हों तो हों
पर दिखतीं नहीं
सारे दलित पुरुष
कवि-कथाकार -चिन्तक '
एक्टिविस्ट मैदान में हैं |
सवर्ण भी पीछे -पीछे पूँछ हिला रहे हैं
दलित आन्दोलन में घुसने के लिए
पर वहाँ उनकी कोई पूँछ नहीं है ,
हो ही नहीं सकती
दलितों के समर्थक , दलितों के दोस्त
सिर्फ दलित हो सकते हैं
दलितों के दुश्मन भी दलित ही होंगे | 26/5/12-Kolkata
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[ हाइकु]
* बच्चे खेलते
बच्चे मेरा खिलौना
हम खेलते |

*मेरा ख्याल है
बंद होना चाहिए
यह नाटक |

* हम लोग तो
हारे हुए योद्धा हैं
जो भी सजा दो |

* ईश्वर है न
वर्ना कैसे रहतीं
जातियाँ - धर्म ?

* वर्जित फल
खाओगे तो क्या पुण्य
फल पाओगे ?

* स्वर्ग जाना है
वर्जित फल खाओ
मौज उड़ाओ |

*दर्द मुझे है
दुखी , दोस्त होते हैं
फेसबुक के |

* अभी नहाया
अभी फिर हो गया
बदन तवा |

* छोडो , जाने दो
दिन  का सपना है
सच न होगा |

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[ उपन्यास अंश ]

- वह श्रेष्ठता- भाव से पीड़ित है |
- वह ब्राह्मण होगा !
- हो सकता है ,
  नहीं भी हो सकता है |
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[ शेर ? ]
लगा तो मैं भी लूँ अपने कमरों में ए.सी ,
मगर मैं अपने घर से तब निकल न पाऊँगा |

* [ शेर ? ]
सुनेगा बात वह मेरी , जिसे बरबाद होना है ;
और जो हो चुका बरबाद, सुनेगा बात वह मेरी |
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OR -
सुनेगा बात वह मेरी , जिसे बरबाद होना है ;
और जो हो चुका बरबाद, मेरी बात सुनता है |

मैं अपने आप पर , मुँह क्या खोलूँ ,
कमीना आदमी है , क्या बोलूँ ?
[ कमीने आदमी से, क्या बोलूँ  ? ]

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कविता :-

कोई बहुत बड़ी आफत हो
तो रोयें भी '
चीखें - चिल्लाएँ
अब भला
इतनी सी बात पर  ---  ?
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[उवाच ]
* ब्राह्मणवाद क्या ख़ाक सफल हुआ ! यह सब के सर पर बराबर सवार है फिर भी सबकी गालियाँ खा रहा है | उधर उस नए - नए साम्यवाद को देखिये | दुनिया में कहीं लागू नहीं है , फिर भी यह सबकी प्रशंसा का पात्र है |    kwt
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मुझे थोड़ी चिंता है कि कुछ लोग सिर्फ शूद्रों / सवर्णों की ही भाषा में बात करते हैं | ठीक है कि वह भी  हकीकत है,पर जहाँ तक उसकी सीमा है उसी में उसको बंद रखिये | वे यह समझ ही नहीं पाते कि ब्राह्मण कुछ भी कहता रहे , शूद्र भी मनुष्य हैं, अपनी अच्छाइयों - बुराइयों  के साथ [ और इस प्रकार वे ब्राह्मण की अवधारणा और उसके औचित्य को ही सिद्ध करते हैं ] | और सवर्ण भी अपनी अज्ञानता - सांस्कारिक  गुलामी के अधीन एक मनुष्य ही है | व्यवहार में ब्राह्मण भी शूद्र है , और शूद्र भी उसकी स्थिति में होता तो ब्राह्मण ही होता! अब तो यह भी आश्चर्य करने की इच्छा  नहीं होती कि द्वंद्वात्मक भौतिकवादी भी , जो कि मनुष्य के निर्माण का दोष या श्रेय सामाजिक स्थितियों -परिस्थितियों को देते हैं , वे भी ब्राह्मण / शूद्र की उत्पत्ति उनके जन्म से मानते हैं | ज़ाहिर है , तब हम मूर्खों की सोच में ही कही कोई कमी होगी | तिस पर भी --
- ख्याल आया कि क्यों न हम सवर्णों की एक संस्था " शूद्र " बनायें , और घोषित करें -हम जन्म से नहीं कर्म से शूद्र हैं | निजी रूप से मैं तो सचमुच नीच व्यवहार अपनाने के पक्ष में हूँ जिससे हम पवित्रात्माओं की गालियाँ पायें और हमारा किंचित भी अवशेष अहंकार तिल -तिल कर तिरोहित हो | विवशता है कि हम दलितों की कोई संस्था नहीं बना सकते , हम अविश्वसनीय हो चुके हैं | पर सोच तो सकते हैं कि यदि हम शूद्र होते तो अपने को इसी व्यवस्था में क्यों न जनतांत्रिक अधिकारपूर्वक  ब्राह्मण घोषित कर देते ? हट ब्राह्मण ! सिंहासन खाली कर कि शूद्र जन आते हैं ? 28/5/12     kwt

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