शनिवार, 25 अगस्त 2012

26-06-2012


मुझे लगता है कि मेरे शरीर को कुछ होने वाला है | बहुत दिनों से मित्रों से कह रहा हूँ कि मेरी obituary [शोक सन्देश] लिख डालो | बहुत ' प्रिय ' संपादन किया है तो उसका भी प्रूफ देख दूँ , कोई व्याकरणीय चूक सुधार दूँ , कहीं कोई गलती न रह जाय | भाषा-शैली का पूर्व-रसास्वादन कर लूँ |  | और इस बहाने आश्वस्त भी हो लूँ कि हाँ मेरे लिए भी शोकसभा संभावित है , जैसा कि मैं तमाम शोक सभाओं में मैं भी तो जाता रहता हूँ | पर कोई लिखता ही नहीं, जब कि लिखना सब जानते हैं |अच्छे भले बड़े कवि- लेखक -पत्रकार हैं | अब इसके लिए कोई ज़बरदस्ती तो की नहीं जा सकती, वरना ये लिख देंगे कि वह [मैं] बहुत अशिष्ट - निकृष्ट आदमी था | इसलिए मेरा ऐसे ही सूखे-सूखे  चला जाना मेरे लिए श्रेय होगा | तथापि  सोचता हूँ कि स्वयं ही इस सम्बन्ध में कुछ कवितायेँ प्रस्तुत कर दूँ और संतुष्ट हो लूँ !
* एक सही
  वर्तनी हो तुम ,
  प्रूफ की
  तमाम गलतियाँ हूँ मैं |

* अभी कितनी घृणा कर लो मुझसे
  छीन ही लूँगा मैं तुमसे
  दो मिनट का मौन
  अपनी मृत्यु के पश्चात् |

* मैं मरूँगा नहीं
  मैं अपनी माँ के पास जाउँगा
  पीछे से चुपचाप उसका
  आँचल पकड़ लूँगा ,
  वह चौंक कर  देखेगी
  और मुझे अपने गले लगा लेगी |

* नागरिक
  कुछ कह गया
  कुछ कर गया ,
  एक अच्छा आदमी था
  मर गया |

* अब वासांसि जीर्णानि
  तो मैं लिखने से रहा ,
   मेरे जीर्ण वस्त्र होंगे
  मेरे मित्र ,
   शीर्ण होंगे मुझे
  पढ़ने वाले |
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फेसबुक पर लोग हा --हा --हा --हा लिखा करते हैं | मैं नागरी वर्णमाला के अनुसार '' अक्षर की बारहखड़ी ही लिखे दे रहा हूँ =
ह - हा - हि - ही - हु - हू - हे -है - हो - हौ - हं - हः   |
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[ विचारार्थ ]
१ - मैं आश्चर्यचकित हूँ कि ये इमारतें { धर्म और ईश्वर की } , ये पिरामिड आखिर टिके कैसे हुए हैं ? जब कि इनके आधार केवल रेत और बालू है , और कहीं -कहीं तो वः भी नहीं है |

२ - मेरा ख्याल है सचमुच आदमी [ पुरुष ] को घोंघा हो जाना चाहिए | अपने सारे अंग उसे सिकोड़ लेने चाहिए | उधर हम घोंघावसंत होने की वकालत पहले ही कर चुके हैं | औरतों की सारी सफलता का राज़ यही है |

३ - सरकार टैक्स लगती है और वह सारा पैसा उसके कर्मचारी खींच ले जाते हैं |

४ - ह्रदय को तो नज़रअंदाज़ कर भी सकता हूँ , पर मैं अपनी बुद्धि के आदेश को टाल नहीं सकता |

५ - मेरा ख्याल है , उनकी सामाजिक स्थिति को देखते हुए मुसलमानों को भारत में सवर्णों की श्रेणी में रखा जाना चाहिए , और उन्हें सवर्णों के समान सेवाएं और सुविधाएँ दी जानी चाहिए |

६ - कुछ याद किया जाना चाहिए हिन्दू दलितों ने कितनी मनुस्मृतियाँ जलायीं , ब्राह्मणों को - बाबा तुलसीदास, राम चरित मानस , देवी -देवताओं को कितनी गालियाँ दीं ? तब  जाकर  अब कहीं उन्हें थोडा आरक्षण  मिल  पाया | यहाँ तक कि उन्होंने  हिन्दू धर्म त्यागने  की भी धमकी  दी और छोड़ा  भी | दूसरी तरफ  मुस्लिम भाई  कभी  इस्लाम  के विरोध में नहीं गए , कभी  किंचित  भी आलोचना , उसकी शिकायत नहीं की | वे बड़े  गर्व से मुस्लिम बने रहे और कुरआन अथवा मोहम्मद साहेब की प्रतिष्ठा  पर कोई आँच आती दिखी तो उन्होंने सड़कों  पर निकलकर हंगामा भी किया | गरीब भले  हों  पर ब्राह्मणों की भाँति उन्हें भी गुमान है कि वे हज़ार वर्ष हिंदुस्तान के शासक रहे | फिर उन्हें आरक्षण  क्यों ? सवाल यह भी है कि इतने  कथित समतावादी धर्म में होकर और साथी मुसलमानों के पास इतने धन -दौलत एवं ज़कात की व्यवस्था होते हुए वे गरीब कैसे रह गए ? दलित प्रथा  हिन्दुओं की बुराई और समस्या है | सवर्ण समाज अपने पुरखों के पापों  की भरपाई अपने दलित वर्ग को तो आरक्षण देकर कर सकता है , पर उसने मुसलमानों पर तो कोई जुल्म नहीं धाय ! बल्कि वह तो उनके  अधीन रिआया ही रहा ? फिर वह उन्हें आरक्षण को समर्थन क्यों दे ? आज़ादी का नाजायज़ फायदा  तो मत उठाओ  भाई !

७ - मैं पाता हूँ कि ब्राह्मणवाद एक शाश्वत व्यवस्था है | इसे किसी ने नहीं बनाया | यह अपने आप स्वाभाविक और प्राकृतिक रूप से बनती गयी , जिसका टूटना दूर - दूर तक कहीं संभव नहीं दिखता | क्योंकि यह " भेद " पर आधारित है जो कि वैज्ञानिक विधि है और मानव स्वाभाव के सर्न्था अनुकूल | तब दुसरे चातुर्वर्ण थे , अब चतुर्थ श्रेणी तक के कर्म्चाहरी हैं | पहले पंडित जी ब्राह्मण थे , अब ब्राह्मण होंगी | पाला भले बदल जाय पर व्यवस्था नहीं | अभी देखिये , कोई कवी चार पंक्ति का एक मुक्तक लिख लेता है वह अपने आप को कालिदास से कम नहीं समझता | किसी ने एक मुक्त कविता कर ली तो उसे आप मुक्तिबोध से कम समझने की गुस्ताखी नहीं कर सकते ! यही ब्राह्मणवाद है , श्रेष्ठता के दंभ का दर्शन | और यह मानव स्वभाव का स्थायी भाव है | इसलिए ब्राह्मणवाद को गाली देने में समय न गवाँकर इसका कोई सार्थक उपयोग करने की बात सोची जानी चाहिए |     26/6/12
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धार्मिक भावना रखने वालो , सावधान !
अब एक उजड्ड जनता आने वाली  है |
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जिसको आना था
जब वही नहीं आया ,
तब कोई भी आये |
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[ संवाद ]
- यह बताइए सेठ जी , इन लोगों की इतनी दुर्दशा क्यों है ?
= इनके भाग्य ही ऐसे हैं |
- तो यह समझ लीजिये  कि अब आपका भाग्य वैसा ही होने वाला है |
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[ उपन्यास अंश ]
वे क्लास - कास्ट कुछ नहीं मानते | वे रेल में जनरल से लेकर स्लीपर , एसी-१, एसी-२ , एसी-३ किसी भी तरह के डिब्बे में निःसंकोच घुस जाते हैं और निर्द्वंद्व यात्रा करते हैं |
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[ विचारणीय ]
 १ - राजनीति तुलनात्मक प्रतियोगिता का खेल है - समय सापेक्ष | इसमें निरपेक्ष और शाश्वत कुछ नहीं |

२ - हालत यह हो गयी है कि अब तो धर्म के बगैर धर्मनिरपेक्ष [ secular ] भी नहीं हुआ जा सकता !

३ - ठीक बात है , जिसको राज्य करना हो वह मांस - मछली खाए , बन्दूक चलाये , हिंसा करे | हम तो चींटी भी नहीं मारते |

४ - जिसकी तरक्की रोकनी हो ,आगे न बढ़ने देना हो , उसे राष्ट्रीयता का वास्ता देकर उकसा दो कि वह मात्र अपनी मातृभाषा में पढ़े और अंग्रेज़ी से नफ़रत करे |

५ - सच तो ज़रूर बोलते हैं हम , बीएस उन कुछ स्थितियों को छोड़कर जहाँ हमें अपनी कमजोरी या मजबूरी स्वीकार करनी होती है |

६ - अल्लाह सिर्फ ईश्वर का नाम नहीं , किसी उच्चतम जीवन लक्ष्य और सम्बल-आश्रय का भी तो नाम है !

७ - एक कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी - कर्मचारी का मुकाबला बड़े से बड़ा नेता, साधु संत भी नहीं कर सकता |

८ - अंग्रेज़ी राज्य इससे बेहतर था , यह कहना ठीक नहीं है | बल्कि गुलामी की दशा में यह देश स्वयं ही ठीक रहता है , ऐसा कहना ज्यादा सही है |   26/6/12
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गुलामी कुछ भी नहीं है , यह तो human protocol का एक हिस्सा है | क्या VIP
अपने मन से कुछ भी  खा -पी सकते हैं , बिना सुरक्षा की अनुमति के , कहीं भी आ - जा सकते हैं ? उसी प्रकार गुलाम का जीवन भी कुछ -कुछ प्रतिबंधित होता है | वरना वे होते तो VVIP  हैं |
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१ - खूब लगाता
मन नहीं लगता
लेकिन यहाँ |

२ - ख़ैर मनायेगी
कब तक बकरी
बकरे की माँ ?

३ - साथ निभाया
जहाँ तक हो सका
नहीं तो नहीं |

४ - पछ्ताऊँगा
पछताना तो मुझे
होगा ही होगा
हर हाल में
मैं जीतूँ या हारूँ
इस जंग में |

५ - बुरा लगता
औरतों का सजना
भला क्यों मुझे ?

६ - इतना बड़ा
कठोर कालखण्ड
बड़ा सताता |

७ - क्या - क्या होता है
यवनिका के पृष्ठ ( पीछे )
तुम क्या जानो ?

८ - गेहूँ के साथ
घुन भी पिस गया
यही समझो |


9- लिखता जाता
कहाँ ख़त्म हो पाता
तुम्हारा किस्सा !

10- नाराज़ किया
खुश भी किया होगा
मेरे लेखों ने !
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  जब मेरी अम्मा ने अपना जीवन काट दिया , और मरी तो अपने मन से | जब कि तब न तो ढंग से जलौनी ईंधन था , न गेहूं पीसने - धान कूटने की मशीन | तब तो प्रेशर कुकर भी नहीं था | नहीं था बर्तन माँजने के लिए विम साबुन , न हरे रंग का मंजना | अब तो यह सब साधन -सुविधाएँ मौजूद हैं | फिर मेरी पत्नी , लडकी , बहू इतनी झिकझिक क्यों करती हैं |
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मेरा सच्चा जीवन साथी - एक छोटा सा प्रेशर कुकर |
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* कुछ नए वाद मेरे मस्तिष्क में हैं | क्या उनके आधार पर कोई राजनीति या दर्शन की शाखा चलायी जा सकती है ? जैसे - धन्यवाद , अपवाद , बकवाद , संवाद , जव्वाद , और एक है मवाद |
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जिसे कुछ न्याय की आशा हो वह अपील करे ;
मैं तो कातिल के भरोसे हूँ , अब वह जो भी करे |26/6/12

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