मुझे लगता है कि मेरे शरीर को कुछ होने वाला है | बहुत दिनों से मित्रों से कह रहा हूँ कि मेरी obituary [शोक सन्देश] लिख डालो | बहुत ' प्रिय ' संपादन किया है तो
उसका भी प्रूफ देख दूँ , कोई व्याकरणीय चूक
सुधार दूँ , कहीं कोई गलती न रह
जाय | भाषा-शैली का पूर्व-रसास्वादन
कर लूँ | | और इस बहाने आश्वस्त भी हो लूँ कि हाँ मेरे लिए
भी शोकसभा संभावित है , जैसा कि मैं तमाम शोक
सभाओं में मैं भी तो जाता रहता हूँ | पर कोई लिखता ही नहीं, जब कि लिखना सब जानते
हैं |अच्छे भले बड़े कवि-
लेखक -पत्रकार हैं | अब इसके लिए कोई ज़बरदस्ती
तो की नहीं जा सकती, वरना ये लिख देंगे
कि वह [मैं] बहुत अशिष्ट - निकृष्ट आदमी था | इसलिए मेरा ऐसे ही सूखे-सूखे चला जाना
मेरे लिए श्रेय होगा | तथापि सोचता हूँ कि स्वयं ही इस सम्बन्ध में कुछ कवितायेँ
प्रस्तुत कर दूँ और संतुष्ट हो लूँ !
* एक सही
वर्तनी हो तुम ,
प्रूफ की
तमाम गलतियाँ हूँ मैं |
* अभी कितनी घृणा कर
लो मुझसे
छीन ही लूँगा मैं तुमसे
दो मिनट का मौन
अपनी मृत्यु के पश्चात् |
* मैं मरूँगा नहीं
मैं अपनी माँ के पास जाउँगा
पीछे से चुपचाप उसका
आँचल पकड़ लूँगा ,
वह चौंक कर देखेगी
और मुझे अपने गले लगा लेगी |
* नागरिक
कुछ कह गया
कुछ कर गया ,
एक अच्छा आदमी था
मर गया |
* अब वासांसि जीर्णानि
तो मैं लिखने से रहा ,
मेरे जीर्ण वस्त्र होंगे
मेरे मित्र ,
शीर्ण होंगे मुझे
पढ़ने वाले |
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फेसबुक पर लोग हा --हा --हा --हा लिखा करते हैं | मैं नागरी वर्णमाला के अनुसार 'ह' अक्षर की बारहखड़ी ही लिखे दे रहा हूँ =
ह - हा - हि - ही - हु - हू - हे -है - हो - हौ - हं - हः |
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[ विचारार्थ ]
१ - मैं आश्चर्यचकित हूँ कि ये इमारतें { धर्म और ईश्वर की } , ये पिरामिड आखिर टिके कैसे हुए हैं ? जब कि इनके आधार केवल
रेत और बालू है , और कहीं -कहीं तो वः
भी नहीं है |
२ - मेरा ख्याल है सचमुच आदमी [ पुरुष ] को घोंघा हो जाना चाहिए | अपने सारे अंग उसे
सिकोड़ लेने चाहिए | उधर हम घोंघावसंत होने
की वकालत पहले ही कर चुके हैं | औरतों की सारी सफलता का राज़ यही है |
३ - सरकार टैक्स लगती है और वह सारा पैसा उसके कर्मचारी खींच ले जाते हैं |
४ - ह्रदय को तो नज़रअंदाज़ कर भी सकता हूँ , पर मैं अपनी बुद्धि के आदेश को टाल नहीं सकता |
५ - मेरा ख्याल है , उनकी सामाजिक स्थिति
को देखते हुए मुसलमानों को भारत में सवर्णों की श्रेणी में रखा जाना चाहिए , और उन्हें सवर्णों
के समान सेवाएं और सुविधाएँ दी जानी चाहिए |
६ - कुछ याद किया जाना चाहिए हिन्दू दलितों ने कितनी मनुस्मृतियाँ जलायीं , ब्राह्मणों को - बाबा
तुलसीदास, राम चरित मानस , देवी -देवताओं को कितनी
गालियाँ दीं ? तब जाकर अब
कहीं उन्हें थोडा आरक्षण मिल पाया | यहाँ तक कि उन्होंने
हिन्दू धर्म त्यागने की भी धमकी दी और छोड़ा
भी | दूसरी तरफ मुस्लिम भाई
कभी इस्लाम के विरोध में नहीं गए , कभी किंचित
भी आलोचना , उसकी शिकायत नहीं की
| वे बड़े गर्व से मुस्लिम बने रहे और कुरआन अथवा मोहम्मद
साहेब की प्रतिष्ठा पर कोई आँच आती दिखी तो
उन्होंने सड़कों पर निकलकर हंगामा भी किया | गरीब भले हों पर
ब्राह्मणों की भाँति उन्हें भी गुमान है कि वे हज़ार वर्ष हिंदुस्तान के शासक रहे | फिर उन्हें आरक्षण क्यों ? सवाल यह भी है कि इतने
कथित समतावादी धर्म में होकर और साथी मुसलमानों के पास इतने धन -दौलत एवं ज़कात
की व्यवस्था होते हुए वे गरीब कैसे रह गए ? दलित प्रथा हिन्दुओं
की बुराई और समस्या है | सवर्ण समाज अपने पुरखों
के पापों की भरपाई अपने दलित वर्ग को तो आरक्षण
देकर कर सकता है , पर उसने मुसलमानों
पर तो कोई जुल्म नहीं धाय ! बल्कि वह तो उनके
अधीन रिआया ही रहा ? फिर वह उन्हें आरक्षण
को समर्थन क्यों दे ? आज़ादी का नाजायज़ फायदा तो मत उठाओ
भाई !
७ - मैं पाता हूँ कि ब्राह्मणवाद एक शाश्वत व्यवस्था है | इसे किसी ने नहीं बनाया
| यह अपने आप स्वाभाविक
और प्राकृतिक रूप से बनती गयी , जिसका टूटना दूर - दूर तक कहीं संभव नहीं दिखता | क्योंकि यह "
भेद " पर आधारित है जो कि वैज्ञानिक विधि है और मानव स्वाभाव के सर्न्था अनुकूल
| तब दुसरे चातुर्वर्ण
थे , अब चतुर्थ श्रेणी तक
के कर्म्चाहरी हैं | पहले पंडित जी ब्राह्मण
थे , अब ब्राह्मण होंगी
| पाला भले बदल जाय पर
व्यवस्था नहीं | अभी देखिये , कोई कवी चार पंक्ति
का एक मुक्तक लिख लेता है वह अपने आप को कालिदास से कम नहीं समझता | किसी ने एक मुक्त कविता
कर ली तो उसे आप मुक्तिबोध से कम समझने की गुस्ताखी नहीं कर सकते ! यही ब्राह्मणवाद
है , श्रेष्ठता के दंभ का
दर्शन | और यह मानव स्वभाव
का स्थायी भाव है | इसलिए ब्राह्मणवाद
को गाली देने में समय न गवाँकर इसका कोई सार्थक उपयोग करने की बात सोची जानी चाहिए
| 26/6/12
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धार्मिक भावना रखने वालो , सावधान !
अब एक उजड्ड जनता आने वाली है |
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जिसको आना था
जब वही नहीं आया ,
तब कोई भी आये |
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[ संवाद ]
- यह बताइए सेठ जी , इन लोगों की इतनी दुर्दशा
क्यों है ?
= इनके भाग्य ही ऐसे
हैं |
- तो यह समझ लीजिये कि अब आपका भाग्य वैसा ही होने वाला है |
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[ उपन्यास अंश ]
वे क्लास - कास्ट कुछ नहीं मानते | वे रेल में जनरल से लेकर स्लीपर , एसी-१, एसी-२ , एसी-३ किसी भी तरह
के डिब्बे में निःसंकोच घुस जाते हैं और निर्द्वंद्व यात्रा करते हैं |
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[ विचारणीय ]
१ - राजनीति तुलनात्मक प्रतियोगिता का खेल है -
समय सापेक्ष | इसमें निरपेक्ष और
शाश्वत कुछ नहीं |
२ - हालत यह हो गयी है कि अब तो धर्म के बगैर धर्मनिरपेक्ष [ secular ] भी नहीं हुआ जा सकता
!
३ - ठीक बात है , जिसको राज्य करना हो
वह मांस - मछली खाए , बन्दूक चलाये , हिंसा करे | हम तो चींटी भी नहीं
मारते |
४ - जिसकी तरक्की रोकनी हो ,आगे न बढ़ने
देना हो , उसे राष्ट्रीयता का
वास्ता देकर उकसा दो कि वह मात्र अपनी मातृभाषा में पढ़े और अंग्रेज़ी से नफ़रत करे
|
५ - सच तो ज़रूर बोलते हैं हम , बीएस उन कुछ स्थितियों को छोड़कर जहाँ हमें अपनी कमजोरी या मजबूरी
स्वीकार करनी होती है |
६ - अल्लाह सिर्फ ईश्वर का नाम नहीं , किसी उच्चतम जीवन लक्ष्य और सम्बल-आश्रय का भी तो नाम है !
७ - एक कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी - कर्मचारी का मुकाबला बड़े से बड़ा नेता, साधु संत भी नहीं कर
सकता |
८ - अंग्रेज़ी राज्य इससे बेहतर था , यह कहना ठीक नहीं है | बल्कि गुलामी की दशा में यह देश स्वयं ही ठीक रहता है , ऐसा कहना ज्यादा सही
है | 26/6/12
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गुलामी कुछ भी नहीं है , यह तो human protocol का एक हिस्सा है | क्या VIP
अपने मन से कुछ भी खा -पी सकते हैं , बिना सुरक्षा की अनुमति के , कहीं भी आ - जा सकते हैं ? उसी प्रकार गुलाम का जीवन भी कुछ -कुछ प्रतिबंधित
होता है | वरना वे होते तो VVIP हैं |
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१ - खूब लगाता
मन नहीं लगता
लेकिन यहाँ |
२ - ख़ैर मनायेगी
कब तक बकरी
बकरे की माँ ?
३ - साथ निभाया
जहाँ तक हो सका
नहीं तो नहीं |
४ - पछ्ताऊँगा
पछताना तो मुझे
होगा ही होगा
हर हाल में
मैं जीतूँ या हारूँ
इस जंग में |
५ - बुरा लगता
औरतों का सजना
भला क्यों मुझे ?
६ - इतना बड़ा
कठोर कालखण्ड
बड़ा सताता |
७ - क्या - क्या होता है
यवनिका के पृष्ठ ( पीछे )
तुम क्या जानो ?
८ - गेहूँ के साथ
घुन भी पिस गया
यही समझो |
9- लिखता जाता
कहाँ ख़त्म हो पाता
तुम्हारा किस्सा !
10- नाराज़ किया
खुश भी किया होगा
मेरे लेखों ने !
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जब मेरी अम्मा ने अपना जीवन काट दिया
, और मरी तो अपने मन
से | जब कि तब न तो ढंग
से जलौनी ईंधन था , न गेहूं पीसने - धान
कूटने की मशीन | तब तो प्रेशर कुकर
भी नहीं था | नहीं था बर्तन माँजने
के लिए विम साबुन , न हरे रंग का मंजना
| अब तो यह सब साधन
-सुविधाएँ मौजूद हैं | फिर मेरी पत्नी , लडकी , बहू इतनी झिकझिक क्यों
करती हैं |
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मेरा सच्चा जीवन साथी - एक छोटा सा प्रेशर कुकर |
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* कुछ नए वाद मेरे मस्तिष्क
में हैं | क्या उनके आधार पर
कोई राजनीति या दर्शन की शाखा चलायी जा सकती है ? जैसे - धन्यवाद , अपवाद , बकवाद , संवाद , जव्वाद , और एक है मवाद |
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जिसे कुछ न्याय की आशा हो वह अपील करे ;
मैं तो कातिल के भरोसे हूँ , अब वह जो भी करे |26/6/12
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